Sunday 9 July 2017

राजनीतिक वर्ग की गिरती साख पर इलाज़ क्या ?

लालू के लिये क्या कोइ नैतिक संकट है भी ?
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तुम उनके वादे का ज़िक्र उनसे क्यूं करो ग़ालिब,
ये क्या, कि तुम कहा किये और वो कहें कि याद नहीं !
                              ---  मिर्ज़ा ग़ालिब

भारत के संविधान की अनुसूची ३ में मंत्रियों और जन प्रतिनिधियों (जिसमें प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी  शामिल हैं) को पद ग्रहण करने के पहले इस बात की शपथ लेनी होती है कि वे संविधान में “सच्ची श्रद्धा और निष्ठा” रखते हैं। संविधान निर्माताओं ने सोचा होगा कि सार्वजानिक रूप से शपथ लेने से मानव बांध जाता है क्योंकि उसे ईश्वर से डर लगे या न लगे, प्रजातंत्र में जनता की नज़रों से गिरने का भय रहेगा। लेकिन भारत में ठीक उलटा हुआ और नेता की समझ विकसित हुई कि शपथ लेने के बाद सरकारी सुविधा में ईश्वर को मंदिर के दर पर “वी आई पी” दर्शन कर खुश किया जा सकता है लेकिन जनता की नाराजगी की काट एक ही है और वह है उसे जाति या सम्प्रदाय में बाँट देना और खुद को उसका “प्रोटेक्टर” बताना। अभिजात्य वर्ग के लिए या दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल में सेमिनार के लिए इसका नाम “सोशल जस्टिस फोर्सेज” (सामाजिक न्याय की ताकतें) दिया गया।

नतीजा यह हुआ कि जब वर्षों पहले लालू यादव पर चारा घोटाला का आरोप लगा तब एक संपादक ने बिहार के एक यादव -बहुल क्षेत्र राघोपुर में, जहाँ से लालू और उनके परिवार के लोग समय समय पर चुनाव लड़े, अपने रिपोर्टर भेजे। रिपोर्टर का सवाल था “लालू यादव चारा घोटाला में फंसे हैं, आपकी क्या प्रतिक्रिया है?” लगभग सभी यादवों का जवाब था “बाबू साहेब आपका नाम क्या है?” जब उस रिपोर्टर ने नाम बताने की ज़रुरत नहीं होने की बात कही और प्रश्न दोहराया तो उनका जवाब था “जगन्नाथ मिश्रा भ्रष्टाचार करें तो आप लोगों नहीं दिखाई देता लेकिन हमारा नेता छाती ठोक कर भ्रष्टाचार कर रहा है तो बड़ा बुरा लग रहा है”।

किसी समाज में किसी जाति विशेष के नेता द्वारा अगर भ्रष्टाचार करना भी उस जाति की सामूहिक गरिमा का परिचायक होने लगे तो वहां प्रजातंत्र, प्रजातांत्रिक मूल्य, नियम और कानून –व्यवस्था सामुद्रिक आंधी में छोटी नौका की तरह डोलने लगता है और अंत में डूब जाता है. घोटाले में फंसने के कारण लालू के बाद राबरी का शासन में आना और फिर बाद में उनके बच्चों का भी संविधान में उसी “सच्ची निष्ठा“ की शपथ लेना मानों प्रजातंन्त्र का उस आँधी में नाव की मानिंद रहा. इस आंधी में कोई अपराधी शहाबुद्दीन भी पांच बार चुनाव जीतता है क्योंकि उसे मुसलमान अपना रोबिनहुड मानता है और हिन्दू वोटर डर के मारे वोट देना लगता है. शहाबुद्दीन जेल से भी वही करता है जो छुट्टा घूमते हुए करता था. संविधान में सच्ची निष्ठा थी तभी तो अपने खिलाफ किसी भी गवाह को जिन्दा नहीं रहने देता है. फिर वोटर का अपने रॉबिनहुड से मोह भंग हो जाएगा अगर गवाह इतनी हिमाकत कर जाये कि अदालत तक पहुँच कर “साहेब” के खिलाफ बोल दे.  

