Sunday 8 December 2013

पांच राज्यों के चुनाव: मोदी के लिए केजरीवाल के रूप में नई चुनौती


पांच राज्यों के चुनाव: मोदी के लिए केजरीवाल के रूप में नई चुनौती
एन के सिंह, एडिटर इन चीफ, लाइव इंडिया
पांच राज्यों के चुनाव नतीजे इस बात की तस्दीक करते हैं कि प्रजातंत्र तार्किक हो रहा है, तथ्यपरक हो रहा है और सार्थक सही-गलत की समझ  वाले जनमत में बदल रहा है। राजनीतिशास्त्र का मूल सिद्धांत कि अशिक्षित या अर्धशिक्षित समाज में भावनात्मक मुद्दे असली मुद्दों पर भारी पड़ते हैं और संवैधानिक व्यवस्था कई बार उसकी वजह से लचीली हो जाती है,इन चुनाव नतीजों से एक तरह से सिद्ध होते हैं। अगर मध्य प्रदेश में सत्ताविरोधी लहर यदि दूर-दूर तक नजर नहीं आती, और राजस्थान में यह मतदाता के सिर पर चढ़कर बोलती है...तो इसका राजनीतिक मतलब साफ है। कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये है कि मंदिर वहीं बनाएंगेसे लेकर इंडिया शाइनिंग और अब देखो कितने फ्लाईओवर दिएकी जगह प्याज, महंगाई, भ्रष्टाचार ही जनता को ज्यादा प्रभावित करते हैं।
पर यह तो हुआ एक फौरी विश्लेषण...अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी का 92 प्रतिशत शहरी मतदाता वाली दिल्ली में इतना जबर्दस्त समर्थन भारत में उभरते एक नए राजनैतिक परिदृश्य की ओर इंगित करता है। एक साल पहले पैदा हुई पार्टी किसी मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर नहीं, किसी जातिजनित उद्वेग का प्रतिफल नहीं, किसी फिल्मी चेहरे के आकर्षण की पैदाइश नहीं, बल्कि शुद्ध बिजली, पानी, भ्रष्टाचार, कुशासन के 45 साल के दबे आक्रोश की उपज थी। परिदृश्य इसलिए बदला है, क्योंकि 2014 के आम चुनावों ने भारतीय जनता पार्टी की प्रतिमूर्ति के रूप में उभरे नरेंद्र मोदी का भी यही यूएसपी है। मोदी भी जिन चार तत्वों पर राष्ट्रीय जनमानस को प्रभावित करना चाहते हैं, वे हैं-कुशल प्रशासन, भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस, सक्षम विकासकर्ता और आतंकवाद का खात्मा। इनमें पहले तीन मुद्दों पर ही अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी की बुनियाद है। लिहाजा अगले पांच महीनों में होने वाले आम चुनाव में मोदी के बरक्स केजरीवाल एक बड़ी ताकत के रूप में उभरने जा रहे हैं। अरविंद केजरीवाल का नया चेहरा, जिसके पीछे 2002 की कालिख नहीं है, बल्कि पहली बार मतदान करने जा रहे दस करोड़ युवाओं को नया भविष्य देने का वादा है।
हमारे विश्लेषण में एक अपवाद जरूर है छत्तीसगढ़ का चुनाव परिणाम। चाउर बाबा रमन सिंह मानव विकास सूचकांक के लगभग सभी मानदंडों पर किसी भी गुजरात या बिहार से बेहतर रहे हैं। फिर भी कांग्रेस का अपेक्षाकृत अधिक समर्थन राजनीतिशास्त्र के उपरोक्त सिद्धांत को ही पुख्ता करता है, जिसके तहत अशिक्षित समाज में भावनाएं कई बार बलवती हो जाती हैं। अपने नेता का नक्सलियों द्वारा मारा जाना राज्य के 32 प्रतिशत आदिवासियों को कत्तई स्वीकार्य नहीं था और चूंकि नेता कांग्रेस का था, इसलिए कांग्रेस को समर्थन मिला। महंगाई मध्य प्रदेश में भी थी पर मुख्यमंत्री पर जनता को विकास के प्रति विश्वास था। राजस्थान में ऐसा नहीं हुआ। कुल मिलाकर केंद्र के खिलाफ कुशासन, भ्रष्टाचार, महंगाई और राज्य सरकार का हर दो महीने पर एक मंत्री के चरित्र पर आरोप लगना जनता को उद्वेलित करता रहा।
यहां यह सोचना गलत होगा कि 32 लाख वर्ग किलोमीटर और 80 करोड़ मतदाताओं वाला भारत अरविंद केजरीवाल या उनकी पार्टी के खैरमकदम के लिए तैयार नहीं है क्योंकि उसमें पार्टी का चरित्र नहीं है, अतार्किक होगा। टेलीविजन के इस युग में जहां अन्ना का आंदोलन कर्नाटक के सुदूर गांव से लेकर कश्मीर की वादियों तक कुछ क्षणों में संदेश पहुंचाता हो, सीमाएं, वैविध्य या संख्या बहुत मायने नहीं रखती। भ्रष्टाचार को लेकर जिस तरह पिछले तीन सालों में सामूहिक चेतना विकसित हुई है, वह अपने आप में अप्रतिम है। अन्ना का आंदोलन रहे ना रहे, यह चेतना अब स्थायीभाव बन गई है। आप पार्टी में जनमानस वे सभी महत्वाकांक्षाएं देख पा रहा है, जो पिछले साल से देखना चाहता था। यह सही है कि भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय फैलाव, कार्यकर्ताओं का व्यापक ढांचा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिबद्धता मोदी को जबर्दस्त मदद देगी। लेकिन अगर यही सबकुछ होता तो दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की पार्टी का यह उभार नहीं होता और भारतीय जनता पार्टी को बेहद आसानी से जीत हासिल हो जाती। दिल्ली के चुनाव नतीजों पर अगर नजर डालें तो आप को झुग्गी-झोपड़ियों से वही जनसमर्थन मिला है, जो लाल-नीली बत्ती लगाने वाले अधिकारियों से मिला है, मध्यम वर्ग से मिला है और अभिजात्यवर्गीय चरित्र वाले रोटी जीत चुके समुदाय से मिला है। यहां तक कि जो भ्रष्ट था, उसने भी आप पार्टी को यह कहकर वोट दिया कि कम से कम हमारे बच्चों को एक अच्छी और स्वस्थ सरकार मिलेगी। मायावती की बहुजन समाज पार्टी, जिसे दिल्ली के पिछले चुनाव में साढे़ चौदह फीसदी वोट मिला था, काफी नीचे रही। यह वोट भी आम आदमी पार्टी को गया है।
यहां मोदी और अरविंद केजरीवाल में एक सादृश्यता दिखाई देती है। ये दोनों ही नेता, कहीं न कहीं जाति का दंश झेल रहे भारतीय समाज को इस दोष से निकालते हुए दिखाई दे रहे हैं। बिहार में अगर नीतीश की स्थिति अगर बहुत अच्छी नहीं है या उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव का मुस्लिम-यादव समीकरण प्रभावित हो रहा है तो साफ है कि अरविंद-मोदी नेतृत्व भारत के लिए एक नई राजनीति का आगाज है। राजस्थान में तीन चौथाई सीटें और मध्य प्रदेश में दो तिहाई सीटें हासिल करके भारतीय जनता पार्टी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में अगले चुनाव में जाति आधारित पार्टियों को एक झटका मिल सकता है। पिछले तेईस सालों में जिस तरह दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का जनाधार खिसकता हुआ तथाकथित जातिवादी पार्टियों में समाहित हो गया था, वहां देश के कोने-कोने से अगले चुनावों में शायद एक बार फिर से वास्तविक मुद्दे किसी मुलायम, किसी लालू के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं।
कुल मिलाकर भारतीय प्रजातंत्र और जनता की प्रजातांत्रिक प्रक्रिया में आस्था और तद्जनित समझ एक नए आयाम पर पहुंचती दिखाई दे रही है। जिसमें वोट उसी को मिलेगा, जो अच्छा शासन दे सकता हो। भले ही 65 साल लगे हों, लेकिन अगले चुनाव में नया राजनीतिक क्षितिज उभरता दिखाई दे रहा है। जातिवाद और भावनात्मक मुद्दों का भले ही पूरी तरह खात्मा न हो, लेकिन मोदी और अरविंद केजरीवाल की राजनीति एक नई दिशा की तरफ प्रजातंत्र को ले जाएगी। देखना यह होगा कि मोदी या केजरीवाल।

