Friday 15 March 2013

कुछ बात है कि गरीब हटती नहीं हमारी !



एक बार किसी अंग्रेजी स्कूल की एक कक्षा में बच्चों से गरीब पर एक पैराग्राफ लिखने को कहा गया. कक्षा में एक अमीर बाप के बेटे ने लिखा “एक गरीब आदमी था. वह इतना गरीब था कि उसका बंगला भी गरीब था , उसकी गाड़ी भी गरीब थी , उसका माली भी गरीब था , उसका सब कुछ गरीब था”. भारत में गरीब एक मानसिक अय्यासी का शब्द बन गया है. हमें वोट पाना होता है तो गरीब की  याद आती है , हमें अपने को दूसरे से नैतिक दिखाना होता है तो गरीब की याद आती है और हमें जब गरीब के शोषण की रफ़्तार बढ़ानी होती है तो उसकी याद आती है. यहाँ तक कि हमें सत्ता पर काबिज़ रहने के लिए इमरजेंसी लगना होता है तो भी गरीब की याद आती है (राष्ट्रपति के आपातकाल की घोषणा के बाद का इन्दिरा गाँधी का भाषण). लिहाज़ा ६५ साल में गरीबी तो नहीं हटी, उसके नाम पर सत्ताधारी वर्ग अमीर ज़रूर होता रहा.
गरीबी के प्रति यह भाव आज का नहीं है. समूचे विस्तृत संविधान में एक जगह भी गरीब या गरीबी शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है. अगर हुआ भी तो वह सन १९९३ में आये ७३वें  संविधान संशोधन के तहत ११ वीं अनुसूचि की १६ वीं प्रविष्टि में.
चालू बजट सत्र में वर्ष २०१२-१३ का ४२१ पृष्ठ का आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया गया. इसके प्रस्तावना में यह आशंका ज़ाहिर की गयी है कि “जब तक भारत इन सुधारों को नहीं अपनाता, क्षमता से बहुत कम वृद्धि होने से राजकोषीय दबाव का जोखिम, सामाजिक अशांति और अधिक से अधिक पीछे रह जायेंगे”. यानी ३२ साल से चलायी जा रही आर्थिक उदारीकरण के परिणति सामाजिक अशांति में हो सकती है.
ज़रा गौर करें. सन १९८० में जब उदारीकरण का पहला चरण शुरू हुआ उस समय से आज तक देश का तथाकथित विकास दर औसतन ६.५ फी सदी रहा जो काफी विश्व के अन्य देशों के मुकाबले काफी अच्छा मन गया. लेकिन जहाँ भारत सन १९८० में मानव विकास सूचकांक में १३२ नंबर पर था सन २०१२ में भी वह ठीक इस नंबर पर है. याने आर्थिक विकास और मानव विकास में कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है. नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने हाल हीं में फ़्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति सरकोजी के आग्रह पर सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी ) पर आधारित विकास की अवधारणा की धज्जी उड़ाते हुए अपनी विस्तृत रिपोर्ट में लिखा कि इसका विकास से दूर –दूर तक सम्बन्ध नहीं है. एक उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि अगर भारत की राजधानी दिल्ली के कनाट प्लेस में बद-इन्तजामी से ट्रैफिक जाम हो जाये तो देश का जी डी पी बढ़ जाएगा.
एक नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री मिल्टन फ़्राईडमेन का एक उद्धरण भारत की अर्थ-व्यवस्था की समस्या बताने के लिए समीचीन होगा. उनके अनुसार सन १७७६ में जब संयुक्त राज्य अमरीका बना तो वहां अगर १९ आदमी खेतों में काम करते थे तो २० लोगों के लिए अनाज पैदा होता था. आज उस देश में मात्र १.५ व्यक्ति उतना अनाज पैदा कर रहे हैं टेक्नोलॉजी के संवर्धन के कारण. अब राज्य से अपेक्षित है कि जो १७.५ लोग बेरोजगार हुए उनको अन्य उत्पादन कार्यों में लगा कर ना केवल उनके बल्कि पूरे समाज का जीवन स्तर बेहतर किया जाये. भारत में इन ६५ सालों में हरित क्रांति ने अनाज उत्पान में जबरदस्त वृद्धि तो कर दी लेकिन रोगगार के अवसर ना होने से ६२ प्रतिशत लोग गाँव में हीं रह गए. यानि जो वृद्धि हुई उसे घर बैठ कर खा गए, न उनका जीवन-स्तर बेहतर हुआ न हीं समाज  को लाभ नहीं मिला. यहीं पर सरकार की योजना बनाने वाली भूमिका की जरूरत है. यहाँ सरकार से मतलब दोनों, केंद्र व राज्य सरकारों से है.
