Thursday 13 June 2013

“हिंदुस्तान की गद्दी पर हमेशा नपुंसक लोग नहीं बैठेंगे”



        “द्वितीयोनास्ति”  ---कैलास यात्रा पर मन को झकझोरने वाली रचना 
 

कभी किसी रचना के पढने के बाद आध्यात्मिक अंतर्यात्रा, उछाह, विरक्ति, थ्रिल करने वाली ख़ुशी, आत्मालोचना का भाव लाने वाला ज्ञान, अपनी अकर्मण्यता के प्रति कुंठा व अपने पूर्व व वर्तमान राजनीतिक पीढ़ी पर कोफ़्त का भाव और सबके बाद एक प्रतिबध्धता की जो नहीं हो सका वह किया जाएगा—आध्यात्मिक स्तर पर और साथ हीं सामाजिक-राजनीतिक उनीदेपन के प्रतिकार के रूप में भी-----   इतने भाव एक साथ शायद हीं कभी आते हों. “द्वितीयोनास्ति” इस एक ऐसी हीं रचना है. स्वयं लेखक एवं पत्रकारिता के स्थापित हस्ताक्षर हेमंत शर्मा का कहना है : इस किताब में कुछ कहा, कुछ अनकहा है. कहीं -कहीं निःशब्द रहा हूँ. यह न यात्रा-वृत्तांत है, न संस्मरण. इस पुस्तक में जितना मैं मौजूद हूँ, उतने आप भी. कैलास और मानसरोवर के साथ...... हमने किस नज़र से देखा? कहाँ से देखा? जितना देखा, क्या उतना व्यक्त कर पाया? शायद नहीं. सच कहूं तो मानसरोवर की यात्रा आज भी कहीं भीतर जारी है. ईश्वर को देखने के लिए मरना होता है. जो इस काया के साथ देखते हैं सिद्ध होते हैं. न हम सिद्ध थे. न मरे. फिर भी अहसास किया. अगर इस अहसास का आपको सहभागी बना पाया तो यह मेरा पुण्य, नहीं बना पाया तो असफलता मेरी.”

कहते हैं भाषा भाव का वहन करती है. आध्यात्म के गूढ़ रहस्य की बात करेंगे तो भाषा भी भारी हो जायेगी. और भाषा के जरिये उस सूक्ष्म तक जो अनंत है, पहुँचने के लिए अपने आपको तर्क के कई परतों  ऊपर ले जाना होता है. पर लेखक की, जो हिंदी साहित्य के मूर्धन्य लेखक परिवार से आता है लेखनी में अद्भुत क्षमता है. एक बानगी देखिये. “कैलास  की यात्रा में एक प्रश्न बार-बार जेहन में कौंधता रहा कि आखिर शिव में ऐसा क्या है, जो उत्तर में कैलास से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक वे एक जैसे पूजे जाते हैं? उनके व्यक्तित्व में कौन सा चुंबक है, जिस कारण समाज के भद्रलोक से लेकर शोषित, वंचित, भिखारी तक उन्हें अपना मानते हैं? वे सर्वहारा के देवता हैं. उनका दायरा इतना व्यापक क्यों है?”  लेखक का यह सहज प्रश्न पाठकों को कहीं दूर तक आध्यात्मिक –सामाजिक जटिलताओं पर सोचने को मजबूर करता है. और प्रश्न उठता है “सर्वहारा का देवता बनाम भद्रलोक का देवता ?” और तब अपने को खोजने की और अपने आध्यात्मिक प्लेसमेंट की जिज्ञासा पैदा होती है.

