आरक्षण इलाज नहीं बीमारी है
निदान कहीं और है
एक हार्दिक पटेल और. अगर
सिलसिला जारी रहा तो आने वाले कुछ दिनों में हर राज्य में कई और हार्दिक और इन
हार्दिकों के खिलाफ कुछ अन्य जातियों के और हार्दिक. नहीं तो कुछ और राजीव
गोस्वामी. अगर मंडल कमीशन की रिपोर्ट माने तो अभी ३७४३ हांर्दिकों की गुंजाइश साफ़
तौर पर है और फिर भी अगर कुछ कमी होगी कोई नीतीश कुमार कोई “महा” उपसर्ग लगा कर एक
नया सामजिक पहचान समूह खड़ा कर सकता है याने कुछ और हार्दिक. फिर प्रतिक्रिया में कुछ और राजीव
गोस्वामी. हमने ७० साल में भारतीय समाज को हजारों टुकड़ों में तोड़ने की व्यवस्था को
एक बार फिर हवा देनी शुरू की है.
इस बीच ताज़ा आंकड़ों के
अनुसार सन २००० में एक प्रतिशत ऊपर के वर्ग का देश की ३७ प्रतिशत संपत्ति पर कब्जा
था जो सन २००५ में ४३ प्रतिशत, सन २०१० में ४८.६ प्रतिशत और पिछली साल तक याने
२०१४ में बढ़ कर ४९ प्रतिशत हो गया. मतलब देश की आधी संपत्ति मात्र एक प्रतिशत के
पास खींच कर चली गयी. सिलसिला जारी रहा तो बाकी ९९ प्रतिशत के पास अपनी चड्डी भी
नहीं बचेगी. और हम हार्दिक पैदा करते रहेंगे. एक और तथ्य पर गौर करें. देश के सबसे
गरीब १० प्रतिशत और सबसे अमीर दस प्रतिशत के बीच की खाई जो सन २००० में १८४० गुना
थी वह २००५ में २१५० गुना , २०१० में २४३० गुना और २०१४ में २४५० गुना हो गयी है.
लेकिन हम नेहरु से लेकर आज तक यह कहते रहे कि इस खाई को कम करना है. सामजिक न्याय
के आन्दोलन की राजनीतिक उपज लालू, मुलायम, नीतीश, या उसके कोई पांच छः साल पहले
आये कांशीराम (१९८४) और बाद में मायावती सभी पहले हार्दिक बन कर आते हैं फिर सत्ता
में आ कर उसी एक प्रतिशत में शामिल हो जाते है किसी नए हार्दिक के लिए जगह बना कर.
सत्ता इन वोटों के सौदागरों के हाथ ब्लैकमेल होती रही है वर्ना हार्दिक का बेहद
समृद्ध पटेलों ले लिए आरक्षण और उसकी रैली में इतनी भीड़ और क्या प्रदर्शित करती
है? “हमें बलपूर्वक लेना भी आता है” यह उदगार २२ साल के हार्दिक के “बलपूर्वक
लेने” के अनुभव का नहीं बल्कि उस सामूहिक ब्लैकमेल के नए ज़ज्बे का परिचायक है.
ख़तरा देश -व्यापी हो सकता है.
आइन्स्टीन के कहा था
“महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान सोच के उसी स्तर पर रहने से नहीं हो सकता जिस सोच
के स्तर से हमने उन्हें पैदा किया था”. शायद पिछले ७० साल में हमने सोच का स्तर
वही २५०० साल पुराना रखा जब हमने समाज को पहचान समूहों में बांटा था और उनका
स्तरीकरण करके शोषण का कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला शुरू किया. शोषण आज भी हो रहा
है, शोषक भी वही हैं और शोषित भी वही. सिर्फ काल-विशेष में या खंड-विशेष में हम
कोई हार्दिक पैदा करते हैं जो कुछ दिनों बाद उसी एक प्रतिशत में शामिल हो जाता है.
