Monday 15 April 2013

क्या नितीश बाबू, अब चलनी सूप को नहीं हंस रहा है?



कुछ सप्ताह पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्षियों पर तंज कसते हुए भोजपुरी का एक मुहावरा कहा था “सूप हँसे तो हँसे, चलनी का हँसे जिसमें सहस्त्र छेद”. दिल्ली में अप्रैल १४ को ख़त्म हुए जनता दल (यू)  के दो -दिवसीय अधिवेशन में यू पी ए -२ के शासन काल में जारी महगाई, भ्रष्टाचार और केंद्र द्वारा कथित “भेद-भाव” आदि अपने पुराने मुद्दे को बिलकुल दरकिनार करते हुए नीतीश कुमार ने अपने हमले को गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी तक हीं महदूद रखा और बताया कि मोदी विकास मॉडल “हवाबाजी है” जिसमें कुपोषण है, पानी-बिजली की किल्लत है और गरीबों का समावेश नहीं है.      
लगभग ६३ साल के प्रजातान्त्रिक अनुभव के बाद एक शुभ संकेत है कि देश में राजनीतिक संवाद के चरित्र बदल रहा है. जाति, धर्म, अन्य संकीर्ण अवधारणाओं से हट कर राजनेता भी, समझे या ना समझें, विकास की शब्दावली का प्रयोग करने लगे है. मुख्यमंत्रियों में होड़ लगी है कि “मेरी विकास की कमीज़ उसके विकास की कमीज़ से ज्यादा सफ़ेद है”  या “अमुक मुख्य मंत्री की विकास की कमीज में पैबंद लगे हैं”. इससे प्रजातंत्र में गुणात्मक परिवर्तन आ सकता है. गरीब जो आज तक राजनीतिज्ञों की मानसिक अय्यासी का प्रतीक बन गया था एक क्रियाशीलता का भाव बन गया है. लेकिन मुश्किल यह है कि विकास की चर्चा “हाथी और छः अंधों” का किस्सा बनाता जा रहा है. और हर सत्ता में बैठा व्यक्ति अपने हिसाब से हठी को कभी खम्भा, कभी दीवार, कभी रस्सी बता रहा है. जबकि हकीकत यह है कि विकास की एक हीं परिभाषा है और वह है--- क्या आभाव-जनित अक्षमता हटा कर व्यक्ति को वह मौका मिल रहा है कि वह अपना उन्नयन अपनी इच्छानुसार कर सके.  
होड़ अच्छी है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हाल हीं में एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि नीतीश कुमार जिस साइकिल योजना पर इतराए घूमते है वह दरअसल मूलरूप से मेरी योजना थी. यानि नीतीश कुमार “हवाबाजी” कर रहे हैं.  
दरअसल विकास राजनीतिक जन संवाद का महत्वपूर्ण हिस्सा तो बना है लेकिन शायद इसके मर्म को ना समझने के कारण नेता प्रतिद्वंदी राजनीति में इसे झींटा-कशी से ऊपर नहीं ले जा पा रहे हैं. विकास के बहुत सारे आयाम होते है लिहाज़ा ये नेता कहीं का ईंट , कहीं का रोड़ा लगा कर अपने दूकान खड़ी कर रहे हैं और दूसरे की गिरा रहे हैं.