जब साथ के लोग ठंड के मारे गरम कपड़ों में कमरे में दुबके थे, लेखक गाइड के मना करने के बावजूद लेखक ब्रह्म मुहूर्त में मानसरोवर का रहस्य जानने के लिए निकल पड़ता है. “मैं रात कोई साढ़े तीन बजे उठा. कैमरा लिया और कमरे के बाहर निकला. सामने हीं पवित्र मानसरोवर था. थके-मांदे सभी सो रहे थे. निपट अकेला हीं मैं मानसरोवर की ओर बढ़ा. कोई पचास कदम चलने के बाद हीं सरोवर के किनारे था. नीला पारदर्शी जल, हमारी सभ्यता का पवित्रतम जल. उसे सिर पर रखा. आचमन किया. सामने चमक रहे कैलास  को प्रणाम किया. और मन्त्र-मुग्ध सा खड़ा देखता रहा. इस सन्नाटे का भी एक संगीत था, जिसका सुन्दर वर्णन रामायण, महाभारत और स्कन्दपुराण में मिलता है. बाणभट्ट की कादंबरी कालिदास के रघुवंश और कुमारसंभव के अलावा संस्कृत व पालि ग्रंथों में भी इसके सौन्दर्य का अपूर्व वर्णन है.   

सरोवर के ठन्डे पानी में नहाने का अनुभव बताते हुआ लेखक का कहना था “ मैंने कपडे उतार गमछा पहना, शरीर को तैयार किया. ठंड से लड़ने का मनोबल बढ़ाया. सरोवर को प्रणाम किया. जल का आचमन किया. मीठा अमृत जैसा स्वाद. एक पाँव मानसरोवर में रखा तो करंट दिमाग तक लगा. झट से दूसरा पाँव भी रखा. फिर नाक पकड़ कर डुबकी लगाईं. लगा कि सिर पथरा गया, हाँथ –पाँव अकड़ गए. दूसरी व तीसरी डुबकी से थोड़ी रहत लगी. पर हड्डियां काँप गयीं. लगा कि पुरखों को तारने आया था , कहीं पुरखों में शामिल तो नहीं हो जाऊंगा”. सेन्स ऑफ़ ह्यूमर इस लेखक की लेखनी का आभूषण बना रहा. आगे देखिये “तभी हंसों का एक जोड़ा देखा. राजहंस यानी “बार –हेडेड गूज”, जिसे हिमालयन ग्रीन फ्रिंच भी कहते हैं. .... बड़े भाग्य से हंसों के दर्शन होते हैं. पीछे मुड़ मित्रों को जब तक बताता तब तक वे ओझल हो चुके थे. कबीर याद आये --- उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला. मित्रगण मानने को तैयार नहीं थे कि मैंने राजहंस देखा”. 

लेखक एक जगह कहता है “राम का व्यक्तित्व मर्यादित है, कृष्ण का उन्मुक्त और शिव असीमित व्यक्तित्व के स्वामी. वे आदि हैं और अंत भी. शायद इसीलिए बाकि सब देव हैं. केवल शिव महादेव. वे उत्सव प्रिय हैं. शोक, अवसाद और अभाव में भी उत्सव मनाने की उनके पास कला है. वे उस समाज में भरोसा करते हैं, जो नाच -गा सकता हो. यह शैव परम्परा है. जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे कहते हैं --- उदास परम्परा बीमार समाज बनाती है. शिव का नृत्य श्मशान में होता है. श्मशान में उत्सव मनाने वाले वे अकेला देवता हैं”.  भारतीय चिंतन के एक पक्ष के बीमार भाव पर शिव का यह उदाहरण कहीं सोचने को मजबूर करता है.

यात्रांत के चरण में लेखक भी उस कुंठा-मिश्रित-आक्रोश की जद में आ कर कहता है ”रह-रह कर एक बात कचोट रही थी. हमारे प्रभु का निवास विदेश में! यह क्यों? हम कैसे काहिल और निक्कमे हैं. ऐसी गलती क्यों और कैसे हुई कि प्रभु का घर विदेश में चला गया? मैंने हिमालय नीति पर डा. राम मनोहर लोहिया को पढ़ा था. उन्होंने इस सवाल पर नेहरु से पूछा था , “कौन कौम है , जो अपने बड़े देवी-देवताओं को परदेश में बसाया करती है. छोटे-मोटे को बसा भी दे , लेकिन शिव-पार्वती को विदेश में बसा दें. यह कभी हुआ नहीं, हो भी नहीं सकता......... क्योंकि तिब्बत हमारा भाई है नेपाल की तरह. लेकिन अगर तिब्बत आज़ाद नहीं रहता तो हिंदुस्तान और चीन की सीमा मैकमोहन न होकर ७०-८० मील और उत्तर में कैलास  मानसरोवर के उस पार होनी चाहिए थी. जो इसे नहीं मानते, उनके लिए मेरा छोटा सा जवाब होगा –हिंदुस्तान की गद्दी पर हमेशा नपुंसक लोग नहीं बैठेंगे”        