तो लालू यादब अदालत में भ्रष्टाचार के तमाम मामले के बावजूद चुनाव-दर-चुनाव मंत्री के रूप में केंद्र में संविधान में सच्ची निष्ठा की शपथ लेते रहे, बिहार में राबरी देवी और अब उनके ‘होनहार बेटा –बेटी भी”. कुछ साल हुए इस लालू यादव की वर्षों की सच्ची निष्ठा और अदालत के फैसले में टकराव होता है. इस बार कानून की व्यवस्था जीत जाती है लालू चुनाव राजनीति से बाहर कर दिए जाते हैं. यहीं पर प्रजातन्त्र की जनता की समझ और संविधान की प्रजातांत्रिक व्यवस्था में विरोधाभास दिखता है जो समस्या की जड़ में है. अगर लालू भ्रष्टाचार के दोषी है और अदालत सजा दे चुकी है तो फिर लालू की पार्टी , लालू का परिवार कैसे वोट पाता है. क्या वोटरों को किसी ब-मुश्किलतमाम हाई स्कूल पास और नीम –शिक्षित जन-सेवा से कोसों दूर पत्नी और बेटा-बेटियों में भी वही “गरीबनवाज” दिखाई देने लगा?

बिहार विधानसभा में नीतीश कुमार लालू यादव की संवैधानिक प्रतिबद्धता और गरीबो (यादव-मुस्लिम वोटरों) के उत्थान के लिए उनकी कर्मठता देखते हुए दस साल लालू को बुरा भला कहने के बाद गलती का अहसास करते हैं और लालू का हाथ थाम लेते हैं. बिहार की “प्रबुद्ध” लेर्किन जाति और सम्प्रदाय में बंटी जनता एक बार फिर प्रजातन्त्र को “मजबूत” करने के लिए इस गठबंधन को अपना तारणहार बनाती है.

इसी बीच देश में शासन बदला और भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में एन डी ए की सरकार आती है. लालू पर नाजायज धन और जायदाद कमाने के तमाम मामलों की जांच शुरू होती है केन्द्रीय जांच एजेंसी सी बी आई द्वारा.

अब यहाँ भी लालू –ब्रांड प्रजातंत्र का नमूना देखिये. जब लालू यादव ने रेल मंत्री के रूप में संविधान में सच्ची निष्ठा की शपथ ली और उसके अनुरूप काम शुरू किया तो बिहार के एक परिचित व्यक्ति के होटल को सरकारी होटल चलने का ठेका दिया जाता है. ठेका काफी कम में उठाया जाता है. लालू की पार्टी के एक अन्य मंत्री (उन्होंने ने भी सच्ची निष्ठा की शपथ ली थी) प्रेम गुप्ता की पत्नी सरला गुप्ता की व्यावसायिक क्षमता देखिये कि उनकी कंपनी को यह होटल चलाने वाला कम दर पर एक जमीन का कीमती टुकड़ा देता है. फिर यह जमीन का टुकड़ा सरला गुप्ता की कंपनी लालू यादव के परिवार की कंपनी “लारा” (लालू-राबरी) को औने-पौने बेचती है इसकी कीमत वैसे तो ३२ करोड रुपाई है लेकिन कागजों में मात्र कुछ लाख दर्ज की गयी है. क्या कहीं भी संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा में कोई कमी किसी लालू या किसी प्रेम गुप्ता में नज़र आयी?

लालू की गर्जना स्वाभाविक है. हालांकि उनको जवाब इन प्रश्नों का  देना था कि क्या होटल को सस्ते में टेंडर दिया गया , क्या होटल मालिक ने प्रेम गुप्ता की पत्नी की कंपनी को जमीन दी , क्या यह जमीन लारा कंपनी को  ट्रान्सफर हुई और क्या इसकी कीमत उस समय बाज़ार की प्रचलित दर से (जिस पर अन्य क्रेताओं ने जमीने बेंची या खरीदी थी) कम पर दिया गया? लेकिन लालू के प्रजातंत्र की मान्यताएं अलग हैं. उन्होंने पहले तो कहा कि मेरी होने वाली रैली से मोदी डर गए हैं और जब सी बी आई का छापा और पूछ-ताछ लम्बा चला  तब लालू ने मीडिया को बताया “ये मोदी –अमित शाह मुझे जेल में बंद करके भी मुझे समर्पण करने को मजबूर नहीं कर सकते. मैं इनकी सरकार को उखाड़ फेंकूंगा”. लालू को यह बोलने की शक्ति शायद इस बात मिल रही है कि जनता को जाति और सम्प्रदाय में बाँट कर फिर एक बार “सच्ची निष्ठां” की धज्जियाँ उडाई जा सकती है. पर शायद अबकी बार जनता की तर्क-शक्ति और सामूहिक सोच बदलेगी और प्रजातंत्र संकीर्ण सोच के भंवर से निकल सकेगा।    

lokmat