एक बार किसी अंग्रेजी स्कूल
की एक कक्षा में बच्चों से गरीब पर एक पैराग्राफ लिखने को कहा गया. कक्षा में एक
अमीर बाप के बेटे ने लिखा “एक गरीब आदमी था. वह इतना गरीब था कि उसका बंगला भी
गरीब था , उसकी गाड़ी भी गरीब थी , उसका माली भी गरीब था , उसका सब कुछ गरीब था”.
भारत में गरीब एक मानसिक अय्यासी का शब्द बन गया है. हमें वोट पाना होता है तो
गरीब की याद आती है , हमें अपने को दूसरे
से नैतिक दिखाना होता है तो गरीब की याद आती है और हमें जब गरीब के शोषण की रफ़्तार
बढ़ानी होती है तो उसकी याद आती है. यहाँ तक कि हमें सत्ता पर काबिज़ रहने के लिए
इमरजेंसी लगना होता है तो भी गरीब की याद आती है (राष्ट्रपति के आपातकाल की घोषणा
के बाद का इन्दिरा गाँधी का भाषण). लिहाज़ा ६५ साल में गरीबी तो नहीं हटी, उसके नाम
पर सत्ताधारी वर्ग अमीर ज़रूर होता रहा.
गरीबी के प्रति यह भाव आज
का नहीं है. समूचे विस्तृत संविधान में एक जगह भी गरीब या गरीबी शब्द का प्रयोग
नहीं हुआ है. अगर हुआ भी तो वह सन १९९३ में आये ७३वें संविधान संशोधन के तहत ११ वीं अनुसूचि की १६ वीं
प्रविष्टि में.
चालू बजट सत्र में वर्ष
२०१२-१३ का ४२१ पृष्ठ का आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया गया. इसके प्रस्तावना में यह
आशंका ज़ाहिर की गयी है कि “जब तक भारत इन सुधारों को नहीं अपनाता, क्षमता से बहुत
कम वृद्धि होने से राजकोषीय दबाव का जोखिम, सामाजिक अशांति और अधिक से अधिक पीछे रह
जायेंगे”. यानी ३२ साल से चलायी जा रही आर्थिक उदारीकरण के परिणति सामाजिक अशांति
में हो सकती है.
ज़रा गौर करें. सन १९८० में
जब उदारीकरण का पहला चरण शुरू हुआ उस समय से आज तक देश का तथाकथित विकास दर औसतन
६.५ फी सदी रहा जो काफी विश्व के अन्य देशों के मुकाबले काफी अच्छा मन गया. लेकिन
जहाँ भारत सन १९८० में मानव विकास सूचकांक में १३२ नंबर पर था सन २०१२ में भी वह
ठीक इस नंबर पर है. याने आर्थिक विकास और मानव विकास में कोई सीधा सम्बन्ध नहीं
है. नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने हाल हीं में फ़्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति
सरकोजी के आग्रह पर सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी ) पर आधारित विकास की अवधारणा की
धज्जी उड़ाते हुए अपनी विस्तृत रिपोर्ट में लिखा कि इसका विकास से दूर –दूर तक
सम्बन्ध नहीं है. एक उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि अगर भारत की राजधानी
दिल्ली के कनाट प्लेस में बद-इन्तजामी से ट्रैफिक जाम हो जाये तो देश का जी डी पी
बढ़ जाएगा.