विकास का एक उदाहरण ले. इंदिरागांधी ने १९८० से उदारीकरण की नीति अपनाई जिसे १९९१ में मनमोहन सिंह के नेत्रित्व में नरसिम्हा राव ने “स्टेट पालिसी” के रूप में अंगीकार किया और देश की अर्थ-व्यवस्था को वैश्विक अर्थ-व्यवस्था से एकीकृत किया. २००१ में इसे नव उदारीकरण के रूप में और पुख्ता किया गया जो आज तक जारी है. १९८० से लेकर आज तक भारत औसतन ६.५ प्रतिशत की जबरदस्त विकास दर (माने सकल घरेलू उत्पाद में सालाना वृद्धि) हासिल करता रहा. नतीज़तन ३१ साल बाद भारत दुनिया के १० देशों में है सकल घरेलू उत्पाद के साइज़ के स्तर पर. इसका १.९ ट्रिलियन डॉलर की अर्थ-व्यवस्था केवल के दस देशों का पास हीं है. लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू देखिये. मानव विकास सूचकांक ( एक ऐसा पैमाना जिससे यह मापा जाता है कि दरअसल आम आदमी के जीवन की गुणवत्ता कितनी बढ़ी है)  पर भारत १९८० में १३२ वें स्थान पर था. २०११ पर भी ठीक उसी स्थान पर है. यही नहीं संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार २०१२ में भारत एक खाना और फिसल कर १३५ वें पायदान पर आ गया है. उधर देश के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से लेकर पूरा मंत्रिमंडल हीं नहीं कांग्रेस के नेता हांफ-हांफ कर चमकते भारत का बखान करते रहे.            
अब ज़रा राज्यों के विकास पर आ जाएँ. बिहार के मुख्य मंत्री ने सही कहा कि मोदी का विकास एक चलावा है. एन एस एस ओ के आंकड़े गवाह है राज्य में ग्रामीण रोजगार घटा है, कुपोषण पर अंकुश नहीं लग सका है, उद्योग के प्रति सरकारी झुकाव की वजह से श्रमिकों की स्थिति बदतर हुई है, कृषि विकास महज नगदी फसक की वजह से है जिसमें कम पैसे वाले किसान हिस्सा नहीं ले पा रहे है. यह भी सत्य है कि औद्योगिक माहौल के दावे के और “वाइब्रेंट गुजरात” के पांच अधिवेशन के बावजूद ऍफ़ डी आई (विदेशी पूँजी) का निवेश घटा कर मात्र २.३८ प्रत्रिशत रहा गया है.  लेकिन नीतीश कुमार अर्ध सत्य बता रहे है यह कह कर कि बिजली नहीं है. कुछ क्षेत्र में बिजली के ट्रांसमिशन की समस्या ज़रूर है लेकिन वह सर्वव्यापी नहीं है. गुजरात बिजली निर्यात को सक्षम है. माहौल बदला है उद्यमिता बड़ी है. कानून व्यवस्था पर विश्वास पिछले दस साल के इतिहास को देख कर बड़ा है. भ्रष्टाचार के प्रति मोदी की छवि शून्य-सहिष्णुताकी है. कठोर शासक जो कार्य को अंजाम ना देने वाले को नहीं बख्सेगा का सन्देश है. राज्य सकल घरेलू उत्पाद (जी एस डी पी)  का सामाजिक क्षेत्र में खर्च राष्ट्रीय औसत से भी कम है जो चिंतनीय है. कुल मिलाकर कुछ कमियां हैं तो कुछ असाधारण उपलब्धियां भी.
अब बिहार को देखे. पूर्ववर्ती सरकार (लालू-राबरी) के मुकाबले कुछ स्थिति बेहतर हुई है. मसलन जी एस डी पी विकास दर में राज्य एक साल पहले तक देश में प्रथम था, हालांकि ताज़ा आंकणों के अनुसार अब मध्य प्रदेश प्रथम हो गया है. साइकिल योजना के तहत जब गाँव की लड़कियां साइकिल से स्कूल जाती है तो सत्ता की सार्थकता के प्रति अच्छा भाव आता है. बच्चों के स्कूल जाने में परिमाणात्मक वृद्धि हुई है. लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता लगातार गिर रही है. कक्षा ५ के ७२ प्रतिशत छात्र कक्षा २ का ज्ञान नहीं रखते. जी एस डी पी वृद्धि का कारण किसानों की मेहनत से अनाज का पैदावार ११ मिलियन टन से बढ़ कर १६.५ मिलियन टन होना है जिसमें इंद्रा भगवान् की कृपा भी शामिल है.
