Saturday 10 March 2018

उत्तर प्रदेश में विकास मानक पर चौंकाने वाले परिणाम संभव


        नयी योजनायें किसानों का भाग्य बदल सकती हैं 
विकास-परक शासन बेहद जटिल और टेक्निकल होता जा रहा है. एक शासक के लिए यह समझना कि कैसे टेक्नोलॉजी का प्रयोग भ्रष्टाचार -मुक्त शासन और जन-कल्याण की योजनाओं की तीव्र डिलीवरी के लिए किया जाये, बेहद ज़रूरी होता जा रहा है. मुख्यमंत्री के रूप में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे बखूबी समझा था. बाद में कई अन्य मुख्यमंत्रियों ने कमोबेश इस पर अमल किया. ऐसे में किसी गेरुआवस्त्रधारी सन्यासी के हाथ में राजदंड थामना, और वह भी पहली बार, एक असामान्य प्रयोग था. हमारे जैसे विश्लेषकों को विश्वास नहीं था कि आक्रामक हिंदुत्व के अलावा उत्तर प्रदेश में महंत आदित्यनाथ योगी कुछ कर सकेंगें. और उस काल के सभी निरपेक्ष विश्लेषण यही मानते थे कि २२ करोड आबादी, सवा चार लाख करोड के बजट और शाश्वत शासकीय उन्नेदापन के शिकार और इसकी वजह से विकास के तमाम पैरामीटरों पर सबसे निचले पायदान पर खड़े इस प्रदेश में अगर कुछ बढेगा तो वह सामाजिक वैमनस्य और तनाव. लेकिन हम गलत साबित हुए. उत्तर प्रदेश सरकार हाल के कुछ फैसले विकास योजनाओं की बारीकियों की समझ रखने वालों के लिए हीं नहीं केंद्र सरकार के लिए भी चौंकाने वाले हैं. दरअसल इनमें से कुछ पर केंद्र सरकार भी अभी स्वयं हीं अमल करने की सोच रही है और साथ हीं राज्यों से उनके लिए नीति बनाने की गुजारिश करने जा रही है जब कि उत्तर प्रदेश उनपर अमल के मार्ग पर बढ़ गया है.   
किसी राज्य का विकास बहुत कुछ राज्य नेतृत्व पर निर्भर करता है. उत्तर भारत में कम से कम चार राज्य –उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ इस दिशा में लगातार कोशिश कर रहे हैं. मध्य प्रदेश के किसानों की उपज के उचित मूल्य के लिए “भावान्तर भुगतान योजना” को आज केंद्र भी देश के स्तर पर लागू करने जा रहा है, हालांकि तेलंगाना की इसी तरह की योजना ज्यादा बेहतर है. छत्तीसगढ़ का राशन वितरण एक उदाहरण है. उधर दक्षिण भारत बेहद प्रगतिशील और प्रशासनिक रूप से बेहतर राज्यों का मानना है कि उत्तर भारत के सरकारी निकम्मेपन की सजा योजना सहायता के मद में कटौती के रूप में उन्हें झेलनी पड़ती है. केंद्र का यह कहना है कि उसे पिछड़े राज्यों को मदद के लिए पैसा देना होता है. बिहार परिवार नियोजन में बुरी तरह असफल रहा लेकिन पिछड़े राज्य के नाम पर विशेष राज्य का दर्ज़ा मांग रहा है जो तमिलनाडु और केरल को खटकता है.     