आज बताया जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी ने गुजरात को, नीतीश कुमार ने बिहार को, शिवराज सिंह चौहान ने मध्य प्रदेश को और रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ को जबरदस्त जी डी पी विकास दर के मार्ग पर झोंक दिया है. उत्तराखंड भी ऐसे दावे कर रहा है. लेकिन जो चिंता का विषय है वह यह कि मानव विकास में जहाँ बिहार अभी भी ३२ वें स्थान पर है वहीँ गुजरात पहले से नीचे पहुँच गया है. इन दोनों राज्यों में तथाकथित विकास (जी डी पी के चश्में से) के पीछे कृषि की बड़ी भूमिका है , जिसके लिए सरकार को कम, किसानों को और इंद्रा देवता को ज्यादा धन्यवाद देने की जरूरत है. 
जहाँ तक नीतीश या मोदी की सरकारों का सवाल है हकीकत यह है कि मानव विकास के तमाम पैरामीटरों पर ये राज्य फिसड्डी रहे हैं. गुजरात में सामाजिक क्षेत्र में व्यय जी एस डी पी (राज्य का सकल घरेलू उत्पाद) के अनुपात में राष्ट्रीय स्तर से भी कम हुआ है. रोजगार, शिक्षा, वतन, उपभोग , गरीबी , असमानता और स्वास्थ्य के मानकों पर यह राज्य पहले से नीचे खिसक गया है. शहर-गाँव खाई बढ़ी है. पिछले पांच वर्षों में जहाँ एक और कृषि में आसमानी वृद्धि हुई वहीं इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर कम हुए. दरअसल हुआ यह कि संपन्न किसानों ने ज्यादा लागत और ज्यादा मूल्य वाली फसलें लगानी शुरू की जिस प्रक्रिया से छोटे व सीमान्त किसान अछूते रहे. जमीन का मूल्य बढ़ जाने से इन छोटे व सीमान्त  किसानों को  जमीन की उपलब्द्धता जाती रही (जो अक्सर बताई पर ले लिया करते थे). नतीजा यह हुआ कि ग्रामीण बेरोज़गारी बढ़ी, अमीर –गरीब खाई बढ़ी और साथ बड़ी अभाव-जनित ग्रामीणों के प्रति मानव विकास सरकार द्वारा अनदेखी क्योंकि सरकार इस बात से खुश थी कि राज्य की विकास जी डी पी पैमाने पर तो हो हीं रहा है.
बिहार के विकास को भी कुछ नए चश्में से देखने की ज़रुरत है. अगर कोई राज्य बेहद निचले स्तर पर है तो थोडा विकास भी प्रतिशत के रूप में ज्यादा हो जाता है. बिहार की खेती बुरी हालत में थी. बेहतर मानसून , नयी प्रजाति के बीज, खाद की उपलब्धता और बाहर काम करने वाले बिहारियों का गाँव में पैसा भेजना कृषि उत्पादन को उछाल देने लगा. कमोबेश पूरे देश में कृषि उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई. लिहाज़ा जी डी पी ग्रोथ रेट में बिहार सर्व-प्रथम हो गया. इस विकास का ना तो सरकार से कोई मतलब था नहीं यह स्थायी-भाव रहेगा. दूसरा कारण जिसका श्रेय नीतीश की सरकार को जाता है (और मोदी को भी) है इन्फ्रा-स्ट्रक्चर में सड़क आदि पर हुए खर्च (जिसमें केन्द्रीय अनुदान और योजनाओं का बड़ा योगदान है भले हीं हो, राज्य –सरकार द्वारा ईमानदारी से इसे इमली जामा पहनाना एक बड़ा काम था) का जी डी पी में शामिल होना. नतीजा यह हुआ कि मोदी की तरह नीतीश ने भी विकास का सेहरा पहन लिया जबकि मानव विकास में बिहार उसी ३२ नंबर पर लटका रहा. इसके ठीक उलट जहाँ गुजरात में उद्योग लगे बिहार में ना तो उद्योग लगे ना हीं सेवा क्षेत्र का कोई सार्थक विस्तार हो सका. उद्योगपति शरू के दौर में तो आये और एम् ओ यू पर दस्तखत कर के चले गए लेकिन कानून –व्यवस्था लगातार गिराने की कारण वापस लौट के नहीं आये. बिहार में १६.५ प्रतिशत का विकास दर दर्ज करता रहा.
