झारखण्ड में भारतीय जनता पार्टी की जीत के बारे में अनुमान लगना कोई राकेट साइंस नहीं था. एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी थे जो अपनी पार्टी भारतीय जनता पार्टी की कमियों के बावजूद जनता को लुभा रहे थे तो दूसरी तरफ अवसादग्रस्त कांग्रेस थी और उसके साथ हीं आदिवासी वोटों को बंटती क्षेत्रीय पार्टियाँ थीं.
नए राज्य के रूप १४ सालों में नौ मुख्यमंत्री और तीन बार राष्ट्रपति शासन याने एक शासन काल औसतन १३ महीने का. मानव विकास सूचकांक पर २४वेन पायदान पर. भ्रष्टाचार में कई मुख्यमंत्री जेल में तो कई पर गंभीर आरोप. सारे के सारे आदिवासी मुख्यमंत्री और इनमें से अधिकांश समय भारतीय जनता पार्टी का शासन. फिर भी अगर जनता ने इस पार्टी को चुना तो इसे सामाजशास्त्र और चुनाव शास्त्र के नए पैमाने पर देखना होगा. पूरे चुनाव में लगभग यह भी संकेत मिलते रहे कि भारतीय जनता पार्टी अबकी बार आदिवासी मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं करेगी. फिर मोदी पर इतना विश्वास क्यों?
इन प्रश्नों के उत्तर जानने के पहले हमें कुछ अन्य तथ्य समझने होंगे. भारत में प्रचलित चुनाव पध्यति -- फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (एफ पी टी पी)— की एक बड़ी खराबी है किसी पार्टी के पड़े मतों के प्रतिशत और हासिल हुआ सीटों के प्रतिशत में कोई अनुपात नहीं होता. कई बार किसी पार्टी को पिछले चुनाव से ज्यादा मत प्रतिशत मिलते हैं लेकिन सीटें घट जाती है और कई बार मत प्रतिशत कम हो जाता है लेकिन सीटें बढ़ जाती हैं. आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मत मिले ३१ प्रतिशत लेकिन सीटें ५२ प्रतिशत. झारखण्ड में भी यही स्थिति रही है. भारतीय जनता पार्टी की सीटें जीतने और मत प्रतिशत हासिल करने में अनुपात वही नहीं रहा.
यहाँ दो किस्म के विश्लेषण किये जाते हैं. यह बात सहीं है कि आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को कुल ८१ सीटों में से ५६ सीटों पर बढ़त मिली थी लेकिन विधान सभा में इन सभी सीटें जीत नहीं रहीं. साथ हीं मत प्रतिशत भी आम चुनाव के मुकाबले १३ प्रतिशत कम रहा. लेकिन तर्क-शास्त्र का तकाजा है कि हम तुलनेय के बीच हीं तुलना करते हैं और इस अधर पर हमें पिछले विधान सभा में बी जी पी की क्या स्थिति रही थी इसके मुकाबले अब की बार पार्टी कहाँ है यह देखना होगा. और तब हम यह कह सकते हैं कि जहाँ झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (जी एम् एम् ) ने आदिवासी क्षेत्रों में मोदी के प्रभाव को काफी हद तक प्रभावहीन किया और वह सत्ता में रहने के बावजूद वहीं तमाम आदिवासी नेता चुनाव हारे भी.
इस चुनाव का सबसे बड़े सन्देश यह है कि महज आदिवादी नेता होना अब २८ प्रतिशत आदिवासियों का वोट हासिल करने का दारोमदार नहीं रहा. शायद आदिवादी आज अपने को इन नेताओं द्वारा ठगा महसूस कर रहे हैं.
झारखण्ड चुनाव के नतीजों को भी इससे चश्में से देखना होगा. एफ पी टी पी के सबसे अच्छे परिणाम तब आते है जब एक तरफ एक मजबूत राजनीतिक दल या नेता की स्वीकार्यता हो तो दूसरी तरफ उतना हीं सुगठित विरोधी एकता हो. इस चुनाव में या आम चुनाव में भी एक तरफ मोदी एक जबरदस्त जन स्वीकार्यता ले कर विकल्प के रूप में रहे तो दूसरी तरह इस स्वीकार्यता को प्रभावहीन करने का विकल्प रहा हीं नहीं. या रहा तो बंटा रहा. आदिवासी नेताओं की अपनी विश्वसनीयता ख़त्म होती गयी और वे आपस में बंटे रहे जिसकी वजह से १४ सालों में मात्र अस्थिरता, भ्रष्टाचार और कुशासन का बोल-बाला रहा.
