Thursday 6 November 2014

आक्रामक हिंदुत्व कहीं मोदी के लिए वॉटरलू न बन जाये


कुछ इतिहासकारों का मानना है कि विश्व के महान फ़्रांसिसी सेनापति और सैन्य –रणनीतिकार नेपोलियन १८ जून१८१५ को वॉटरलू में हार का सामना ना करते अगरउस दिन उनको दस्त और पेट में भयंकर दर्द के कारण अपना सैन्य-अभियान चार घंटे देर से ना शुरू करना पड़ताआम दिनों में नेपोलियन तडके हीं हमला करते थेलेकिन उस दिन पेट में भयंकर दर्द की वजह से वह ११.३० बजे तक कूच नहीं कर सकेइस बीच प्रूसिया का कमांडर मार्शल ब्लूचर अपनी सेना लेकर वेलिंग्टन कीसेना की मदद में दोपहर तक पहुँच गयाअलग अलग ये दोनों सेनाएं इस सैन्य –रणनीतिकार की शक्ति के आगे बेबस होतीमहान लोग भी छोटी गलतियों यास्थितियों के कारण पराभव के शिकार होते रहे हैं.
उत्तर प्रदेश के बरेली में मुहर्रम पर ताजिये को लेकर जबरदस्त दंगा होयादेश की राजधानी दिल्ली के बवाना (ग्रामीण क्षेत्रमें भारतीय जनता पार्टी के स्थानीयविधायक की सदारत में कुछ सौ लोगों की “महापंचायत” ने फैसला लिया कि मुसलमान अबकी मुहर्रम में ताजिया हिन्दू गांवों की ओर से नहीं निकालेंगेइस पंचायत में गौ माता की जय के नारे लेगे. इस विधायक का कहना है उन्हें (मुसलमानों को) जो भी करना हो अपने घर में करें, हमने अपने शक्ति-प्रदर्शन से बता दिया है कि इस गाँव से कोई ताजिया नहीं गुजरेगा.  हमारे और उनके वाले भाव से भरे इस महापंचायत को अराजनीतिक और गैर-धार्मिक भी बताया गया. उधर इलाके के मुसलमानों का कहना है कि बकरीद में भी इन्होने समस्या खडी की थी और अब मुहर्रम पर भी. एक मुसलमान निवासी ने बताया कि पिछले सात साल से यह ताजिया निकला जा रहा है. दिल्ली में हीं, जो इस समय केंद्र शासन के आधीन है, एक हफ्ते पहले त्रिलोकपुरी में जबरदस्त दंगे हुए जिसमें स्थानीय भाजपा नेताओं पर आरोप लगे थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर, सहारनपुर और मेरठ के दंगों की आंच अभी भी सुलग रही है. गुजरात का बडौदा भी अछूता नहीं रहा.
अचानक देश का सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगड़ा है. सौहार्द्र तो पिछले ६५ सलोनों में कभी राजनीतिक दलों ने होने हीं नहीं दिया लेकिन माहौल वैमनस्यतानिष्ठ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का था. चुनाव के बाद  भारतीय जनता पार्टी की विजय ने बहुसंख्यक के एक वर्ग को सशक्तिकरण की झूठी चेतना से ओतप्रोत कर दिया जैसे मायावती, लालू यादव और मुलायम सिंह की राजनीति में होता है. मूल्य-निष्ठ राजनीति , जो भाजपा और उनके नेताओं से अपेक्षित था , के तहत ऐसे तत्वों पर लगाम लगाना ज़रूरी होता है. उसके बरखिलाफ किसी संजीव बालियान और संगीत सोम, जिन पर दंगे भड़काने का आरोप है ,  का महिमामंडन करके पार्टी नेताओं ने अपनी मंशा भी जाहिर कर दी. कोढ़ में खाज तब हुआ जब महंत आदित्यनाथ को प्रदेश उप-चुनावों का प्रभारी बनाया गया.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को व्यापक जन-समर्थन है. यह किसी आक्रामक हिंदुत्व के कारण नहीं है , न हीं यह किसी सांप्रदायिक उन्माद का प्रतिफल है. उनके व्यक्तित्व में जन-अपेक्षाओं की पूर्ति का आश्वासन दीखता है. और सरकार से वे अपेक्षाएं मंदिर बनाने के लिए नहीं , विकास की सीधी पर चलने के लिए हैं. क्या मोदी सांप्रदायिक दंगों या तज्जनित सामाजिक अविश्वास के माहौल में इस मार्ग पर चल पाएंगे ? और अगर चल भी पड़े तो उसकी कीमत क्या होगी? देश में बदअमनी की हालत में शायद अमरीका, ऑस्ट्रेलिया या विश्व समुदाय भी वैसा स्वागत नहीं करेगा जैसा मेडिसन स्क्वायर में हुआ था.    
आंकड़े गवाह है कि राम मंदिर चुनाव की मुद्दा बना रहा और बहुसंख्यक भाजपा से दूर होता चला गया. मोदी ऐसे जोड़-घटाना करने वाले नेता से यह उम्मीद नहीं है  कि इस स्पष्ट सत्य को ना देख पाएंगे. आज गलत या सही माध्यम वर्ग में मोदी की छवि चार प्रकार की है ---- सक्षम प्रशासकयोग्य विकासकर्ताभ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य-सहिष्णुता वाला और पाक-प्रायोजित आतंकवाद का शत्रु.  अगर मोदी इन चारों से हट कर आक्रामक हिंदुत्व की ओर बढे तो उदारवादी हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग जो आज पहले से अधिक तार्किक और तथ्यात्मक हैमोदी और भाजपा को नकार देगा. 
कुछ तर्क-वाक्यों और तत्संबंधित तथ्यों पर गौर करें. भाजपा या उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस) का मानना है कि हिन्दुओं के आराध्य देव राम उनके दिल में बसते हैं लिहाज़ा हर हिन्दू की दिली इच्छा है कि अयोध्या में राम मंदिर बने. इनका दूसरा तर्क वाक्य है कि सभी यह चाहते हैं बगैर वैमनस्य के संसद में अगर जरूरत हो तो संविधान संशोधन कर अन्यथा कानून बनाकर राम मंदिर बनाया जाये. तीसरा तर्क वाक्य है भाजपा हिन्दुओं की एक मात्र रहनुमा है. इन तीनो तर्क वाक्यों को एक साथ पढ़ें तो मतलब होगा कि देश के कुल हिन्दुओं (जिन की संख्या ८० प्रतिशत से ज्यादा है) को अपने दिल के सबसे करीब के मुद्दे पर बेहद प्रजातान्त्रिक तरीके से अपनी रहनुमा पार्टी को दो-तिहाई बहुमत से जीता कर अयोध्या में भव्य राम मंदिर का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए.
 
