Saturday 3 March 2018

भ्रष्टाचार: क्यों हुई जन-अनुभूति और नकारात्मक




एक ताज़ा अध्ययन के अनुसार दुनिया के दो-तिहाई देश भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के मामले में पूर्व में तो छोडिये, हाल के वर्षों में भी कुछ नहीं कर रहे हैं. इनमें से अधिकांश में प्रजातान्त्रिक शासन है. क्या जनता को भ्रष्टाचार से कोई परहेज नहीं है, या फिर सत्ता के लिए उनका चुनाव गलत है अथवा यह मान लिया जाये कि सत्ता पर चाहे कोई बैठे, सिस्टम से भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं हो सकता? ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के सन २०१७ के लिए जारी इस अध्ययन में भारत भ्रष्टाचार सूचकांक पर दो स्थान और पीछे (७९ से ८१ पर) खिसक गया है याने देश में इस शाश्वत सामाजिक व्याधि को लेकर जन-अनुभूति सन २०१६ के मुकाबले ज्यादा खराब हुई है. ध्यान रहे कि यह सर्वे जन-अनुभूति को लेकर किया जाता है और जब यह सर्वे किया गया होगा उस समय बैंक घोटाला नहीं हुआ था और साथ हीं नोटबंदी के प्रभाव को लेकर आम जनता में तकलीफ चाहे जो रही हो, इसे मोदी सरकार का भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अच्छा प्रयास माना जाने लगा था.
आखिर इस जन-अनुभूति की वजह क्या है? प्रजातंत्र तो जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन माना जाता है और भारत सहित कई देश इसे कई दशकों से प्रयोग में ला रहे हैं. अगर इन देशों का जी डी पी तमाम खाने फांदता हुआ २५ सालों में छठें स्थान पर आ सकता है (.६० लाख क्रोड़े रुपये) तो फिर जनता को क्यों लगता है कि भ्रष्टाचार ख़त्म करने में हमारा सत्ताधारी वर्ग उदासीन या अक्षम साबित हो रहा है? अगर एक निष्पक्ष विश्लेषण करें तो यह कह सकते कि पिछले चार साल के मोदी शासन में वर्तमान बैंक घोटाले को छोड़ कर कोई बड़ा भ्रष्टाचार सामने नहीं आया है. नोटबंदी में सबसे ज्यादा आहत भी भ्रष्ट लोग हुए और कष्ट के बावजूद आम जन यह माना कर “कि कुछ शुरू तो हुआ” , खुश हुआ. फिर जन -अनुभूति में नकारात्मकता घटने के बजाय क्यों बढी?
इस कारण जानने के लिए भारत में भ्रष्टाचार की बदलती प्रकृति को समझना होगा. भ्रष्टाचार दो तरह के होते हैं --- पहला भयादोहन (शेकडाउन सिस्टम) या सरकारी काम करने के पैसे जो कि भयादोहन का हीं एक परिष्कृत रूप है और दूसरा “सहमति से” (पेऑफ़ सिस्टम). द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की १२ वॉल्यूम की विस्तृत रिपोर्ट के वॉल्यूम ४ में इन दोनों प्रकार के भ्रष्टाचार के स्वरूपों की व्यापक विवेचना करते हुए इन्हें “कोएर्सिव” और “कोल्युसिव” नाम दिया है. पहले किस्म के भ्रष्टाचार में पुलिस का ट्रक वालों से पैसा वसूलना, ग्राम प्रधान का सरकारी सब्सिडी दिलाने के लिए गरीबों से पैसा लेना या लेखपाल का कर्ज माफी की पात्रता के लिए नाम आगे बढ़ाना या शहरों में मकान का नक्शा पास करवाने, जन्म – या मृत्यु प्रमाण देने या पासपोर्ट सत्यापन में पैसे लेना होता है. पेऑफ़ या कोल्युसिव सिस्टम के भ्रष्टाचार बैंक घोटाला, -जी स्पेक्ट्रम या तमान बड़े घोटाले आते हैं जिनमें एक सहमति होती है जैसे पुल बनाने में इंजिनियर और ठेकेदार के बीच. इस भ्रष्टाचार से समाज अप्रत्यक्षरूप से लेकिन बड़ा नुकसान सहता है. भारत सहित दुनिया के तमान देशों में पेऑफ़ सिस्टम का भ्रष्टाचार १९७० से शुरू हुआ और आज यह व्यापक रूप ले चुका है. इस विषय के जानकारों का मानना है कि इस भ्रष्टाचार को ख़त्म करना बेहद मुश्किल होता है क्योंकि इसका शिकार व्यक्ति नहीं पूरा समाज होता है जो कि अमूर्त है और उदार प्रजातंत्र में अदालतें सबूत और गवाह चाहती हैं लिहाज़ा भ्रष्ट व्यक्ति आराम से कोर्ट से छूट जाता है. -जी स्पेक्ट्रम का हश्र सामने