बिहार के नकारात्मक पहलू स्पष्टरूप से राज्य सरकार की आपराधिक अकर्मण्यता दिखाते है. विख्यात अर्थशास्त्री जीन ड्रेज के नेत्रित्व वाले दल ने पाया कि राज्य भयंकर गरीबी के बावजूद केंद्र द्वारा भेजा गया अनाज मात्र ४५ प्रतिशत हीं गरीबों को वितरित करता है जबकि आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ ऐसे राज्य ८५ से ९७ प्रतिशत तक अनाज उठाते है.  मंरेगा के कार्यक्रमों में जबरदस्त भ्रष्टाचार व्याप्त है. राष्ट्रीय बीमा योजना के तहत भ्रष्टाचार की वजह से “पुरुषों की बच्चेदानी निकाल ली जा रही है (जिसे इश्वार ने नहीं दिया है). पुलिस अत्याचार के तमाम किस्से टीवी चैनलों में रोज दिखाई देते है. हर दूसरे बच्चा कुपोषण का शिकार है. ९६ प्रतिशत लोग आज भी रोशनी के लिए मिटटी के तेल के सहारे हैं. बिहार मानव विकास पर सबसे नीचे ३२ वें पायदान पर है.
क्या इन सब के बावजूद मोदी के विकास मॉडल पर हमला करने की जगह अपना विकास मॉडल बेहतर करना नीतीश की राज्य में स्वीकार्यता के लिए उपयुक्त नहीं होगा?

bhaskar

विकास” का भारतीय राजनीतिक डिक्शनरी में आना शुभ संकेत



लगभग ६५ साल के आजादी के बाद देश में राजनीतिक संवाद का धरातल बदल गया है. आज से कुछ दशक पहले तक विकास, गरीब, मानव विकास, शिक्षा और खाद्य केंद्र सरकारों का हीं मुद्दा होते थे. इन्दिरा गांधी ने सातवें दशक के पूर्वार्ध में “गरीबी हटाओ” का नारा दिया, प्रिवी पर्स ख़त्म किया और बैंकों का राष्ट्रीकरण किया. हालाँकि तब तक जन-आक्रोश अपनी चरम पर पहुँचाने लगा था और देश में सत्ता वर्ग ने कुछ हीं वर्षों में जयप्रकाश नारायण-नीत देशव्यापी आन्दोलन के मद्दे नज़र इमरजेंसी लगायी. गरीबी हटाओ का नारा कभी सत्ता पाने की राजनीतिक होड़ में ओझल होता गया और कभी भ्रष्टाचार की भेट चढ़ता गया. राजीव गाँधी को कहना पड़ा “रुपये में १५ पैसा हीं जनता तक पहुंचता है.
तब से आज तक के चार दशकों में प्रजातंत्र की जड़ें कुछ पुख्ता हुई. साक्षरता दर बढ़ी, प्रतिव्यक्ति आय  खरामा –खरामा ऊपर हुई, समाज की तर्क शक्ति बेहतर हुई और मीडिया सशक्त हुई. नतीजतन राज्य अभिकरणों से अपेक्षा बढ़ी. यह अलग बात है कि इसी बीच १९८४ से फिर से देश को संकीर्ण व् अतार्किक पहचान समूहों में बांटने का एक जबरदस्त और सफल प्रयास हुआ. इस वर्ष जहाँ एक ओर हिंदूवादी ताकतों और उसके राजनीतिक प्रगटीकरण –भारतीय जनता पार्टी – ने राम मंदिर का मुद्दा परवान चढ़ाया वहीं कांशी राम ने दलितों की पार्टी --बहुजन समाज पार्टी—को जन्म दिया. चूंकि हर संकीर्ण अवधारणा का एक विपरीत न्याय (पोएटिक जस्टिस) होता है, मंडल कमीशन की रिपोर्ट के रूप में बहुसंख्यक हिन्दू समाज को एक बार फिर टूटना पड़ा जातिवादी समूहों में. और तब पैदा हुआ तथाकथित “सामाजिक न्याय शक्ति” (सोशल जस्टिस फ़ोर्स). उसमे से निकले मुलायम और लालू सरीखे नेता.  जातिवादी राजनीति फिर पुख्ता हुई. जो कि आज तक कमर पर हाथ रखे प्रजातंत्र को मुंह चिढा रही है.