लेकिन मदिर आन्दोलन के २९ साल बीतने और ढांचा गिरने के २१ साल बाद भी मताधिकार प्राप्त हर सात हिन्दुओं में से छः ने भाजपा को रिजेक्ट किया है केवल एक ने हीं वोट दिया है. साथ हीं सन १९९८ से आज तक हर तीसरे वोटर ने पार्टी को वोट देना बंद कर दिया है.   
विवादित ढांचा गिरने से आज तक भारतीय जनता पार्टी बहुसंख्यक हिन्दुओं ने भारतीय जनता पार्टी को ख़ारिज हीं किया है. ८० प्रतिशत हिन्दुओं की रहनुमाई का दावा करनेवाली भाजपा को पार्टी के जन्म (१९८०) से आज तक आम चुनावों में कभी भी कांग्रेस से ज्यादा वोट नहीं मिले. जिस चुनाव में सबसे ज्यादा  मत प्रतिशत भाजपा का रहा वह था १९९८ जिसमें इसे २५.५८ प्रतिशत वोट मिले जो  कांग्रेस के मत प्रतिशत से तीन प्रतिशत कम थे. सन २००९ तक आते आते इसका मत प्रतिशत लगातार घटते हुए १८.६ प्रतिशत पर पहुँच गया जबकि कांग्रेस का २८.६ प्रतिशत था. यानि कांग्रेस और भाजपा के वोट में डेढ़ गुने का अंतर. कांग्रेस को करीब १२ करोड़ मत मिले जब कि हिन्दुओं की रहनुमा”, मंदिरनिर्माण का वादा और शुचिता की बात करने वाली इस पार्टी को आठ करोड़ से कम.
 
