Friday 20 June 2014

राज्यपाल को संविधान ने हीं फुटबॉल बना दिया था !



महामहिम राज्यपाल” को लेकर जरा विरोधाभास देखिये. देश में केवल दो हीं संस्थाएं हैं जो संविधान के संरक्षण, परिरक्षण और प्रतिरक्षण (प्रेसर्व, प्रोटेक्ट और डिफेंड) की शपथ लेती है ---राष्ट्रपति और राज्यपाल. यहाँ तक कि उप-राष्ट्रपति या सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं. लेकिन “संविधान की रक्षा” करने वाले इस राज्यपाल को केंद्र सरकार मात्र एक चिट्ठी भेजकर जब चाहे निकाल सकती है. जबकि इसी संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेने वाले तमाम पदों पर आसीन लोगों को जैसे न्यायाधीश, मुख्य चुनाव आयुक्त या लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष को निकालने के लिए जटिल प्रक्रियाएं हैं. यहाँ तक कि सरकारी अफसरों को भी सेवा से हटाने से बचाने के लिए संविधान में अनुच्छेद ३११ में अलग व्यवस्था है.
राज्यपाल की संस्था को लेकर बहस एक बार फिर गर्मा गयी है. केंद्र की नयी सरकार पुरानी यू पी ए-२ की सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को बाहर कर अपने लोग लाना चाहती है. एक वर्ग इस कदम को गलत बता रहा है और कुछ फैसलों या संस्तुतियों का हवाला दे रहा है. दूसरा वर्ग पिछली सरकारों ने क्या किया यह बता कर अपने को उचित ठहरा रहा है.
आखिर आज संविधान के बनने और अमल में आने के ६५ साल बाद भी यह भ्रमद्वन्द क्यों? दरअसल इसे समझने के लिए संविधान निर्माताओं की तत्कालीन परिस्थितियों के मद्दे नज़र बनी सोच का अध्ययन करना होगा. राज्यपाल की संस्था को लेकर संविधान सभा के सलाहकार बी एन राव ने सलाह डी थी कि राज्य की विधायिका द्वारा एकल संक्रमनीय पध्यती से राज्यपाल का चुनाव हो. दूसरी सलाह थी कि राज्य विधायिका चार नाम भेजे जिनमें से एक पर राष्ट्रपति का अनुमोदन हो सके. तीसरा और सबसे प्रभावशाली विकल्प था राज्यपाल को राज्य की जनता द्वारा सीधे चार साल के लिए चुनाव करना. संविधान सभा की दो प्रस्तावना समितियां थी –एक राज्य के संविधान के लिए और दूसरी केंद्र के लिए. सरदार पटेल ने सभा को बताया कि दोनों समितियां इस बात पर सहमत हैं कि राज्यपाल राज्य की जनता द्वारा सीधे चुना जाना चाहिए. सभा में इस मुद्दे पर जबरदस्त बहस हुई और तीसरा विकल्प लगभग पारित होने की स्थिति में था. लेकिन उसी समय कुछ घटनाएँ हुई. गाँधी की हत्या, सांप्रदायिक दंगे, तेलंगाना का आन्दोलन और हैदराबाद के निजाम का भारत के खिलाफ हथियार खरीदने का प्रयास और कश्मीर में तनाव. निर्माताओं को लगा कि मज़बूत केंद्र होने का सन्देश देना जरूरी है.
इन सब के मद्दे नज़र नेहरु व कुछ अन्य सदस्यों का मानना था कि अगर राज्यपाल को जनता सीधे चुनती है तो वह बेहद शक्तिशाली होगा और मुख्यमंत्री जो परोक्ष चुनाव से बनेगा (विधायकों के द्वारा चुने जाने के कारण) गौण हो जाएगा और दूसरा अगर दोनों एक साथ मिल जाते हैं तो इससे पृथकतावादी भावों को बल मिल सकता है. लिहाज़ा एक मज़बूत केंद्र का सन्देश जाना ज़रूरी है. इस तरह राज्यपाल केंद्र का एजेंट मात्र हो कर रह गया.