 प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब में लेखक ने स्वयं के कैमरे से ली गयी तस्वीर से यात्रा-वृतांत (?) को सजीव कर दिया है. एक कमी यह थी कि इन चित्रों का परिचय कहीं किसी रूप में आता तो पाठक और जगह के बीच तादात्म्य और बढ़ जाता. फिर भी पुस्तक पढ़ने व चित्रों को देखने के बाद यही प्रश्न मन को कचोटता है कि हम कैसे काहिल हैं कि जमीन पर इस आध्यात्मिक स्वर्ग के सशरीर दर्शन नहीं कर सके? अगर लेखक के प्रयास की एक मात्र और कमी है तो वह यह  कि इतने प्रखर लेखक की यात्रा अभिजात्य-वर्गी नहीं होनी चाहिए थी—याने हेलीकाप्टर की जगह जन-सामान्य वाला रास्ता दुरूह तो होता लेकिन लेखक के रास्ते के अनुभव हमें और उद्वेलित करते—आध्यात्मिक रूप से और सामाजिक चेतना के स्तर पर भी.
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Monday 10 June 2013

“कैश फॉर लॉबिंग”: इंग्लैंड और अमरीका हमसे बेहतर नहीं !




ब्रिटेन के संसद, जिसे हम विश्व के सभी संसदों की जननी मानते हैं, के उच्च सदन (हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स) के तीन सदस्य “कैश फॉर लॉबिंग” (पैसे लेकर एक कंपनी के हित में दबाव बनाना ) के मामले में संलिप्त पाए गए. खुलासा एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिये अखबार सन्डे टाइम्स ने किया. यह स्थिति उस देश में है जिसमें संसदीय प्रजातंत्र का इतिहास लगभग ४०० साल का रहा है और जहाँ यह माना जाता रहा है कि समाज बेहतर आचरण का प्रतिनिधि रहा है.
प्रजातंत्र की संस्थाओं से भारत में हीं नहीं समूचे विश्व में मोह भंग हुआ है. तीन साल पहले २२ जून, २०१० को प्रकाशित एक व्यापक “गाल-अप” पोल में पाया गया कि ८९ प्रतिशत अमरीकियों को अमरीकी कांग्रेस (संसद ) में विश्वास नहीं है. अगर महात्मा गाँधी भारत में सांसदों के पैसा लेकर सवाल पूछने के मामले में स्वर्ग में आजादी के ६५ सालों में आंसू बहाने को मजबूर कर रहा होगा तो सवा दो साल बाद बेंजामिन फ्रेंक्लिन (अमरीकी आजादी व संविधान के जन्मदाता) की आत्मा भी बहुत खुश नहीं होगी इस तथ्य को जान कर. 
अमरीकी नेताओं व संस्थाओं की अनैतिकता के चरम स्थिति के कुछ नमूने देखिये. ७० वें दशक के पूर्वार्ध का किस्सा है. अपने दूसरे कार्यकाल ले लिए हो रहे चुनाव के दौरान रिचर्ड निक्सन ने अपने चुनावी भाषण में ऐलान किया कि कि अबकी चुने जाने का बाद वह दुग्ध –उद्योग को दी जा रही सहायता राशि, जो प्राइस सपोर्ट (कीमत कम रखने के एवज में सरकार द्वारा दुग्ध उद्योग को दी जाती है) खत्म कर देंगें. अगले दो दिन के अन्दर हीं अमेरिका के दुग्ध-उद्योग संघ ने उन्हें चुनाव फण्ड में दो मिलियन डॉलर (दस करोड़ रुपये) दे दिए. निक्सन जीत गए और दुग्ध उद्योग की बात सत्ता में आने के बाद भूल गए.   