Saturday 2 November 2013

पिछले पांच संस्तुतियों पर राजनीतिक वर्ग ने मात्र लीपापोती की है

सुप्रीम कोर्ट के फैसले की चुनाव सुधार में अहम् भूमिका संभव
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मेरुदंड –विहीन अफसरशाही की चाहत है राजनीतिक वर्ग को 
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देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर अपने एक अहम् फैसले में उस नासूर पर नश्तर चलाया है जिसका मवाद पूरे शरीर में फ़ैल चुका था और जो शरीर के हर अंग में पिछले ६६ साल से टीस मार रहा था. अदालत ने कहा कि अफसर नेताओं (मंत्रियों) के मौखिक आदेश न माने. और अगर ऐसे आदेश आते है तो उन्हें अमल करते वक़्त यह बात भी लिख दें कि मंत्री ने मौखिक रूप से क्या कहा था. साथ ही केंद्र व राज्य की सरकारों को भी आदेश दिया गया है कि वे जब तक संसद कानून नहीं बना देता, तब तक के लिए सिविल सर्विसेज बोर्ड (सी एस बी) का गठन करें जिसमें वरिष्ठ और बेदाग़ चरित्र वाले अधिकारी हों. यह संस्था अफसरों के ट्रान्सफर और पोस्टिंग का प्रबंधन करेगी ताकि कोई भी अफसर अपने निर्धारित अवधि तक अपना काम करे और ट्रान्सफर के खंजर को हर क्षण सर पर लटकता देख कर मंत्री का गुलाम न बने. “प्रजातंत्र के मंदिर” पार्लियामेंट से भी अपेक्षा की गयी है कि वह जल्द हीं इस सम्बन्ध में कानून बनाये.
दरअसल, यह आदेश फौरी तौर पर देखने देखने में जैसा सहज सुधारात्मक प्रयास लगता है गौर से देखने पर उतना हीं क्रांतिकारी है. इससे न केवल देश की अफसरशाही अपनी स्टीलफ्रेम (फौलादी ढांचे) को  फिर से हासिल कर पायेगी जो ६३ सालों में मोम  का बन गया था, बल्कि पूरे प्रजातंत्र की गुणवत्ता खासकर चुनाव सुधार के प्रयासों में आशातीत सफलता मिलेगी. आने वाले चुनावों में भी इसकी झलक देखने को मिल सकती है क्योंकि अफसरों पर मंत्री का या मुख्यमंत्री का खौफ जाता रहेगा. अगर गौर से देखें तो चुनाव में धांधली के लिए हीं नहीं धमकाने, समझाने और राय बनाने में सत्ता पक्ष हीं नहीं समूचा राजनीतिक वर्ग इस तंत्र का इस्तेमाल करता रहा है. सौदा साफ़ रहा है—“तुम मेरी मदद आज करो मैं तुम्हें अगले पांच साल के लिए अभयदान देता हूँ, मलाईदार पद पर माल काटो और कटवाओ” . इसका प्रतिलोम सन्देश यह होता था—“अगर नहीं, तो सत्ता में आने के बाद ऐसी जगह पटके जाओगे कि एक फॉलोअर (दैनिक वेतन पर काम करने वाला घरेलू पर सरकारी नौकर) के लिए तरस जाओगे”.
सर्वोच्च न्यायलय के इस आदेश का सबसे बड़ा पहलू है राजनीतिक कार्यपालिका अफसरशाही पर नियंत्रण ख़त्म होना. मंत्री की भूमिका मात्र नीति बनाने तक महदूद रहेगी और उसका अमल अफसरों पर. अफसर ना तो तबादले के खौफ से बंगले पर जा कर सजदा करेगा ना हीं मलाईदार पोस्टिंग मंत्री के कहने पर होगी. चूंकि यह अवैध सम्बन्ध विकसित हीं नहीं होंगे नहीं लिहाज़ा अफसर चुनाव पूरी निष्पक्षता से कराएगा. हाँ , अगर कोई अफसर इन सबके बावजूद नेता से गलबहियां डालता है तो सी एस बी या आने वाला कानून उसे भविष्य में भी कोई लाभ हासिल नहीं करने देगा क्योंकि ट्रान्सफर और पोस्टिंग एक संस्था के हाथ में और कुछ नियमों के आधार पर होगी.
लेकिन यहाँ पर एक प्रश्न अभी भी अनुत्तरित रहा है. वह है क्या केंद्र या राज्य की सरकारें इस पर अमल करेंगी? प्रकाश  सिंह की याचिका पर पुलिस सुधार को लेकर इसी अदालत द्वारा सन २००६ में दिए गए एक अहम् फैसले में कुल सात  अनुशंसाएं की थी जिनमें छः का अनुपालन राज्य सरकारों को और एक का केंद्र सरकार को करना था. १५ राज्यों ने कानून तो बना दिए लेकिन वह कानून फैसले की मूल भावना के अनुरूप नहीं है. अन्य राज्यों ने  अपने यहाँ कार्यकारी आदेश बना दिए है. सबने यह कह दिया है कि आदेश का अनुपालन हो गया है परन्तु हकीकत यह है कि उसके प्रावधान ऐसे हैं जो नेता-अफसर अवैध गठ-जोड़ को और पुख्ता करते हैं. बिहार इसका ज्वलंत उदहारण है. ट्रान्सफर , पोस्टिंग का फैसला मुख्यमंत्री, मुख सचिव और पुलिस महानिदेशक की एक समिति करती है. कहना न होगा कि समिति के बाकि दोनों सदस्यों की हिम्मत नहीं कि मुख्य-मंत्री की बात काट सकें.
क्या वजह है कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसे आदेश देने पड़ रहे हैं जो पहले से हीं मौजूद हैं. मसलन अफसर ऐसे किसी भी आदेश को जो मौखिक है या कानून –सम्मत नहीं है मना कर सकता है. कानून की मंशा के अनुरूप कार्य करने की बात उस पुलिस या अन्य अफसर को शपथ पत्र में हीं बताई जाती है. इसी तरह पहले से हीं अफसरों के तबादले को लेकर अवधि सम्बन्धी नियम बने हैं. पर क्या उनका अनुपालन होता है? पिछले चार दशकों में नेशनल पुलिस कमीशन (१९७७), रेबेरिओ समिति (९८) पद्मनाभ कमिटी (२०००) , हाल में सोली सोराबजी समिति, सुप्रीम कोर्ट का २००६ का फैसला और अब यह ताज़ा फैसला . क्या सरकारें  वास्तव में इन्हें अमल में लायेंगी? राजनीतिक वर्ग को सत्ता मद और तज्जनित सुख सबसे ज्यादह तब मिलता है जब अफसर उनके आगे नत-मस्तक होकर भक्ति भाव से गलत सही करते हैं. यह एक दुरभि संधि है जो सिस्टम को भ्रष्ट बनाती है , प्रजातंत्र को खोखला करती  है और समाज में संविधान के प्रति आस्था को डिगाती है.        
संस्थाओं की जन-स्वीकार्यता और तज्जनित सम्मान दिक्-काल सापेक्ष होता है शाश्वत नहीं. इस फॉर्मेट पर देखें तो राजनीतिक वर्ग के प्रति एक अनादर का भाव दूर तक जन मानस में घर कर चुका है. देश में एक सफाई अभियान चल रहा है. लाज़मी है ६५ साल की गर्द साफ़ करने में धूल उडेगी. सफाई करने वालों पर आरोप लगेगा कि झाड़ू हाथ दबाके नहीं चला रहे हैं. कुछ नाक दबा कर बगावती तेवर दिखायेंगे तो कुछ इसे नए रोगों का आगाज़ मानेंगे जिसके बैक्टीरिया धूल के कणों के साथ लोगों की नासिका रंध्र में घुस रहे होंगे.

सामान्य जन के मैन में एक हीं जिज्ञासा है क्या धूल साफ़ हो पायेगी, क्या कई दशकों का कीचड़ जो परत दर परत जमता हुआ स्वयं पत्थर का स्वरुप ले चुका है हट पायेगा. विरोध वे लोग कर रहे हैं जो इन्हीं पत्थर से अपनी इमारतें तामीर कर चुके है.   

rajsthan patrika 

Tuesday 15 October 2013

आपदा/भीड़ प्रबंधन और सरकारों की आपराधिक उदासीनता



 दो दिन पहले से कल दिन तक २४ घंटे के भीतर  दो घटनाएँ हुई जिनमें राज्य और उसके तंत्र की बड़ी भूमिका अपेक्षित थी. पहला था ओडिसा का समुद्री तूफ़ान जिसकी गति ६२ मीटर प्रति सेकंड थी और जिसमें बड़े से बड़े मकान को गिराने की क्षमता रही. दूसरी घटना थी दतिया जिले के रतनगढ़ मंदिर में आई श्रद्धालुओं की भीड़ में हुई भगदड़ जिसमें ११५ लोग मारे गए. इसके आलावा हाल में हीं एक और घटना थी केदारनाथ में हुई प्राकृतिक आपदा जिसमें हजारों जाने गयीं. तीनों घटनाओं के चरित्र और राज्य अभिकरणों की भूमिका का विश्लेषण करने से कुछ नए तथ्य सामने आये हैं. तीनों घटनाओं को देखने की बाद जो सबसे खास बात नज़र आई वह यह कि सरकार के अभिकरण अगर पहले से जाग जाये तो बड़ी से बड़ी आपदा से बिना किसी जन-हानि के उबरा जा सकता है. दूसरा यह कि अगर राज्य सरकार के अधिकारी आपराधिक रूप से निष्क्रिय हैं तो एक सामान्य सा मेला भी सैकड़ों जान ले सकता है.

