हमारे देश में जजों को न्यायमूर्ति कहा जाता है.
हम सब जानते हैं कि मूर्ति भगवान की होती है इन्सान की नहीं. लिहाज़ा जजों को एक
तरह से ठीक भगवान के नीचे का दर्ज़ा दिया गया है. यहाँ तक कि अवकाश प्राप्ति के बाद
भी जजों के नाम के आगे यह महिमा-मंडन जारी रहता है. मंत्री हो या प्रधानमंत्री,
कैबिनेट सचिव हो या संवैधानिक पड़ पर रहा सी ए जी, या विधायिका या कार्यपालिका के
किसी बड़े से बड़े ओहदेदार को भी यह सम्मान हासिल नहीं है. ना तो वह मूर्ति होता है
ना हीं उसके नाम के साथ पूर्व पदनाम जुड़ा होता है.
प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष और सुप्रीम कोर्ट के
पूर्व न्यायाधीश जस्टिस (न्यायमूर्ति) मार्कंडेय काटजू अपने एक लेख को लेकर एक बार फिर
विवादों के घेरे में हैं. भारतीय जनता पार्टी का आरोप है कि वह सुप्रीम कोर्ट से
रिटायरमेंट के बाद इस ओहदे को पाने का शुकराना कांग्रेस पार्टी को अदा कर रहे हैं.
पार्टी का यह भी आरोप है कि नरेन्द्र मोदी
के खिलाफ लिखे इस लेख या भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों पर प्रतिकूल टिपण्णी इस
शुकराने का ही भाग है. “अगर पोलिटिकल टिप्पणियां करनी है तो उन्हें लाल बत्ती और
ल्युटियन बंगला और सरकारी ओहदा छोड़ना पडेगा” कहा मशहूर वकील और भाजपा के नेता अरुण
जेटली ने कहा. कुछ हीं मिनटों में जस्टिस काटजू का काउंटर-अटैक आया “जेटली राजनीति
करने के योग्य नहीं हैं” .
मूर्ति की हम पूजा करते हैं और कोई उसे नापाक
करने या खंडित करने की कोशिश भी करता है तो जबरदस्त सामूहिक प्रतिकार मूर्ति-पूजकों
द्वारा होता है. चूंकि न्याय जाति, धर्म, समुदाय या अन्य संकीर्ण सोच से ऊपर है और
दिक्-काल निरपेक्ष है लिहाजा इस तरह के हमले के खिलाफ सामूहिक प्रतिकार होना
चाहिए. लेकिन अगर मूर्ति निरंतर विवाद में रहे तो उसकी गरिमा का प्रश्न खड़ा हो
जाता है. काटजू के मामले में ऐसा हीं हुआ है.
अपने लेख में काटजू ने मोदी को सन २००२ के हिंसा
जिसमें अल्पसंख्यक वर्ग के हजारों लोग मारे गए , का जिम्मेदार माना है. लेख के अंत
में उन्होंने कहा है “ मैं भारत की जनता से अपील करता हूँ कि सभी बातों (जो
उन्होंने लेख में कहीं हैं) को सोचें अगर उन्हें वास्तव में देश के भविष्य की
चिंता है. अन्यथा वे वही गलती कर सकते है जो जर्मनी के लोगों ने १९३३ में किया
था”.
मूर्ति संविधान के अनुच्छेद १९(१) की दुहाई दे
कर अपने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार नहीं मांगती बल्कि मानव-मात्र के लिए
यह अधिकार सुनिश्चित कराती है. खैर अगर मूर्ति मानव के रूप में धरती पर अवतरित हुई
है तो लाल-बत्ती, वेतन , ल्युटियन क्षेत्र में बंगला क्यों? प्रेस कौंसिल एक्ट ,
१९७८ के सेक्शन ७(१) में लिखा है “ इसका अध्यक्ष पूर्णकालिक अधिकारी होगा ----
जिसे वेतन मिलेगा“. इसका मतलब हुआ न्यायमूर्ति काटजू वेतन भोगी अधिकारी है और तब
उन्हें उन मर्यादों को मानना पडेगा जो किसी भी अधिकारी पर लागू होती है. एक्ट के
सेक्शन १३(१) में कौंसिल का उद्देश्य “प्रेस की स्वतन्त्रता की हिफाज़त करना,
अक्षुण्ण बनाये रखना और अखबारों एवं न्यूज़ एजेंसियों के स्तर को बेहतर करना है.”
इसमें कहीं भी देश हित में जनता से अपील करने की बात नहीं लिखी है.