एक अन्य उदाहरण लें. शिकागो यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रघुराम राजन और लुईजी जिंगल्स ने अपने अध्ययन में पाया कि १९८० के दशक में व्यापर प्रतिबन्ध (तथाकथित जन हित में) के कारण उपभोक्ताओं को करीब ६.८ अरब बिलियन डॉलर (लगभग ३४,००० करोड़ रुपये) ज्यादा देने पड़े जबकि देश के उद्योगों को सब्सिडी ( फिर वही जन- हित का बहाना) के नाम पर सरकार ने ३० अरब डॉलर यानि (करीब १.४० लाख करोड़ रुपये) दिए. कहना ना होगा कि भारत में क्यों हर साल उद्योगों को प्रोत्साहन के नाम पर बजट में ५.५ लाख करोड़ रुपये दिए जाते हैं जबकि किसानों को ऋण माफ़ी के नाम पर सरकार को पसीने आने लगते है और राजस्व घटे की दुहाई दी जाने लगती है.
अमरीका में भी उस सिस्टम में बैठे तमाम लोगों आज यह मान रहे हैं कि सरकारें अपराधी से ज्यादा खतनाक हो गयी है समाज के लिए. सी आई ए के पूर्व निदेशक एवं सांसद लीओन पनेट्टा ने हाल हीं में कहा अपने संसद के बारे में कहा  “ वैध्यिकृत घूस अमरीकी संसद की कार्यप्रणाली बन गया है”. जज रिचर्ड पोस्नेर ने कहा “ विधायिका के कार्यकलाप घूस पर आधारित है”.
तीसरा उदहारण और भी खरतनाक है. सन १९८५ तक टाइप -२ डायबिटीज मात्र १ से २ प्रतिशत अमरीकी बच्चों में होती थी आज यह संख्य ८५ प्रतिशत हो गयी है. कारण: बाजारू ताकतों ने बच्चों के खान –पान की आदत में जबरदस्त परिवर्तन को मजबूर किया है. आज हर अमरीकी बच्चा अपनी कुल कैलोरी का २० प्रतिशत विश्व के दो मशहूर कोल्ड ड्रिंक ब्रांड के पेय से ले रहा है और औसत अमरीकी ९०० ग्राम सॉफ्ट ड्रिंक रोज पीता है.
जो सबसे बड़ा खतरा है वह यह कि इन सॉफ्ट ड्रिंक के नाम पर मिलने वाले पेय पदार्थों में चीनी की जगह हाई –फ्रक्टोज कॉर्न सिरप (एच ऍफ़ सी एस) इस्तेमाल किया जा रहा है जो सस्ता पड़ता है और जो एक बड़ी कम्पनी द्वारा बनाया जा रहा है. इस कम्पनी ने अमरीकी कांग्रेस में सांसदों की जबरदस्त लॉबी तैयार कर राखी है जिसकी वजह से इसके इस्तेमाल के खिलाफ कानून नहीं बन पा रहा है हालाँकि स्वास्थ्य सम्बन्धी रिसर्च संगठनों का कहना है कि बच्चों में मोटापा और टाइप-२ डायबिटीज का मूल कारण एच ऍफ़ सी एस का पेय पदार्थों में प्रयोग है.         