है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान मोदी सरकार में मंत्रियों की संलिप्तता के मामले तो छोडिये, बड़े भ्रष्टाचार के मामले नहीं हुए हैं. फिर क्यों इस मुद्दे पर लोगों की धारणा सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक बढी है? मोदी सरकार भी इसे नहीं समझ रही है. यह पहले किस्म के भ्रष्टाचार के जारी रहने से और कम न होने से बढी है. इसके दो कारण हैं. जन-कल्याण योजनाओं जैसे उज्जवला, गरीबों को मकान या शौचालय पर अनुदान की राशि हीं नहीं व्यापकता भी बढी लेकिन इसकी डिलीवरी में कहीं न कहीं भ्रष्ट राज्य अभिकरण की अपरिहार्य भूमिका होती है लिहाज़ा यह भ्रष्टाचार बढ़ गया है. प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत राज्य सरकारों ने आवास सहायकों की अस्थायी नियुक्ति की. चूंकि ये घूस दे कर आये और इनका कार्यकाल अस्थायी है लिहाज़ा ये भी लूट में लग गए . गरीबी से नीचे रहने वाले लोगों में आवास के लिए पात्रता का प्रमाण ये हीं देते हैं अर्थात यह प्रमाणित करते हैं कि अमुक व्यक्ति के पास पक्का मकान नहीं है. फिर जब अगली क़िस्त का समय आता है तो उसके पहले भी इन्हें पिछले पैसे कितना काम हुआ का प्रमाण पत्र देना होता है. बिहार के नवादा जिले में एक विधायक को जब शिकायत मिली कि सुपात्र लोगों में से २२ के नाम पात्रता लिस्ट से गायब हैं और गौर-पात्रता वाले नाम जोड़ दिए गए है तो उसने आवास सहायक को बैठक में डांटा. उसने बताया कि मुखिया ने यह किया है. इस पर जब उससे विधायक ने कहा कि तुमने दस्तखत क्यों किया तो उसने बताया कि खंड विकास अधिकारी ने जबरदस्ती दस्तखत करवा लिए. याने मुखिया, सहायक , अधिकारी सभी इस लूट में शामिल हैं. तब उसने जिले के डी डी सी शिकायत की. अभी तक उस अधिकारी ने भी कुछ नहीं किया. जड़ें गहरी होती जा रही हैं. उत्तर भारत के राज्यों में इस तरह का भ्रष्टाचार हावी है. जाहिर है जब सर्वे में इन लाभार्थियों या लाभ से वंचित लोगों से पूछा जाएगा कि भ्रष्टाचार में पहले से कमी आयी या यह बढ़ा तो उसका जवाब भोगा हुआ यथार्थ के आधार पर होगा भले हीं वह मोदी और उनकी योजनाओं से खुश हो.
जन -प्रतिनिधि अपने इलाके में जा कर इस भ्रष्टाचार को कम करा सकते हैं पर अधिकांस बैठकों में सांसद शायद हीं कभी जाते हैं फिर इन परियोजनाओं के बारे में उनका ज्ञान भी सीमित होता है. प्रधानमंत्री का आदेश होई कि सांसद क्षेत्र में हर माह कम से कम तीन दिन बिताएं पर वे शाम को दिल्ली या राज्य की राजधानी से जिला मुख्यालय पहुंचते हैं अगले दिन क्षेत्र के बड़े लोगों के घर भोजन और सर्किट हाउस में रात बिता कर सुबह फिर दिल्ली के लिए रवाना –तीन का कोटा पूरा. नतीजा यह है कि जितनी विकास या जन कल्याण की योजनायें आयेंगी उतना हीं राज्य अभिकरणों में बैठे लोग भ्रष्टाचार करेंगे और उतना हीं कमज़ोर तबका त्रस्त होगा और नाराजगी बढ़ेगी.
अब ज़रा तस्वीर का दूसरा चौकाने वाला एक और पहलू देखें. सन २०१३-१४ में सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार कृषि क्षेत्र की कुल आय जी डी पी का मात्र १५ प्रतिशत थी या यूं कहें कि लगभग ४.६० लाख करोड़ थी लेकिन ९,१४,५०६ लोगों के दावा किया कि उनके पास कृषि आय है और यह भी कि उन्होने खेती से उस वर्ष २००० लाख करोड़ रुपये का उत्पादन किया. याने वास्तविक सरकारी उत्पादन आंकड़ों से ४०० गुना या उस साल में देश के कुल जी डी पी (९० लाख करोड़ रुपये) से २२ गुना ज्यादा (एक सांख्यिकी असम्भावना!). लेकिन न तो उस समय की यू पी ए -२ सरकार इस पर चौंकी न हीं वर्तमान सरकार ने आयोग बैठकर इस काला धन सफ़ेद करने के लिए कृषि आय का झूठा आंकड़ा देने वालों को जेल की हवा खिलाई. यही वजह है दुनिया के दो -तिहाई देश प्रजातंत्र होने के बावजूद इस दंश को झेलते रहेंगे.