झारखण्ड आदिवासी बाहुल्य (२८ प्रतिशत) वाला राज्य है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एन सी आर बी) के आंकड़ों के अनुसार यहाँ हर छह दिन में एक औरत को, जो मनोविकार से पीड़ित है और जिसे मनो-चिकित्सक द्वारा इलाज की दरकार है पत्थरों से या अन्य रूप से सामूहिक तौर पर मार दी जाती है यह मानते हुए कि वह डायन है और पूर गोंव को खा जायेगी. याने समाज का एक वर्ग है जो अभी भी चेतना, अपेक्षित जानकारी और तर्क-शक्ति के स्तर पर बेहद नीचे है और लम्बे समय से शोषण का शिकार रहा है. अलग राज्य की मांग एल लम्बे समय से जाली आ रही थी जिसे १४ साल पहले अंजाम दिया गया. आदिवासी नेता उभरे सत्ता में आये, अधिकांश ने भ्रष्टाचार किया. आदिवासी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए देश के हर कोने का शोषक यहाँ डेरा डालने लगा. नतीज़तन आदिवासियों का प्रतिशत कम होता रहा. गरीबी बढ़ती रही.
ऐसे में जो राजनीतिक व्यवहार शहरी या बाहर से आये वर्ग का हो वही यहाँ के मूल निवासियों यह एक पहेली है. संपन्न शहरी वर्ग या गैर-आदिवासी भी भारतीय जनता पार्टी या उसके नेता नरेन्द्र मोदी को वोट दे और दूसरी तरफ आदिवासी भी इसको चुनाव विज्ञान की दृष्टि से समझना कुछ दुरूह कार्य है.
प्रश्न यह है कि अगर भारतीय जनता पार्टी १४ सालों में ज्यादातर समय शासन में रही और आदिवासी मुख्यमंत्री रहे, फिर भी अपनी सारी कमियों के बावजूद जनता ने मोदी पर इतना विश्वास क्यूं किया? इसमें कोई दो राय नहीं है कि झारखण्ड की जनता ने पूरे देश की तरह हीं मोदी को भारतीय जनता पार्टी के नेता के रूप में नहीं बल्कि एक परा-पार्टी नेतृत्व के रूप में देखा याने पार्टी की नकारत्मक छवि मोदी की छवि को धूमिल नहीं कर पाई .
दूसरी ओर जो वर्ग इस पार्टी की कमियों से नाराज था (और वह एक बड़ा वर्ग रहा है) उसे यह नहीं समझ में आ रहा था कि वह किसे विकल्प के रूप में चुने जो मोदी से बेहतर हो. कांग्रेस को पूरे चुनाव के दौरान लकवाग्रस्त पाया गया. बाकि पार्टियों में बिखराव अपनी चरम पर था.
बिहार में नीतीश कुमार ने जहाँ इस स्थिति को पहचान लिया और इस बिखराव को रोकने के लिए और सषक विकल्प देने के लिए अपने धुर –विरोधी लालू प्रसाद यादव से चुनाव के डेढ़ साल पहले हीं हाथ मिला लिया झारखण्ड के गैर-भाजपा नेताओं में यह विवेक नहीं दिखा. कांग्रेस यह कार्य कर सकती थी लेकिन वह कहीं मरणासन्न अवस्था में कोने में सिमटी दिखाई दी .
भारतीय जनता पार्टी की इस जीत के पीछे संघ का वर्षों का कार्य भी एक नियामक भूमिका में रहा है. और अब केंद्र के समर्थन से शायद मोदी और पार्टी की एक-सूत्रीय कार्य होगा नक्सलवाद को ख़त्म करना. इसके लिए जो भी बल प्रयोग करना पड़े या प्रभावित क्षेत्रों में विकास करना पड़े न नयी सरकार करेगी ताकि देश भर में एक सन्देश जाये और दूसरी और संघ अपने प्रभाव को आदिवासी क्षेत्रों में और विस्तृत कर पाए.