हम औपनिवेशिक मानसिकता के तहत यह मान बैठे हैं कि यूरोप या अमरीकी समाज हमसे नैतिकता के धरातल पर बेहतर है. इस तरह की अवधारणा तब बनती है जब हम सत्य को उसकी फेस वैल्यू पर ना देख कर इस आधार पर देखते हैं कि जो राष्ट्र इतना समृद्ध है, जिस राष्ट्र में इतने नोबेल पुरष्कार विजेता पैदा होते हैं और जो इतना ताकतवर है वह ज़रूर हर मामले में अच्छा होगा.   
कानून के जरिये नैतिकता का क्षरण रोकने की वकालत करने वालों के लिए यह एक बड़ा सबक है. भारत में लगातार इस तरह की घटनाओं को लेकर एक वर्ग है जो यह मानता है कि संस्थाओं में बैठे लोग अगर अनैतिक हों तो सख्त कानून के जरिये उन पर अंकुश लगाया जा सकता है. ब्रिटेन में हीं सन १९९५ में ऐसे हीं घटनाओं के मद्दे नज़र जस्टिस नोलन समिति बनाई गयी जिसकी अनुशंसा पर संसद के लिए आचार समितियां बनी. पर १७ साल बाद वही ढाक के तीन पात.
संसद हो या न्यायपालिका, मीडिया हो या अफसरशाही, अगर कानून बनाना भ्रष्टाचार का समाधान बन सकता तो आज दुनिया में तीन करोड़ तीस लाख कानून है, हत्या, बलात्कार, हिंसा कब के खत्म हो चुके होते. हम एक स्वस्थ समाज में कानून के साये में जी रहे होते. नैतिकता से अनैतिकता की तरफ जाने का प्रश्न तो और भी टेढ़ा है. एक सांसद कब किसी कंपनी के हित में क्या काम कर रहा है और किस रूप में उसका प्रतिफल कब ले रहा है ये बातें कानून की जद आम तौर पर नहीं आ पाती हैं. क्योंकि इन सब का आधार बताया जाता है ---–जन-हित. एक मुख्यमंत्री कब किसानों की जमीन का अधिग्रहण इस आधार पर कर लेता है कि औद्योगिक विकास के लिए जमीन की दरकार है और कब वह जमीन किसी बड़े कोलोनाइज़र को यह कह कर दे दी जाती है कि औद्योगिक विकास तब तक नहीं होगा जबतक रिहाइशी मकान नहीं बनते, हमें पता नहीं चलता अगर मीडिया यह बातें सामने ना लाये. या कोई सी ए जी अपनी रिपोर्ट में ये बातें न कहे. ये सारे परिवर्तन जन हित के नाम पर किये जाते है.
नैतिकता का क्षरण केवल भारत में हो रहा है यह कहना गलत होगा. यह सोचना भी उतना हीं गलत होगा कि कानून बनाने से हम शासन में बैठे व्यक्ति में नैतिकता ला सकेंगे. ऐसा होता तो अमरीका या ब्रिटेन इस स्तर का भ्रष्टाचार न कर रहे होते. ज़रुरत है पूरे विश्व में नैतिक मान डंडों को फिर से प्रतिष्ठापित करने के लिए समाज-दर्शन बदलने की, अच्छे मानदंड स्थापित करने की. तभी जो संसद जाएगा या भेजा जाएगा उसकी नैतिकता फैलाद की तरज होगी जो कंपनियों के दलाल नहीं तोड़ पाएंगे. 

