कोलकाता
को ४२ वर्षीय महिला ने फेसबुक पर १५ दिन की “चैट” के बाद वीरभूमि के रहने वाले एक
३३ वर्षीय युवक को अपने घर बुलाया. जब वह युवक महिला के घर पहुंचा तो महिला ने
पाया कि फेसबुक पर दी गयी तस्वीर से यह युवक अलग है , नाटा है और मोटा है. याने
बदसूरत है. युवक उससे शारीरिक सम्बन्ध बनाने का दबाव डालने लगा. महिला के ऐतराज़
करने पर उस युवक उस महिला की चाकू मार कर हत्या कर दी. फेसबुक पर जिस रफ़्तार से
दोस्ती, शादी और तलाक हो रहे है उसे देख कर भारतीय समाज में एक लगातार फैलाते
विकार से अजीब खतरा पैदा हो गया है. लिव-इन रिलेशन और कुछ दिन बाद अनबन से उपजी
दुर्भावना से साथ रहने वाली महिला का पुरुष मित्र पर बलात्कार का मुकदमा भी उसी
पतन की तार्किक परिणति है.
जैसे
हमने अपने अर्थ-व्यवस्था को वैश्विक अर्थ-व्यवस्था (मूल रूप से पश्चिम के संपन्न
राष्ट्रों से संचालित) में समेकित (इंटीग्रेट) किया है जिसके तहत २००७-०८ में पैदा
हुए अमरीकी वित्तीय बाज़ार का संकट भारत के कृषि पर असर डालता है, शायद उसी तरह
जाने-अनजाने में अपने वैल्यू सिस्टम को भी पश्चिमी वैल्यू सिस्टम में समाहित कर
रहे हैं. या पूरा का पूरा पश्चिमी वैल्यू सिस्टम अंगीकार कर रहे हैं. कोलकाता की महिला
को किसी युवक से महज़ १५ दिन के ट्वीट से दोस्ती करने से रोकना पश्चिमी वैल्यू
सिस्टम के अनुसार नारी स्वातंत्र्य को बाधित करने वाला है. यह माना जाता है कि
भारत में जो इसकी मुखालफत में आवाज़ उठता है वह दकियानूसी, गैर-प्रगतिशील और नारी
स्वतन्त्रता न चाहने वाला करार दिया जाता है. हमारा कानून भी सहमति पर आधारित
शारीरिक संबंधों की इज़ाज़त देता है (अगर इसमें धन का आदान-प्रदान नहीं है) और यहाँ
तक की विवाहेतर सम्बन्ध भी तब तक मान्य है जब तक पत्नी इसकी शिकायत नहीं
करती.
यह
सत्य है कि कोई भी समाज सभ्यता या संस्कृति के मार्च को रोक नहीं सकता मात्र देर
कर सकता है. पहनावे में बदलाव, संबंधों की गुणवत्ता में बदलाव, मूल्यों की जकड से
बाहर होने की तड़प समाज को गतिशील बनाती है. मार्क्सवादी सिद्धांत की माने तो
आर्थिक सम्बन्ध भी कई बार सामाजिक संस्थाओं में बदलाव का बडा कारण बनाते हैं.
संयुक्त परिवार की संस्था में टूटन भी इसी कारण है. वैल्यू सिस्टम भी बदलेगा हीं.
लेकिन ज़रूरी नहीं कि हम पश्चिमी वैल्यू सिस्टम हीं अंगीकार करें. क्या हम एक नया
वैल्यू सिस्टम जो हमारे पूर्व के सिस्टम के आगे का पड़ाव हो नहीं ला सकते? समस्या
इसलिए पैदा हो रही है कि सम्प्रेषण के नए साधनों का इस्तेमाल कर हम पश्चमी वैल्यू
सिस्टम को अंगीकार करने में बेहद तेज़ी कर रहे हैं.
कभी
बैंकाक, रोम या पेरिस जाएँ. आठ इंच की पेंट पहने लड़की को ओर विदेशी तो छोडिये उस
देश का युवक भी “दूसरी नज़रों से” नहीं
देखता क्योंकि यह उसके यहाँ का सामान्य पहनावा है. भारत की समस्या यह है कि भारतीय
महिलाओं ने अभी कोई दो दशकों से (आमतौर पर) छः मीटर की साड़ी
छोडी है और शलवार या जींस पर आयीं हैं. गाँव का एक मजदूर जब शहर में आता है तो
उसका वैल्यू सिस्टम और समझ पुराना होता है जिसमें उसको यह बताया गया है कि शहरों
में जो महिलाएं कम कपडे पहनती हैं वे “अच्छी” नहीं होती और कई बार “उपलब्ध” होती
हैं. लिहाज़ा जब वह अकेले में या एकांत में या अपने समूह के साथ किसी महिला को कम
कपडे पहने, या सिगरेट या शराब पीते देखता है तो अपने वैल्यू सिस्टम से आंकता है और
जब उसे तात्कालिक ऐसा परिवेश नहीं मिलता जो नए वैल्यू सिस्टम के अवरोध के रूप में
होता है (जैसे सी सी टी वी, एअरपोर्ट के माहौल की दहशत या सिक्यूरिटी गार्ड) तो
उसे लगता है कि वह इस महिला के साथ कुछ कर सकता है.