तथ्यों को एक अन्य कोण से देखिये. सन २००९ में देश में कुल ७१.४० करोड़ लोग थे जिन्हें मतदान का अधिकार था. इन मताधिकार-प्राप्त लोगों में लगभग ५८ करोड़ हिन्दू थे. देश में इन मताधिकार प्राप्त लोगों में मात्र ३९.५० करोड़ (५४.६ प्रतिशत) ने मतदान किया. इनमें से ३२ करोड़ हिन्दू थे. लेकिन हिन्दुओं की तथाकथित रहनुमा भजपा को वोट पड़े आठ करोड़ से भी कम. अगर हिन्दुओं के दिल के करीब राम हैं और हसरत है मंदिर बने तो ५८ करोड़ मताधिकार प्राप्त हिन्दुओं में क्यों मात्र आठ करोड़ हीं भाजपा को वोट देता है. इसका सीधा मतलब है कि हर सात मताधिकार प्राप्त या चार मतदान करने वाले हिन्दुओं में केवल एक ने हीं भाजपा को वोट दिया. इसका सीधा मतलब यह भी था हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग उदारवादी है. और जैसे हीं भाजपा या संघ आक्रामक हिंदुत्व का भाव लेन की कोशिश करते हैं वह उनसे विमुख हो जाता है.
अब आते हैं २०१४ के चुनाव आंकड़ों पर. भाजपा को (या मोदी को) ३१ प्रतिशत मत मिले. ये मात्र उच्च वर्ग के नहीं हो सकते क्योंकि उनका कुल प्रतिशत १८ के लगभग है. इसका मतलब ४२ प्रतिशत पिछड़े वर्ग में से और २२ प्रतिशत दलितों में से भी एक भाग ने मोदी को समर्थन दिया. याने यादव के एक वर्ग ने ने भी मुलायम और लालू को छोड़ा और दलितों ने मायावती को. दक्षिण में भी जाति-आधारित राजनीति घटी. क्या ईदे में यह ज़रूरी नहीं कि सख्त सन्देश मोदी की तरफ से जाये कि आक्रामक हिंदुत्व के अलंबरदारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जायेगी , कानूनी व पार्टी के स्तर पर. किसी संगीत सोम या बालियान को पार्टी अपना दुश्मन मानेगी. कोई उग्र आदित्यनाथ पार्टी का संकटमोचक नहीं होगा. 
इन्हीं आंकड़ों व तर्क को उल्टा कर के देखें. जो प्रत्येक दस मतदाता चुनाव बूथ पर मत देने गए उनमें केवल ३ ने हीं मोदी की भाजपा को वोट दिया. जबकि २००९ के चुनाव में सोनिया गाँधी की कांग्रेस को २.९ लोगों ने. लेकिन अगर उस चुनाव को सोनिया की सुनामी नहीं माना गया तो २०१४ के चुनाव में मोदी की सुनामी कैसे. इसीलिए ओदी को और सतर्कता से इस आधार को बढ़ाना होगा जो सिर्फ और सिर्फ विकास से हीं बढ़ सकेगा आदित्यनाथ के गरुआ वस्त्र और सोम के उग्र भाषण से नहीं.  
प्रकारांतर से इसका मतलब यह भी हुआ कि ना तो भाजपा हिन्दुओं की राजनीतिक रहनुमा है, ना हीं मंदिर उसका प्रमुख मुद्दा है और ना हीं वह संसद का इस्तेमाल रोजी-रोटी छोड़ कर मंदिर मस्जिद ऐसे भावनात्मक मुद्दों पर करना चाहता है. राजनीति-शास्त्र का सिद्धांत है अर्ध- या अल्प-शिक्षित समाज में भावनात्मक मुद्दे संवैधानिक और तर्क-सम्मत असली मुद्दों को आच्छादित कर लेते है और पूरी संवैधानिक व्यवस्था को तोड़-मरोड़ कर कुछ काल तक अपनी ओर कर लेते हैं. भाजपा दो से १८२ सीटों तक इसी की वजह आई  थी. लेकिन भारत की जनता ने हकीकत को समझ लिया  कि रोटीभ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्थारोजगार के आभाव में मंदिर का कोई औचित्य नहीं हैं. मंदिर वहीं बनायेंगे” के अल्पकालिक उत्साह से हट कर जनता पूछने लगी रोटी कब खिलाएंगे” और कलमाड़ीराजा व येद्दियुरप्पा से कब बचायेंगे”.  पिछले २९ सालों में समाज में प्रति-व्यक्ति आय बढ़ीतर्क शक्ति बढ़ी और शिक्षा बढ़ी. लिहाज़ा अमित शाह, भाजपा या संघ को अपनी पुरानी सोच से हट कर स्थितियों को आंकना पडेगा.
 
दरअसल समस्या मोदी के लिए और भी हैआडवाणी इस हकीकत को समझ गए थे और भाजपा का चेहरा उदारवादी करने के प्रयास में लगे लेकिन संघ को अपने मूल से हटना रास नहीं आया. आडवाणी को किनारे होना पड़ा. भाजपा को सत्ता दिलाने के लिए संघ अपने मूल उद्देश्यों और तज्ज़नित प्रतिबद्धताओं से विमुख हो नहीं सकता क्योंकि ऐसा करने पर उसके सामने अपने अस्तित्व का प्रश्न आ जायेगा. भाजपा का समस्या यह है कि बगैर उदारवादी चेहरा जो वाजपेयी के बाद विलुप्त हो गया, दिखाए चुनाव वैतरणी पार नहीं कर सकता. यानि भजपा को यह वैतरणी पार करनी है तो या तो संघ से अलग रास्ता अपनाना होगा या संघ को अपने मूल से हटना होगा और वह भी अपने अस्तित्व की कीमत पर.
 
