प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
द्वारा एक एक तरफ़ा संवाद में (जो उनकी आदत है) मीडिया की तारीफ करना वह भी मीडिया
के सामने एक सुखद परिवर्तन कहा जा सकता है. उनका मानना था कि सफाई अभियान हो या
जनमत को सही दिशा में ले जाने का गुरुतर कार्य , मीडिया ने इसे बखूबी किया. हालाँकि
मीडिया को किसी सर्टिफिकेट की ज़रुरत नहीं होती और अगर होती भी है तो वह उसके उस
योगदान से जो प्रजातंत्र में गुणात्मक परिवर्तन के लिए उसने दिया. साथ हीं यह माना
जाता है कि अगर मीडिया पर हर राजनीतिक
पार्टी “बायस्ड” होने का आरोप लगती है तो इसका मतलब होता है कि मीडिया अपना काम
सही कर रही है. पर फिर भी मोदी ऐसे बृहद जन स्वीकार्यता वाले नेता से यह टिपण्णी
अच्छी लगी.
पांच महीने पहले तक या
प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अपने भाषणों में नरेन्द्र मोदी का औपचारिक मीडिया को
लेकर एक हिकारत का भाव था. उनका कहना था कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग है जो न्यूज़
वेंडर है. वेंडर माने छोटी दुकान या ठेले पर माल बेंचने वाला. सत्ता में आने के
बाद यह भाव शायद और गहराया और उन्होंने औपचारिक मीडिया और सरकार के बीच
अंतर्क्रिया की सभी संस्थाओं या प्रक्रियाओं को लगभग ख़त्म कर दिया था. मंत्रियों
को मीडिया से बचने का सन्देश था, पत्र
सूचना कार्यालय पंगु हो चुकी है , प्रधानमंत्री कार्यालय मीडिया के साथ कोई संवाद
नहीं करता , विदेश दौरों पर मीडिया को साथ ले जाने की विश्व में प्रचलित परम्परा
को मोदी जी के आने के बाद बंद कर दिया गया. सब कुछ “वन वे ट्रैफिक” के तरह ट्विटर
पर दिया जाने लगा. प्रेस ब्रीफिंग की सर्व-मानी संस्था नदारत रही. मोदी ने
इंटरव्यू भी दिया प्रधानमंत्री बनाने की बाद तो विदेशी पत्रकारों को .
मोदी जी भले हीं मीडिया को
न्यूज़ वेंडर मानते रहे हों लेकिन मीडिया ने अद्भुत समझदारी का परिचय देते हुए
जन-अपेक्षाओं के अनुरूप मोदी का यथोचित कवरेज किया जैसे अन्ना हजारे का किया था
भ्रष्टाचार के आन्दोलन के दौरान. भारत की मीडिया शायद विश्व के किसी भी मीडिया से
इन मायनों में ज्यादा परिपक्व रही. अन्ना हजारे के कवरेज को लेकर तत्कालीन
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का आरोप था कि आन्दोलन मात्र “मीडिया क्रिएशन” है. लेकिन
उन्हीं दिनों मीडिया ने कांग्रेस नेता राहुल गाँधी का भट्टा पारसोल (गौतमबुद्ध
नगर) का किसान आन्दोलन भी दिखाया. यह अलग बात है कि अन्ना के आन्दोलन में भीड़ बढ़ती
गयी पर राहुल के आन्दोलन में ऐसा नहीं हो पाया. यह जनता का फैसला था मीडिया ने तो
अन्ना और राहुल गाँधी के कवरेज कोई फर्क नहीं किया.
मोदी का साथ ऐसा हीं हुआ.
मोदी के लगातार मीडिया के प्रति हिकारत के भाव के बावजूद अपमान सह कर भी कवरेज
किया जाता रहा.
शायद यही कारण है कि आज
मोदी को यह मानना पड़ा कि मीडिया ने जब भी स्थिति समाज को बेहतर बनाने की रही अपना
काम बगैर किसी दुराग्रह के किया. आज भी मोदी शायद इस बात को मानेगे कि जनमत और
मीडिया कवरेज में अन्योंयाश्रितता का रिश्ता है. जनता ने मोदी में अपनी आकांक्षाओं
की पूर्ति देखी . मीडिया ने उसे विस्तार से दिखाया (यह अलग बात है मानव से बनी यह
संस्था थोड़ी बहुत कम ज्यादा मुतासिर होने का भाव रख सकती है) . जनमत और बृहद हुआ.
मोदी का परचम देश की सीमाओं से बहार चला गया सात समुन्दर पार अमरीका तक.
लेकिन मीडिया को ना तो मोदी
की प्रशंसा से अतिरेक में जाने की ज़रुरत है ना हीं उनके नज़रंदाज़ करने के भाव से
उनके प्रति दुराव रखने की. यह हकीकत है आज भी जब मोदी मीडिया से मुखातिब हुआ तो
प्रक्रिया “वन वे ट्रैफिक “ वाली हीं थी. उन्होंने मीडिया को संबोधित किया, मीडिया
ने सुना , उन्होंने तारीफ की , मीडिया खुश हुई , वह उठके आये , मीडिया खडी हो गयी
उन्होंने ने हाथ मिलाया , मीडिया की नयी पीढी को लगा ईश्वर स्वयं आ गया है. इसमें
ना दो सवाल –जवाब का स्कोप था ना हीं दो-तरफ़ा संवाद.
संभव है मीडिया कुछ दोनों
तक इसे मोदी की विनम्रता की संज्ञा दे पर इसे सम्मान्यारूप से लेकर अपना काम करना
होगा. मोदी सफाई अभियान चलायें तो ज़रूर मीडिया जन-चेतना जगाये पर साथ यह भी पूछती
रहे कि काला धन पर क्या नीति है. यह भी पूछते रहना होगा कि भ्रष्टाचार पर अंकुश कब
“न खायेंगे ना खाने देंगे” के सुखद अभिव्यक्ति से आगे कार्यरूप में बदलेगा और कब
रेलवे रिजर्वेशन में धांधली ख़त्म होगी. १५० दिन काफी होते हैं इन दो मुद्दों पर
एक्शन लेने के लिए. यह कोई पालिसी प्लानिंग नहीं है , इसमें सिर्फ राज्येछा की
दरकार है.
शायद मीडिया का ऐसा करना
मोदी जी उसी भाव से लेंगे जो भाव उन्होंने आज मीडिया की तारीफ कर के दिखाई है.
lokmat