lokmat/ navodaya

Thursday 1 March 2018

गाँधी-लोहिया-दीनदयाल-आंबेडकर का वैचारिक संगम एक अनूठा प्रयास


संविधान लगभग बन कर तैयार हो चुका था कि अचानक गाँधी के निकटतम सहयोगियों में एक श्रीमन्नारायण ने निर्माताओं से पूछा, “इस पूरे संविधान में गाँधी की ग्रामसमाज की अवधारणा की तो कहीं चर्चा भी नहीं है?” आननफानन में बमुश्किल तमाम इसे राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद ४० के रूप में जोड़ा गया. यह अलग बात है कि इस अवधारणा पर अमल अगले ४२ साल तक नहीं किया गया. सन १९९२ में पंचायत राज एक्ट ७३ वें संविधान संशोधन के तहत लाया गया और ग्रामपंचायतों को अधिकार मिले. संविधान की प्रस्तावना में आर्थिक न्याय व अवसर की समानता की बात है परन्तु ७० साल में गरीब -अमीर के बीच खाई बढ़ती गयी है. तमाम मकबूल संस्थाओं के ताज़ा अध्ययन लगातार यह बता रहे हों कि भारत में गरीब-अमीर के बीच फासला बढ़ता जा रहा है. हाल के एक अध्ययन के अनुसार देश में १०१ अरबपतियों की संपत्ति बढ़कर कुल जी डी पी का १५ प्रतिशत हो गयी है जो पांच साल पहले १० प्रतिशत और १३ साल पहले पांच प्रतिशत हुआ करती थी. सन १९८८ से सन २०११ के बीच जहाँ सबसे नीचे तबके के १० प्रतिशत गरीबों की संपत्ति २०० रुपये से भी कम बढी है वहीं शीर्ष एक प्रतिशत की १८२ गुना. आज की आर्थिक -सामाजिक व्यवस्था में क्या हम संविधान में दी गयी प्रतिबद्धता के आस पास भी पहुँच पा रहे हैं? समाज सरचना की विदेशी अवधारणा पर आधारित व्यवस्था के लगभग सभी दोष अब सामने आ चुके हैं. और आज जरूरत एक नए मौलिक सोच की है.
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने विगत ११ फ़रवरी को ग्वालियर में डॉक्टर लोहिया स्मृति व्याख्यान में लगभग इसी बात को एक बार फिर ध्वनित किया. उनका कहना था “ऐसा लगता है कि संसद से सड़क तक समाज के अंतिम व्यक्ति के हक़ में जन-चेतना की मशाल जलने वाले डॉक्टर लोहिया सामाजिक विषमताओं और शोषण की राजनीति को चुनौती देने के लिए हीं संभवतः पैदा हुआ थे ........ अपनी विचारधाराओं के आधारभूत तत्व को ग्रहण करते हुए समाज के अंतिम व्यक्ति के हित में काम करने की भावना के विभिन्न रूप महात्मा गाँधी, डॉक्टर आंबेडकर, डॉक्टर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन और संघर्ष में देखने को मिलते हैं. इन सभी विभूतियों ने देश की समस्याओं के एकांगी और विदेश समाधानों की जगह समग्र और जमीनी सुधारों पर जोर दिया. उनके रास्ते भले हीं अलग-अलग थे लेकिन उन सभी का एक हीं उद्देश्य था : भारत के लोगों को विशेषकर पिछड़े लोगों को बराबरी और सम्मान का हक़ दिलाना”.
भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने अपने एक अध्यक्षीय भाषण में कहा था : शासन प्रकिया चलाने में काफी हद तक विचारधारा की कोई भूमिका नहीं होती. आदर्श (आइडियल) और विचारधारा (आइडियोलॉजी) में अंतर होता है. हो सकता है कि कम्युनिस्टों और भारतीय जनता पार्टी के लोगों की विचारधारा अलग-अलग हो लेकिन दोनों का गंतव्य याने आइडियल एक ही है”.
जरा व्यावहारिक धरातल इन महापुरुषों के आदर्शों पर गौर करें जिनकी चर्चा राष्ट्रपति इस आशय से की कि इनकी समेकित सोच दिक्-काल के हिसाब से एक नया रास्ता देगी. एक ऐसे समय में जब गरीब -अमीर की खाई लगातार बढ़ रही हो, समाज में अभाव- ग्रस्त एक बड़ा तबका अवसर की समानता न मिलने से अपनी योग्यता नही दिखा पा रहा हो शायद आज नीति निर्धारण में इन सभी महापुरुषों की विचारधारा में एक सामजस्य बैठाना हीं सबसे सही रास्ता होगा.