आधुनिक भारत में सत्ता –नीत
आरक्षण के “धंधे” परे नज़र डालें. सुनने में यह बेहद खुशनुमा शब्द है. इस के प्रयोग
के औचित्य को लेकर कुछ सिद्धांत बनाये गए मसलन : सकारात्मक विभेद (पॉजिटिव
डिस्क्रिमिनेशन)” “ प्रति-पूर्ति (कम्पेंसेटरी का सिद्धांत” “उर्ध्व-सञ्चालन का
सिद्धांत (अपवार्ड मोबिलिटी” या “सकारात्मक उपक्रम (एफरमेटिव एक्शन) आदि आदि. माने
चूंकि कुछ अभावग्रस्त पहचान समूह सामाजिक विकास में पीछे रह गए (याने हार्दिक एक
प्रतिशत में शामिल नहीं हो पाए ) लिहाज़ा समाज को इन्हें मुआवजा के सहित बराबर पर
लाना होगा. यहाँ तक तो ठीक था पर इसका आगाज़ा कैसे हुआ यह सुन कर आप चौंक
जायेंगे.
इसका इतिहास है. ब्रिटेन के
विदेश मंत्री (भारतीय मामलों के) वुड ने लार्ड एल्गिन को १८६२ में वे सरे प्रयास
करने को कहा जिससे भारत टूट सकता हो और इसका फायदा ब्रिटेन को मिले. इसे २६ मई
,१८८६ के पत्र में जॉर्ज हेमिल्टन ने लार्ड कर्ज़न को आगे बढ़ने को कहा और १४ जनवरी,
१८८७ को क्रोस ने लार्ड डफरिन को. शुरूआत
अंग्रेजों ने की थी १९३२ में “कम्युनल अवार्ड” के जरिये. ब्रिटिश प्रधानमंत्री
रामसे मकडोनाल्ड ने १६ अगस्त , १९३२ को इस पर हस्ताक्षर किया इसके तहत पूरे भारत
कोई हजारों टुकड़ों में बांटने की योजना थे तमाम जातियों, धर्मों को अलग मतदान करने
और साथ हीं सरकारी पदों पर आरक्षण पाने के लिए. और उस समय भी मकडोनाल्ड ने ब्रिटिश
संसद में इन्हीं सिद्धांतों की दुहाई दी
थी. गाँधी ने इस कुत्सित प्रयास का जबरदस्त विरोध शुरू किया था लेकिन
तत्कालीन मुसलमान नेताओं ने एवं डॉ अम्बेदकर ने इसकी हिमायत की थी.
अब आइये संविधान निर्माताओं
के भाव पर. उन्हें जाति- या धर्म -–आधारित आरक्षण कतई मंजूर नहीं था. इसीलिये
अनुच्छेद १५ (१) में स्पष्ट रूप से राज्य को जाति, धर्म, नस्ल या जन्म स्थान को
लेकर भेदभाव न करने का प्रावधान बना. अनुच्छेद १६(४) आरक्षण के कानों बनाने के
अधिकार तो राज्य को दिए गए लेकिन वहां शब्द “पिछड़े वर्ग” का प्रयोग किया गया न कि जाति
का. गणतंत्र बनाने के एक साल में हीं तत्कालीन मद्रास सरकार ने एक आदेश कर जाति
आधारित आरक्षण किया जिसे अपने मशहूर फैसले में उच्चतम न्यायलय ने दोरैराजन केस में उपरोक्त
अनुच्छेदों का हवाला देते हुए गलत करार दिया. लेकिन नेहरु को यह फैसला नागवार
गुजरा और तत्काल संविधान संशोधन किया गया जिसके तहत अनुच्छेद (१५(४) जोड़ा गया ताकि
राज्य को सक्षम किया जा सके. यहाँ भी जाति शब्द न ला कर “वर्ग” लाया गया. गनीमत
रही कि बारह साल बाद १९६३ में सुप्रीम
कोर्ट ने एम् आर बालाजी केस में ५० प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण किसी भी कीमत पर न
करने की मुमानियत कर दी वर्णमा सत्ता के सौदागर इसे ९९ प्रतिशत तक ले जा कर छोड़ते.
बहरहाल जाति आधारित आरक्षण (अनुसूचित जाति/ जनजाति छोड़ कर) अगले २६ वर्षों तक
राष्ट्रीय नीति के रूप में नहीं आ सकी.
सन १९७९ जनता पार्टी की
सरकार में मंडल आयोग बना क्योंकि उस समय तक पिछड़ी जातियों का कांग्रेस से मोह भंग
हुआ था और जनता पार्टी इस वोट बैंक को शाश्वत समर्थन की रूप में चाहती थी. दो साल
में रिपोर्ट आयी. लेकिन कांग्रेस सरकार की हिम्मत नहीं हुई इसे लगो करने की.