लेकिन यहाँ एक बात ध्यान देने की है कि जहाँ एक ओर दोनों हीं मुख्य –मंत्री व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं वहीं दोनों राज्यों में विकास के कारकों को लेकर भारी अंतर है. गुजरात का समाज आदतन उद्यमी है, वणिक-वृत्ति वाला है, तासीरन शांत है, पहले से हीं विकसित रहा है और जमीन पर आबादी का भार अधिक नहीं है. इसके ठीक विपरीत बिहार में जनसँख्या घनत्व गुजरात के मुकाबले साढ़े तीन गुना (३२०:११००) है. लालू यादव के काल में विकास की कल्पना “ सशक्तिकरण की झूठी चेतना” (फाल्स सेन्स ऑफ़ एम्पावरमेंट) से ऊपर नहीं बढ़ पायी थी. वातावरण आपराधिक हो गया था. सामंतशाही अवशेषों के कारण उद्यमिता की कमी रही.
लेकिन इन दोनों विकास के मॉडल का कॉमन फैक्टर था “राज्य का डायरेक्ट डिलीवरी मोड में जाना) . शायद दोनों ने फ़्राईडमेन की सलाह कि “यदि जी डी पी बढ़ रहा हो तो पहला काम सीधे फण्ड गरीबों को ट्रान्सफर करो”  ब्राज़ील के लूला की तरह हीं गांठ बांध ली. नतीजा यह हुआ कि जब बिहार के गाँवों से लड़कियां सरकरी साइकिलों पर स्कूल के लिए निकलती थी तो फिजा बदलती थी. सरकार कल्याणकारी लगने लगा. नीतीश और मोदी दोनों ने फिर जनता का आशीर्वाद पाया.
इसके ठीक विपरीत केंद्र द्वारा जारी ग्रामीण स्वास्थ्य योजना उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती रही. राजनीति और अपराध में दूध-पानी सदृश्यता हो गयी. विकास केवल अपराधी और भ्रष्ट का हुआ. अगर देश के अन्य राज्य विकास के इस मॉडल को जल्द अंगीकार नहीं करते तो आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया “सामाजिक अशांति” का खतरे का अंदेशा जी डी पी रहते कभी सही हो सकता है.

rashrtiya sahara 

संपादक-एंकर के उग्र विचार परोसने के खतरे !



विगत सप्ताह एक चैनल द्वारा आयोजित “मीडिया फेस्ट” में देश के दो जाने-माने फायरब्रांड एंकरों ने, जो अपने चैनलों के संपादक भी है ---एक अंग्रेजी चैनल का और दूसरा हिंदी चैनल का— युवा पत्रकारों के सवालों का जवाब दे रहे थे. युवाओं का प्रश्न  था इनके मशहूर कार्यक्रमों (स्टूडियो डिस्कशन्स) में इनके  आक्रामक तेवर और मुद्दों पर अपने बेलाग और “यही अंतिम सत्य है” वाले थोपू विचार को लेकर.
कहना न होगा कि दोनों ने अपने धंधे के अनुरूप वाक्-कुशलता के जरिये पूरी शिद्दत से अपने को सही ठहराया. उनके तीन तर्क थे. पहला यह कि वास्तविक पत्रकारिता और गजट-वाचन में अंतर होता है याने पत्रकारिता उस दिन शून्य-उपादेय हो जाएगी जिस दिन महज तथ्य (एक –मरे-दो-घायल टाइप) परोसने का काम करने लगेगी, सरकारी प्रेस-नोट या डी-डी न्यूज़ की मानिंद. दूसरा तर्क था एक सम्पादक-एंकर को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता उतनी हीं है जितनी किसी अन्य को. तीसरा तर्क था एक पत्रकार को मुद्दों के तह में जाने के बाद उसको लेकर एक पैशन (आसक्ति) होना चाहिए क्योंकि पत्रकार मशीन नहीं संवेदनशील आदमी है.