उत्तर प्रदेश चिर अ-विकास की स्थिति से निकलना चाहता है. कुछ ताज़ा उदहारण देखें. आम तौर पर इन्वेस्टर समिट हर मुख्यमंत्री का शगल हो गया है. लाखों रुपये खर्च कर देश और विदेश के भी कुछ उद्योगपतियों का जमवाड़ा, कुछ दस्तावेजों पर इनके और किसी सरकारी अफसर के हस्ताक्षर जिसे सहमति पत्र या एम ओ यूं (मेमोरेंडम ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग) कहा जाता है और जिनका कोई खास मतलब नहीं होता लेकिन मीडिया को बताया जाता है कि इतने लाख करोड के निवेश का वादा हुआ. पांच साल बाद नया मुख्यमंत्री फिर ऐसा हीं आयोजन करता है. बिहार इसका जवलंत उदाहरण है. लेकिन लखनऊ में हाल हीं में संपन्न इस समिट के बाद मुख्यमंत्री हर रोज इन इन्वेस्टरों से बात कर रहे हैं और उनकी अन्तर-संरचनात्मक जरूरतों को पूरा करने के काम में लग गया हैं. खबर है कि उद्योगिक घराने इस बदलते प्रदेश पर भरोसा कर गंभीरता से निवेश करने जा रहे हैं. संगठित अपराध में कमी और पुलिस एनकाउंटर से निवेश का माहौल बन रहा है. नक़ल पर जबरदस्त लगाम को भी “योगी मीन्स बिज़नेस” (योगी को काम से मतलब है) के  क्रम में देखा जा रहा है. 
एक अन्य फैसला जो हाल में लिया गया है वह है “एक जिला, एक उत्पाद” का. यह कन्सेप्ट जापान से निकला था जो चीन के आलावा दक्षिण एशिया के तमाम में कारगर साबित हुआ. योगी सरकार ने हाल हीं में इसे एक अभियान का स्वरुप दिया है और अधिकारियों की समिति इसके आधार पर जिलों को और उनमें तैयार किये जाने वाले उत्पादों का चयन कर चुकी हैं. जैसे आगरा में चमड़ा ऊत्पादन, फिरोजाबाद में कांच की चूड़ियाँ, मथुरा में बाथरूम-फिटिंग्स तो इलाहाबाद में अमरुद और प्रतापगढ़ में आवला और कौशांबी में केला प्रोसेसिंग. इस जापानी अवधारणा का लाभ यह होगा कि एक जिले में स्किल्ड वर्कर आसानी से उपलब्ध हो सकेंगे और तकनीक के स्तर पर भी केन्द्रित (फोकस्ड) विकास किया जा सकेगा. साथ हीं खरीददारों को जगह -जगह नहीं जाना होगा. उत्पाद अगर कृषि आधारित है तो किसानों को उपज के विपणन के लिए स्थानीय स्तर पर बेहतर मूल्य मिल सकेगा. इस उत्पादों पर आधारित उद्योगों के लिए स्पेशल राहत पैकेज भी दिया जाएगा.    
प्रदेश कैबिनेट ने ६ मार्च, २०१८ को फैसला लिया कि मंडी एक्ट में संशोधन करके निजी क्षेत्र के लोगों (याने स्थानीय किसान-उत्पादक संगठनों) को अधिकार दिया जाएगा कि वे अपनी मंडी स्थापित करें ताकि किसानों को प्रतियोगी बाज़ार मिले और वे अपनी उपज का उचित मूल्य ले सकें. यह नीति एक माह पहले केंद्र सरकार को सौपी गयी दलवई समिति की रिपोर्ट में दी गयी संस्तुति में है. किसानों की आय दूना करने के लिए सलाह देने वाली दलवई समिति की १४ वॉल्यूम की रिपोर्ट में पांच मुख्य संस्तुतियां हैं. सबसे महत्वपूर्ण संस्तुति यह है कि संविधान में संशोधन कर कृषि विपणन को समवर्ती सूची में लाया जाये ताकि किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिए अंतर -राज्यीय बाज़ार मिल सके. उसी संस्तुति में यह भी कहा गया है कि किसान-उत्पादक संगठन (एफ पी ओ) इन मंडियों को स्थानीय स्तर पर चलायें. गाँव के साप्ताहिक बाज़ार भी मंडियों का स्वरुप लें और सही मूल्य न मिलने पर सरकारी गोदामों में किसान अपना अनाज रख सकें और इस उत्पाद के एवज में उन्हें जरूरत का क़र्ज़ भी दिया जाये जो किसान तब वापस करे जब उसे अपने उत्पाद का अच्छा दाम मिले. याने वे सदियों से हो रहे स्थानीय साहूकार और अढ़तिया के शोषण का शिकार न बन सकें. संस्तुति के अनुसार ये मंडियां राष्ट्रीय विपणन ग्रिड के जरिये जुडी होंगी ताकि किसानों को अपने उत्पाद बेंचने के लिए व्यापक विकल्प मिले.  
