“द्वितीयोनास्ति” ---कैलास यात्रा पर मन को झकझोरने वाली
रचना
कभी किसी रचना के पढने के
बाद आध्यात्मिक अंतर्यात्रा, उछाह, विरक्ति, थ्रिल करने वाली ख़ुशी, आत्मालोचना का
भाव लाने वाला ज्ञान, अपनी अकर्मण्यता के प्रति कुंठा व अपने पूर्व व वर्तमान
राजनीतिक पीढ़ी पर कोफ़्त का भाव और सबके बाद एक प्रतिबध्धता की जो नहीं हो सका वह
किया जाएगा—आध्यात्मिक स्तर पर और साथ हीं सामाजिक-राजनीतिक उनीदेपन के प्रतिकार
के रूप में भी----- इतने भाव एक साथ शायद
हीं कभी आते हों. “द्वितीयोनास्ति” इस एक ऐसी हीं रचना है. स्वयं लेखक एवं
पत्रकारिता के स्थापित हस्ताक्षर हेमंत शर्मा का कहना है : इस किताब में कुछ कहा,
कुछ अनकहा है. कहीं -कहीं निःशब्द रहा हूँ. यह न यात्रा-वृत्तांत है, न संस्मरण.
इस पुस्तक में जितना मैं मौजूद हूँ, उतने आप भी. कैलास और मानसरोवर के साथ......
हमने किस नज़र से देखा? कहाँ से देखा? जितना देखा, क्या उतना व्यक्त कर पाया? शायद
नहीं. सच कहूं तो मानसरोवर की यात्रा आज भी कहीं भीतर जारी है. ईश्वर को देखने के
लिए मरना होता है. जो इस काया के साथ देखते हैं सिद्ध होते हैं. न हम सिद्ध थे. न
मरे. फिर भी अहसास किया. अगर इस अहसास का आपको सहभागी बना पाया तो यह मेरा पुण्य,
नहीं बना पाया तो असफलता मेरी.”
कहते हैं भाषा भाव का वहन
करती है. आध्यात्म के गूढ़ रहस्य की बात करेंगे तो भाषा भी भारी हो जायेगी. और भाषा
के जरिये उस सूक्ष्म तक जो अनंत है, पहुँचने के लिए अपने आपको तर्क के कई
परतों ऊपर ले जाना होता है. पर लेखक की,
जो हिंदी साहित्य के मूर्धन्य लेखक परिवार से आता है लेखनी में अद्भुत क्षमता है.
एक बानगी देखिये. “कैलास की यात्रा में एक
प्रश्न बार-बार जेहन में कौंधता रहा कि आखिर शिव में ऐसा क्या है, जो उत्तर में
कैलास से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक वे एक जैसे पूजे जाते हैं? उनके व्यक्तित्व
में कौन सा चुंबक है, जिस कारण समाज के भद्रलोक से लेकर शोषित, वंचित, भिखारी तक
उन्हें अपना मानते हैं? वे सर्वहारा के देवता हैं. उनका दायरा इतना व्यापक क्यों
है?” लेखक का यह सहज प्रश्न पाठकों को
कहीं दूर तक आध्यात्मिक –सामाजिक जटिलताओं पर सोचने को मजबूर करता है. और प्रश्न
उठता है “सर्वहारा का देवता बनाम भद्रलोक का देवता ?” और तब अपने को खोजने की और
अपने आध्यात्मिक प्लेसमेंट की जिज्ञासा पैदा होती है.
जब साथ के लोग ठंड के मारे
गरम कपड़ों में कमरे में दुबके थे, लेखक गाइड के मना करने के बावजूद लेखक ब्रह्म
मुहूर्त में मानसरोवर का रहस्य जानने के लिए निकल पड़ता है. “मैं रात कोई साढ़े तीन
बजे उठा. कैमरा लिया और कमरे के बाहर निकला. सामने हीं पवित्र मानसरोवर था. थके-मांदे
सभी सो रहे थे. निपट अकेला हीं मैं मानसरोवर की ओर बढ़ा. कोई पचास कदम चलने के बाद
हीं सरोवर के किनारे था. नीला पारदर्शी जल, हमारी सभ्यता का पवित्रतम जल. उसे सिर
पर रखा. आचमन किया. सामने चमक रहे कैलास
को प्रणाम किया. और मन्त्र-मुग्ध सा खड़ा देखता रहा. इस सन्नाटे का भी एक
संगीत था, जिसका सुन्दर वर्णन रामायण, महाभारत और स्कन्दपुराण में मिलता है.
बाणभट्ट की कादंबरी कालिदास के रघुवंश और कुमारसंभव के अलावा संस्कृत व पालि
ग्रंथों में भी इसके सौन्दर्य का अपूर्व वर्णन है.