इन दोनों संपादक-एंकरों ने चश्में पहन रखे थे. अगर वे चश्में उतार देते तो उस हॉल का,जिसमें यह संवाद हो रहा था, स्वरुप उनके लिए बदल चुका होता. लोगों ने कैसे कपडे पहने हैं, दूर तक भीड़ कितनी है, लड़के-लड़कियों का अनुपात क्या है यह सब कुछ वही ना होता जो चश्मे से देखने पर था. यानि महज एक सेकंड के दशांश में हीं तथ्य (जिसे इन्होने सत्य मान लिया था) बदल गए होते. चश्मा लगाने के पहले का सत्य और चश्मा उतारने के बाद का सत्य अलग –अलग होते. अब मान लीजिये रोशनी कम हो जाये तो संपादकों का सत्य एक बार फिर बदल जाएगा और अगर दूर कहीं एक झालर गिर कर हवा में लटक रहा हो और कुछ हीं देर पहले इनको आयोजकों से यह भी पता चला हो कि दो दिन पहले यहाँ एक बड़ा सांप देखा गया था, दो क्या संपादकों का सत्य “झालर नहीं सांप” के रूप में बदल नहीं जाएगा? अद्वैत –वेदान्त का सिद्धांत ब्रह्म सत्यम , जगत मिथ्या और खासकर शंकर के मायावाद का “सर्प-रज्जू भ्रम” इसी को उजागर करता है.
ज्ञान-मीमांसा (एपिस्टेमोलोजी) के सिद्धांतों के तहत मानव जिसे सत्य समझता है वह दरअसल उसके पिछले ज्ञान और ज्ञानेन्द्रियों द्वारा हासिल ताज़ा तथ्य का दिमाग में संश्लेषण होता है. एक बच्चे को सांप से डर नहीं लगता लेकिन बड़े को लगता है. चूँकि ज्ञानेन्द्रियों के सीमा है इसलिए कोई भी सत्य अंतिम नहीं होता.     
इन दोनो संपादक-एंकरों की बातों में गंभीर तर्क-शास्त्रीय दोष है. पहला पत्रकारिता और एक्टिविज्म में अंतर है. पत्रकार किसी मुद्दे पर प्रतिस्पर्धी तथ्यों व विचारों का बाज़ार (मार्किट-प्लेस) तैयार करता है और फैसला जनता पर छोड़ देता है. यही वज़ह है कि सामना, पीपुल्स डेली या पांचजन्य के संपादकों के तर्क-वाक्यों की विश्वसनीयता उतनी नहीं होती जितनी किसी स्वतंत्र (या ऐसा माने जाने वाले) चैनल या अखबार के सम्पादक की. दोनों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है पर उनकी विश्वसनीयता जन-धरातल में लोगों द्वारा तय की जाती है. लिहाज़ा सम्पादक विचार तो रख सकता है पर एंकर के रूप में वह उन विचारों की लाइन में अगर संवाद को धकेलना चाहता है तो ना केवल उसकी और संपादक के संस्था की  बल्कि उसके चैनल की विश्वसनीयता भी संदिग्ध हो सकती है. क्योंकि चैनल के प्रतिनिधि के रूप में वह संपादक सामान्य नागरिक से कुछ ज्यादा होता है.