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मोदी, आडवाणी और संघ: प्रसव पीड़ा इतनी कष्टकर क्यों?




तो आखिरकार नरेन्द्र मोदी को भाजपा चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बना दिया गया. यह फैसला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है और संघ से ऊपर व्यक्ति नहीं हो सकता. लिहाजा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी माने तो ठीक, ना माने तो ठीक. संघ इस समय “खूंटा वहीं गड़ेगा” के भाव में है. भाजपा और देश की अन्य राजनीतिक दलों में यही अंतर है कि भाजपा के पास संघ है (या सच कहें तो संघ के पास भाजपा है). मोदी को शीर्ष पर लाने के फैसले में कोई गलती नहीं हुई है. अगर भाजपा को पिछले ११ साल में हुए तीन आम चुनावों में अपने गिरते जनाधार को फिर से हासिल करना हीं है बल्कि बढा कर २०० सीटों के आस-पास लाना है तो नया और चमत्कारी चेहरा लाना दूरदर्शिता हीं कही जाएगी.
इस बात में दो राय नहीं हो सकती कि भ्रष्टाचार, महंगाई और कुव्यवस्था के आरोप में आकंठ घिरी वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व वाली यू पी ए -२ से जनता त्रस्त है और विकल्प चाहती है. भाजपा दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी है. मोदी उभरते माध्यमवर्गीय भारतवासियों को कई तरह से संतुष्ट करते है और उनकी २००२ के गुजरात दंगों वाली छवि आज बौद्धिक जुगाली से अधिक कुछ नहीं है. देश इस वक्त राजाओं, कलमाडियों, कोयला घोटाला करने वालों से निजात चाहता है, देश महंगाई के बोझ से दबा जा रहा है चाहे हिन्दू हो या मुसलमान. प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता सम्प्रदाय नहीं देखती. राजा और शाहिद  बलवा मिलकर १.७६ लाख करोड़ रुपये का चूना दे लगा जाएँ, यह ना हिन्दुओं का सुहाता है ना मुसलमानों को, ना हीं पिछड़े या अति-पिछड़े वर्ग के लोगों को.     
लेकिन ८८ साल पुराने संगठन “संघ” से यह अपेक्षा नहीं थी कि एक छोटा सा नेतृत्व-परिवर्तन इतनी तकलीफदेह और बेपर्दा प्रसव –पीड़ा देगा जिसकी वज़ह से भाजपा का मूल दावा “पार्टी विद अ डिफरेंस” रातो-रात “पार्टी विद डिफरेंसेस” में तब्दील हो जायेगा. क्या इस संकट को आसानी से हल नहीं किया जा सकता था? क्या ज़रूरी था कि मोदी को शीर्ष पर लाने के पहले पार्टी के सबसे बड़े नेता आडवाणी को  ना केवल हाशिये पर रखा जाये बल्कि हर फैसले के बाद उनको इसका अहसास भी दिलाया जाये.
यह बात सही है कि संघ-भाजपा रिश्ते की केमिस्ट्री १९९० की आडवाणी रथ यात्रा के बाद की स्थितियों में बदली. वाजपेयी और आडवाणी का कद बढा जिसका पार्टी को लाभ मिला. नागपुर का वर्चस्व कम हुआ. करीब अगले डेढ़ दशक तक या यूं कहें कि तत्कालीन सरसंघचालक रज्जू भैया के सीन से हटने के  बाद से संघ का नेतृत्व अनुभव में भी और उम्र में भी इन नेता-द्वय से छोटा रहा.
केमिस्ट्री इतने बदली कि हाल के कुछ वर्षों पहले जब एक पत्रकार ने संघ के किसी शीर्ष नेता से बात करते हुआ कहा कि “कुछ भी हो आडवाणी का भाजपा को इस उंचाई तक लाने  में बड़ा योगदान है” तो उस संघ नेता का फौरी प्रश्न था “और आडवाणी को यहाँ तक लाने में किसका योगदान है?” यही समस्या है. संघ यह समझ रहा है कि वह आडवाणी पैदा करता है और आडवाणी को यह लग रहा है कि उनके आजीवन योगदान को संघ के लोग ना केवल नज़रंदाज़ कर रहें हैं बल्कि उसकी भरपाई भी नहीं हो रही है.     
लेकिन, आडवाणी जो हकीक़त आज नहीं समझ पा रहे हैं वह यह कि समय बदला, २००४ में या उसके बाद उनका चेहरा वोट नहीं ला सका है. वह स्टेट्समैन चाहे कितने हीं अच्छे हों, उनकी व्यक्तिगत सुचिता आज के भ्रष्ट राजनीतिक रेगिस्तान में चाहे कितनी हीं नखलिस्तान की तरह हो, भाजपा को इस मौके पर राजनीतिक लाभ नहीं दे सकती. चुनावी राजनीति में अच्छा स्टेट्समैन होना और वोट बटोरना दो अलग-अलग बातें हैं. संघ का प्रयोग इसी दिशा में है.