कोई १२४ करोड़ वाले भारत ऐसे देश में एक  या डेढ़ लाख की भीड़ का , जो लगातार संचरण में (मोबाइल) हो , जो उपद्रव करने नहीं के मोड में नहीं बल्कि “दर्शन” के भाव में आयी हो, और जो संप्रभु आदेशों को आदतन मानती हो और जिसमें बच्चे या भक्ति भाव से सराबोर बूढ़े और महिलाएं हो, प्रबंधन कोई सामान्य सा राज्य सेवा का अधिकारी अपने पुलिस के समकक्ष अधिकारी के साथ मिल कर बड़ी हीं आसानी से कर सकता है बशर्ते वह जिम्मेदारी और ईमानदारी से अपना काम करे. रतनगढ़ की ताज़ा घटना में अधिकारियों के दो गुनाह स्पष्ट दे. वे ना तो जिम्मेदारी निबाह रहे थे ना हीं ईमानदार थे. श्रद्धालु पिछले तमाम दशकों से आ रहे थे. उनकी संख्या अचानक नहीं बढ़ गयी थी. उनका एक पुल से निकलना कोई असाधारण बात नही थी. कुछ भी अप्रत्याशित नहीं हा. केवल उस भीड़ को रेगुलेट करना था. कुम्भ में दुनिया का सबसे बड़ी दो करोड़ की भीड़ होती है और हर श्रद्धालु एक हीं समय में स्नान करना चाहता है लेकिन चुस्त प्रशासन उसे नियंत्रित और नियमित कर लेता है लेकिन उसी भीड़ का हजारवां हिस्सा जब इस वर्ष की उसी जगह से तीन किलोमीटर दूर ११ फ़रवरी   को रेलवे स्टेशन पहुंचता है तो भगदड़ में ३६ आदमी मर जाते हैं क्योंकि जिस पुलिस वालों को वहां लगाया गया है उससे “साहेब” लोग हर पल भीड़ का जायजा नहीं लेते, स्पॉट पर नहीं होते और होते भी हैं तो अपने को उस कार्य के लिए समर्पित नहीं करते याने “एप्लीकेशन ऑफ़ माइंड” (दिमाग लगाना) नहीं होता.

रतनगढ़ मंदिर की घटना की स्थिति देखें. गाड़ियाँ पुल से निकालने में पुलिस वालों को अचानक अच्छी आमदनी दिखाई दी. पैदल भीड़ को रोक कर गाड़ियाँ पार करना शायद सबसे बड़ी भूल थी लेकिन पैसा बौद्धिक क्षमता को कुंद बना देता है. अधिकारी इस आमदनी के कारण स्थिति से आँख मोड़ लेता है यह सोच कर की शाम को तो हिसाब-किताब होगा ही. अक्सर इस तरह के भ्रष्टाचार के समय मौके  से हट जाना अफसरों की भाषा में “बुद्धिमत्ता” मानी जाती है. लिहाज़ा रिपोर्ट देखने से लगता है कि अधिकारी गायब थे या दूर थे , कर्मचारी पैसा कमाने में लगे थे और कहीं भी “एप्लीकेशन ऑफ़ माइंड “ नहीं था. पैसा और एप्लीकेशन ऑफ़ माइंड में वैसे भी ३६ का आंकड़ा होता है और कई बार यह एप्लीकेशन ऑफ़ माइंड पैसा कमाने के लिए ज्यादा और भीड़ नियंत्रण के लिए कम होता है. जरूरत यह है कि घटनाओं के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को आपराधिक दफाओं में जेल भेजा जाये ताकि भविष्य में अधिकारी या कर्मचारी दिमाग का इस्तेमाल भीड़ नियंत्रण में हीं करें.  

इसके ठीक उल्टा ओडिसा के इस तूफ़ान में जिस तरह राष्ट्रीय आपदा एजेंसियों ने हीं नहीं राज्य सरकार के लोगों ने जिस तरह सक्षम भूमिका निभाई उसकी न केवल भारत में बल्कि विश्व में तारीफ की गयी है. आने वाले दिनों में यह प्रबंधन विश्व के लोक प्रशासन की संस्थाओं में चर्चा का विषय रहेगा और इससे दुनिया के देश शिक्षा लेंगे. कटरीना की विभीषिका को लेकर अमेरिका  असफल रहा था हालाँकि बाद के ऐसे हीं हादसों में इस सबक का लाभ उसे मिला और प्रबंधन बेहतर हुआ. ओड़िसा के तटीय भाग से लगभग २४ से ३६ घंटों के भीतर सैकड़ों मील में फैले सात लाख लोगों को विस्थापित कर नयी जगह ले जाना और सुनिश्चित करना कि इन लोगों के भोजन, बीमारी और अन्य सुविधाओं का आभाव ना रहे अपने आप में अविश्वसनीय है. एक शहर को नयी जगह बसने जैसा है. पर यह संभव कर दिखाया सरकारी एजेंसियों ने.    

लोक प्रशासन में भीड़ या आसन्न संकट का इन्तेजाम एक विशिष्ठ विधा मानी जाती है और इसके प्रबंधन के लिए तमाम सिद्धांत और व्यावहारिक प्रक्रियाएं प्रशासनिक अधिकारियों को पढ़ायी –सिखायी जाती हैं. अधिकारियों को यह भी बताया जाता है कि अप्रत्याशित घटनाओं में किन राज्य अभिकरणों की –स्थानीय या केन्द्रीय – क्या भूमिका और कब-कब होती है.

जैसे जैसे प्रजातंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं जनमत का दबाव बढ़ता हीं नहीं है बल्कि निष्क्रिय सरकारों को भी काम करने पर मजबूर करता है. यह जनमत का दबाव बनाने में अनौपचारिक संस्थाओं जैसे मीडिया, पब्लिक रैली आदि की बड़ी भूमिका होती है. यही वजह थी कि जैसे हीं अमरीकी एजेंसियों से खबर आयी कि ओड़िसा का समुद्री तूफ़ान भीषण तबाही मचा सकता है मीडिया ने सब काम छोड़ कर इसे इतना प्रसारित किया कि सरकारों को वे केंद्र की हों या राज्य की कमर कसना पडा.   

जहाँ केदारनाथ की प्राकृतिक आपदा अप्रत्याशित थी. विकसित देशों में ऐसे उपकरण हैं जिनसे हमें बादल फटने या भारी बारिश –जनित “फ़्लैश फ्लड” (अचानक आयी बाढ़) के बारे में जानकारी मिल जाती है. भारत में भी यह उपकरण है लेकिन राज्य के अभिकरण उन्हें अभी तक आदतन उपयोग में नहीं लाती थे या अगर रिपोर्ट भेजी भी तो उसका भाव इतना हल्का होता था कि राज्य की सरकारें उन्हें गंभीरता से नहीं लेती थीं. यही कारण था कि केदारनाथ में तीर्थयात्रियों का आना रोका नहीं गया और घटना के बाद भी प्रदेश के  मुख्यमंत्री दिल्ली दरबार में हाज़री बजाने पहुंचे थे. पहले तीन दिनों तक राज्य के अधिकारी और मुख्यमंत्री हादसे का अंदाज़ा भी नहीं कर पाए, राहत पहुँचना तो दूर. मीडिया की फिर बड़ी भूमिका थी. जबरदस्त २४ घंटे बगैर रुके कवरेज का नतीजा था आपराधिकरूप से निष्क्रिय उत्तराखंड सरकार चौथे दिन नीद से जगी पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.       