लेकिन निर्माताओं का भ्रम्द्वंद बना रहा. नतीजा यह हुआ कि संविधान के अनुच्छेद १५६ में एक अजीब विरोधाभास देखने को मिलता है. अनुच्छेद के खंड () में कहा गया है कि राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत काम करेगा. लेकिन वहीं खंड () में बताया गया है कि उसका कार्यकाल पांच साल का होगा. राष्टपति के प्रसाद पर्यंत काम करने का तात्पर्य है जब भी चाहे केंद्र की सरकार उसे हटा सकती है. यही वजह है कि जब भी केंद्र में कोई नयी पार्टी या नया गठबंधन आता है वह राज्यपालों बाहर कर अपने लोग इस पद पर लाता है. निर्माताओं का भ्रम्द्वंद इस संस्था को लेकर इतना ज्यादा था कि इस पद को महिमा मंडित -करने के लिए अनुच्छेद १५९ में एक अलग प्रावधान किया गया जिसके तहत इस संस्था को राष्ट्रपति की हीं तरह संविधान का संरक्षक के रूप में शपथ का प्रावधान किया गया. क्या संविधान का संरक्षक इतना निरीह होना चाहिए कि जिसे जब चाहे कोई केंद्र सरकार बाहर कर दे?
यहाँ तक की इस संस्था को इतना कमज़ोर करने का बाद भी निर्माताओं को डर बना रहा. नतीज़तन अनुच्छेद ३५६ में जहाँ राष्ट्रपति शासन लगने की शक्ति केंद्र ने अपने पास रखी है वहीं यह भी व्यवस्था है कि ऐसा करने के लिए भी वह राज्यपाल के रिपोर्ट की हीं मोहताज़ ना रहे. इस अनुच्छेद में कहा गया है कि राष्ट्रपति राज्यपाल या अन्य रूप से हासिल रिपोर्ट से संतुष्ट है कि ऐसी स्थिति आ गयी है कि राज्य सरकार संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप शासन नहीं चल सकती है ..... “. याने संविधान के संरक्षण की शपथ लेने वाले राज्यपाल पर हीं पूर्ण भरोषा नहीं किया गया है.
इन सब का नतीजा यह हुआ कि राज्यपाल एक कमज़ोर संस्था बनी रही और केंद्र के इशारों पर काम करती रही. बूटा सिंह और सिब्ते रजी इसके ताज़ा उदाहरण रहे. राज्यपाल को लेकर विवाद तब शुरू हुआ जब पहली बार १९६७ में दस राज्यों में गैर-कांग्रेस सरकारें आयीं. फिर नरसिंहराव ने प्रधानमंत्री बनते हीं अपने पूर्ववर्ती चन्द्रशेखर व विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा नियुक्त १४ राज्यपालों को निकाल दिया.
इन तमाम स्थितियों के बीच सरकारिया आयोग, संविधान पर बने वेंकटचेलैया आयोग, प्रशानिक सुधार आयोग और सर्वोच्च न्यायलय सभी ने कहा कि राज्यपाल संस्था का कार्यकाल सुनिश्चित होना चाहिए. आयोगों ने राज्यपाल को हटाने के लिए एक प्रक्रिया का अनुमोदन किया. लेकिन किसी भी केंद्र सरकार को यह गवारा नहीं था.
संविधान निर्माताओं का और सरकारिया आयोग, वेंकटचेलैया आयोग का मानना था कि इस पद पर निर्विवाद और सम्मानित लोग आसीन किये जाने चाहिए. खासकर ऐसे लोग जो राजनीति से अपने को काफी पहले अलग कर चुके हैं. लेकिन केंद्र सरकारों ने इस पद को राजनीति में घिसे-पिटे लोगों, एक पार्टी में निष्ठां रखने वाले अफसरों, जनरलों, न्यायाधीशों और साथ हीं पार्टी के भीतर हीं विरोध करने वालों को ठिकाने लगने के लिए एक चारागाह बना दिया. दिल्ली की पूर्वमुख्यमंत्री शीला दीक्षित को चुनाव हारने के बाद राज्यपाल बनाना इसका ताज़ा उदाहरण है.