जरा इन महापुरुषों के मूल विचारों में साम्य देखें. लोहिया के नारे : “राजा पूत निर्धन संतान, सबकी शिक्षा एक सामान” या “जो जमीन को जोते बोवे, वही जमीन का मालिक होवे”. पंडित दीनदयाल ने अपने चार बीज भाषणों में से अंतिम में कहा था : भगवान् की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव अपने को खोता जा रहा है ... हमारी अर्थ व्यवस्था का उद्देश्य होना चाहिए – प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम जीवन स्तर की आश्वस्ति .... प्रत्येक वयस्क और स्वस्थ व्यक्ति को साभिप्राय जीविका का अवसर देना. गाँधी का न्यासिता (ट्रस्टीशिप) का सिद्धांत और आंबेडकर के समतामूलक समाज की अवधारणा. ये सभी एक हीं दिशा में इंगित करते हैं.
उधर संघ परिवार के दिग्दर्शक पंडित दीनदयाल ने एकात्म मानववाद का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए अपने दूसरे भाषण में कहा था : विविधता में एकता अथवा एकता का विविध रूपों में व्यक्तिकरण हीं भारतीय संस्कृति का केन्द्रस्थ विचार है. यदि इस तथ्य को हमने हृदयंगम कर लिया तो फिर विभिन्न सत्ताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा. यदि संघर्ष है तो वह प्रकृति का अथवा संस्कृति का द्योतक नहीं, विकृति का द्योतक है. ......देखने को तो जीवन में भाई-भाई के बीच प्रेम और वैर दोनों मिलते हैं, किन्तु हम प्रेम को अच्छा मानते हैं. बंधु-भाव का विस्तार हमारा लक्ष्य रहता है”. अर्थात विचारधारा याने रास्ते चाहे जैसे हों, गन्तव या आइडियल (आदर्श) एक हीं हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नानाजी देशमुख ने देश में समाजवाद के प्रणेता और धुर समाजवादी चिन्तक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया को सन १९६३ में संघ के शिविर में आने का न्योता भेजा. शिविर से बाहर निकलने पर लोहिया से पत्रकारों ने उनके आने का कारण पूछा. लोहिया का जवाब था , “मैं इन सन्यासियों को गृहस्थ बनाने गया था”. इसके कुछ हीं महीने बाद १२ अप्रैल, १९६४ को लोहिया और भारतीय जनता पार्टी के शीर्षपुरुष और अद्भुत विचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एक साझा बयान जारी किया जिसने तत्कालीन राजनीतिक विश्लेषकों हीं नहीं पूरे देश को चौंका दिया. आने वाले दो -तीन वर्ष विचारधारा के स्तर पर उत्तर और दक्षिण ध्रुव माने जाने वाले नेताओं में अजब सामंजस्य रहा और यहाँ तक की जौनपुर के उप चुनाव में डॉक्टर साहेब ने पंडित जी के लिए प्रचार किया. और यहीं से बजा कांग्रेस के एकल दल वर्चस्व (सिंगल पार्टी डोमिनेन्स) के अवसान का बिगुल और १९६७ में देश के दस राज्यों में संविद सरकार का आना. कहा जाता था कि उस समय जी टी रोड से यात्रा करते हुए अमृतसर से कलकत्ता तक बगैर किसी कांग्रेस शासन वाले राज्य से गुजरे पहुँचा जा सकता था.
राष्ट्रपति ने गरीबों के कल्याण के सन्दर्भ और इन तथ्यों के मद्देनज़र की पिछले ७० सालों में गरीब-अमीर के बीच की खाई बढ़ती जा रहा है और उनके कल्याण लिए अपेक्षित प्रयास नहीं हुए हैं एक नए प्रयास पर बल देने पर था कि इन महापुरुषों के कथन को आप्तवचन मानते हुए नीति-निर्धारण के मूल में गरीबों का कल्याण रखा जाये और ऐसा करने में यह न देखा जाये कि अमल में लेन का रास्ता समाजवाद की ओर से जाता है या पूंजीवाद की ओर से या वह अवधारणा किस व्यक्ति की है या वह किसी विचारधारा का प्रतिपादक रहा है.
अगर ७० के प्रजातंत्र के बाद भी गाँव के एक कामगार रोज कमरतोड़ मेहनत के बाद ५० साल की कमाई होती है वह एक अच्छे कंपनी का मेनेजर १७.५ दिन में कमाता है तो न तो हम संविधान की प्रस्तावना में किया वादे पर खरे उतारे न हीं असली गाँधी के सपनों की असली प्रजातंत्र ला पाए. शायद यही राष्ट्रपति का दर्द था.


jagran