“संसद की कार्यवाही आज भी
ठप्प रही” यह देश के नागरिकों के लिए आम वाक्य हो चला है. राजनीतिक वर्ग
प्रजातंत्र के सबसे बड़े मंदिर में आजकल “तेरा भ्रष्टाचार बनाम मेरा भ्रष्टाचार”
खेल रहे हैं. भाव कुछ इस तरह का है-- “तुमने मेरे मंत्री या मुख्यमंत्रियों का
भ्रष्टाचार दिखाया, लो अब ये तुम्हारे मुख्यमंत्रियों का है. हो गया न बराबर”.
सकारात्मक रूप से सोचा जाये
तो कुल मिलाकर भ्रष्टाचार सामने आ रहा है सत्ताधारियों का. किसी भी विकासशील समाज
के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है. लेकिन डर यह है कि जब भ्रष्टाचार हर लम्हे
पर और हर मकाम पर दिखाई देने लगेगा तो सत्ताधारी की शर्म जाती रहेगी और पूरा समाज
हीं इसके प्रति सहिष्णु हो जाएगा और “कोई नृप होहिं हमें का हानि” वाली उदासीनता
व्याप्त हो जायेगी.
किसी भी संसद के चार कार्य
होते हैं—कानून बनाना, सरकार को खर्च करने की अनुमति देना, सरकार के कार्यों की
समीक्षा करना और राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस करना. इन चार कार्यों में से एक भी यह
इजाज़त नहीं देता कि अगर मुद्दा गंभीर हो
तो संसद की कार्यवाही भी रोकी जा सकती है. शायद नासमझी से हम प्रजातंत्र के मंदिर
के रूप में विकसित की जाने वाली इस संस्था को गलत दिशा में ले जा रहे हैं. हम यह
भूल जा रहे है कि ब्रिटेन की संसद जो पूरे विश्व के संसदों की जननी मानी जाती है
में शायद हीं कभी कार्य-बाधित हुआ हो. लगभग सौ साल से अँगरेज़ मना करते रहे कि
ब्रितानी संसदीय प्रणाली भारत के लिए अभी उपयुक्त नहीं है लेकिन तत्कालीन नेताओं की
जिद के तहत यह व्यवस्था अपनाई गयी. इसका नतीजा यह रहा कि संसदीय फॉर्मेट तो हमने
ब्रितानी ले लिया पर उसको चलने के लिए जो नैतिक संबल चाहिए था वह नदारत रहा.
आज से लगभग ९० साल पहले
ब्रिटेन की लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री राम्से म्क डोनाल्ड की सरकार को इस बात पर
इस्तीफा देना पड़ा कि “कैम्पबेल घटना” में राजनीतिक कारणों से एक व्यक्ति के ऊपर से
आपराधिक मुकदमें उठाने का फैसला लिया था”. यहाँ भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार या
मध्य प्रदेश में आतंकवाद के तमाम अभियुक्त पर से सरकारें शुद्ध राजनीतिक कारणों से
अक्सर मुकदमें उठा लेती है या किसी क्षेत्र विशेष में अपराधी पकड़ने के लिए छपे
मारने की इजाज़त पुलिस को नहीं देती और किसी के कान पर जू नहीं रेंगती. व्यापम
घोटाला दशकों से चलता रहा. उत्तर प्रदेश में पी सी एस परीक्षा में ८६ में से ५६
उत्तीर्ण अभ्यर्थी उस जाति के रहे जिस जाति का मुख्यमंत्री है लेकिन सरकार को कोई छू भी नहीं सका.