एक नोबेल पुरस्कार से
सम्मानित अर्थशास्त्री मिल्टन फ़्राईडमेन का एक उद्धरण भारत की अर्थ-व्यवस्था की
समस्या बताने के लिए समीचीन होगा. उनके अनुसार सन १७७६ में जब संयुक्त राज्य
अमरीका बना तो वहां अगर १९ आदमी खेतों में काम करते थे तो २० लोगों के लिए अनाज
पैदा होता था. आज उस देश में मात्र १.५ व्यक्ति उतना अनाज पैदा कर रहे हैं
टेक्नोलॉजी के संवर्धन के कारण. अब राज्य से अपेक्षित है कि जो १७.५ लोग बेरोजगार
हुए उनको अन्य उत्पादन कार्यों में लगा कर ना केवल उनके बल्कि पूरे समाज का जीवन
स्तर बेहतर किया जाये. भारत में इन ६५ सालों में हरित क्रांति ने अनाज उत्पान में
जबरदस्त वृद्धि तो कर दी लेकिन रोगगार के अवसर ना होने से ६२ प्रतिशत लोग गाँव में
हीं रह गए. यानि जो वृद्धि हुई उसे घर बैठ कर खा गए, न उनका जीवन-स्तर बेहतर हुआ न
हीं समाज को लाभ नहीं मिला. यहीं पर सरकार
की योजना बनाने वाली भूमिका की जरूरत है. यहाँ सरकार से मतलब दोनों, केंद्र व
राज्य सरकारों से है.
आज बताया जा रहा है कि नरेन्द्र
मोदी ने गुजरात को, नीतीश कुमार ने बिहार को, शिवराज सिंह चौहान ने मध्य प्रदेश को
और रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ को जबरदस्त जी डी पी विकास दर के मार्ग पर झोंक दिया है.
उत्तराखंड भी ऐसे दावे कर रहा है. लेकिन जो चिंता का विषय है वह यह कि मानव विकास
में जहाँ बिहार अभी भी ३२ वें स्थान पर है वहीँ गुजरात पहले से नीचे पहुँच गया है.
इन दोनों राज्यों में तथाकथित विकास (जी डी पी के चश्में से) के पीछे कृषि की बड़ी
भूमिका है , जिसके लिए सरकार को कम, किसानों को और इंद्रा देवता को ज्यादा धन्यवाद
देने की जरूरत है.
जहाँ तक नीतीश या मोदी की
सरकारों का सवाल है हकीकत यह है कि मानव विकास के तमाम पैरामीटरों पर ये राज्य फिसड्डी
रहे हैं. गुजरात में सामाजिक क्षेत्र में व्यय जी एस डी पी (राज्य का सकल घरेलू
उत्पाद) के अनुपात में राष्ट्रीय स्तर से भी कम हुआ है. रोजगार, शिक्षा, वतन, उपभोग
, गरीबी , असमानता और स्वास्थ्य के मानकों पर यह राज्य पहले से नीचे खिसक गया है.
शहर-गाँव खाई बढ़ी है. पिछले पांच वर्षों में जहाँ एक और कृषि में आसमानी वृद्धि
हुई वहीं इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर कम हुए. दरअसल हुआ यह कि संपन्न किसानों
ने ज्यादा लागत और ज्यादा मूल्य वाली फसलें लगानी शुरू की जिस प्रक्रिया से छोटे व
सीमान्त किसान अछूते रहे. जमीन का मूल्य बढ़ जाने से इन छोटे व सीमान्त किसानों को
जमीन की उपलब्द्धता जाती रही (जो अक्सर बताई पर ले लिया करते थे). नतीजा यह
हुआ कि ग्रामीण बेरोज़गारी बढ़ी, अमीर –गरीब खाई बढ़ी और साथ बड़ी अभाव-जनित ग्रामीणों
के प्रति मानव विकास सरकार द्वारा अनदेखी क्योंकि सरकार इस बात से खुश थी कि राज्य
की विकास जी डी पी पैमाने पर तो हो हीं रहा है.
बिहार के विकास को भी कुछ
नए चश्में से देखने की ज़रुरत है. अगर कोई राज्य बेहद निचले स्तर पर है तो थोडा
विकास भी प्रतिशत के रूप में ज्यादा हो जाता है. बिहार की खेती बुरी हालत में थी.
