सन २०१४ के आम चुनाव परिणाम
देश की जनता की सोच में प्रतीकात्मक बदलाव (पैराडाइम शिफ्ट) का संकेत दे रहे हैं.
बढ़ती प्रति-व्यक्ति आय, ७४.४ प्रतिशत साक्षरता , मीडिया के जरिये तथ्यों का
निर्बाध प्रवाह, स्टूडियो डिस्कशन से हासिल तर्क-शक्ति और सोशल मीडिया के माध्यम
से अपने को अभिव्यक्त करने की सुविधा ने देश की जनता की सामूहिक चेतना को बेहतर
किया है. वह “कोऊ नृप होहिं हमें का हानि“ की उदासीन –अवसाद की मानसिकता से निकल
कर अब राज्य से सही अपेक्षा करने लगी हैं.
यह जनता पिछले तीन वर्षों
में सभी राजनीतिक दलों को इस परिवर्तन का सिगनल भेज रहीं थीं. कभी भ्रष्टाचार के
खिलाफ अन्ना आन्दोलन में शरीक हो कर तो कभी बलात्कार के खिलाफ इंडिया गेट में खड़े
हो कर. यह सन्देश सत्ताधारी कांग्रेस व उसके अगुवा राहुल गाँधी के लिए भी उतना हीं
था जितना भारतीय जनता पार्टी और उसके संकटमोचन नरेन्द्र मोदी के लिए. राहुल और
कांग्रेस ये संकेत नहीं समझ पाए या समझना नहीं चाहते थे जबकि मोदी ने ना केवल समझा
बल्कि जनता से यह विश्वास भी हासिल कर लिया कि मोदी इन अपेक्षाओं को पूरा करेंगे.
मोदी का कमल मात्र इतना था कि वह संकेतों के अनुरूप अपने व्यक्तित्व को उभर पाए.
जनता ने मोदी में पाया एक
ऐसा नेता जो सक्षम विकासकर्ता है, कुशल प्रशासक है, भ्रष्टाचार के खिलाफ उन्हीं की
तरह “शून्य सहिष्णुता” (जीरो टॉलरेंस) रखता है और जो अपने “छप्पन इंच छाती का
इस्तेमाल आतंकवाद से लेकर पाकिस्तान के कुचक्रों से निपटने के लिए करेगा. यहीं चार
अपेक्षाएं तो देश की जनता में थी. और इनमें से एक भी ना तो दकियानूसी सोच से
विकसित है ना हीं अतार्किक रूप से भावनात्मक है जैसा मंदिर या मंडल काल में हुआ
था. राजनीति-शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार अर्ध- या अशिक्षित समाज में भावनात्मक
मुद्दे वास्तविक मुद्दों पर भरी पड़ते हैं. १९९० तक समाज कम शिक्षित था, अतार्किक
था लिहाज़ा मंडल-कमंडल उसकी जेहन को बदलते थे लेकिन आज स्थिति पूरी तरह बदली है.
नये प्रधानमंत्री कैसे इन
सपनों को पूरा करेंगे इसका पूरे देश को बेसब्री से इन्तेजार है. मोदी सरीखे सक्षम
नेता को जनता ने निर्द्वंद ताकत (पूर्ण बहुमत) दे कर भेजा है ताकि कोई अवरोध ना
रहे. हम ने देखा कि २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने सरकार को १.७६ लाख करोड़ रुपये का चुना लगाया. इस पूरे देश को अगर
मुफ्त भर पेट अनाज सरकार दे तो मात्र १.५० लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा. यानि अगर
प्रधानमंत्री मोदी मात्र एक ऐसा भ्रष्टाचार रोक सकें तो पूरे देश को बगैर किसी
अतिरिक्त खर्च के १४ महीने तक मुफ्त भोजन दिया जा सकता है. और ऐसा करने में ना तो
किसी फिस्कल डेफिसिट (वित्तीय घाटा ) नाधने का दर रहेगा ना कोई निवेश का माहौल
बिगड़ेगा जिसकी दुहाई पिछली सरकार कॉर्पोरेट घराने और विदेशी निवेशक के कहने पर
देती थी.