लेकिन मोदी की व्यापक जन-स्वीकार्यता के पीछे का एक कारक और है जो भूलना नहीं चाहिए. वह यह कि जहाँ भी चुनाव हो रहे हैं वहां भाजपा शासन में नहीं रही है इसे एंटी-इन्कोम्बेन्सी का दंश नहीं झेलना पडा है. असली टेस्ट तब होगा जब भाजपा शासन के बाद चुनाव हो.
lokmat
नए राज्य के रूप १४ सालों में नौ मुख्यमंत्री और तीन बार राष्ट्रपति शासन याने एक शासन काल औसतन १३ महीने का. मानव विकास सूचकांक पर २४वेन पायदान पर. भ्रष्टाचार में कई मुख्यमंत्री जेल में तो कई पर गंभीर आरोप. सारे के सारे आदिवासी मुख्यमंत्री और इनमें से अधिकांश समय भारतीय जनता पार्टी का शासन. फिर भी अगर जनता ने इस पार्टी को चुना तो इसे सामाजशास्त्र और चुनाव शास्त्र के नए पैमाने पर देखना होगा. पूरे चुनाव में लगभग यह भी संकेत मिलते रहे कि भारतीय जनता पार्टी अबकी बार आदिवासी मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं करेगी. फिर मोदी पर इतना विश्वास क्यों?
इन प्रश्नों के उत्तर जानने के पहले हमें कुछ अन्य तथ्य समझने होंगे. भारत में प्रचलित चुनाव पध्यति -- फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (एफ पी टी पी)— की एक बड़ी खराबी है किसी पार्टी के पड़े मतों के प्रतिशत और हासिल हुआ सीटों के प्रतिशत में कोई अनुपात नहीं होता. कई बार किसी पार्टी को पिछले चुनाव से ज्यादा मत प्रतिशत मिलते हैं लेकिन सीटें घट जाती है और कई बार मत प्रतिशत कम हो जाता है लेकिन सीटें बढ़ जाती हैं. आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मत मिले ३१ प्रतिशत लेकिन सीटें ५२ प्रतिशत. झारखण्ड में भी यही स्थिति रही है. भारतीय जनता पार्टी की सीटें जीतने और मत प्रतिशत हासिल करने में अनुपात वही नहीं रहा.
यहाँ दो किस्म के विश्लेषण किये जाते हैं. यह बात सहीं है कि आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को कुल ८१ सीटों में से ५६ सीटों पर बढ़त मिली थी लेकिन विधान सभा में इन सभी सीटें जीत नहीं रहीं. साथ हीं मत प्रतिशत भी आम चुनाव के मुकाबले १३ प्रतिशत कम रहा. लेकिन तर्क-शास्त्र का तकाजा है कि हम तुलनेय के बीच हीं तुलना करते हैं और इस अधर पर हमें पिछले विधान सभा में बी जी पी की क्या स्थिति रही थी इसके मुकाबले अब की बार पार्टी कहाँ है यह देखना होगा. और तब हम यह कह सकते हैं कि जहाँ झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (जी एम् एम् ) ने आदिवासी क्षेत्रों में मोदी के प्रभाव को काफी हद तक प्रभावहीन किया और वह सत्ता में रहने के बावजूद वहीं तमाम आदिवासी नेता चुनाव हारे भी.
इस चुनाव का सबसे बड़े सन्देश यह है कि महज आदिवादी नेता होना अब २८ प्रतिशत आदिवासियों का वोट हासिल करने का दारोमदार नहीं रहा. शायद आदिवादी आज अपने को इन नेताओं द्वारा ठगा महसूस कर रहे हैं.
झारखण्ड चुनाव के नतीजों को भी इससे चश्में से देखना होगा. एफ पी टी पी के सबसे अच्छे परिणाम तब आते है जब एक तरफ एक मजबूत राजनीतिक दल या नेता की स्वीकार्यता हो तो दूसरी तरफ उतना हीं सुगठित विरोधी एकता हो. इस चुनाव में या आम चुनाव में भी एक तरफ मोदी एक जबरदस्त जन स्वीकार्यता ले कर विकल्प के रूप में रहे तो दूसरी तरह इस स्वीकार्यता को प्रभावहीन करने का विकल्प रहा हीं नहीं. या रहा तो बंटा रहा. आदिवासी नेताओं की अपनी विश्वसनीयता ख़त्म होती गयी और वे आपस में बंटे रहे जिसकी वजह से १४ सालों में मात्र अस्थिरता, भ्रष्टाचार और कुशासन का बोल-बाला रहा.
