सत्ता
में किसानों का डर एक बेहतर
प्रजातंत्र का आगाज़
हाल
की दो बेहद कल्याणकारी सरकारी
घोषणाओं पर नज़र डालें.
केंद्र की मोदी
सरकार को एक साल बाद होने वाले
आम चुनाव के पहले के अंतिम
पूर्ण बजट में किसानों को उनकी
उपज के लागत मूल्य का ५० प्रतिशत
लाभ देने का ऐलान किया.
साथ हीं १०
करोड गरीब परिवारों को पांच
लाख रुपये तक का स्वास्थ्य
बीमा देना भी बजट वादे में
शामिल था. जाहिर
है अधिकांश गरीब चाहे वह
किसान-मजदूर
हो या औद्योगिक श्रमिक उनकी
जड़ें गावों में हीं है लिहाज़ा
यह लाभ भी आमतौर पर उनके हीं
हित में रहेगा. एक
हफ्ते के भीतर मध्य प्रदेश
के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह
चौहान ने किसानों का दो लाख
रुपये तक का क़र्ज़ माफ़ करने का
हीं नहीं बल्कि गेंहू का न्यूनतम
समर्थन मूल्य दो हज़ार रुपये
प्रति कुंतल करने का (वर्तमान
में राष्ट्रीय केंद्र द्वारा
घोषित दर १७३५ प्रति कुंतल
है) और
साथ हीं जिन किसानों ने इससे
नीचे के मूल्य पर बेचा है उन्हें
भी बकाया राशि देने का ऐलान
किया. इस
घोषणा के अभी कुछ हीं घंटे
बीते थे कि राजस्थान के
मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे
सिंधिया ने भी किसानों का ५०
हज़ार रुपये तक का क़र्ज़ माफ़
करने की घोषणा की. इन
दोनों राज्यों में कुछ हीं
महीने में चुनाव होने हैं.
और इन दोनों
राज्यों में किसान गुस्से
में है. मध्य
प्रदेश में किसानों पर फायरिंग,
जिसमें छः
किसान मारे गए, के
कारण और राजस्थान में उपज का
मूल्य बेहद कम होने के कारण.
राजस्थान के
उप- चुनाव
में सत्ताधारी भारतीय जनता
पार्टी की करारी हार किसानों
के गुस्से का ताज़ा उदाहरण है.
गुजरात के
विधान सभा चुनाव में भी इसके
संकेत मिलाने लगे थे जब सत्ताधारी
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा०
को राज्य के कुल ३३ जिलों में
से अपेक्षाकृत ग्रामीण क्षेत्र
के १५ जिलें में से सात में एक
भी सीट नहीं मिली और बाकि आठ
के हर जिले में मात्र एक-एक
सीट मिली. आज
चूंकि देश के ३६ में से १९
राज्यों में या यूं कहें कि
केंद्र के अलावा देश की ६८
प्रतिशत आबादी पर इस दल का
राज्य सरकारों के जरिये शासन
है लिहाज़ा किसानों को भी कोई
कंफ्यूजन नहीं है कि नाराजगी
की दिशा क्या होनी चाहिए.
देश
के ६८ साल के प्रजातंत्र में
पहली बार किसान एक दबाव समूह
के रूप में उभरा है. अभी
तक मंचों से “किसान भाइयों”
कह कर नेता अपने कर्तव्य की
इतिश्री कर लेता था. इस
राजनीतिक उनीदेपन का नतीजा
यह हुआ कि पिछले २५ साल से
लगातार हर ३६ मिनट पर एक किसान
आत्महत्या करता रहा और इसी
अवधि में हर रोज़ २०५२ किसान
खेती छोड़ते रहे. किसान
दबाव समूह नहीं बन पाया अगर
कभी कोशिश हुई भी तो वह जाति
समूह में बाँट दिया गया और
राजनीतिक दल उनके उपज का सही
मूल्य दिलाने की जगह उन्हें
और उनके बच्चो को आरक्षण दिलाने
के सब्ज-बाग़
दिखा कर वोट लेने लगे.
समाज बांटता
गया और राजनीतिक वर्ग सत्ता
सुख भोगता गया.
एक
उदाहरण देखें. सन
२०१४ के आम चुनाव में भारतीय
जनता पार्टी के घोषणा पत्र
के पृष्ठ ४४ में कृषि,
उत्पादकता और
उसका पारितोषिक शीर्षक चुनावी
वादे में कहा गया है “ ऐसे कदम
उठाये जायेंगे जिससे कृषि
क्षेत्र में लाभ बढे और यह
सुनिश्चित किया जाएगा कि लागत
का ५० प्रतिशत लाभ हो”.
लेकिन चुनाव
के कुछ हीं महीने बाद केंद्र
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में
दिनांक २० फ़रवरी, २०१५
को अपने हलफनामे में कहा
‘किसानों के उत्पाद के लागत
का ५० प्रतिशत अधिक देना संभव
नहीं है क्योंकि इससे बाज़ार
में दुष्परिणाम होंगे”.
