Sunday 8 December 2013

पांच राज्यों के चुनाव: मोदी के लिए केजरीवाल के रूप में नई चुनौती


पांच राज्यों के चुनाव: मोदी के लिए केजरीवाल के रूप में नई चुनौती
एन के सिंह, एडिटर इन चीफ, लाइव इंडिया
पांच राज्यों के चुनाव नतीजे इस बात की तस्दीक करते हैं कि प्रजातंत्र तार्किक हो रहा है, तथ्यपरक हो रहा है और सार्थक सही-गलत की समझ  वाले जनमत में बदल रहा है। राजनीतिशास्त्र का मूल सिद्धांत कि अशिक्षित या अर्धशिक्षित समाज में भावनात्मक मुद्दे असली मुद्दों पर भारी पड़ते हैं और संवैधानिक व्यवस्था कई बार उसकी वजह से लचीली हो जाती है,इन चुनाव नतीजों से एक तरह से सिद्ध होते हैं। अगर मध्य प्रदेश में सत्ताविरोधी लहर यदि दूर-दूर तक नजर नहीं आती, और राजस्थान में यह मतदाता के सिर पर चढ़कर बोलती है...तो इसका राजनीतिक मतलब साफ है। कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये है कि मंदिर वहीं बनाएंगेसे लेकर इंडिया शाइनिंग और अब देखो कितने फ्लाईओवर दिएकी जगह प्याज, महंगाई, भ्रष्टाचार ही जनता को ज्यादा प्रभावित करते हैं।
पर यह तो हुआ एक फौरी विश्लेषण...अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी का 92 प्रतिशत शहरी मतदाता वाली दिल्ली में इतना जबर्दस्त समर्थन भारत में उभरते एक नए राजनैतिक परिदृश्य की ओर इंगित करता है। एक साल पहले पैदा हुई पार्टी किसी मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर नहीं, किसी जातिजनित उद्वेग का प्रतिफल नहीं, किसी फिल्मी चेहरे के आकर्षण की पैदाइश नहीं, बल्कि शुद्ध बिजली, पानी, भ्रष्टाचार, कुशासन के 45 साल के दबे आक्रोश की उपज थी। परिदृश्य इसलिए बदला है, क्योंकि 2014 के आम चुनावों ने भारतीय जनता पार्टी की प्रतिमूर्ति के रूप में उभरे नरेंद्र मोदी का भी यही यूएसपी है। मोदी भी जिन चार तत्वों पर राष्ट्रीय जनमानस को प्रभावित करना चाहते हैं, वे हैं-कुशल प्रशासन, भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस, सक्षम विकासकर्ता और आतंकवाद का खात्मा। इनमें पहले तीन मुद्दों पर ही अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी की बुनियाद है। लिहाजा अगले पांच महीनों में होने वाले आम चुनाव में मोदी के बरक्स केजरीवाल एक बड़ी ताकत के रूप में उभरने जा रहे हैं। अरविंद केजरीवाल का नया चेहरा, जिसके पीछे 2002 की कालिख नहीं है, बल्कि पहली बार मतदान करने जा रहे दस करोड़ युवाओं को नया भविष्य देने का वादा है।
हमारे विश्लेषण में एक अपवाद जरूर है छत्तीसगढ़ का चुनाव परिणाम। चाउर बाबा रमन सिंह मानव विकास सूचकांक के लगभग सभी मानदंडों पर किसी भी गुजरात या बिहार से बेहतर रहे हैं। फिर भी कांग्रेस का अपेक्षाकृत अधिक समर्थन राजनीतिशास्त्र के उपरोक्त सिद्धांत को ही पुख्ता करता है, जिसके तहत अशिक्षित समाज में भावनाएं कई बार बलवती हो जाती हैं। अपने नेता का नक्सलियों द्वारा मारा जाना राज्य के 32 प्रतिशत आदिवासियों को कत्तई स्वीकार्य नहीं था और चूंकि नेता कांग्रेस का था, इसलिए कांग्रेस को समर्थन मिला। महंगाई मध्य प्रदेश में भी थी पर मुख्यमंत्री पर जनता को विकास के प्रति विश्वास था। राजस्थान में ऐसा नहीं हुआ। कुल मिलाकर केंद्र के खिलाफ कुशासन, भ्रष्टाचार, महंगाई और राज्य सरकार का हर दो महीने पर एक मंत्री के चरित्र पर आरोप लगना जनता को उद्वेलित करता रहा।