भारतीय संसद या राज्य
विधायिकाओं में इस तरह के व्यवहार के दो कारण हैं. एक यह कि हमने इस संस्था को भी
प्रचार और वितंडावाद का अस्त्र बना लिया है जो संसद ना चलने से ज्यादा अपेक्षित
परिणाम दे रहा है और दूसरा संसद में चर्चा (दल-बदल कानून की बाध्यताओं के कारण) से
कोई मत परिवर्तन नहीं होता क्योंकि सांसदों को वही करना होता है जो पार्टी की नेता
कहता है (अन्यथा सदस्यता जाने का ख़तरा रहता है). लिहाज़ा चर्चा में तथ्यों, तर्कों
या भाषण की कला जाहे जितनी प्रभावशाली क्यों न हो अंत में “खूंटा वहीं गड़ेगा” का
आदिम न्याय संसद में भी रहता है. अगर १५ वीं लोक- सभा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)
के नेतृत्व वाली नेशनल डेमोक्रेटिक अलायन्स (एन डी ए) ने अधिकांस समय बाधित की तो
अब कांग्रेस-नेतृत्व वाली यू पी ए कर रही है. याने जो विपक्ष में होगा वह अपनी
मुद्दे को पुरजोर तरीके से जनता के सामने लाने के लिए संसद की कार्यवाही बाधित
करेगा.
सन १९८५ से १९४७ तक के देश
के रहनुमाओं में एक अजीब ललक थे “ब्रितानी प्रजातान्त्रिक सिस्टम” (वेस्टमिन्स्टर
मॉडल) अपनाने की. कांग्रेस की
स्थापना अधिवेशन में बोलते हुए दादाभाई नौरोजी ने कहा “ भारतमें अंग्रेजी
हुकूमत का क्या फ़ायदा अगर इस देश को भी बेहतरीन ब्रितानी संस्थाओं के समान संस्थाएं नहीं दी गयी. हमें उम्मीद है कि
भारत को भी ऐसी संस्थाओं का तोहफा ब्रिटेन की सरकार देगी. ठीक एक साल बाद १८८६ में पार्टी के अधिवेशन में बोलते हुए महामना मदनमोहन मालवीय ने
कहा था “ ब्रिटेन की प्रतिनिधि संस्थाएं वहां की जनता के लिए उतनी हीं अहम् है जितनी उनकी भाषा और उनका साहित्य. क्या ब्रितानी हुकूमत
हमें, जो
ब्रिटेन की पहली
प्रजा, हैं और जिनमें
वहां की हुकूमत ने ऐसी समझ और सोच विकसित की है कि हम ऐसी आकांक्षा रखें, क्या ऐसी
प्रतिनिधि संस्थाओं से वंचित रखेगी?”
दूसरी ओर अँगरेज़
लगातार कहते रहे कि भारत में इस तरह की प्रतिनिधि संस्थाएं बुरी तरह असफल रहेंगी.
उनका तर्क था कि ब्रिटेन में भी इस तरह की संस्थाएं विकसित करने के पीछे मैग्ना कार्टा से अब तक का
७०० साल का इतिहास रहा है. दो-दो क्रांतियों की वजह से सामाजिक चेतना का स्तर अलग रहा है, प्रजातांत्रिक
भावनाओं को आत्मसात करने का अनुभव रहा है. उनका मानना था कि किसी ऐसे समाज में जिसमे समझ का स्तर बेहद नीचे हो , जिसमे समाज तमाम
अतार्किक और शोषणवादी पहचान समूह में बंटा हो और जो पश्चिमी प्रजातंत्र के औपचारिक भाव को न समझ सकता हो, यूरोपीय प्रतिनिधि
संस्थाएं थोपना भारत के लोगों के साथ अन्याय होगा.
भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस की भारत में भी संसदीय प्रणाली स्थापित करने की इस मांग पर अपनी प्रतिक्रया में तत्कालीन वाइसरॉय लार्ड
डफरिन ने कहा “ यह अज्ञात की खोह में कूदने से अलावा कुछ भी नहीं होगा. ये
संस्थाएं बेहद धीमी गति से कई सदियों की तैयारी का नतीज़ा हैं “.
