Friday 7 April 2017

किसान क़र्ज़ माफ़ी: कैंसर का दर्द की गोली से इलाज



सही अमल हो तो यूपी अन्य राज्यों के लिये नज़ीर 


"उम्मीद तो बांध जाती,तस्कीन तो हो जाती,  
वादा न वफ़ा करते, वादा तो किया होता"
            
शायर की इस भावना को पूरी तरह अमल में लाते  हुए पिछले ७० साल से राजनेता चुनाव के दौरान घोषणा पत्र में या जनमंचों से वादे करते हैं  और परिणाम आने के तत्काल बाद उन्हें भूल जाते हैं. इस पैमाने को बदलते हुए उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की योगी आदित्य नाथ के नेत्ृत्व वाली नयी सरकार का 2.30 करोड़ लघु व सीमान्त किसानों के एक लाख रुपये तक क़र्ज़ माफी का फैसला क्रांतिकारी कहा जा सकता है. प्रदेश का बजट  लगभग ३.७५ लाख करोड रुपये का होने की उम्मीद है  और ऐसे में लगभग ३६,००० करोड रुपये का क़र्ज़ माफ़ कर देना जो कि बजट परिव्यय  का  दस प्रतिशत हो अपने आप में बड़ा कदम माना जा सकता है. अन्य राज्य भी आने वाले दिनों  में इस तरह की मांग करने लगे हैं. भारतीय जनता पार्टी को तमाम अन्य राज्यों में जहाँ  आने वाले समय में चुनाव हैं इस चुनौती को झेलना पड़ सकता है.

प्रदेश में क़रीब ५००० क्रय केन्द्र खोल कर आधार कार्ड के आधार पर केवल असली किसानों से गेहूँ की ख़रीद करने का फ़ैसला एक बड़ा क़दम है। अगर राज्य सरकार गंभीरता से इस फ़ैसले को अमल में ला सके तो देश के अन्य राज्यों के लिये अनाज ख़रीद में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश का उदाहरण बन सकता है। 
इसी तरह क़र्ज़ माफ़ी से बढ़े ३६ हज़ार करोड़ की रक़म जुटाने के लिये दीर्घकालीन बांड जारी करना भी आर्थिक समझदारी (साँप भी मरे और लाठी भी न टूटे ) का बेहतरीन नमूना है़। 


लेकिन आखिर क्या क़र्ज़ माफ़ी समस्या का समाधान है. क्यों २००८ में यू पी ए-१ की मनमोहन सरकार को भी देश भर के किसानों का ७१,०००  करोड क़र्ज़ माफ़ करना पड़ा. क्या इस क़दम से किसानों का संकट हमेशा के लिये ख़त्म हो गया था?  क्या इससे यह ख़तरा नहीं है कि हर किसान खूब क़र्ज़ लेगा, बेटे-बेटी की शादी में पैसे उडाएगा और चुनाव आने का इंतज़ार करेगा. राजनीतिक पार्टियों में होड़ लगेगी कि कैसे इस तरह के “ऋणम् कृत्वा घृतं पिवेत” (क़र्ज़ ले कर घी पीना चाहिए) की  संस्कृति को विकसित कर वोट लिया जाये. नैतिक रूप से देखें तो इस तरह की नीति से वोटरों को रिझाने और दारू 
बाँट कर वोट लेने में कोई ख़ास अन्तर नहीं है। 

किसानों की समस्या समझना और उसका स्थाई निदान निकलना कोई राकेट साइंस नहीं है, न हीं इसे समझने या समाधान निकालने के लिए आइंस्टीन का दिमाग चाहिए. उदाहरण के तौर पर,  प्रमुख फसल ---गेहूं ----  के लिए प्रति हेक्टेयर करीब ४०,००० से ४५,००० रुपये खर्च होते हैं. देश में औसत पैदावार ३२ कुंतल है जो कि पंजाब, हरियाणा में ४२ से ४८ कुंतल तक और बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में मात्र २५ से ३० कुंतल तक है. इसका कारण यह है कि इन प्रदेशों में अधिकांस किसान (७५ से ८८ प्रतिशत) सीमान्त या लघु किसान है याने २ हेक्टेयर से कम जोत वाला. वर्तमान में गेंहूं की न्यूनतम समर्थन मूल्य १६२५ रुपये प्रति कुंतल है. याने एक किसान को (अगर  अपना भूसा भी बेंच देता है) ६०,००० रुपये  की आय हुई. उत्तर प्रदेश या हिंदी पट्टी के राज्यों  में लगभग ७० प्रतिशत सीमान्त किसान (एक  हेक्टेयर से कम) हैं और १५  प्रतिशत लघु (याने दो हेक्टेयर से कम) . एक सीमान्त किसान जो रबी  और खरीफ दोनों हीं पैदा करता है की कुल वार्षिक आमदनी अधिक से अधिक ४०,००० रुपये हो सकती है अर्थात मात्र ३३०० रूपये प्रति माह. इस पर अगर मौसम की मार पड़ गयी तो अगले दस साल तक उसके उभरने के आसार ख़त्म हो जाते हैं. क़र्ज़ पर ब्याज चढता रहता है और अंत में वह जमीन  बेंच कर बड़े शहरों में मजदूरी करने को मजबूर हो जाता है. लिहाज़ा क़र्ज़ माफ़ करना एक कैंसर के मरीज़ को दर्द रोकने वाली मोर्फिन की सुई लगाने के सिवा कुछ नहीं है. व्याधि के जड़ में जाना होगा.    