युवा अपने नेता से रोजगार चाहते हैंअनाज चाहते हैं विकास की भाषा चाहते हैंभ्रष्टाचार के खिलाफ ऐलाने जंग चाहते हैं ना कि मंदिर. और मोदी इस फॉर्मेट में फिट बैठते हैं लेकिन उनकी सफलता की शर्त हीं यही हैं कि संघ और उग्र हिंदुत्व उनके आस-पास न फटकें. आक्रामक हिंदुत्व और बढ़ता हिन्दू लम्पटवाद कहीं मोदी के लिए वॉटरलू ना बन जाये.

jansatta

Sunday 2 November 2014

सवालों के घेरे में मंशा




प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर अपने को जनता के संदेह के घेरे से ऊपर कर लिया। "मन की बात" के दूसरे प्रसारण में यह बताते हुए कि विदेशों में जमा कालाधन गरीबों का पैसा है और उसे वापस देश में लाना "मेरे लिए आर्टिकल ऑफ फेथ" है। कालेधन को लेकर सरकार के रवैये पर जो शंका पैदा हुई थी, वह एक बार फिर जाती रही। जनता भावुक है और विश्वास भी करती है लेकिन इसकी भी मियाद होती है। देखना है कि इसे कार्यरूप कब और कैसे दिया जाता है। 

जरूरत है "सफाई आंदोलन" की 
एक सवाल आज भी अतिशय भावातिरेक में जनता भले ही ना पूछ रही हो पर वह सवाल मन के कोने में बना है। काले धन का मात्र 10 प्रतिशत ही विदेश में है पर बाकी 90 प्रतिशत जो देश में पैदा होता है और पूरी अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह चाट रहा है उसका क्या? मोदी जी के मन से यह भी उजागर होना चाहिए था कि देश के सकल घरेलू उत्पाद को जो आधे से ज्यादा कालाधन के रूप में बदल जा रहा है उस पर क्या सरकार "सफाई आन्दोलन" की ही तरह कोई ठोस कदम उठाएगी? 

बड़ी जद्दोजहद के बाद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कालाधन खाताधारकों के नाम तो दिए पर शपथ पत्र में यह भी कहा था कि अगर नाम जनता में आए तो बाहरी देश वादाखिलाफी का आरोप लगाएंगे। 

पर गौर से देखें तो हकीकत इसके उलट है। अमरीकी कोर्ट में जब यही तर्क यूबीएस बैंक ने दिया तो न केवल अदालत ने इस तर्क की धज्जी उड़ा दीं बल्कि उस पर फाइन भी ठोक दिया था। आज सरकार की नैतिक जिम्मेदारी आम आदमी के प्रति ज्यादा है या किसी कागज के टुकड़े के प्रति, जिसमें उसने कुछ करार तमाम देशों से किए थे?

अगर अन्य देश ऎसे करार को तोड़कर इन बैंकों के रवैये को पटरी पर ला रहे हैं तो भारत सरकार इतना क्यों हिचक रही है। कालेधन पर सरकार को शुरू से ही आंदोलनरत रवैया अख्तियार करना चाहिए था, जो कि अभी नजर नहीं आया। सरकार की ओर से किया गया करार बाहर जमा हुए सफेद धन को लेकर था न कि कालेधन पर।

कालाधन तो इसकी जद में आता ही नहीं है, क्योंकि यह तो स्वत: ही अपराध की श््रेणी में आता है। लिहाजा जरूरत इस बात की थी कि एसआईटी शुरू से ही चार महीने में न केवल 627 नामों पर बल्कि उन तमाम लोगों पर, जिन पर शक है, एक कार्रवाई शुरू करती, जो कि अभी तक नहीं हो रही है। 

...तो होते सात गुना अमीर
अगर भारत में काले धन पर अंकुश पिछले 45 वषोंü से लगाया गया होता तो यहां रहने वाला हर व्यक्ति सात गुणा अमीर होता। कहना न होगा कि गरीबी का यह विदू्रप चेहरा दिखाई नहीं देता। आज स्थिति यह है कि हर रोज जब एक गरीब रात में सोने जाता है तो कोई 15 रूपए जो उसके विकास में खर्च किया जा सकता था, कालेधन के रूप में विदेशी बैंकों में गुप्त रूप से जा चुका होता है। 