इसी क्रम में कोई तीन हफ्ते पहले योगी सरकार ने एक बड़ा फैसला लिया जिसके तहत किसानों अपनी जमीन बगैर लैंड -यूज (जो बेहद दुरूह प्रक्रिया है) बदलवाए कृषि -आधारित उद्योगों के लिए दीर्घ-कालिक लीज पर दे सकता है. इसका लाभ यह होगा कि उद्यमी निवेश कर सकेंगे और सस्ते किराये पर भूमि उपलब्ध होगी. बुंदेलखंड के किसानों को जिनकी उपज बेहद कम है, यह आजीविका का बड़ा साधन बन सकेगा.     
ऐसा लग रहा है कि योगी दलवाई समिति की रिपोर्ट के अनुरूप हीं किसानों के लेकर अपनी नीति तैयार कर रहे हैं. हालाँकि अपेक्षित और तीव्र सफलता के लिए केंद्र से भी उसी रफ़्तार से राष्ट्रीय योजनायें बनाना जरूरी होगा. गैर-भाजपा राज्य आम तौर पर संविधान में संशोधन कर केंद्र की शक्तियों को बढाने का विरोध करते रहे हैं लेकिन आज देश के २१ राज्यों में भाजपा का शासन है लिहाज़ा वह दिक्कत भी लगभग ख़त्म है.    
शहरों में जिस तरह नगर निकायों की कार्य शैली बदली है और घर-घर आ कर आवाज देकर नगर निगमों और विकास प्राधिकरणों के कर्मचारियों द्वारा कूड़ा माँगा जा रहा है वह इस नयी कार्यशैली का परिचायक है. यह अलग बात है कि कुछ लोगों और अधिकारियों का गठजोड़ (जिसे प्रशासनिक सिद्धांतों के तहत कोल्युसिव करप्शन के रूप में जाना जाता है) इन प्रयासों के खिलाफ जन -भावना भड़काने में लगा है. लेकिन मुख्यमंत्री को यह भी जानना आवश्यक है कि ऐसे तमाम शहर हैं जिनमें भ्रष्ट अफसरों के द्वारा फर्जी शौचालय के आंकड़ें दे कर “खुले शौचालय मुक्त” (ओपन डेफिकेशन फ्री) जिले का दर्ज़ा हासिल कर लिया गया है. ग्राम प्रधान और लेखपाल से लेकर बी डी ओ तक अभी भी विकास के पैसे हड़पने में आकंठ डूबे हैं. 
जाहिर है स्वच्छ भारत से न तो किसी नरेन्द्र मोदी को वोट मिलते हैं न हीं नक़ल रोकने से किसी योगी को. लेकिन जब अभी तक जंग लगे उदासीन सत्ता की सकारात्मक धमक से कोई अपराधी मरता है या नकलची इम्तहान छोड़ता है या कूड़े की गाडी अल-सुबह घर के सामने पहुँच कर “सर्वसम्मानित नागरिकों को सूचित किया जाता है कि कूड़ा गाडी आपके द्वार पर आयी है और आप अपने घर का कूड़ा इसमें डाल कर शहर को स्वच्छ रखने में मदद करें” की गुहार लाउडस्पीकर से लगाती है तो सरकार की मंशा पर शक नहीं किया जा सकता बल्कि उसे जन-समर्थन की जरूरत होती है. 

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