कुछ सप्ताह पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश
कुमार विपक्षियों पर तंज कसते हुए भोजपुरी का एक मुहावरा कहा था “सूप हँसे तो
हँसे, चलनी का हँसे जिसमें सहस्त्र छेद”. दिल्ली में अप्रैल १४ को ख़त्म हुए जनता
दल (यू) के दो -दिवसीय अधिवेशन में यू पी
ए -२ के शासन काल में जारी महगाई, भ्रष्टाचार और केंद्र द्वारा कथित “भेद-भाव” आदि
अपने पुराने मुद्दे को बिलकुल दरकिनार करते हुए नीतीश कुमार ने अपने हमले को
गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी तक हीं महदूद रखा और बताया कि मोदी विकास
मॉडल “हवाबाजी है” जिसमें कुपोषण है, पानी-बिजली की किल्लत है और गरीबों का समावेश
नहीं है.
लगभग ६३ साल के प्रजातान्त्रिक अनुभव के बाद एक
शुभ संकेत है कि देश में राजनीतिक संवाद के चरित्र बदल रहा है. जाति, धर्म, अन्य
संकीर्ण अवधारणाओं से हट कर राजनेता भी, समझे या ना समझें, विकास की शब्दावली का
प्रयोग करने लगे है. मुख्यमंत्रियों में होड़ लगी है कि “मेरी विकास की कमीज़ उसके
विकास की कमीज़ से ज्यादा सफ़ेद है” या
“अमुक मुख्य मंत्री की विकास की कमीज में पैबंद लगे हैं”. इससे प्रजातंत्र में
गुणात्मक परिवर्तन आ सकता है. गरीब जो आज तक राजनीतिज्ञों की मानसिक अय्यासी का प्रतीक
बन गया था एक क्रियाशीलता का भाव बन गया है. लेकिन मुश्किल यह है कि विकास की
चर्चा “हाथी और छः अंधों” का किस्सा बनाता जा रहा है. और हर सत्ता में बैठा
व्यक्ति अपने हिसाब से हठी को कभी खम्भा, कभी दीवार, कभी रस्सी बता रहा है. जबकि
हकीकत यह है कि विकास की एक हीं परिभाषा है और वह है--- क्या आभाव-जनित अक्षमता
हटा कर व्यक्ति को वह मौका मिल रहा है कि वह अपना उन्नयन अपनी इच्छानुसार कर
सके.
होड़ अच्छी है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री
शिवराज सिंह चौहान ने हाल हीं में एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि नीतीश कुमार जिस
साइकिल योजना पर इतराए घूमते है वह दरअसल मूलरूप से मेरी योजना थी. यानि नीतीश
कुमार “हवाबाजी” कर रहे हैं.
दरअसल विकास राजनीतिक जन संवाद का महत्वपूर्ण
हिस्सा तो बना है लेकिन शायद इसके मर्म को ना समझने के कारण नेता प्रतिद्वंदी
राजनीति में इसे झींटा-कशी से ऊपर नहीं ले जा पा रहे हैं. विकास के बहुत सारे आयाम
होते है लिहाज़ा ये नेता कहीं का ईंट , कहीं का रोड़ा लगा कर अपने दूकान खड़ी कर रहे
हैं और दूसरे की गिरा रहे हैं.
विकास का एक उदाहरण ले. इंदिरागांधी ने १९८० से
उदारीकरण की नीति अपनाई जिसे १९९१ में मनमोहन सिंह के नेत्रित्व में नरसिम्हा राव
ने “स्टेट पालिसी” के रूप में अंगीकार किया और देश की अर्थ-व्यवस्था को वैश्विक
अर्थ-व्यवस्था से एकीकृत किया. २००१ में इसे नव उदारीकरण के रूप में और पुख्ता
किया गया जो आज तक जारी है. १९८० से लेकर आज तक भारत औसतन ६.५ प्रतिशत की जबरदस्त
विकास दर (माने सकल घरेलू उत्पाद में सालाना वृद्धि) हासिल करता रहा. नतीज़तन ३१
साल बाद भारत दुनिया के १० देशों में है सकल घरेलू उत्पाद के साइज़ के स्तर पर.
इसका १.९ ट्रिलियन डॉलर की अर्थ-व्यवस्था केवल के दस देशों का पास हीं है. लेकिन
तस्वीर का दूसरा पहलू देखिये. मानव विकास सूचकांक ( एक ऐसा पैमाना जिससे यह मापा
जाता है कि दरअसल आम आदमी के जीवन की गुणवत्ता कितनी बढ़ी है) पर भारत १९८० में १३२ वें स्थान पर था. २०११ पर
भी ठीक उसी स्थान पर है. यही नहीं संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के ताज़ा आंकड़ों
के अनुसार २०१२ में भारत एक खाना और फिसल कर १३५ वें पायदान पर आ गया है. उधर देश
के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से लेकर पूरा मंत्रिमंडल हीं नहीं कांग्रेस के नेता
हांफ-हांफ कर चमकते भारत का बखान करते रहे.