एक उदाहरण लें. भारत –पाकिस्तान बॉर्डर पर दो भारतीय सैनिकों की सर कटी लाश बरामद होती है. कुछ हीं घंटों में एक एडिटर-एंकर जो पूरे तथ्य एकत्रित करने का याने तथ्य तक पहुँचाने का दावा करता है अपने स्टूडियो प्रोग्राम में पाकिस्तान सेना को दोषी ठहराते हुए इतनी उर्जा पैदा करता है कि पूरे देश में ड्राइंग-रूम आउटरेज (कमरे में बैठे गुस्सा ) का भूचाल आ जाता है. सरकार से अपेक्षा होने लगाती है कि “हमेशा-हमेशा के लिए ये समस्या ख़त्म करो” या “अबकी पाकिस्तान को एक ऐसा सबक सिखाओ कि दोबारा हिम्मत ना करे”. उस दर्शक को यह नहीं बताया जाता कि वैश्विक राजनीतिक, सामाजिक व सामरिक स्थितियां कैसी हैं. क्या दो देशों के संबंधों को वर्तमान विश्वजनीन परिप्रेक्ष्य को देखते हुए एक भावनात्मक आक्रोश के तहत सामरिक आग में झोंका जा सकता है? क्या देश को इस चैनल ने यह बताया कि पाकिस्तान एक ऐसा देश है जहाँ आतंकवादी, आई एस आई , सेना और राजनीतिक शासक अलग –अलग बगैर एक दूसरे की परवाह किये काम करते हैं और ऐसे में पाकिस्तान को सबक सिखाने का मतलब सीधे युद्ध में जाना हीं हो सकता है वह भी एक ऐसे देश के साथ जिसके पास भारत से ज्यादा परमाणु हथियार है और जिसका ना तो स्वरुप तय है ना हीं गंतव्य? क्या आज भारत विकास छोड़ कर अपने को परमाणु युद्ध में एक ऐसे देश के साथ भीड़ सकता है जो असफल राष्ट्र है. क्या ऐसे असफल पडोसी को, जो स्वयं हीं ख़त्म हो रहा है, कमजोर करने के और उपादान नहीं है? 
एक और खतरा देखें. मान लीजिये एक महीने बाद पता चलता है कि दरअसल भारतीय सैनिकों के सर पाक सैनिकों ने नहीं बल्कि कश्मीरी आतंकवादियों ने या अफ़ग़ानिस्तान से आने वाले तस्करों ने काटे थे तब उस संपादक की विश्वसनीयता की क्या हश्र होगा?
एक और उदहारण लें. डी एस पी की हत्या में राजा भैया पर आरोप है और एडिटर-एंकर उसी दिन शाम  को अपने प्रोग्राम में सरकार से पुरज़ोर मांग करता है कि आरोपी को गिरफ्तार किया जाये. अब मान लीजिये कि सी बी आई की जाँच के बाद पता चलता है कि राजा भैय्या नहीं बल्कि कोई और गुंडा इस कांड के पीछे है, क्या उसके बाद सम्पादक की सस्था पर आने वाले आक्षेप से बचा जा सकता है?
क्या यह आरोप संपादक पर नहीं लगेगा कि उसने “सभी तथ्यों” के बजाय “कुछ चुनिन्दा तथ्यों के आधार पर अपना “तोड़ दो, फोड़ दो, हमेशा के लिए ख़त्म कर दो” का भाव अपनाया है. जब सी बी आई को महीनों पापड़ बेलने की बाद पूर्ण तथ्यों का टोटा रहता है तो सम्पादक महोदय को कुछ हीं घंटों में किस अलादीन का चिराग से “सभी तथ्य” मालूम हो जाते है?
एक और गलती. तर्क शास्त्र में माना जाता है कि जब तर्क कमजोर होते हैं तो आप्त-वचन का सहारा लिया जाता है यानि यह कहा जाता है कि अमुक बात मैं हीं नहीं गाँधी ने या गीता ने या भारत के सी ए जी द्वारा भी कही गयी है. इसी क्रम में “नेशन वांट्स तो नो टु नाइट” (देश आज इसी वक्त जानना चाहता है) कहा जाता है. क्या कोई राय -शुमारी संपादक-एंकर ने की है? और अगर मान लीजिये देश की भावना है भी तो क्या पाकिस्तान से युद्ध शुरू किया जा सकता है? इस तरह तो विवादास्पद भूमि पर कब का मंदिर बन जाना चाहिए क्योंकि प्रजातंत्र में राय-शुमारी के तहत बहुसंख्यक मत हीं देश का मत होगा?
संपादक-एंकर का उग्र विचार दो खतरे पैदा कर सकता है. एक उसकी, संपादक के संस्था की और उसके चैनल की विश्वसनीयता ख़त्म हो सकती है और दो, दर्शकों को सुविचारित एवं सम्यक विचार (अन्य एक्सपर्ट्स के) से वंचित होना पड़ सकता है और वह अपना स्वतंत्र मत नहीं बना सकता , जो कि पत्रकारिता का मूल उद्देश्य है.

bhaskar 13-3-13