स्थिति की भयावहता इस बात से जानी जा सकती है कि 1955-56 में, अर्थशास्त्री कारीडोर के अनुसार देश में कालाधन मात्र 4 से 5 प्रतिशत था, जो 1970 में वांगचू समिति के आकलन के अनुसार 07 प्रतिशत हो गया। 

बात यहीं नहीं रूकी और 1980-81 मे नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस के अनुसार यह प्रतिशत 18 से 20 हो गया। अनुमान है कि आज देश की जीडीपी का 50 प्रतिशत कालेधन के रूप में परिवर्तित होने लगा है।

मोदी के वादे पर सवाल
विदेशों में छिपाया काला धन लाने के मुद्दे पर पहली बार केंद्र सरकार की मंशा पर अंगुली उठने लगी है और इसकी आंच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक पहुंच सकती है। वित्तमंत्री अरूण जेटली का तर्क लोगों को रास नहीं आ रहा है। 

उदाहरण के लिए स्विट्जरलैण्ड के साथ जिस डीटीएए (डायरेक्ट टैक्स अवॉयडेंस एग्रीमेंट) के अनुच्छेद 24 की बात कहकर जेटली मोदी सरकार को भी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के समकक्ष खड़ा कर रहे हैं और मोदी के प्रति जनता के मन में शंका उत्पन्न होने लगी है वह एक गलत तर्क है। 72 लोगों में 17 ऎसे लोग हैं, जिन पर पहले से ही मुकदमे की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और उनके नाम उजागर करने में कोई अड़चन नहीं है। 

साथ ही बाकी के 55 लोगों पर तत्काल मुकदमें की प्रक्रिया शुरू करके इस अनुच्छेद के प्रावधानों को निरस्त किया जा सकता है, क्योंकि इसी अनुच्छेद के पैरा (2) में जननीति के तहत अगर किसी व्यक्ति पर मुकदमे की प्रक्रिया शुरू हो गई है तो उसका नाम उजागर किया जा सकता है। पर क्या हुआ नरेन्द्र मोदी का 100 दिन में कालेधन को विदेश से वापस लाने के वादे का? क्या यह अनुच्छेद उस समय नहीं था, जब यह वादा किया गया था? 

आखिर इसे कैसे रोकेंगे 
जनता ने वोट मोदी को दिया है लिहाजा आज सवाल भी उन्हीं से पूछे जाएंगे। आज मुद्दा सिर्फ इतना ही नहीं है कि कालाधन वापस कैसे लाएं? असली मुद्दा यह है कि आज से इसको रोका कैसे जाए और इसके लिए क्या-क्या कदम उठाए जाएं। जब सरकार पुराना कालाधन वापस लाने में ही अपेक्षित दिलचस्पी नहीं ले रही है तो वर्तमान कर ढांचे को सख्त बनाने में कितना सक्रिय होगी यह देखना अभी बाकी है।

सर्वोच्च न्यायालय में जो बेचारगी का भाव से सरकार ने दिखाया है उसने शायद इस "अभियान" को एक बड़ी क्षति पहुंचाई है। इस हलफनामे के बाद जब कभी भारत की सरकार विदेशी बैंकों से नाम या जमा धन राशि के आंकड़े मांगेगी तो उसका जवाब एक ही होगा - "आपने स्वयं ही अपने सर्वोच्च न्यायलय में इस अनुबंध के प्रावधान का उल्लेख करते हुए कहा है कि नाम उजागर नहीं किए जा सकते तो हमसे यह क्यों मांग रहे हैं?" प्रधानमंत्री के महज यह कहने से कि "न खाऊंगा न खाने दूंगा" जनता हफ्ते-दो हफ्ते तो खुश नजर आएगी पर उसके बाद परिणाम के बारे में भी पूछना शुरू करेगी।

पर उम्मीद मोदी से ही है
देश के अधिकांश बुद्धिजीवियों से लेकर सड़क पर खोमचा लगाने वाले तक को मोदी में एक ऎसा नेता दिखाई दे रहा है जो देश के भविष्य को बदल देगा। दशकों बाद किसी नेता के लिए यह भाव आया है अन्यथा देश "कोऊ नृप होहीं हमें का हानि" के मोड में चला गया था। इतिहास गवाह है एक नेता, उसके द्वारा विकसित सिस्टम या उसकी नीतियों ने पूरे समाज को नयी ऊंचाइयों पर पहुंचाया है। नेता में हमें भरोसा होना तो जरूरी है, पर इस भरोसे को हर क्षण तर्क पर भी कसा जाना चाहिए। 

patrika