यही
महिला अगर एअरपोर्ट से फाइव स्तर होटल के एक वेल-ट्रेंड ड्राईवर की गाड़ी में बैठे
तो उस पर शारीरिक हमले की गुंजाइस कम हो जाती है क्योंकि वह ड्राईवर नए वैल्यू
सिस्टम को समझने लगता है. पुलिस, कानून, सी सी टी वी और होटल में नौकरी छूटने का
डर भी उसके अन्दर होता है. लेकिन यही डर माध्यम या निम्न वर्ग के रिहायशी रूट पर
चलने वाले उस ड्राइवर, कंडक्टर या खलासी को नहीं होगा जब वह यह पायेगा कि १६
दिसम्बर की कडकडाती ठंड रात में १० बजे एक लड़का और एक लडकी सीट के पीछे बैठ प्यार
की बात या प्यार कर रहे हैं. यही डर उस
वीरभूमि के युवक भी को नहीं होगा जो ट्वीट पर गलत अकाउंट बना कर अपनी फोटो की जगह
किसी स्मार्ट युवक की तस्वीर लगा कर आया है. उन दोनों को नारी स्वतंत्रता का
पश्चिमी मतलब नहीं मालूम, मात्र यह मालूम है कि ऐसे लोग “उपलब्ध” या “कमज़ोर” होते
हैं और इनके साथ अपनी काम पिपासा शांत की जा सकती है.
जब
हम गाहे –बगाहे (आजकल कुछ ज्यादा हीं) सुनते हैं किसी मंत्री ने कहा “औरतें कम
कपडे ना पहने” तब एक जबरदस्त प्रतिक्रिया “आधुनिकता के हिमायती” बुद्धिजीवियों के
द्वारा होती है. लगता है मानो भूचाल आ गया हो. प्रश्न यह नहीं है कि कम कपडे पहने
या ज्यादा. प्रश्न यह है कि दो वैल्यू सिस्टम को जब आप झटके से जोड़ते हैं तो यह
समस्या आती है. आधुनिकता या नारी स्वातंत्र्य के लिए जार-जार आंसू बहाने वाले यह
नहीं सोच पा रहे हैं इस तरह के स्वातंत्र्य की शर्तें हैं जबरदस्त कानून और उन्हें
अमल में लेन वाली ताकतवर संस्थाएं, सी सी टी वी से हर क्षण और हर जगह नज़र रखना,
न्यायपालिका की फौरी कार्रवाई का खौफ और महिलाओं में स्थिति को समझने की
सलाहियत.
भारतीय
समाज में हजारों साल से संस्थाएं विकसित हुई थी. परिवार, प्राथमिक संबंधों पर
आधरित सामाजिक तानाबाना, विवाह के जन्म-जन्मान्तर के रिश्ते, माँ-बाप का बच्चों के
प्रति शर्त-शून्य अगाथ ममत्व, “सोशल पुलिसिंग” की अद्भुत व्यवस्था ये सभी समाज में
व्यक्ति के नैतिक-चारित्रिक फिसलाव से रोकते थे. इस लिहाज़ से भारतीय समाज तथाकथित
पश्चिमी समाजों से अलग रहा है. पश्चिमी समाज “कॉन्ट्रैक्ट” (संविदा) पर आधारित रहा
है जहाँ ना तो प्यार या ममत्व में पूर्ण समर्पण है ना हीं व्यक्तिगत नैतिकता के
प्रति सार्थक आग्रह. भारत का समाज संबंधों पर आधारित रहा है.
किसी
भी समाज में धार्मिक संस्थाओं की इस पतन को रोकने में एक बड़ी भूमिका रही है. भारत
में हजारों साल से ये संस्थाएं रहीं है. पर हाल के दौर में इनकी भूमिका हीं नहीं
विश्वसनीयता भी ख़त्म हो चुकी है. व्यक्तिगत पसंद-नापसंद वाले बाबा हैं. संस्थाएं
या मूल्य विकसित करना इन बाबाओं की हैसियत
से बाहर है. पुरानी रूढ़ियाँ भी एकल परिवार और शहरीकरण के कारण दम तोड़ चुकी हैं. जब
इनमें से एक-आध बाबा बलात्कार के मामले में सलाखों के पीछे चला जाता है या उसकी
अकूत संपत्ति का खुलासा होता है तो बाख –खुचा विश्वास भी ख़त्म हो जाता है.
नया
वैल्यू सिस्टम तो आएगा पर क्या उसे बगैर पूरे समाज को तैयार किये लाना नयी
समस्याओं को पैदा नहीं करेगा? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि नारी स्वतन्त्रता के
पश्चिमी भाव से हट कर हम इस नारी स्वतंत्रता का मात्र कम कपडे तक हीं महदूद ना
करें बल्कि इसमें दुर्गा की शक्ति दे ना कि निर्भया (दिल्ली बलात्कार कांड, १६
दिसम्बर, ) की बेचारगी? क्या यह उचित नहीं होगा कि पहले बदलते वैल्यू सिस्टम से उस
बस कंडक्टर और खलासी को भी रू-ब-रू कराएँ और तब उसे दिल्ली में गाडी का चलने का
लाइसेंस दें. और जब तक यह प्रक्रिया , कानून, टेक्नोलॉजी का अपराध रोकने में
प्रयोग पश्चिमी समाज के स्तर तक ना आ जाये, कम कपडे ना पहनने की वकालत करें?
jansatta