हाल के कुछ वर्षों में हुई इस तरह की घटनाओं को देखा जाये तो अधिकांश में सरकारी लापरवाही साफ़ नज़र आती है. उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में ४ मार्च , २०१० में कृपालू महाराज के आश्रम में हुई भगदड़ एक सामान्य थानेदार या तहसीलदार मैनेज कर सकता था बशर्ते अपने दायित्व के प्रति संजीदा होता. शबरमाला में २०११ के मकरसंक्रांति  के दिन १०२ श्रद्धलुओं का मरना प्रबंधन के आभाव की वजह से था ना किसी हिंसा पर उतारू भीड़ की वजह से. राजगीर में २ सितम्बर, २०१२, इसी साल “छठ पूजा”  में पटना में भगदड़ में १७ लोगों का मरना, या उत्तर प्रदेश के मथुरा में राधा रानी मंदिर में और इसी माह फिर बिहार के देवघर के आश्रम में भगदड़ में दो और नौ लोगों का मरना यही बताता है कि श्रद्धुलों की भीड़ जिसे नियन्त्रित करना सबसे आसन होता है भी सरकारी आपराधिक उदासीनता की भेंट चढ़ते रहेंगे. बिहार में एक साल में तीन इस तरह की घटनाएँ वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार  के तथाकथित “सुशासन” पर और दतिया की ताज़ा घटना मध्य प्रदेश की “सक्षम” प्रशासन पर बड़ा सवालिया निशान लगते हैं. 

rajsthan patrika

Monday 7 October 2013

बाजारी ताकतों का समाज की सोच पर हमला



अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन पद के लिए दोबारा सन 1972 में चुनाव मैदान में उतरे तो घोषणा की कि अगर फिर से जीतते हैं तो सरकार द्वारा दुग्ध उद्पादकों को दिए जाने वाले अनुदान को ख़त्म करेंगें. यह सुनने के बाद देश के दुग्द्ध उत्पादन लॉबी ने तत्काल २० लाख डॉलर चुनाव फण्ड में दे दिया. दोबारा चुनकर आने के बाद निक्सन ने कभी भी दुग्ध अनुदान का मामला नहीं छेड़ा. लगभग साढ़े चार दशक बाद नेशनल एसोसिएशन ऑफ़ होम बिल्डर्स को जब पता चला कि अमरीकी संसद (कांग्रेस) किसी लंबित कानून में एक प्रावधान जोड़ रही है जो बिल्डर्स के हित में नहीं है तो एसोसिएशन ने ऐलान किया कि अगर यह प्रावधान वापस नहीं लिया गया तो अगले चुनाव में संस्था चुनाव अभियान फण्ड में एक डॉलर भी नहीं देगी. प्रावधान रोक दिया गया. याने ४५ सालों में २०० साल पुराना दुनिया के सबसे ताकतवर देश का प्रजातंत्र यहाँ तक गिर गया कि पहले नेता धमका के पैसा लेता था अब व्यापारी-कॉर्पोरेट लॉबी उसे धमकाती है--- एक कानून बनाने के नाम पर दूसरा कानून ना बनने देने के लिए. अमरीकी शासनतंत्र में व्यापत भ्रष्टाचार ने बगैर किसी बिल लादेन के हीं अपनी प्रजातान्त्रिक विरासत को लगभग निष्क्रिय बना दिया है. 
ऐसा नहीं कि अमरीकी समाज को इसका अहसास नहीं है या वह इससे क्षुब्ध नहीं है. संयुक्त अमेरिका की मशहूर सर्वेक्षण संस्था “गाल-अप” के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि ८९ प्रतिशत लोगों को अमेरिकी संसद “कांग्रेस” में विश्वास नहीं है. तीन अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा कराये गए सर्वेक्षणों में पता चला कि ७९ पतिशत लोगों का यह मानना है कि अमरीकी सांसद उन लोगों द्वारा नियंत्रित होते हैं जिन्होंने उन्हें चुनाव में आर्थिकरूप से मदद की है. कोई ३० साल पहले सांसदों के बारे में ऐसा नकारात्मक ख्याल केवल ३५ से ४० प्रतिशत लोगों का होता था. जो सबसे बड़ी चिंता की बात है वह यह कि अमरीकी समाज यह क्षोभ व्यक्त करने के लिए सड़कों पर नहीं आ रहा है. पूरे समाज में एक जड़ता की हालत है. नूनन  ने अपनी मशहूर पुस्तक “ब्राइब” में लिखा है कि उन समाजों का कोई भविष्य नहीं जो भ्रष्टाचार के प्रति “शून्य-सहिष्णुता” (जीरो –टॉलरेंस) नहीं रखती हैं या यूं कहिये कि भष्टाचार को सहने की एक सहज आदत उनमें आ जाती है.
बाज़ार ने इस देश को हीं नहीं पूरी दुनिया को हीं अपने नाग-पाश में जकड रखा है. ये ताकतें हमारी सोच को, हमारी ज़रूरतों को , हमारे रिश्तों को और हमारे नैतिक मूल्यों को एक सर्वथा नयी परिभाषा में ढाल रहीं हैं जिसके तहत एक मां को इस बात की चिंता नहीं है कि उसका लड़का पडोसी के बच्चे से कम नंबर क्यों ला रहा है पर उसकी एक साध ज़रूर है कि पडोसी का गाड़ी लम्बी है तो उसकी भी होनी चाहिए.
अमरीका में हर व्यक्ति अपनी क्षमता से ज्यादा चार गुना ज्यादा उपभोक्ता कर्ज लेता है जिसको वह भविष्य में होने वाली आमदनी से चुकाने का भाव रखता है. जाहिर है कि जो समाज आकंठ क़र्ज़ में डूबा होगा वह व्यवस्था के खिलाफ तन कर खड़ा नहीं हो सकता.   
बाजारी ताकतों ने पिछले दो दशकों से समूचे विश्व की प्रजातान्त्रिक देशों की संस्थाओं को पूरी तरह अपने शिकंजे में ले रखा है. नतीजा यह हो रहा है कि कौन सा कानून जनहित में संसद को बनाना है यह भी कॉर्पोरेट घराने बता रहे हैं. स्थिति यहाँ तक ख़राब हो चुकी है कि भारत ऐसे देश पर जो सकल घरेलू उत्पाद ( लगभग दो ट्रिलियन डॉलर) के पैमाने पर दुनिया के सात देशों में है इन बाजारी ताकतों की नज़र पूरी तरह गडी हैं. और ये सफल हो रहे हैं. अन्यथा कोई कारण नहीं है कि भारत ऐसा देश १० रुपये किलो का आलू ब्रांडेड चिप्स के नाम पर ४०० रुपये में खाए क्योंकि यह वही चिप्स है जो होली में माँ या दादी बनाया करती थी. लेकिन इसके ४०० सौ रुपये में बिकने से ना तो किसानों का भला हुआ है (आलू का थोक दाम वही है) ना हीं कुछ ऐसी नायाब  चीज़ पॉलिथीन के पैकेट में है जो ४० गुना अधिक पैसा देने को प्रेरित करती हो. पॉलिथीन के पैकेट में हवा ज्यादा होती है माल कम. लेकिन दिमाग में यह बात ज़रूर होता है कि पडोसी का बच्चा भी लंच में यह ले जाता है तो मेरा  क्यों नहीं. 
भारतीय टीवी चैनलों में एक विज्ञापन आता है. एक गृहणी (जो एक मशहूर फिल्म अभिनेत्री होती है) माल में कुछ सामान खरीद रही होती है और उसके हाथ में एक खास ब्रांड की टॉफी का एक पैकेट होता है. एक बच्चा उस पैकेट को ललचाई हुई आँख से देख कर उस गृहणी को मां कहता है. यह गृहणी कुछ अचम्भे से और कुछ क्षोभ से देखती है पर आगे बढ़ जाती है. यह बच्चा पीछा नहीं छोड़ता और फिर मां कहता है. झुंझलाई गृहणी कहती है “मैं तेरी मां नहीं, तेरी मां होगी तेरी मम्मी “. बच्चा फिर भी नहीं मानता और जब तीसरी बार उसे मां कहता है तो वह उन बच्चे को लगभग दुत्कारते व धकेलते हुए पीछा छुड़ाने के लिए टॉफी दे देती है. लड़का दुत्कारने या धकियाए जाने की परवाह ना करते हुए टॉफी पाकर खुश हो कर चला जाता है.
इस विज्ञापन का समाज में खासकर बच्चों को जो सन्देश जाता है वह यह कि बाल-गरिमा या स्वाभिमान का मूल्य कुछ नहीं है किसी को मां या बाप कह कर एक टॉफी मिली तो भी “चलेगा”.   
अमरीका का एक और किस्सा लीजिये. आज से चालीस साल पहले तक देश टाइप -२ डायबिटीज के कुल रोगियों में बच्चों की प्रतिशत मात्र १ से २ होता था. आज यह प्रतिशत ४० से ४५ है. देश में पिछले ३० सालों में चीनी का उपभोग ३० प्रतिशत बढ़ गया है. एक और वजह ज्यादा चौंकाने वाली है. देश में औसतन हर बच्चा अपनी कलोरी की ज़रुरत का १५ से २० प्रतिशत कोक या पेप्सी से लेता है. देश में इन ब्रांड के पेय की खपत करीब ५५ गैलन प्रति वर्ष है. याने ८०० मिली ग्राम प्रति व्यक्ति. इसे मीठा करने के लिए शकर की जगह सस्ता हाई -फ्रक्टोज कॉर्न सिरप (एच ऍफ़ सी ) डाला जाता है. यह कंपनियों को तो सस्ता पड़ता है लेकिन नुकसानदेह है. यह उत्पाद मुख्यतया अमरीका की एक कंपनी – ए डी एम् – बनाती है. एच फ सी के खिलाफ तमाम वैज्ञानिक रिपोर्टों के बावजूद इस उत्पाद को आज तक बंद करने का कानून अमरीकी संसद में नहीं आ पा रहा है क्योंकि सांसद इस कंपनी के अहसानमंद हैं.