ब्रिटिश संसद में
भारत में लागू किये जाने वाले चुनावी प्रस्ताव पर एक बहस के दौरान १८९० में वाइसकाउंट क्रॉस जो भारतीय मामलों के
मंत्री थे कहा “ अपने होशो- हवास में रहने वाला कोई भी व्यक्ति यह सोच भी
नहीं सकता कि ऐसी संसदीय व्यवस्था जैसी इंग्लैंड में है भारत में भी होनी चाहिए. भारत तो छोडिये, किसी भी पूर्वी
देश में जिनकी आदतें व सोच सर्वथा अलग
किस्म की हैं
संसदीय प्रणाली निरर्थक साबित होगी.” उनके उत्तराधिकारी “अर्ल ऑफ़ किम्बरले” उनसे भी आगे बढ़ते
हुए बोले “ एक ऐसे देश में जो समूचे यूरोप से बड़ा हो और जिसकी विविधताएं अनगिनत हों संसदीय व्यवस्था देने की सोच मानव मष्तिष्क का अजूबा विचार
हीं कहा जा सकता है”.
ब्रिटेन के
तत्कालीन प्रधानमंत्री ए जे बेल्फौर ने हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में बोलते हुआ आगाह किया “ हम सब यह मानते
हैं कि पश्चिमी प्रतिनिधि सरकार –एक ऐसी सरकार जो पारस्परिक विचार-विमर्श (डिबेट) के आधार पर
चलती हो, सर्वश्रेष्ट है लेकिन यह तब (संभव है) जब आप एक ऐसे समाज में हैं जो एकल (होमोजेनियस) हो, जो हर तथ्यात्मक व
भावनात्मक रूप से समान हो , जिसमे बहुसंख्यक अपने अल्पसंख्यको की भावनाओं का स्वतः और आदतन
अंगीकार करे और
जिसमें एक –दूसरे की
परम्पराओं को समभाव से देखने की पध्यती हो और जहाँ विश्व के प्रति तथा राष्ट्रीयता को लेकर सदृश्यता हो ”. प्रधानमंत्री भारत में बदती हिन्दू-मुसलमान वैमनस्यता तथा पूरी तरह
एक-दूसरे से अलग रहने वाली जाति संस्था के सन्दर्भ में बोल रहे थे.
इन सभी चेतावनियों
को दरकिनार कर यहाँ तक कि गाँधी के तमाम विरोध के बावजूद अंग्रेजी शिक्षा से ओतप्रोत कुछ संभ्रांत नेताओं ने
भारतीय संविधान को बी एन राव सरीखे एक अफसर
(जिन्होंने १९३५ के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट बनाने में भी अपनी जबरदस्त भूमिका निभायी थी) की देख रेख में ब्रितानी, अमरीकी और अन्य
यूरोपीय संस्थाओं की नक़ल करते हुए भारत का संविधान तैयार करवाया.
आज एक बार फिर सोचने की ज़रुरत है
कि प्रजातंत्र की वर्तमान टेढ़ी इमारत जो ऊपर से नीचे लायी गयी है लेकिन जिसमे नीचे केवल खम्भा है बनाई रखी जाये या फिर जनता की
सोच बेहतर करते हुए ग्राम सभा की नीव पर संसद का मंदिर तामीर किया जाये.
प्रजातंत्र की संस्थाओं से
भारत में हीं नहीं समूचे विश्व में मोह भंग हुआ है. पांच साल पहले २२ जून, २०१० को
प्रकाशित एक व्यापक “गाल-अप” पोल में पाया गया कि ८९ प्रतिशत अमरीकियों को अमरीकी
कांग्रेस (संसद ) में विश्वास नहीं है. अगर भारत में सांसदों के पैसा लेकर सवाल
पूछने के मामले में स्वर्ग में आजादी के ६५ सालों बाद महात्मा गाँधी को आंसू बहाने
को मजबूर कर रहा होगा तो सवा दो सौ साल बाद बेंजामिन फ्रेंक्लिन (अमरीकी आजादी व
संविधान के जन्मदाता) की आत्मा भी बहुत खुश नहीं होगी इस तथ्य को जान कर.
lokmat