झारखण्ड आदिवासी बाहुल्य (२८ प्रतिशत) वाला राज्य है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एन सी आर बी) के आंकड़ों के अनुसार यहाँ हर छह दिन में एक औरत को, जो मनोविकार से पीड़ित है और जिसे मनो-चिकित्सक द्वारा इलाज की दरकार है पत्थरों से या अन्य रूप से सामूहिक तौर पर मार दी जाती है यह मानते हुए कि वह डायन है और पूर गोंव को खा जायेगी. याने समाज का एक वर्ग है जो अभी भी चेतना, अपेक्षित जानकारी और तर्क-शक्ति के स्तर पर बेहद नीचे है और लम्बे समय से शोषण का शिकार रहा है. अलग राज्य की मांग एल लम्बे समय से जाली आ रही थी जिसे १४ साल पहले अंजाम दिया गया. आदिवासी नेता उभरे सत्ता में आये, अधिकांश ने भ्रष्टाचार किया. आदिवासी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए देश के हर कोने का शोषक यहाँ डेरा डालने लगा. नतीज़तन आदिवासियों का प्रतिशत कम होता रहा. गरीबी बढ़ती रही.
ऐसे में जो राजनीतिक व्यवहार शहरी या बाहर से आये वर्ग का हो वही यहाँ के मूल निवासियों यह एक पहेली है. संपन्न शहरी वर्ग या गैर-आदिवासी भी भारतीय जनता पार्टी या उसके नेता नरेन्द्र मोदी को वोट दे और दूसरी तरफ आदिवासी भी इसको चुनाव विज्ञान की दृष्टि से समझना कुछ दुरूह कार्य है.
प्रश्न यह है कि अगर भारतीय जनता पार्टी १४ सालों में ज्यादातर समय शासन में रही और आदिवासी मुख्यमंत्री रहे, फिर भी अपनी सारी कमियों के बावजूद जनता ने मोदी पर इतना विश्वास क्यूं किया? इसमें कोई दो राय नहीं है कि झारखण्ड की जनता ने पूरे देश की तरह हीं मोदी को भारतीय जनता पार्टी के नेता के रूप में नहीं बल्कि एक परा-पार्टी नेतृत्व के रूप में देखा याने पार्टी की नकारत्मक छवि मोदी की छवि को धूमिल नहीं कर पाई .
दूसरी ओर जो वर्ग इस पार्टी की कमियों से नाराज था (और वह एक बड़ा वर्ग रहा है) उसे यह नहीं समझ में आ रहा था कि वह किसे विकल्प के रूप में चुने जो मोदी से बेहतर हो. कांग्रेस को पूरे चुनाव के दौरान लकवाग्रस्त पाया गया. बाकि पार्टियों में बिखराव अपनी चरम पर था.
बिहार में नीतीश कुमार ने जहाँ इस स्थिति को पहचान लिया और इस बिखराव को रोकने के लिए और सषक विकल्प देने के लिए अपने धुर –विरोधी लालू प्रसाद यादव से चुनाव के डेढ़ साल पहले हीं हाथ मिला लिया झारखण्ड के गैर-भाजपा नेताओं में यह विवेक नहीं दिखा. कांग्रेस यह कार्य कर सकती थी लेकिन वह कहीं मरणासन्न अवस्था में कोने में सिमटी दिखाई दी .
भारतीय जनता पार्टी की इस जीत के पीछे संघ का वर्षों का कार्य भी एक नियामक भूमिका में रहा है. और अब केंद्र के समर्थन से शायद मोदी और पार्टी की एक-सूत्रीय कार्य होगा नक्सलवाद को ख़त्म करना. इसके लिए जो भी बल प्रयोग करना पड़े या प्रभावित क्षेत्रों में विकास करना पड़े न नयी सरकार करेगी ताकि देश भर में एक सन्देश जाये और दूसरी और संघ अपने प्रभाव को आदिवासी क्षेत्रों में और विस्तृत कर पाए.
लेकिन मोदी की व्यापक जन-स्वीकार्यता के पीछे का एक कारक और है जो भूलना नहीं चाहिए. वह यह कि जहाँ भी चुनाव हो रहे हैं वहां भाजपा शासन में नहीं रही है इसे एंटी-इन्कोम्बेन्सी का दंश नहीं झेलना पडा है. असली टेस्ट तब होगा जब भाजपा शासन के बाद चुनाव हो.
lokmat