लेकिन सामाजिक पहचान समूह (सोशल आइडेन्टिटी ग्रुप्स) के सशक्तिकरण की झूठी चेतना पर राज करने वाले क्षेत्रीय दल भी आज विकास की भाषा बोलने लगे है. राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच इस बात की होड़ लगी है कि उन्हें विकास का मुखिया कहा जाये. मैं कुछ साल पहले तक अगर किसी मुख्य मंत्री का इंटरव्यू करता था तो विकास के मापक शब्दों को वह यह कह कर ताल देता था कि यह टेक्निकल बात हम अपने अधिकारियों से पूछे तो अच्छा रहेगा. मानव विकास सूचकांक या बाल मृतु दर (आई एम् आर ) उसके लिए अजूबा होते थे. गरीबी की बात करने पर वह एक बात कहता था “हम गरीबों के आंसू पोछेंगे और हमारे शासन में गरीबी ख़त्म होगी. लेकिन आज किसी नरेन्द्र मोदी , किसी रमन सिंह, किसी शिवराज सिंह, किसी नीतीश या किसी अशोक गहलोत को अगर प्लानिंग कमीशन के अधिकारियों से बात करते देखें तो यह अहसास नहीं होगा कि विकास कोई टेक्निकल सब्जेक्ट है जिससे राज-नेताओं का कोई सीधा रिश्ता नहीं है.
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री ने हाल हीं में एक न्यूज़ चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा “आज जिस नीतीश कुमार अपना माडल बता कर बेंच रहे हैं वह दरअसल मेरे माडल है मैंने स्कूल जाने वाली लड़कियों के लिए साइकिल योजना सबसे पहले शुरू की थी”. एक होड़ मची है “वोकास माडल” बताने की. 
किसी गरीब मुल्क में विकास का पैमाना राजनीतिक स्वीकार्यता का पर्याय बने इसका सीधा मतलब होता है कि गरीब अब राजनीतिज्ञों की मानसिक अय्यासी का शब्द ना हो कर एक चाबुक है. अब चूंकि विकास का भ्रष्टाचार से  गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी दस साल की विकास यात्रा से २००२ के गुनाह साफ़ कर रहे हैं और एक हद तक उन्हें जन-स्वीकार्यता भी हासिल हो रही है.  शायद जनता भी यह समझने लगी है कि अपराध का फैसला न्यायालय करेगी लेकिन कोई राजनेता अगर दस साल से राज्य के विकास लिए जी तोड़ मेहनात कर रहा है या ऐसा करता दिखाई देता है तो वह उनसे अच्छा है जो विकास तो दूर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं. और अगर नहीं डूबे हैं तो उस ओर से मुंह मोड़ रखे हैं. जनता शायद यह भी मानने लगी है कि “बाँझ ईमानदारी” का कोई मतलब नहीं होता.
राज्य के मुखिया अपने –अपने मॉडल परोश रहे हैं. एक मोदी माडल है तो एक नीतीश मॉडल है, अक्सर  गहलोत और शिवराज भी अपने माडलों का ज़िक्र कर रहें है. दरअसल हर माडल में कुछ खराबी है तो कुछ अच्छाई. मसलन मोदी का कहना है कि उनके माडल में संतुलित विकास किया गया है और अर्थ=व्यवस्था के तीनों  क्षेत्र (कृषि, उद्योग व् सेवा) का जी एस डी पी (सकल राज्य घरेलू उत्पाद ) की ३३-३३ प्रतिशत की भागीदारी है. शायद कृषि –आधरित अर्थ-व्यवस्था में जहाँ देश का ६२ फी सदी व्यक्ति रहता हो इससे अच्छी व्यवस्था नहीं हो सकती. लेकिन गहराई से जांच करने पर पता चलता है कि कृषि विकास दर बढ़ने का कारण कुछ पैसे वाले किसानों का कैश क्रॉप की तरफ मुद जाना है. कृषि क्षेत्र में रोजगार कम हुए हैं और जमीन की उपलब्धता आम किसानों से हट कर बड़े किस्सनों के पास चली गयी है. साथ हीं उद्योगिक विकास तो हुआ है परन्तु श्रमिकों की माली हालत बदतर हुई है और रही अभिकरण उद्योगपतियों के हित-साधन में लगे हैं. इस आपाधापी में मानव विकास के प्रयास भी कम हो रहे हैं नतीज़तन राज्य का बाल मृतु दर अपेक्षित रूप से नहीं घटा है. सामजिक क्षेत्र में व्यय और जी एस डी पी का अनुपात कम हुआ है.