बेहतर मानसून , नयी प्रजाति के बीज, खाद की उपलब्धता और बाहर काम करने वाले
बिहारियों का गाँव में पैसा भेजना कृषि उत्पादन को उछाल देने लगा. कमोबेश पूरे देश
में कृषि उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई. लिहाज़ा जी डी पी ग्रोथ रेट में बिहार
सर्व-प्रथम हो गया. इस विकास का ना तो सरकार से कोई मतलब था नहीं यह स्थायी-भाव
रहेगा. दूसरा कारण जिसका श्रेय नीतीश की सरकार को जाता है (और मोदी को भी) है
इन्फ्रा-स्ट्रक्चर में सड़क आदि पर हुए खर्च (जिसमें केन्द्रीय अनुदान और योजनाओं
का बड़ा योगदान है भले हीं हो, राज्य –सरकार द्वारा ईमानदारी से इसे इमली जामा
पहनाना एक बड़ा काम था) का जी डी पी में शामिल होना. नतीजा यह हुआ कि मोदी की तरह
नीतीश ने भी विकास का सेहरा पहन लिया जबकि मानव विकास में बिहार उसी ३२ नंबर पर
लटका रहा. इसके ठीक उलट जहाँ गुजरात में उद्योग लगे बिहार में ना तो उद्योग लगे ना
हीं सेवा क्षेत्र का कोई सार्थक विस्तार हो सका. उद्योगपति शरू के दौर में तो आये
और एम् ओ यू पर दस्तखत कर के चले गए लेकिन कानून –व्यवस्था लगातार गिराने की कारण
वापस लौट के नहीं आये. बिहार में १६.५ प्रतिशत का विकास दर दर्ज करता रहा.
लेकिन यहाँ एक बात ध्यान
देने की है कि जहाँ एक ओर दोनों हीं मुख्य –मंत्री व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं
वहीं दोनों राज्यों में विकास के कारकों को लेकर भारी अंतर है. गुजरात का समाज
आदतन उद्यमी है, वणिक-वृत्ति वाला है, तासीरन शांत है, पहले से हीं विकसित रहा है
और जमीन पर आबादी का भार अधिक नहीं है. इसके ठीक विपरीत बिहार में जनसँख्या घनत्व
गुजरात के मुकाबले साढ़े तीन गुना (३२०:११००) है. लालू यादव के काल में विकास की
कल्पना “ सशक्तिकरण की झूठी चेतना” (फाल्स सेन्स ऑफ़ एम्पावरमेंट) से ऊपर नहीं बढ़
पायी थी. वातावरण आपराधिक हो गया था. सामंतशाही अवशेषों के कारण उद्यमिता की कमी
रही.
लेकिन इन दोनों विकास के
मॉडल का कॉमन फैक्टर था “राज्य का डायरेक्ट डिलीवरी मोड में जाना) . शायद दोनों ने
फ़्राईडमेन की सलाह कि “यदि जी डी पी बढ़ रहा हो तो पहला काम सीधे फण्ड गरीबों को
ट्रान्सफर करो” ब्राज़ील के लूला की तरह
हीं गांठ बांध ली. नतीजा यह हुआ कि जब बिहार के गाँवों से लड़कियां सरकरी साइकिलों
पर स्कूल के लिए निकलती थी तो फिजा बदलती थी. सरकार कल्याणकारी लगने लगा. नीतीश और
मोदी दोनों ने फिर जनता का आशीर्वाद पाया.
इसके ठीक विपरीत केंद्र
द्वारा जारी ग्रामीण स्वास्थ्य योजना उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती
रही. राजनीति और अपराध में दूध-पानी सदृश्यता हो गयी. विकास केवल अपराधी और भ्रष्ट
का हुआ. अगर देश के अन्य राज्य विकास के इस मॉडल को जल्द अंगीकार नहीं करते तो
आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया “सामाजिक अशांति” का खतरे का अंदेशा जी डी पी रहते
कभी सही हो सकता है.
rashrtiya sahara