नरेन्द्र मोदी सरकार का पुराने राज्यपालों को बाहर का रास्ता दिखाना और अपने लोगों को लाना उसी की अगली कड़ी है जिसमें कुछ भी नया नहीं.     

jagran

Sunday 15 June 2014

पाठ्यक्रमों में भ्रष्टाचार का पाठ: मोदी सरकार की एक अद्भुत पहल


 “जानामि धरमं न च मे प्रवृति, जानाम्यधर्मम न च में निवृति,

                                             (प्रपन्न गीता -५७)  

(हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता (भगवान् कृष्ण), मुझे धर्मं ज्ञान है पर मेरी प्रवृति उस ओर नहीं है और मुझे अधर्म भी मालूम है पर मुझे उससे छुटकारा नहीं है ) .

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के जवाब में बोलते हुए महाभारत के इस श्लोक के प्रथम पंक्ति का पूर्व अंश यू पी ए -२ की सरकार पर तंज कसते हुए उद्धृत किया था. सन्दर्भ था कृष्ण ने जब दुर्योधन से पूछा कि जब तुम यह जानते हो क्या धर्म है और क्या अधर्म तो धर्म का आचरण क्यों नहीं करते? इस पर उक्त श्लोक में दुर्योधन ने अपनी स्थिति बतायी.

मोदी के जन समर्थन की पीछे जो सबसे बड़ा कारण था वह था जनता का विश्वास कि यह व्यक्ति भ्रष्टाचार से निजात दिलाएगा. मोदी की सरकार का इस दिशा में पहला कदम है मानव संसाधन मंत्रालय के ताज़ा आदेश पर यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (यू जी सी) का देश के सभी कुलपतियों को एक पत्र जिसमे भष्टाचार को उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में शामिल करने की सलाह. यह भी कहा गया है कि इस विषय को कानून, लोक-प्रशासन और मानवाधिकार के पाठ्यक्रमों में शामिल हीं नहीं किया जाये बल्कि इस पर शोध भी कराया जाये.

भ्रष्टाचार को शुद्ध रूप से कानूनी समस्या समझना शायद अभी तक की सबसे बड़ी भूल रही है, यह जितना कानूनी समस्या है उससे ज्यादा सामाजिक और नैतिक. इस समस्या का हल मात्र कानून और कानूनी संस्थाओं में ढूढना बालू में से तेल निकालने की तरह है. और मोदी सरकार शायद इस गूढ़ तथ्य को आते हीं समझ गयी है.

ऐसा नहीं है कि पिछली सरकार इस तथ्य को नहीं जानती थी. सन २००७ में जारी  द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की चौथी रिपोर्ट में भ्रष्टाचार पर बृहद और सार्थक विश्लेषण किया गया. भ्रष्टाचार को दो वर्गों में बाँट कर उसके निदाल की बात भी की गयी है. ये दो वर्ग है – कोएर्सिव (सत्ता व कानून का भय दिखाकर लोगों से लाभ लेना) और कोल्यूसिव (सता और जनता में से भ्रष्ट लोगों के बीच एक समझौते के तहत किया गया भ्रष्टाचार). रिपोर्ट के पृष्ठ ६३ में दोनों किस्म के भ्रष्टाचार से निपटने के लिए अलग-अलग कानून बनाने की संस्तुति की गयी है और दूसरे किस्म के भ्रष्टाचार (जो यू पी ए -२ के कार्यकाल में व्यापक रूप से नजर आयी ) के लिए कठोरतम कानून की बात कही गयी है. इस किस्म के भ्रष्टाचार के आरोपी पर हीं ओनस प्रोबेन्डी (अपने को निर्दोष सिद्ध करने की जिम्मेदारी) डालने की सलाह है.