तो इसका मतलब कि लेख के अंत में की गयी यह अपील
व्यक्तिगत रूप में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के तहत जारी की गयी है एक ऐसे व्यक्ति
द्वारा जो वेतन भोगी अधिकारी है और जिसके नाम के पहले पूर्व पदनाम शाश्वत भाव से
चस्पा है. अंग्रेजी अखबार में छपे इस लेख के अंत में भी लेखक का परिचय “प्रेस
कौंसिल के अध्यक्ष एवं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश” के रूप में दिया गया है.
काटजू साहेब ने जनता को पढ़ाने के लिए इस
लेख को अपने जिस ब्लॉग में डाला है उस ब्लॉग का पता भी “जस्टिसकाटजू.ब्लागस्पाट”
है. यानि यह सिद्ध हो गया कि यह लेख अगर प्रेस कौंसिल के अधिकारी और वेतन-भोगी
अध्यक्ष ने नहीं तो सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति (भूतपूर्व) ने लिखा है.
अब इसी लेख का एक अन्य भाग में आयें.
न्यायमूर्ति काटजू ने कहा एक जगह कहा कि “उनके
समर्थक कहते है कि मोदी का (उपर के पैरे
में २००२ में हजारों मुसलमानों के हत्या का जिक्र है) नरसंहार में कोई हाथ नहीं है और यह भी कहते हैं
कि किसी भी कानून कि अदालत ने उन्हें दोषी करार नहीं दिया है. मैं अपनी
न्यायपालिका पर कोई टिपण्णी नहीं करना चाहता लेकिन निश्चित हीं मैं इस कहानी पर विश्वास नहीं कर सकता मोदी का २००२
की घटनाओं में हाथ नहीं था. वह गुजरात के मुख्यमंत्री उस समय थे जब इतने बड़े पैमाने
पर ये वीभत्स घटनाएँ हुई. क्या यह विश्वास
किया जा सकता है कि उनमें उनका कोई हाथ नहीं था? कम से कम मेरे लिए यह विश्वास कर
पाना असंभव है”.
यह कहने के एक पैरा बाद जस्टिस काटजू कहते है
“मैं इससे ज्यादा इस मुद्दे की गहरे में नहीं जा रहा हूँ क्योंकि यह मामला अदालत के
विचाराधीन है”. हम पत्रकार के रूप में यह जानना चाहते हैं कि क्या देश की सुप्रीम
कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश यानि “न्यायमूर्ति” का , फैसले से पूर्व यह जानते हुए भी
कि मामला नीचे की कई अदालतों में विचाराधीन है मोदी को हत्याओं का आरोपी मानना
न्याय की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करेगा?
विवादों में रहने की एक अन्य घटना लें. पिछले
साल मई के उत्तरार्ध में जस्टिस काटजू पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से
मिलकर बाहर निकले और पत्रकारों से कहा “मैं बंगाल की और देश की जनता से कहना चाहता
हूँ कि ममता बनर्जी के रूप में उन्हें एक महान नेता मिला है. वह एक ऐसी नेता हैं
जिनमे महान गुण हैं”.
लेकिन तीन महीने बाद “न्यायमूर्ति” ने कहा “मेरा
विश्वास है कि वह (ममता) भारत सरीखे प्रजातंत्र में राजनीतिक नेता बनने के लिए
सर्वथा योग्य हैं”.
हम मूर्तियों से आशीर्वाद लेते हैं. अब मान
लीजिये पहले आशीर्वाद के तहत जनता ममता को वोट देदे तो दूसरे आशीर्वाद पर ठीक
उल्टा व्यवहार कैसे करे क्योंकि भरतीय प्रजातान्त्रिक संविधान के अनुसार पांच साल
बाद हीं उनकी योग्यता का फैसला हो सकता है.
समाज सुधार करना है और देश के ९० प्रतिशत जाहिलों
(जैसा की जस्टिस काटजू ने कहा है) को जहालत से निकलना है तो सरकारी बंगला, लाल
बत्ती, अधिकारी की हैसियत तथा पगार तो छोड़नी होगी. देश न्यायमूर्ति को सर आँखों
में बैठा सकता है पर मूर्ति के रूप में, वेतन –याफ्ता के रूप में नहीं. ग़ालिब
का शेर याद आता है
“ ये मसाइले-तसव्वुफ़ ये तेरे बयान ग़ालिब, तुझे
हम वली समझते जो ना बादा-ख्वार होता”.
bhaskar