लेकिन क्या इसके लिए आडवाणी को हाशिये पर लाना ज़रूरी था? संघ एक अपेक्षाकृत बौने कद का अध्यक्ष पार्टी को देता है बगैर आडवाणी से कोई सलाह लिए, उसका अध्यक्षीय काल बढाने का उपक्रम करता है भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद, आडवाणी को फिर हाशिये पर रखा जाता है. मोदी को लाने के पहले कोई वैचारिक मंथन नहीं होता और अगर होता है तो आडवाणी को विश्वास में लिए बगैर. फिर मोदी अपने तरीके से कभी किसी संजय जोशी को हटवाते हैं तो कभी दागी अमित शाह को सीधे ना केवल महामंत्री बनाया जाता है बल्कि उसे उत्तर प्रदेश ऐसे बड़े राज्य की कमान दे दी जाती है. आडवाणी फिर दरकिनार कर दिए जाते हैं अगर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाये तो क्या यह सही नहीं होगा कि इतनी बार नज़रंदाज़ होने का बाद कोई भी रियेक्ट करेगा. आडवाणी तो फिर भी शालीन रहे.      
राजनीतिक दल चूंकि व्यक्ति और उनकी महत्वाकांक्षा का सकल योग होता है लिहाज़ा इसमें बदलाव, झंझावात, व्यक्तित्व की टकराहट, संस्था –व्यक्तित्व रसाकसी और तज्जनित चारित्रिक-सैद्धांतिक  परिवर्तन अपरिहार्य है. चिंता तब होनी चाहिए जब यह सब कुछ न हो रहा हो. क्योंकि तब यह डर रहता है कि दल कहीं अधिनायकवादी तो नहीं हो गया है. यह अलग बात है कि कैडर-आधारित दलों में यह पोलित ब्यूरो के माध्यम से बगैर जनता में जाये होता है और खुले दलों में यह थोडा बेलगाम तरीके से होता है और जनता को भी पता चलता रहता है.
अगर कम्युनिस्ट पार्टी श्रीपाद अमृत डाँगे सरीखे संस्थापक नेता को दरकिनार करती है और तथाकथित  वैचारिक आधार १९६४ में दो टुकड़ों में बाँट सकती है और कालांतर में इसके कई टुकड़े बिखरते है तो आजाद भारत में हीं कांग्रेस में नेहरु-टंडन टकराहट, वाम-दक्षिण धडों के नाम पर इंदिरा बनाम पुराने कांग्रेस नेताओं का झगड़ा, राजीव-वी पी सिंह टकराव, सोनिया-राव टकराव किसी से छिपा नहीं है.    
भारतीय जनता पार्टी में मोदी के नाम पर इतना बवेला मचना पार्टी में हो रहे कई किस्म के क्षरण का प्रतिफल है. हम इसे उदारवादी बनाम कट्टरवादी संघर्ष के रूप में देख सकते है, इसका विश्लेषण  व्यक्तिगत मह्त्वाकांछा बनाम संस्था के वर्चस्व के रूप में कर सकते हैं या फिर हम इसका आंकलन  संस्था की “इस्तेमाल करो और फेंको” की संस्था की नीति के रूप में भी कर सकते हैं. या हम इसे इन सबके सकल योग के रूप में देख सकते हैं. जैसे भी देखें एक बात साफ़ है वह यह कि भारतीय जनता पार्टी “पार्टी विद ए डिफरेंस” नहीं है. सत्ता व्यक्ति की शुचिता पर भारी पड़ता है, संस्था का अहंकार और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की टकराहट होती है.      
भावनात्मक मुद्दों पर आधारित राजनीति में तात्कालिक लाभ तो होता है परन्तु दूरगामी परिणति अपेक्षित नहीं होती. यह “न्याय का बदला” (नेमसिस) के सिद्धांत की शिकार होती है. भारतीय जनता पार्टी शायद इस समय इसी स्थिति से गुज़र रही है. पूरा का पूरा ढांचा इस द्वन्द में ---- आक्रामक हिंदुत्व बनाम उदारवादी (लिबरल) हिंदुत्व या यूं कहें कि विकासवादी हिंदुत्व --- घिरा हुआ है. हम कई बार इसे गलती से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भारतीय जनता पार्टी पर वर्चस्व, पार्टी के आधार स्तम्भ लालकृष्ण आडवाणी की पदलोलुपता-जनित छटपटाहट , या संघ –आडवाणी विभेद या आडवाणी कैंप बनाम मोदी-राजनाथ कैंप मान कर विश्लेषण करते हैं. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की गोवा में रविवार को संपन्न त्रि-दिवसीय राष्ट्रीय सम्मलेन का निष्कर्ष पार्टी के इस भ्रम-द्वन्द को परिलक्षित करता है. 
संघ जैसे अनुभवी और अनुशासित संगठन से प्रतिकार और प्रतिक्रिया के रूप में फैसले लेना अनुचित था. बेहतर तो यह होता कि आडवाणी की स्टेट्समैन की और ईमानदार नेता की छवि और मोदी की विकासपुरुष की इमेज को साथ लेकर चुनाव में भाजपा को उतारता. लेकिन लगता है संगठनों में भी हाड़-मांस के हीं लोग होते हैं , उनमें भी मानवोचित दुर्गुण होते हैं.    

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