दरअसल श्लोक की प्रथम पंक्ति के पूर्वार्ध का भाग (धर्म पर चलने की प्रवृति का न होना) सीधे समाज से जुड़ा है जबकि उत्तरार्ध का भाग (अधर्म जानते हुए भी मेरी उससे निवृति नहीं है) सत्ता में बैठे लोगों से. रेड लाइट जम्प करने से लेकर टी टी को घूस दे कर ट्रेन में बर्थ पाना उसी श्रेणी में आते हैं. मोदी सरकार ने पाठ्यकर्म इसे शामिल करने के आदेश से भ्रष्टाचार के खिलाफ इससे सामाजिक व व्यक्तिगत चेतना को जगाने का सूत्रपात किया है. बेहतर हो कि प्राथमिक शिक्षा से हीं इसका आगाज हो क्योंकि उच्च शिक्षा तक पहुंचते-पहुंचते युवा अपनी संस्कृति और नैतिकता परिभाषित कर चुका होता है और उसे आत्मसात भी कर चुका होता है. अगर प्रवृति हो जायेगी नैतिक आचरण की तो अधर्म से निवृति की ज़रुरत हीं नहीं पड़ेगी. दरअसल कोल्यूसिव किस्म के भ्रष्टाचार में मंत्री और उद्योगपति दोनों हीं शामिल होते हैं या इंजिनियर और ठेकेदार संझौता कर लेते हैं. नुकसान किसी एक व्यक्ति का नहीं पूरे समाज का होता है जब देश के राजस्व को १.७६ लाख करोड़ का चुना लग जाता है या जब १५ साल बाद पुल गिरता है. लेकिन तब तक यह इंजिनियर इंजिनियर-इन-चीफ बन चुका होता है और ठेकेदार मंत्री, सांसद या विधायक या फिर उनको खरीदने वाली. इन दोनों में सिस्टम को दबाने की जबरदस्त ताकत आ चुकी होती है.

दरोगा का ट्रक वालों से सड़क पर वसूली करना कोएर्सिव किस्म का भ्रष्टाचार है जिसे बेहतर कानून और मज़बूत कानूनी संस्था बना कर रोका जा सकता है पर जिन जैसे –जैसे राज्य विकास का काम अपने हाथ में लेती है या संसाधनों का नियंत्रण करती है मक्कार शासक वर्ग को उतने हीं मक्कार ठेकेदार का वर्ग संझौता कर लेता है. चूंकि यह समझौता सत्ता के गिलियारे में या पांच तारा होटलों में होते है जहाँ परिंदा भी पर नहीं मार सकता लिहाज़ा ना तो गवाही मिलता है न कोई साक्ष्य (क्योंकि जनकल्याण के नाम पर कानून में लचीलापन जानबूझ कर लाया जाता है – २-जी स्पेक्ट्रम के “पहले आओ, पहले पाओ” के नियम की तरह). जिस समाज में कोल्यूसिवे किस्म का भ्रष्टाचार घर कर जाता है उसे ख़त्म करना बेहद मुश्किल होता है हालांकि नामुमकिन नहीं--- सिंगापुर और हांगकांग इसके उदाहरण हैं.

नूनन ने अपने किताब “ब्राइब” में कहा है “भ्रष्टाचार की सीमा वहां तक जाती हैं जहाँ तक समाज इसे लेकर सहिष्णु रहता है”. याने अगर समाज इसे नज़रअंदाज करता रहे तो भ्रष्टाचारी सांस लेने का भी पैसा लेने लगेगा. लिहाजा समाज को भ्रष्टाचार के प्रति असहिष्णु (इनटोलेरेंट) बनाना होगा और यह होगा बाल मस्तिष्क को बदल कर जो शुरूआती दौर में अगर घरों में नहीं तो कक्षा में तो हो हीं. बस एक डर है. ५५ साल पहले बेसिक शिक्षा की किताबों में एक पाठ था जिसमें तोते को सिखाया गया था “शिकारी आयेगा, दाना डालेगा , पर लोभी से उसमें फंसना नहीं”. पर जब एक बार शिकारी ने दाना डाला तो तोता यह रटता तो रहा लेकिन दाना खाने के चक्कर में शिकारी के जाल में फंस गया क्योंकि उसे उसका मतलब नहीं मालूम था.     

यूनानी कहावत है “मछली पहले सिर से सड़ना शुरू होती है”. भ्रष्टाचार के बारे में कहा जा सकता है यह भ्रूण से हीं शुरू हो जाता है. लिहाज़ा मोदी सरकार के प्रयासों के अलावा एक व्यापक जन चेतना की ज़रुरत भी होगी ताकि एक माँ उसे पालने में हीं (आजकल क्रेश में) नैतिकता का पाठ पढ़ाये ना कि यह बताये कि उस बच्चे का बाप भ्रष्टाचार करके कितनी बड़ी गाड़ी पर चलता है. जिस दिन बेटा या पडोसी भ्रष्टाचारी की लम्बी गाड़ी को हिकारत से देखने लगेंगे उसी दिन दिन से भ्रष्टाचार अंतिम सांसे गिनने लगेगा. दुर्योधन की प्रवृति धर्म पर चलने की हो जायेगी. 
jagran/lokm