मैंने जो ऊपर किसान के आय का गणना की है वह आदर्श स्थिति को लेकर है. लेकिन हकीकत बिलकुल उलट है. किसी भी गरीब किसान को सरकारी क्रय केंद्र पर अपना उत्पाद बेंचना संभव नहीं होता  क्योंकि आढ़तियों और भ्रष्ट सरकारी क्रय केंद्र के कर्मचारियों के बीच एक “अलिखित” समझौता होता है कि गरीब और बेपढ़े-लिखे किसानों को  इतना  तंग करो कि वे अढतियों को औने-पौने बेचने पर मजबूर हो जाएँ. फिर आढ़तिया वही गेंहू उन्हीं क्रय केन्द्रों पर बेच देता है. सरकारी कागजों  में दर्ज होता है कि अमुक  क्रय  केंद्र ने अपने क्रय कोटे से ज्यादा गेंहूं  खरीदा. मुख्यमंत्री और देश के नेता भी हांफ –हांफ कर जनता को बताते हैं कि किसानों को कितना “समर्थन” दिया गया. मध्य प्रदेश में नाफेड का क्रय केंद्र खुला और यह  माना  गया कि राज्य सरकारों के क्रय केंद्र भ्रष्ट होते हैं लिहाज़ा केन्द्रीय एजेंसी कुछ बेहतर होगी। पर बाद में पता  चला कि भ्रष्टाचार किसी राज्य के कर्मचारियों की “बपौती” नहीं है. उत्तर प्रदेश सरकार को इस भ्रष्टाचार को तोड़ना होगा। 

सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में पिछले २५ सालों से लगातार हर ३६ मिनट पर एक किसान आत्म-हत्या कर रहा है और हर रोज़ २०५२ किसान खेती छोड़ देते है. दो दिन पहले महाराष्ट्र में एक किसान ने अरहर की खडी फसल में आग लगा दी क्योंकि उसे फसल का लागत मूल्य तो छोडिये ट्रक से मंडी ले जाने के पैसे नहीं मिल रहे थे. अगर गहराई में जाये तो पता चलेगा अरहर का समर्थन मूल्य तो सरकार ने ४८५० रुपये प्रति कुंतल कर रखा है (जबकि बाज़ार  में अरहर की दाल पिछले साल २५०  रुपये और वर्तमान में ८०  रुपये है) परन्तु न तो सरकारी क्रय केंद्र में कोई खरीद हो रही है न हीं खुले बाज़ार में मूल्य बढ़ रहा है. कहने की ज़रुरत नहीं कि किसान ने पहली बार दलहन के उत्पादन की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपील पर रिकॉर्ड २५  मिलियन टन की पैदावार की है. लेकिन सरकार को यह समझ में नहीं आ रहा है कि इस स्थिति के बाद अगले कई दशकों तक कोई किसान दलहन पैदा करने की सोचेगा भी नहीं.                        

आज ज़रुरत है कि किसान के उत्पादों का समर्थन मूल्य कम से कम २५  प्रतिशत बढ़ाया जाये और साथ हीं नए कानून ला  कर सुनिश्चित किया जाये  कि उनकी पूरी पैदावार अगर वह किसान चाहे तो सरकार स्वयं खरीदे. फसल बीमा योजना लागू करने में कोताही करने वाले राज्यों को अनुदान में कटौती करे. कृषि विस्तार की नेहरूवियन मॉडल को पूरी तरह बदले क्योंकि पिछले ७० सालों में ब्लाक (खंड  विकास कार्यालय) और कृषि विस्तार से जुड़ा सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता के अड्डे बन कर रह गए हैं.     

lokmat