भारत में भी बाजारू ताकतें हमारी सामूहिक सोच को, हमारे नैतिक मूल्यों को, हमारे स्वाभिमान के बिन्दुओं को और हमारी संस्थाओं धीरे –धीरे अपने नागपास में ले रही हैं. महज लोकपाल ला कार या भ्रष्टाचारी के खिलाफ आजीवन कारावास का कानून बना कर स्थिति से उभर नहीं सकते. ज़रुरत है इन बाजारी ताकतों को समझाने व उनको नियंत्रण में रखने की. 

rajsthan patrika

Thursday 3 October 2013

चारा घोटाला में लालू को जेल ------ भारतीय प्रजातंत्र एक खूबसूरत मोड़ पर

 

राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया और बिहार के भूतपूर्व मुख्मंत्री लालू प्रसाद यादव को १७ साल बाद अदालत ने चारा घोटाले में पांच साल की सजा सुनाई. प्रजातंत्र की खूबसूरती यही है कि यह जैसे-जैसे परिपक्व होता है संस्थाओं की भूमिका, कानून का राज, व्यवस्था में सुचिता, आम आदमी की तर्क –शक्ति बेहतर और अधिक जनोपदेय होने लगती है. समग्र आन्दोलन के कोख से उपजे सामाजिक न्याय की ताकतों के बल पर सत्तानशीं हुए लालू यादव को यह लगा कि अब प्रजातंत्र और उसकी संस्थाएं या कानून और उसके अभिकरण उनके दास हैं. उन्होंने कभी यह सोचा भी नहीं था कि जन चेतना के वशीभूत कोई ना कोई संस्था तन कर खडी होगी आज नहीं तो कल. उनको लगता रहा कि साझा –सरकार के युग में केंद्र में सत्ता चला रही सोनिया गाँधी को भी संसद में समर्थन चाहिए, लिहाज़ा सी बी आई कितना कूदेगा. कुछ काल के लिए हुआ भी यही. आय से अधिक संपत्ति के मामले में  सी बी आई अपील में नहीं गयी. लालू भूल गए कि देश में अन्य संस्थाएं भी हैं , कोई मनमोहन सिंह  हैं तो कोई राहुल गाँधी भी. उन संस्थाओं को चलाने वाले लोग हैं जो तन कर खड़े हो जायेंगे. फिर कांग्रेस भी एक डूबती नाव पर क्यों सवार होगी? वह कोई दूसरी मजबूत नाव देखेगी.

यही वजह है कि चारा घोटाले में चारा ढोने के नाम पर ट्रक भाड़े का पैसा भ्रष्ट लालू-शासन के लोग हड़प रहे थे और इतना भी ध्यान नहीं दिया कि जो ट्रक का नंबर दिया है वह स्कूटर का निकलेगा. जहाँ एक भी जानवर नहीं है वहां लाखों का चारा जानवरों के खाने के नाम पर “खरीदा” जाएगा, एक मुर्गी रोजाना ४० किलो दाना खाने लगी. दरअसल भ्रष्टाचार किया यह इतना महत्वपूर्ण  नहीं है जितना वह मानसिकता से जिसके तहत यह घोटाला किया गया. आज देखने पर लगता है कि लालू ने पूरे सिस्टम को , संवैधानिक व्यवस्था को , कानून को ठेंगे पर रखा यह मानते हुए कि वह अजेय हैं और रहेंगें.  

 लालू की सजा का एक और भी पहलू है. सत्ता पर काबिज़ नेताओं, उनके दलालों व अफसरों का गठजोड़. सत्ता के नशे में या अफसर भी यही समझते रहे कि वह तो हाथी के कंधे पर बैठे हैं और यह हाथी कभी मरेगा नहीं. सजा से पूरे देश भर में सन्देश गया कि नेता के साथ अगर अफसर अपेक्षित कानूनी सीमा के आगे बढा तो इस गठ-जोड़ की परिणति भ्रष्टाचार में होगी और नेता अफसर को बलि का बकरा बनाएगा.

 ऐसा नहीं था कि इस घोटाले का राजफाश होने का बाद लालू ने इसे दफ़न करने को कोई कोशिश छोड़ी हो—तब भी और अभी एक महीने पहले तक भी. सन १९९५ में जब नियंत्रक एवं लेखा महा परीक्षक (सी ए जी) की रिपोर्ट बिहार के मुताल्लिक आई तो जैसा आम तौर पर होता है विधान सभा में आम रिपोर्टों की तरह (उस ज़माने में कोई विधायिका या संसद इन रिपोर्टों की तवज्जह नहीं देती थी) नजरंदाज की गयी. इस रिपोर्ट में वर्तमान झारखण्ड के चाईबासा में फर्जी ढंग से बिल बना कर करोड़ों रुपये निकालने की बात थी. चूंकि बिहार सरकार की हालत उस समय बेहद दयनीय थी इसलिए तनख्वाहें नहीं बाँट रही थी. फाइनेंस विभाग ने इस रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए सारे कलेक्टरों को चिट्ठी लिखा कि वे जांच करें कि क्या फर्जीवाड़ा करके पैसा ट्रेजरी से निकाला जा रहा है. चाईबासा के उपयुक्त अमित खरे ने छानबीन जो पाया वह चौंकाने वाला था.ऍफ़ आई आर हुआ और तब पूरे राज्य में जिस तरह सैकड़ों करोड़ रुपये फर्जी रूप से पशुपालन विभाग की साठ-गाँठ से निकले जा रहे थे पता चला. यह भी पता चला कि यह सब लालू के काल में हीं नहीं , जगन्नाथ मिश्र के काल से हीं चल रहा था.

आई ए एस अधिकारी अमित पर दबाव पढ़ना शुरू हुआ. तबादले किये गए , तनख्वाह रोकी गयी, पिता के मरने पर भी छुट्टी रद्द की गयी. सी बी आई जांच की अनुशंसा तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव ने ठुकराई. बहरहाल हाई कोर्ट ने से बी आई जांच के जब आदेश दे दिए तो जो सी बी आई का एस पी जांच कर रहा था उसे उसके डी आई जी ने धमकाया. वह डी आई जी आज सी बी आई का बड़ा अधिकारी है. इस बीच केंद्र सरकार में कांग्रेस सत्ता में आई. गठबंधन की राजनीति लालू के इर्द-गिर्द फिर घूमने लगी. कांग्रेस की मजबूरी थी लालू को खुश रखना. लालू ने आय से अधिक संपत्ति मामले में हाई कोर्ट से बरी होने का बाद सुनिश्चित किया कि सी बी आई अपील में न जा सके. इस बीच लालू के खिलाफ चारा घोटाला का मामला सी बी आई अपने एक ईमानदार और सक्षम जॉइंट डायरेक्टर यूं एन विश्वास को सौंप दिया. विश्वास पर हमले की साजिश की गयी. डराया गया, लुभाया गया.

इस बीच देश के प्रधान मंत्री आई के गुजराल बने. लालू सबसे ताकतवर बन गए. तत्कालीन सी बी आई डायरेक्टर ने सेवा-निवृत्ति के बाद लिखे अपने किताब में बताया कि किस तरह गुजराल ने उन्हें ताकीद की कि लालू के खिलाफ सख्ती न बरतें क्योंकि वह उनके सहयोगी हैं. डायरेक्टर ने यह धमकी नजरंदाज कर दी नतीज़तन रिटायरमेंट के मात्र दो माह पहले उनका ट्रान्सफर कर दिया गया. दरअसल यह केस इतना खुला था कि सी बी आई चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती थी.

हाल के दौर में अचानक जब सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा ८(४) रद्द करते हुए कहा कि संसद या विधायिका का सदस्य अगर दो साल से अधिक सजा वाली धारा में सजा पाता है तो वह सदस्य महज इस लिए नहीं रहेगा कि “वह चुना गया है और ऊपरी अदालत ने उसकी अपील मंज़ूर कर ली है”. सभी राजनीतिक दल डर गए और एक स्वर में इस आदेश के खिलाफ कानून बनाने पर राज़ी हो गए. लेकिन देश में कई बार शर्म का झीना आवरण बड़े से बड़े बेशर्म हरकत पर भारी पड़ता है. यही हुआ. संसद में यह बिल स्थायी समिति के पास चला गया. कानून नहीं बन सका. लेकिन लालू का दबाव सरकार पर पड़ता रहा मानो लालू पूछ रहे हों --- इतने दिन सेवा का यह सिला क्यों ?. केंद्र सरकार को भी अगले चुनाव में लालू की ज़रुरत थी. लिहाज़ा शासन के लिए बने शर्मो-ओ-हया की सभी हदें पार करते हुए मनमोहन सरकार ने अध्यादेश को राष्ट्रपति के पास भेजा. राष्ट्रपति को भी यह बेशर्मी खटकी. बिल वापस भेज दिया गया. दबाव इतना था कि सरकार इसे दुबारा भेज देती और राष्ट्रपति को मजबूरन दस्तखत करना पड़ता. पर इस बीच कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी की नैतिकता जगी, और उन्होंने तीसरी आँख खोल दी. बिल भष्म होने लगा.