लेकिन इस चुनाव की विवेचना
कुछ गलत ढंग से की जा रही है. हम भारत के लोग शब्दों को खर्ज करने में खुला दिल
रखते हैं. होना यह चाहिए जहाँ दो शब्दों की ज़रुरत हो वहां एक से काम चलायें पर हम
चार शब्दों का इस्तेमाल करने में नहीं हिचकते. भावना का भी अतिरेक हमारे डी एन ए
में है. लिहाज़ा कई बार तार्किक सोच की बलि चढ़ जाती है. इसका आदत का समाजशास्त्रीय
विश्लेषण यह है कि हम सम्बन्ध-आधारित समाज हैं न कि यूरोप या अमरीका की तरह
संविदा-आधारित. भाई के रूप में भारत, पुत्र के रूप में श्रवण कुमार , मित्र के रूप
में कृष्ण को आदर्श मानते हैं. लिहाज़ा वर्तमान चुनाव परिणाम आने के पहले और बाद
में हमने “मोदी की लहर” या “मोदी की सुनामी” के विशेषण से जनमत को नवाजा.
अब जरा तथ्य देखें. इस
चुनाव में हर दस लोग जो मतदान देने गए उनमें से तीन ने हीं भारतीय जनता पार्टी को
वोट दिया जबकि २००९ के चुनाव में पार्टी को दो लोगों ने मत दिया था. क्या इसे किसी
व्यक्ति-विशेष के पक्ष की लहर माना जा सकता है? कोई ८२ करोड़ मतदाताओं में ५४ करोड़
ने मतदान किया और भारतीय जनता पार्टी को मत मिले १७.२० करोड़. याने हर पांच लोगों
में जिन्हें मतदान का अधिकार था मात्र एक ने इस पार्टी को वोट दिया. क्या इसे
सुनामी की संज्ञा दी जा सकती है?
भारत के संविधान की
प्रस्तावना में कहा गया है “हम भारत के लोग ---------धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी ,
प्रजातान्त्रिक गणतंत्र अंगीकार करते हैं”. अब एक अन्य उदाहरण लें. भारत के हीं
उत्तर प्रदेश में रहने वाले २.३० करोड़ मतदाताओं ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी
को वोट दिया लेकिन इस पार्टी को एक भी सीट लोक सभा में नहीं मिली लेकिन इसी देश के
तमिलनाडु में जयललिता की ए डी एम् के को कुल १.७० लाख वोट मिले और सीटें आयीं ३७.
क्या इन २.३० करोड़ लोगों के वोटों की कीमत वह नहीं जो तमिलनाडु के वोटरों की है?
दरअसल हमारी चुनाव पद्धति फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (ऍफ़ पी टी पी) है यानी जो एक वोट
से भी आगे वह विजयी. यह दोष उसका है.
एक अन्य उदाहरण देखें. इस
चुनाव में कांग्रेस को करीब ११ करोड़ वोट मिले. लेकिन सीटें आयी ४४. लेकिन २००९ के
चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को आठ करोड़ से भी कम वोट मिले थे और सीटें मिली थीं
१४४. इस तरह की चुनाव पद्धति का सबसे बड़ा दोष है मत और जीती सीटों में विसंगति.
नतीजा यह होता है कि संसद प्रतिनिधि चरित्र का नहीं होता.
अब बात “मोदी की सुनामी
की”. दरअसल इसे मोदी की सुनामी कह कर प्रधानमंत्री –नियुक्त नरेन्द्र मोदी का
जितना अपमान किया जा रहा है उतना हीं जनता के विवेक का भी. अति-उत्साह में भारतीय
जनता पार्टी या उसके समर्थक मोदी को महिमा-मंडित करने में यह भूल जा रहे हैं कि इस
प्रचार से यह सन्देश जा रहा है कि मोदी कोई जादूगर हैं और चूंकि जादू छलावा होता
है लिहाज़ा यह आभास होता है कि मोदी ने जनता को छल लिया है अपने वायदों से और अपनी
वाक्-पटुता हे. किसी इतने बड़े देश के नेता के लिए यह अनुचित और दीर्घकाल में
हानिकारक प्रशंसा है.
nai duniya