विश्वनाथ प्रताप सिंह के शासन काल में इसे झाड-पोंछ कर लिकला गया उद्देश्य पिछड़ों
का भला करने से ज्यादा कांग्रेस को ख़त्म कर एक गैर-कांग्रेस वोट बैंक बनाना था.
यानी लबो-लुआब यह कि जो
अँगरेज़ १९३२ में चाहते थे वह इन सत्ताधारियों ने पिछले ६५ साल में कर दिया. भारत
बांटता रहा. सम्पन्नता देश के एक प्रतिशत के हाथ में सिमटती रही.
आज ज़रुरत यह सोचने की है कि
क्या लगातार कम होती सरकारी नौकरियों में आरक्षण इस समस्या का समाधान है या समस्या
की जड़ है. अगर ६५ साल में खाई बढ़ती रही है तो क्या यह साबित नहीं होता कि आरक्षण
सही समाधान नहीं है.
अगर आरक्षण जाति-विभेद का
समाधान होता तो आज भी पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित पदों में से आधी खाली क्यों रह
रहे हैं? क्यों आज भी ग्रामीण भारत में हर दस में से नौ दलित बगैर जमीन मजदूर है
जो कुपोषण का , अशिक्षा का , हर तरह के अभाव का शिकार है.
दरअसल सत्ताधारियों की
इच्छा इनके जीवन को बेहतर करने से ज्यादा इन्हें पहचान समूह में बाँट कर हर चुनाव
में इनसे वायदे कर के वोट लेने की रही है. और प्रतीक के तौर पर कोई एक हार्दिक खड़ा
कर यह बताने की रही है कि “देखो तुम्हारी चिंता थी तभी तो हार्दिक खड़ा किया”.
आज ज़रुरत इस बात को रोकने की
है कि बांटने वाली आरक्षण में जिसमें अपेक्षाकृत समृद्ध मीना जनजाति अपनी हीं दबी
कुचली जनजातियों का हिस्सा खा कर पुश्त-दर-पुश्त मोटी ना होते हुए एक प्रतिशत में
शामिल ना होती रहे. कोई यादव किसी कोइरी का आरक्षण में मिलाने वाला लाभ शाश्वत भाव
से न हड़पता रहे और कोई दलित आई ए एस अधिकारी अपने बच्चे को अभिजात्य एक प्रतिशत
वाले अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ा कर भी उसे प्रेमचंद की गोदान वाली “झुनिया” और “गोबर”
का या दलित सिलिया का हिस्सा न हड़पता रहे.
क्यों न हम पहला प्रयास
करें कि गाँव में अब ७० साल बाद जाति एक पहचान समूह न हो बल्कि अभाव का पैमाना तय करे कि विकास के फल का सही
पात्र कौन है. और यह पैमाना इस आधार पर बने कि किस क्षेत्र में नौकरी, स्कूल,
बच्चों का पोषण, चिकिस्ता की सुविधा कितनी है और अगर उसे उपलब्ध करा दिया गया तो
सरकारी नौकरियां जो कि हर साल पैदा होने वाली नौकरियों का मात्र दो प्रतिशत हैं
कोई देखेगा भी नहीं. बस एक और शर्त कि सरकारी नौकरियों से हासिल भ्रष्टाचार की
शक्ति और सत्ता शक्ति को ऐसा बांध दिया जाये कि कोई सरकारी नौकर पद का बेजा फायदा
उठाने की जुर्रत न कर सके. ज़रुरत है एक ऐसे व्यवस्था कि जो प्रेमचंद के पंडित
“मातादीन” की औलादों के लिए भी लागू हो और पिछड़ी जाति के गोबर के वंशजों के लिए भी
और फिर दलित सिलिया किसी मातादीन की कामुक दृष्टि को भस्म करने की स्व-विकसित
क्षमता रखे. तब किसी “हार्दिक” की शायद हीं ज़रुरत पड़े.
लेकिन शायद यह सब इसलिए न
हो पाए कि किसी राजनीतिक दल में वह ताकत नहीं है कि आरक्षण की जगह असली इलाज को
तरजीह दे क्योंकि उसे डर रहेगा कि दूसरी पार्टी अपने हार्दिक पैदा कर के वोट बटोर
लेगी. लिहाजा हम इसे गोल-गोल घोमाते रहेंगे और समाज विखंडित होता रहेगा और एक
प्रतिशत बाकि ९९ प्रतिशत की अंतिम सांस पर भी कब्ज़ा जमाना चाहेगा.
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