विकास की रह पर चलने की दो अडचनें मुख्य हैं. पहला : अगर विकास का स्तर पहले से हीं अधिक रहा है तो ऐसे में आंकड़ों में प्रतिशत के रूप में विकास उतना नहीं दिखाई देता. गुजरात इसका उदाहरण है. गुजरात या महाराष्ट्र पहले से हीं आर्थिक मामलों में विकसित रहे हैं. गुजरात के समाज में हीं उद्यमिता है और अमूल जैसा कोआपरेटिव प्रयास कई दशकों से विश्व के लिए उदाहरण है. उसके विपरीत उन राज्यों में जहाँ विकास बेहद कम रहा है तो उसमे थोड़ा सा भी प्रयास रंग लाता है और विकास के आंकड़े बेहतर करने में कम वक़्त लगता है और गति तेज होती है. बिहार इसका उदाहरण है. लालू सरकार की अकर्मण्यता के बाद एक विश्वास का वातावरण बना. कृषि उद्पादन में आई अचानक ५० प्रतिशत की वृद्धि ने राज्य का जी डी पी बढ़ा दिया है. बिहार के पास अभी भी करने के लिए काफी गुंजाइस है खासकर जनसँख्या-वृद्धि दर अभी भी घटने का नाम नहीं ले रही है. राज्य में सडकों के बन जाने से एक माहौल तो बना है परन्तु समाज में उद्यमिता ना होने के कारण औद्योगिक विकास परवान नहीं चढ़ रहा है.
एक अन्य पहलू पर गौर करें. जहाँ बिहार आबादी घनत्व ११०२/वर्ग किलोमीटर है वहीं राजस्थान और मध्य प्रदेश का क्रमशः १६५ और २३६. इसका सीधा मतलब है कि बिहार में जन विकास कार्यक्रमों की डिलीवरी बहुत आसन है इन दो राज्यों के मुकाबले. यानि जहाँ एक सम्मान को दस हज़ार लोगों में वितरित करने में बिहार को कुछ गाँवों में हीं घूमने पडेगा वहीं इन दोनों राज्यों के डिलीवरी अभिकरणों को कई जिले या तहसील जाना पड़ सकता है. बिहार में जन वितरण प्रणाली को और बेहतर करने की ज़रुरत है.
इन सबमें बेहतर है छत्तीसगढ़ का विकास मॉडल खासकर खाद्य एवं चिकित्सा को लेकर. रमन सिंह ने राज्य में सभी के लिए चिकित्सा बीमा की योजना शुरू की और साथ हीं गरीबों के लिए सस्ते और मुफ्त अनाज के कई योजनायें बेहद सफल ढंग से चल रहीं हैं. लाभार्थी कहीं से भी अपना मोबाइल दिखा कर सस्ता अनाज हासिल कर सकता है. बिजली के उपलब्धता के कारण कृषि विकास दर बेहतर हुई है और नए उद्योगों के आने से श्रमिकों का पलायन कम हुआ है.
कुल मिलकर विकास का राजनीतिक डिक्शनरी में आना भारत जैसे मुल्क के लिए एक शुभ संकेत है.

sahara (hastkshep)