सरोवर के ठन्डे पानी में
नहाने का अनुभव बताते हुआ लेखक का कहना था “ मैंने कपडे उतार गमछा पहना, शरीर को
तैयार किया. ठंड से लड़ने का मनोबल बढ़ाया. सरोवर को प्रणाम किया. जल का आचमन किया.
मीठा अमृत जैसा स्वाद. एक पाँव मानसरोवर में रखा तो करंट दिमाग तक लगा. झट से
दूसरा पाँव भी रखा. फिर नाक पकड़ कर डुबकी लगाईं. लगा कि सिर पथरा गया, हाँथ –पाँव
अकड़ गए. दूसरी व तीसरी डुबकी से थोड़ी रहत लगी. पर हड्डियां काँप गयीं. लगा कि
पुरखों को तारने आया था , कहीं पुरखों में शामिल तो नहीं हो जाऊंगा”. सेन्स ऑफ़
ह्यूमर इस लेखक की लेखनी का आभूषण बना रहा. आगे देखिये “तभी हंसों का एक जोड़ा
देखा. राजहंस यानी “बार –हेडेड गूज”, जिसे हिमालयन ग्रीन फ्रिंच भी कहते हैं. ....
बड़े भाग्य से हंसों के दर्शन होते हैं. पीछे मुड़ मित्रों को जब तक बताता तब तक वे
ओझल हो चुके थे. कबीर याद आये --- उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला. मित्रगण
मानने को तैयार नहीं थे कि मैंने राजहंस देखा”.
लेखक एक जगह कहता है “राम
का व्यक्तित्व मर्यादित है, कृष्ण का उन्मुक्त और शिव असीमित व्यक्तित्व के
स्वामी. वे आदि हैं और अंत भी. शायद इसीलिए बाकि सब देव हैं. केवल शिव महादेव. वे
उत्सव प्रिय हैं. शोक, अवसाद और अभाव में भी उत्सव मनाने की उनके पास कला है. वे
उस समाज में भरोसा करते हैं, जो नाच -गा सकता हो. यह शैव परम्परा है. जर्मन
दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे कहते हैं --- उदास परम्परा बीमार समाज बनाती है. शिव का
नृत्य श्मशान में होता है. श्मशान में उत्सव मनाने वाले वे अकेला देवता हैं”. भारतीय चिंतन के एक पक्ष के बीमार भाव पर शिव
का यह उदाहरण कहीं सोचने को मजबूर करता है.
यात्रांत के चरण में लेखक भी
उस कुंठा-मिश्रित-आक्रोश की जद में आ कर कहता है ”रह-रह कर एक बात कचोट रही थी.
हमारे प्रभु का निवास विदेश में! यह क्यों? हम कैसे काहिल और निक्कमे हैं. ऐसी
गलती क्यों और कैसे हुई कि प्रभु का घर विदेश में चला गया? मैंने हिमालय नीति पर
डा. राम मनोहर लोहिया को पढ़ा था. उन्होंने इस सवाल पर नेहरु से पूछा था , “कौन कौम
है , जो अपने बड़े देवी-देवताओं को परदेश में बसाया करती है. छोटे-मोटे को बसा भी
दे , लेकिन शिव-पार्वती को विदेश में बसा दें. यह कभी हुआ नहीं, हो भी नहीं
सकता......... क्योंकि तिब्बत हमारा भाई है नेपाल की तरह. लेकिन अगर तिब्बत आज़ाद
नहीं रहता तो हिंदुस्तान और चीन की सीमा मैकमोहन न होकर ७०-८० मील और उत्तर में कैलास मानसरोवर के उस पार होनी चाहिए थी. जो इसे नहीं
मानते, उनके लिए मेरा छोटा सा जवाब होगा –हिंदुस्तान की गद्दी पर हमेशा नपुंसक लोग
नहीं बैठेंगे”
प्रभात प्रकाशन द्वारा
प्रकाशित इस किताब में लेखक ने स्वयं के कैमरे से ली गयी तस्वीर से यात्रा-वृतांत
(?) को सजीव कर दिया है. एक कमी यह थी कि इन चित्रों का परिचय कहीं किसी रूप में
आता तो पाठक और जगह के बीच तादात्म्य और बढ़ जाता. फिर भी पुस्तक पढ़ने व चित्रों को
देखने के बाद यही प्रश्न मन को कचोटता है कि हम कैसे काहिल हैं कि जमीन पर इस
आध्यात्मिक स्वर्ग के सशरीर दर्शन नहीं कर सके? अगर लेखक के प्रयास की एक मात्र और
कमी है तो वह यह कि इतने प्रखर लेखक की
यात्रा अभिजात्य-वर्गी नहीं होनी चाहिए थी—याने हेलीकाप्टर की जगह जन-सामान्य वाला
रास्ता दुरूह तो होता लेकिन लेखक के रास्ते के अनुभव हमें और उद्वेलित करते—आध्यात्मिक
रूप से और सामाजिक चेतना के स्तर पर भी.
bhaskar