कहने का मतलब लालू भ्रष्टाचार की इस यात्रा में कोई मददगार सी बी आई का डी आई जी स्तर  का अधिकारी मिला तो कोई ईमानदार आई जी स्टार का अधिकारी यूं एन विश्वास. कोई प्रधान मंत्री मित्र मिला तो कोई सुप्रीम कोर्ट बेंच इन्साफ की तराजू थामे दिखी. सरकार कोई पूरा का पूरा मंत्रिमंडल मददगार मिला तो कोई उसी सत्ता पक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का सबसे ताकतवर व्यक्ति सब बेशर्म हरकतों पर अपने हीं लोगों पर लानत मलानत करता हुए सत्य के पक्ष में इस भाव में खड़ा  कि पार्टी का भविष्य कुछ भी हो चुनाव में, भ्रष्टाचारी को बचने का यह सरकारी नाटक नहीं होने दूंगा .    

शायद यही है परिपक्व होते प्रजातंत्र की खूबसूरती.

 
jagran

देश का प्रजातंत्र पुख्ता हो रहा है


नोबेल पुरस्कार विजेता एवं विख्यात अर्थशास्त्री ने कहा था कि क्रियाशील प्रजातंत्र में दुर्भिक्ष नहीं होता क्योंकि मीडिया के जरिये बना हुआ जनमत का दबाव सरकारों को मजबूर करता है कि रसद कहीं से भी लेकर दुर्भिक्ष वाले क्षेत्र में पहुँचाया जाये. दरअसल बंगाल के १९४२ में हुए दुर्भिक्ष जिसमें करीब २० लाख लोग मारे गए थे, का ज़िक्र करते हुए सिद्ध किया था कि यह दुर्भिक्ष और मौतें महज ब्रितानी सरकार की उदासीनता के कारण था अन्यथा सरकार के पास रसद की कमी नहीं थी. अगर प्रजातंत्र रहता तो मीडिया और जनमत सरकार को इस रसद को बंगाल के गांवों में भजने को बाध्य होता.

आज ६३ साल के प्रजातान्त्रिक शासन के बाद सरकारें इस मीडिया के माध्यम से उभरे जनमत को नज़रंदाज़ नहीं कर पा रही है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह की सामूहिक चेतना उभरी है वह रंग ला रही है. राजनीतिक वर्ग, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका सभी इससे प्रभावित हैं. और भ्रष्टाचारी नेता को सलाखों के पीछे देख कर इस बदलते भारत को सहज हीं पहचाना जा सकता है. एक और भी स्थिति पनपती है. अगर एक संस्था पुराने ढर्रे पर बने रहना चाहती है या ऐसी हीं कई अन्य संस्थाएं यथास्थिति को बनाये रखना चाहती है तो कोई एक औपचारिक या अनौपचारिक संस्था या ताकतवर व्यक्ति अचानक उठ  खड़ा होता है और जन-समर्थन के बूते यथास्थितिवादी संस्थओं के मंसूबे ढेर कर दिए जाते हैं.

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी का प्रेस कांफ्रेंस में अपनी हीं सरकार के खिलाफ बोलना उसी जन-भावना के प्रभाव का असर था. सुप्रीम कोर्ट का भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम की धारा ८(४) को गैर-कानूनी करार देने भी उसी का हिस्सा था. इसके उलट सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ चुने हुए जन प्रतिनिधियों को जिन्हें अदालत से से दो साल से अधिक की सजा मिल चुकी हो दोबारा बचाना  लोक सभा की यथास्थितिवादी प्रवृति का मुजाहरा करता है. राज्य सभा बेहतर सोच का था और इस बिल पर पानी फेरते हुए स्थायी समिति को सुपुर्द करने का फैसला लिया गया. फिर यथास्थितिवादी जिद के तहत कांग्रेस का एक वर्ग, भारत सरकार का मंत्रिमंडल “खूंटा वहीं गड़ेगा” के भाव में आकर अध्यादेश लाता है तो अचानक देश के राष्ट्रपति तन कर खड़े हो जाते है क्योंकि ६० साल राजनीति में रहने की वजह उन्हें जन-भावना की ताकत का अहसास था. राहुल का तेवर भी उसी लाइन पर था.

यह ठीक है कि प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल,  कांग्रेस की कोर कमिटी की गरिमा गिरी पर जब जन-भावना की क़द्र नहीं होगी तो आज नहीं तो कल यथास्थितिवादी संस्थाओं और व्यक्तियों की इज्ज़त खतरे में तो होगी हीं.

राष्ट्रीय जनता दल के लालू यादव को भी मुख्यमंत्री रहते हुए यही लगा कि संविधान, कानून और सिस्टम तो मेरी चेरी है. तभी तो भ्रष्टाचार करते हुए यह भी नहीं सोचा कि फर्जी बिल में भैंस ढोने के लिए कम से कम स्कूटर के नंबर की जगह ट्रक का नंबर डाल देते.

हाल के दौर में अचानक सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा ८() रद्द करते हुए कहा कि संसद या विधायिका का सदस्य अगर दो साल से अधिक सजा वाली धारा में सजा पाता है तो वह सदस्य महज इस लिए नहीं रहेगा कि वह चुना गया है और ऊपरी अदालत ने उसकी अपील मंज़ूर कर ली है”. सभी राजनीतिक दल डर गए और एक स्वर में इस आदेश के खिलाफ कानून बनाने पर राज़ी हो गए. लेकिन देश में कई बार शर्म का झीना आवरण बड़े से बड़े बेशर्म हरकत पर भारी पड़ता है. यही हुआ. संसद में यह बिल स्थायी समिति के पास चला गया. कानून नहीं बन सका. लेकिन लालू का दबाव सरकार पर पड़ता रहा मानो लालू पूछ रहे हों --- इतने दिन सेवा का यह सिला क्यों ?. केंद्र सरकार को भी अगले चुनाव में लालू की ज़रुरत थी. लिहाज़ा शासन के लिए बने शर्मो--हया की सभी हदें पार करते हुए मनमोहन सरकार ने अध्यादेश को राष्ट्रपति के पास भेजा. राष्ट्रपति को भी यह बेशर्मी खटकी. बिल वापस भेज दिया गया. दबाव इतना था कि सरकार इसे दुबारा भेज देती और राष्ट्रपति को मजबूरन दस्तखत करना पड़ता. पर इस बीच कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी की नैतिकता जगी, और उन्होंने तीसरी आँख खोल दी. बिल भष्म होने लगा.

कहने का मतलब लालू भ्रष्टाचार की इस यात्रा में कोई मददगार सी बी आई का डी आई जी स्तर  का अधिकारी मिला तो कोई ईमानदार आई जी स्टार का अधिकारी यूं एन विश्वास. कोई प्रधान मंत्री मित्र मिला तो कोई सुप्रीम कोर्ट बेंच इन्साफ की तराजू थामे दिखी. सरकार कोई पूरा का पूरा मंत्रिमंडल मददगार मिला तो कोई उसी सत्ता पक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का सबसे ताकतवर व्यक्ति सब बेशर्म हरकतों पर अपने हीं लोगों पर लानत मलानत करता हुए सत्य के पक्ष में इस भाव में खड़ा  कि पार्टी का भविष्य कुछ भी हो चुनाव में, भ्रष्टाचारी को बचने का यह सरकारी नाटक नहीं होने दूंगा .

   यह बात सही है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने जिस आक्रामक तेवर के जरिये सरकार के गलत प्रयास को रोका उससे उनकी छवि एक बार फिर जन-मानस में सकारात्मक रूप से घर कर गयी है. यही तो जनता चाहती है कि उनका लीडर भ्रष्टाचार देख कर क्रुद्ध हो जाये. वह चाहती है कि उनका लीडर ऐसी सस्थाओं या सोच को जो रंचमात्र भी भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने चाहती है उन्हें तार-तार कर सड़क पर छोड़ दे (चौराहे पर फंसी देने के भाव में). राहुल ने यह किया. उनकी भ्रष्टाचार को लेकर “जीरो टोलरेंस” (शून्य सहिष्णुता) का यह आलम था कि पार्टी की एक प्रेस कांफ्रेंस में अचानक पहुंचते हैं और वह भी तब जब पार्टी का प्रवक्ता राजनीति में अपराधीकरण को बनाये रखने वाले अध्यादेश के पक्ष में कसीदे काढ रहा था. राहुल इस अध्यादेश को न केवल फाड़ कर फेंकने की बात कहते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि “मैं फिर से दोहराता हूँ –इस अध्यादेश बकवास है और इसे फाड़ कर फेंक देने चाहिए”. “फाड़ना” , “बकवास” या “मैं फिर दोहराता हूँ” यह उसी भाव को प्रतिबिंबित करता है जिसके तहत जनता भ्रष्टाचारी को “चौराहे पर गोली मारने” की बात कहती है. 