यहां यह सोचना गलत होगा कि 32 लाख वर्ग किलोमीटर और 80 करोड़ मतदाताओं वाला भारत अरविंद केजरीवाल या उनकी पार्टी के खैरमकदम के लिए तैयार नहीं है क्योंकि उसमें पार्टी का चरित्र नहीं है, अतार्किक होगा। टेलीविजन के इस युग में जहां अन्ना का आंदोलन कर्नाटक के सुदूर गांव से लेकर कश्मीर की वादियों तक कुछ क्षणों में संदेश पहुंचाता हो, सीमाएं, वैविध्य या संख्या बहुत मायने नहीं रखती। भ्रष्टाचार को लेकर जिस तरह पिछले तीन सालों में सामूहिक चेतना विकसित हुई है, वह अपने आप में अप्रतिम है। अन्ना का आंदोलन रहे ना रहे, यह चेतना अब स्थायीभाव बन गई है। आप पार्टी में जनमानस वे सभी महत्वाकांक्षाएं देख पा रहा है, जो पिछले साल से देखना चाहता था। यह सही है कि भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय फैलाव, कार्यकर्ताओं का व्यापक ढांचा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिबद्धता मोदी को जबर्दस्त मदद देगी। लेकिन अगर यही सबकुछ होता तो दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की पार्टी का यह उभार नहीं होता और भारतीय जनता पार्टी को बेहद आसानी से जीत हासिल हो जाती। दिल्ली के चुनाव नतीजों पर अगर नजर डालें तो आप को झुग्गी-झोपड़ियों से वही जनसमर्थन मिला है, जो लाल-नीली बत्ती लगाने वाले अधिकारियों से मिला है, मध्यम वर्ग से मिला है और अभिजात्यवर्गीय चरित्र वाले रोटी जीत चुके समुदाय से मिला है। यहां तक कि जो भ्रष्ट था, उसने भी आप पार्टी को यह कहकर वोट दिया कि कम से कम हमारे बच्चों को एक अच्छी और स्वस्थ सरकार मिलेगी। मायावती की बहुजन समाज पार्टी, जिसे दिल्ली के पिछले चुनाव में साढे़ चौदह फीसदी वोट मिला था, काफी नीचे रही। यह वोट भी आम आदमी पार्टी को गया है।
यहां मोदी और अरविंद केजरीवाल में एक सादृश्यता दिखाई देती है। ये दोनों ही नेता, कहीं न कहीं जाति का दंश झेल रहे भारतीय समाज को इस दोष से निकालते हुए दिखाई दे रहे हैं। बिहार में अगर नीतीश की स्थिति अगर बहुत अच्छी नहीं है या उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव का मुस्लिम-यादव समीकरण प्रभावित हो रहा है तो साफ है कि अरविंद-मोदी नेतृत्व भारत के लिए एक नई राजनीति का आगाज है। राजस्थान में तीन चौथाई सीटें और मध्य प्रदेश में दो तिहाई सीटें हासिल करके भारतीय जनता पार्टी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में अगले चुनाव में जाति आधारित पार्टियों को एक झटका मिल सकता है। पिछले तेईस सालों में जिस तरह दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का जनाधार खिसकता हुआ तथाकथित जातिवादी पार्टियों में समाहित हो गया था, वहां देश के कोने-कोने से अगले चुनावों में शायद एक बार फिर से वास्तविक मुद्दे किसी मुलायम, किसी लालू के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं।
कुल मिलाकर भारतीय प्रजातंत्र और जनता की प्रजातांत्रिक प्रक्रिया में आस्था और तद्जनित समझ एक नए आयाम पर पहुंचती दिखाई दे रही है। जिसमें वोट उसी को मिलेगा, जो अच्छा शासन दे सकता हो। भले ही 65 साल लगे हों, लेकिन अगले चुनाव में नया राजनीतिक क्षितिज उभरता दिखाई दे रहा है। जातिवाद और भावनात्मक मुद्दों का भले ही पूरी तरह खात्मा न हो, लेकिन मोदी और अरविंद केजरीवाल की राजनीति एक नई दिशा की तरफ प्रजातंत्र को ले जाएगी। देखना यह होगा कि मोदी या केजरीवाल।