इसी बीच २०१६-१७
नए सरकार के प्रति अद्भुद
उत्साह दिखाते हुए किसानों
ने मेहनत की , ज्यादा
रकबे में खेती कर और रिकॉर्ड
२७६ मिलियन टन उत्पादन कर
लेकिन जहाँ पिछले दो साल इंद्र
भगवान् रूठे रहे, इस
साल कीमतें जमीन से नहीं उठीं
नतीजतन किसान का क्रोध सभी
सीमायें पार कर गया.
इन
सात दशकों में अब किसान यह
समझने लगा है कि आलू यादव जी
का हो या पंडित जी का या फिर
किराये पर खेती कर रहे किसी
जाटव का , अगर
उसकी लागत पांच रुपये प्रति
किलो है (जो
कृषि लागत के एक्सपर्ट्स भी
मानते हैं) और
फसल तैयार होने पर उसकी कीमत
दो रुपये या चार रुपये मंडी
में मिल रही है तो वह अब समझने
लगा है कि उसके परिवार का निवाला
छीनने वाला कोई उच्च जाति का
जमींदार नहीं बल्कि शीर्ष पर
सत्ता में बैठा नेता है चाहे
वह किसी भी राजनीतिक दल का
क्यूं न हो. उसे
न तो किसी मुलायम ने राहत दी
न हीं किसी मायावती ने.
मध्य प्रदेश
में और महाराष्ट्र में प्याज
और दाल का भी यही हाल हुआ और
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना का
किसान भी टमाटर सड़क पर उडेलता
मिला.
मोदी
सरकार गुजरात चुनाव के बाद
यह समझ गयी कि राजनीति अब
परम्परागत तरीके से नहीं हो
सकती क्योंकि किसानों के इस
आन्दोलन के पीछे पहली बार न
तो कोई राजनीतिक पार्टी है न
हीं कोई नेता. यह
स्व-स्फूर्त
है और यही कारण है कि पूरे देश
की सरकारें आज इस बात पर नज़र
रख रही हैं कि किसान की उपज की
अधिकाधिक मूल्य खाली घोषणाओं
में न रहे बल्कि अमल में भी
लाया जाये.
उत्तर
प्रदेश ने अखिलेश सरकार के
मुकाबले कई गुना अधिक गेंहू
की खरीददारी (३.७
मिलियन टन) की
हालाँकि शपथ लेने के बाद
मुख्यमंत्री योगी का वादा आठ
मिलियन टन खरीद का था.
योगी का प्रयास
अच्छा था लेकिन कुछ महीनों
बाद आलू के गिरते भाव से प्रदेश
का किसान आहत है.
बहरहाल
प्रधानमंत्री मोदी इस बार यह
सुनिश्चित करना चाहते हैं कि
वादा पूरी तरह मुकम्मल हो और
यही वजह है कि इस हफ्ते हुई
प्रदेशों के खाद्य सचिवों की
बैठक में भी गेंहू की खरीद का
टारगेट तो पिछली साल के ३३
मिलियन टन से घटा कर ३२ मिलियन
कर दिया गया है लेकिन हिदायत
यह है कि ये टारगेट पूरा होने
चाहिए और वह भी बिना किसी
भष्टाचार के. पिछले
साल इस टारगेट के मुकाबले
३०.०८
मिलियन टन हीं गेंहू की खरीद
हुई थी. उत्तर
प्रदेश का टारगेट चार मिलियन
टन रखा गया है जबकि राज्य में
सरकारी विक्रय केन्द्रों से
विभिन्न जनकल्याण योजनाओं
में गरीबों को अनाज बांटने
के लिए छः मिलियन टन गेंहू की
ज़रुरत होती है.
ऐसा
माना जा रहा है कि मोदी सरकार
अबकी बार हर संभव कदम उठायेगी
कि किसानों को आगामी अप्रैल
में गेंहू और अक्टूबर में धान
की सरकारी खरीद में कोई कोताही
न हो और चूंकि तमाम बड़े राज्यों
में भी भाजपा की सरकारें हैं
इसलिए इस योजना को अमल मदन लेन
में दिक्कत पेश नहीं आयेगी.
बहरहाल
किसानों की एक राष्ट्र-व्यापी
गैर-राजनीतिक
दबाव समूह में परिवर्तित होना
बेहतर होते प्रजातंत्र की
शुरुआत है और जातिवाद के दंश
का खात्मे की भी. एक
विकासपरक राजनीति के लिए
भारतीय जनता पार्टी के लिए
हीं नहीं सभी राजनीतिक दलों
के लिए भी स्वस्थ राजनीति करने
का सुनहरा अवसर बशर्ते वे इसे
अवसर समझें.
lokmat