प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों के खिलाफ एक और भी स्थिति बनी है. राहुल का विद्रोही भाव उन सभी पार्टी के नेताओं की दयनीय स्थिति बताता है. रीढ़-विहीनता की हद थी जब कोई प्रवक्ता राहुल के इस आक्रामक रुख पर यूं-टर्न लेने में दो सेकंड की देरी भी नहीं करता और कहता है कि जो राहुल जी ने कहा वहीं पार्टी की राय  है. कोई पूछे कि अभी दो सेकंड पहले आप  जो कह रहे थे वह क्या था? इस बात की भी होड़ मंत्रियों में लग गयी कि  कौन मंत्रिमंडल में लिए गए अपने हीं फैसले की कितनी निंदा कर सकता है. 

फिर भी एक बात साफ़ है. जब जब राहुल इस भाव में आते हैं जनता में एक नयी आशा की किरण जगती है. उसे यह लगता है कि नेहरु-गाँधी परिवार का कोई युवा सार्थक क्रोध में आता है और इस सड़े सिस्टम को उखड फेंकना चाहता है. दलित के घर खाना खाना और रात बिताना, हजारों साल के सामंती शोषण की मानसिकता को झटका देता है और लगता है कि नहीं ये राजा तो गरीबों का हमदर्द है. मेट्रो में चलना , एस पी जी को धता बता कर भीड़ में घुस कर हाथ मिलाना भी आम जनता को भाता है.

राहुल का भ्रष्टाचार या राजनीति के अपराधीकरण को लेकर यह गुस्से का भाव नरेन्द्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी के लिए बचैनी पैदा करने वाला हो सकता है. दरअसल मोदी का भी “यूं एस पी” यही है. बढ़ी दाढ़ी (लेकिन राहुल से सफ़ेद), संस्थाओं और व्यक्तियों की गरिमा को झटके में गिरा देने का हौसला, लीक से हट कर अपनी बात खडी करना मोदी की भी सुनियोजित रणनीति रही है. और इसका लाभ भी मिला है वरना विकास के पैमाने पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने कुछ कम नहीं किया है. लेकिन उन्हें पाकिस्तान को ललकारते हुए अनुप्रास अलंकार में “छप्पन इंच छाती” कहने की कला नहीं आती जो भारतीय जन-मानस को भाती है. 

शायद यही है परिपक्व होते प्रजातंत्र की खूबसूरती.
patrika

राहुल का विद्रोही भाव जनता को रास आता है



प्रजातंत्र में राजकीय नीति निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया है जो बहु-स्तरीय सामूहिक विचार-विमर्श के बाद ली जाती है. इसके लिए शासन तंत्र याने मंत्रिमंडल व शासनेतर संस्थाएं जैसे पार्टी फोरम और जन-संवाद के धरातल, मीडिया की बड़ी भूमिका होती है. लेकिन कई बार शीर्ष मान्यता वाले लोग अचानक इस प्रक्रिया को एक झटके से तोड़ कर तात्कालिक जन-भावना को अपील करने वाली बात के साथ अपने को जोड़ते हुए जनता के चहेते बन जाते हैं. इसका नुकसान यह होता है कि संस्थाओं का कद घट जाता है और जनता का विश्वास इस विधि-सम्मत और “लेजिटिमेट” प्रक्रिया से हट कर व्यक्ति पर चला जाता है. अर्थात उस व्यक्ति का कद तो बढ़ जाता है पर इसकी कीमत प्रजातंत्र को चुकानी पड़ती है. यह कुछ रॉबिनहुड इमेज जैसा होता है.

यह बात सही है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने जिस आक्रामक तेवर के जरिये सरकार के गलत प्रयास को रोका उससे उनकी छवि एक बार फिर जन-मानस में सकारात्मक रूप से घर कर गयी है. यही तो जनता चाहती है कि उनका लीडर भ्रष्टाचार देख कर क्रुद्ध हो जाये. वह चाहती है कि उनका लीडर ऐसी सस्थाओं या सोच को जो रंचमात्र भी भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने चाहती है उन्हें तार-तार कर सड़क पर छोड़ दे (चौराहे पर फंसी देने के भाव में). राहुल ने यह किया. उनकी भ्रष्टाचार को लेकर “जीरो टोलरेंस” (शून्य सहिष्णुता) का यह आलम था कि पार्टी की एक प्रेस कांफ्रेंस में अचानक पहुंचते हैं और वह भी तब जब पार्टी का प्रवक्ता राजनीति में अपराधीकरण को बनाये रखने वाले अध्यादेश के पक्ष में कसीदे काढ रहा था. राहुल इस अध्यादेश को न केवल फाड़ कर फेंकने की बात कहते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि “मैं फिर से दोहराता हूँ –इस अध्यादेश बकवास है और इसे फाड़ कर फेंक देने चाहिए”. “फाड़ना” , “बकवास” या “मैं फिर दोहराता हूँ” यह उसी भाव को प्रतिबिंबित करता है जिसके तहत जनता भ्रष्टाचारी को “चौराहे पर गोली मारने” की बात कहती है.     

प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों के खिलाफ एक और भी स्थिति बनी है. राहुल का विद्रोही भाव उन सभी पार्टी के नेताओं की दयनीय स्थिति बताता है. रीढ़-विहीनता की हद थी जब कोई प्रवक्ता राहुल के इस आक्रामक रुख पर यूं-टर्न लेने में दो सेकंड की देरी भी नहीं करता और कहता है कि जो राहुल जी ने कहा वहीं पार्टी की राय  है. कोई पूछे कि अभी दो सेकंड पहले आप  जो कह रहे थे वह क्या था? इस बात की भी होड़ मंत्रियों में लग गयी कि  कौन मंत्रिमंडल में लिए गए अपने हीं फैसले की कितनी निंदा कर सकता है. 

फिर भी एक बात साफ़ है. जब जब राहुल इस भाव में आते हैं जनता में एक नयी आशा की किरण जगती है. उसे यह लगता है कि नेहरु-गाँधी परिवार का कोई युवा सार्थक क्रोध में आता है और इस सड़े सिस्टम को उखड फेंकना चाहता है. दलित के घर खाना खाना और रात बिताना, हजारों साल के सामंती शोषण की मानसिकता को झटका देता है और लगता है कि नहीं ये राजा तो गरीबों का हमदर्द है. मेट्रो में चलना , एस पी जी को धता बता कर भीड़ में घुस कर हाथ मिलाना भी आम जनता को भाता है.

राहुल का भ्रष्टाचार या राजनीति के अपराधीकरण को लेकर यह गुस्से का भाव नरेन्द्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी के लिए बचैनी पैदा करने वाला हो सकता है. दरअसल मोदी का भी “यूं एस पी” यही है. बढ़ी दाढ़ी (लेकिन राहुल से सफ़ेद), संस्थाओं और व्यक्तियों की गरिमा को झटके में गिरा देने का हौसला, लीक से हट कर अपनी बात खडी करना मोदी की भी सुनियोजित रणनीति रही है. और इसका लाभ भी मिला है वरना विकास के पैमाने पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने कुछ कम नहीं किया है. लेकिन उन्हें पाकिस्तान को ललकारते हुए अनुप्रास अलंकार में “छप्पन इंच छाती” कहने की कला नहीं आती जो भारतीय जन-मानस को भाती है.

लेकिन एक बात साफ़ है कि अगर राहुल आज भी अपनी इस “एंग्री यंगमैन” की इमेज को स्थायी भाव बना लें तो मोदी को गिरती हुई साख वाले कांग्रेस के बीच से हीं  ना केवल एक दमदार विपक्षी मिलेगा बल्कि मोदी से ज्यादा अपील और सर्वस्वीकार्य चेहरा भी जनता को विकल्प के रूप में मिलेगा. मुश्किल यह है कि राहुल एक बार यह कहने की बाद नेपथ्य में चले जाती हैं. जयपुर में जब राहुल ने अपनी हीं पार्टी के चरित्र पर जबरदस्त प्रहार किया तो जन-मानस में इस युवराज के लिए विश्वास पनपा. लेकिन अगले कुछ महीनों तक राहुल का यह भाव नहीं देखने को नहीं मिला. इधर मोदी चुनाव के अखाड़े में हर दूसरे दिन ताल ठोकते रहे तो भी जनता ने सोचा कि पीढ़ी के अंतर वाले दो प्रतिद्वंद्वियों के बीच मुकाबला होगा जन धरातल पर. पर कुछ समय में लगने लगा कि एक पहलवान ने वॉकओवर दे कर मैदान हीं छोड़ दिया है . प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से मुकाबले की अपेक्षा न तो पहले थी ना अब है.