अब ज़रा राज्यों के
विकास पर आ जाएँ. बिहार के मुख्य मंत्री ने सही कहा कि मोदी का विकास एक चलावा है.
एन एस एस ओ के आंकड़े गवाह है राज्य में ग्रामीण रोजगार घटा है, कुपोषण पर अंकुश
नहीं लग सका है, उद्योग के प्रति सरकारी झुकाव की वजह से श्रमिकों की स्थिति बदतर
हुई है, कृषि विकास महज नगदी फसक की वजह से है जिसमें कम पैसे वाले किसान हिस्सा
नहीं ले पा रहे है. यह भी सत्य है कि औद्योगिक माहौल के दावे के और “वाइब्रेंट
गुजरात” के पांच अधिवेशन के बावजूद ऍफ़ डी आई (विदेशी पूँजी) का निवेश घटा कर मात्र
२.३८ प्रत्रिशत रहा गया है. लेकिन नीतीश
कुमार अर्ध सत्य बता रहे है यह कह कर कि बिजली नहीं है. कुछ क्षेत्र में बिजली के
ट्रांसमिशन की समस्या ज़रूर है लेकिन वह सर्वव्यापी नहीं है. गुजरात बिजली निर्यात
को सक्षम है. माहौल बदला है उद्यमिता बड़ी है. कानून व्यवस्था पर विश्वास पिछले दस
साल के इतिहास को देख कर बड़ा है. भ्रष्टाचार के प्रति मोदी की छवि शून्य-सहिष्णुताकी
है. कठोर शासक जो कार्य को अंजाम ना देने वाले को नहीं बख्सेगा का सन्देश है. राज्य
सकल घरेलू उत्पाद (जी एस डी पी) का
सामाजिक क्षेत्र में खर्च राष्ट्रीय औसत से भी कम है जो चिंतनीय है. कुल मिलाकर
कुछ कमियां हैं तो कुछ असाधारण उपलब्धियां भी.
अब बिहार को देखे. पूर्ववर्ती
सरकार (लालू-राबरी) के मुकाबले कुछ स्थिति बेहतर हुई है. मसलन जी एस डी पी विकास
दर में राज्य एक साल पहले तक देश में प्रथम था, हालांकि ताज़ा आंकणों के अनुसार अब
मध्य प्रदेश प्रथम हो गया है. साइकिल योजना के तहत जब गाँव की लड़कियां साइकिल से
स्कूल जाती है तो सत्ता की सार्थकता के प्रति अच्छा भाव आता है. बच्चों के स्कूल
जाने में परिमाणात्मक वृद्धि हुई है. लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता लगातार गिर रही है.
कक्षा ५ के ७२ प्रतिशत छात्र कक्षा २ का ज्ञान नहीं रखते. जी एस डी पी वृद्धि का
कारण किसानों की मेहनत से अनाज का पैदावार ११ मिलियन टन से बढ़ कर १६.५ मिलियन टन
होना है जिसमें इंद्रा भगवान् की कृपा भी शामिल है.
बिहार के नकारात्मक
पहलू स्पष्टरूप से राज्य सरकार की आपराधिक अकर्मण्यता दिखाते है. विख्यात
अर्थशास्त्री जीन ड्रेज के नेत्रित्व वाले दल ने पाया कि राज्य भयंकर गरीबी के
बावजूद केंद्र द्वारा भेजा गया अनाज मात्र ४५ प्रतिशत हीं गरीबों को वितरित करता
है जबकि आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ ऐसे राज्य ८५ से ९७ प्रतिशत तक अनाज
उठाते है. मंरेगा के कार्यक्रमों में
जबरदस्त भ्रष्टाचार व्याप्त है. राष्ट्रीय बीमा योजना के तहत भ्रष्टाचार की वजह से
“पुरुषों की बच्चेदानी निकाल ली जा रही है (जिसे इश्वार ने नहीं दिया है). पुलिस
अत्याचार के तमाम किस्से टीवी चैनलों में रोज दिखाई देते है. हर दूसरे बच्चा कुपोषण
का शिकार है. ९६ प्रतिशत लोग आज भी रोशनी के लिए मिटटी के तेल के सहारे हैं. बिहार
मानव विकास पर सबसे नीचे ३२ वें पायदान पर है.
क्या इन सब के
बावजूद मोदी के विकास मॉडल पर हमला करने की जगह अपना विकास मॉडल बेहतर करना नीतीश
की राज्य में स्वीकार्यता के लिए उपयुक्त नहीं होगा?
bhaskar