आज भी कांग्रेस के लिए एक हीं रास्ता बच रहा है. भ्रष्टाचार, कुशासन, महंगाई और राजनीति के अपराधीकरण से त्रस्त लोगों को कांग्रेस रंच मात्र भी नहीं भा रही है लेकिन अगर राहुल का अपने हीं लोगों के खिलाफ विद्रोही भाव में आकर जनता में विश्वास दिलाते हैं तो  मोदी के लिए महंगा पड़ सकता है.

यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर राहुल पर चौतरफा हमला करने को अपनी रणनीति का सबसे बड़ा हिस्सा मानने लगी है.

ध्यान देने की बात यह है कि पिछले तीन चुनावों में (याने सन १९९८ से २००९ के बीच ) भारतीय जनता पार्टी ने हर तीसरे मतदाता को खोया है जबकि कांग्रेस पिछले २० सालों में कमोबेश २८ प्रतिशत का वोट पाती रही है. लिहाज़ा यह सोचना कि कांग्रेस पूरी तरह से ख़ारिज की जायेगी गलत होगा. आखिर वो कौन १२ करोड़ मतदाता हैं जिन्होंने कांग्रेस को २००९ में वोट दिया जबकि भारतीय जनता पार्टी मात्र आठ करोड़ पर सिमट गयी. क्या मोदी यह खाई भर पाएंगे ?        
जहाँ तक राहुल के अपने हीं प्रधान मंत्री के खिलाफ सिद्धे जनता में जाने या अपनी हीं सरकार व मंत्रिमंडल  को नीचा दिखने का भाव है यह बौद्धिक जुगाली का विषय तो हो सकता है पर जनता में इसका सन्देश अच्छा गया है.          

lokmat

Monday 16 September 2013

मोदी: चाय की दुकान से रायसीना हिल्स चौराहे तक


किसी व्यक्ति को समझने और मूल्यांकन करने के दो तरीके होते हैं. एक तरीका है आप उसके द्वारा किये गए कार्यों और उनके निष्पादन के लिए हुआ बलिदान नज़र में रख कर बेबाक मूल्यांकन परिणाम को लक्ष्य में रखते हुए करें, इस फॉर्मेट के विश्लेषण की शर्त है कि व्यक्तिकी उपलब्धियों को गौण माना जाये. दूसरा तरीका है आप उसके जीवन में प्राप्त ऊँचाइयों को देखते हुए यह मान कर चलें कि इतनी उंचाई हासिल करने वाला शख्स कोई सामान्य तो होगा नहीं और तब उसने जो-जो किया उसे हीं सत्य और औचित्य का प्रतिमान मान लें और उसकी उपलब्धि के आधार पर उसके कार्यों की विवेचना करें. यह दूसरा तरीका तर्क-निष्ठ नहीं होता और जिसकी वजह से कई बार व्यक्ति का सही विश्लेषण या मूल्यांकन नहीं हो पाता.
नरेन्द्र भाई मोदी देश की सबसे बड़ी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित हो गए. जाने अनजाने में जन –संवाद के धरातल पर चाय की दूकान से चौपाल तक और सी आई आई के एयरकंडीशंड मीटिंग हॉल से टीवी चैनलों के स्टूडियो तक यह चर्चा हो रही है कि “मोदी माने क्या?” प्रजातंत्र के लिए इससे अच्छा संकेत कोई हो हीं नहीं सकता. इस तरह के मूल्यांकन से हम यह समझ पाते हैं कि अगर यह व्यक्ति पूर्व में ऐसा रहा है तो आगे क्या-क्या करेगा. लेकिन कोई भी मूल्यांकन दिक्-काल-स्थिति – सापेक्ष होता है लिहाज़ा तज्जनित पूर्वाग्रह दोष से ग्रसित होता है. कोशिश यह होनी चाहिए कि ये पूर्वाग्रह कम से कम हों.
मोदी के व्यक्तित्व से चार अवधारणायें जुडी हैं. “मोदी के आने से शासन में भ्रष्टाचारियों की तो शामत आ जायेगी”. “मोदी आये तो आतंकियों को पाकिस्तान में हीं शरण के लिए जाना पड़ेगा”. “मोदी के शासन में अब तक सुस्त प्रशासन की तो ऐसी-तैसी हो जायेगी”. और “ मोदी के ज़माने में विकास के पंख लग जायेंगे”. याने मोदी के इमेज में चार पहलू “भ्रष्टाचार के खिलाफ जेहादी, आतंकवादियों का नाशक , विकासकर्ता और अच्छा शासक” चस्पा हो गए हैं. और चस्पा भी इसलिए हुए क्योंकि यू पी ए -२ की मनमोहन सरकार इन सभी मुद्दों पर असफल रही या ऐसा जन-मानस में सन्देश गया. कई बार काम करने से ज्यादह उसके सार्थक प्रचार से सत्ता पक्ष सन्देश भेजता है मनमोहन सरकार उसमें भी बुरी तरह असफल रही. कोयला घोटाला हीं नहीं हुआ , घोटाले को लेकर जो “शून्य-सहिष्णुता” का सन्देश जाना चाहिए था उसकी जगह सन्देश गया “ दोषियों को बचाने का” (सी बी आई निदेशक को बुलाकर जांच रिपोर्ट में बदलाव करवाने से लेकर फाइलें गायब करने तक).  
सत्ता पक्ष अगर अक्षम हो तो विपक्ष का काम कितना सहज हो जाता है यह वर्तमान परिदृश्य साफ़ बताता है. ऐसा नहीं कि विकास नहीं हुआ या जन-कल्याण के कार्य नहीं हुए. मनरेगा, सर्वशिक्षा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, मिड-डे मील अपने –आप में विश्व में अनूठे कार्यक्रम रहे हैं, खाद्य सुरक्षा कानून, सूचना व शिक्षा का अधिकार किसी भी विकसित समाज में नागरिक सशक्तिकरण का सर्वोत्तम जरिया होते हैं जो इस सरकार ने दिया. लेकिंज सन्देश यह गया कि यह सरकार भष्ट और निकम्मी हीं नहीं है बल्कि इन दुर्गुणों को छुपाने के लिए संस्थाओं को शक्तिहीन भी करना चाहती है.
ऐसे में मोदी का राष्ट्रीय जन धरातल पर आंकलन होता है. अपने हीं पार्टी में बेहतर काम करनेवाले, विकास की अच्छी समझ रखने वाले छत्तीसगढ़ के मुख्मंत्री पीछे छूट जाते हैं. नीतीश भी इसी इमेज बिल्डिंग के जरिये विकासकर्ता की छवि लेकर बढ़ते हैं पर मोदी से टकराने पर एक विज्ञापन में सीमेंट वाले हाथी की मानिंद चूर-चूर हो जाते हैं.
राजनीति- शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार अर्ध-शिक्षित व अल्प तर्क-शक्ति वाले समाज में भावनात्मक  मुद्दे वास्तविक मुद्दों पर भारी पड़ जाते हैं और ऐसे में नेताओं और पार्टियों का मूल्यांकन गलत हो जाता है. इसमें दो राय नहीं है कि विकल्पहीनता की स्थिति में मोदी हीं देश की समस्या का जवाब हैं, राहुल उस फॉर्मेट में आ सकते थे पर वह चुनौती स्वीकार नहीं कर रहे हैं.
पर मोदी को अपने नकारात्मक पहलू भी समझने होंगे. यह मान लेना कि चाय की दूकान से रायसीना हिल्स चौराहा (प्रधानमंत्री कार्यालय के पास का चौराहा) मात्र उनकी क्षमता और गुणों का परिणाम है गलत होगा. मोदी सन २००२ में उस दिन हीं राजनीतिक रूप से ख़त्म हो जाते जिस दिन दंगे भड़के लेकिन केंद्र में भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार ढाल बन गयी. मोदी उस दिन भी ख़त्म थे जिस दिन वाजपेयी ने उन्हें जन मंच से “राजधर्म” निभाने की सलाह दी थी लेकिन अडवाणी ढाल बन कर खड़े हो गए.
मोदी की इमेज जहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ “जोरे टॉलरेंस” की है वहीं यह भी इमेज है कि अपनी बात के खिलाफ किसी भी आवाज़ के प्रति उनमें “जीरो टॉलरेंस” (बर्दाश्त ना करना)  है. एक प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में नेता का विरोधी स्वर को लेकर जीरो टॉलरेंस मात्र दुश्मन हीं पैदा करता है आज नहीं तो कल. मोदी का आगाज़ हीं विरोध से हुआ है यह अच्छा नहीं है. देखने में चाहे कितना हीं गौण लगे और यह भाव मन में घर करे कि आडवाणी को हैसियत दिखा दी गयी , मोदी को निर्विरोध (आडवाणी को छोड़ कर) चुना गए, लेकिन यह आने वाले दिनों में यह सन्देश ज़रूर देगा कि मोदी “निर्विरोध” नेता नहीं थे.
दूसरा, मीडिया के प्रति मोदी का भाव हमेशा हिकारत का रहा है. जबकि यहाँ तक आने में जाने-अनजाने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है. अहंकार और जन-अभिमत में नेता कई बार भूल जाते हैं कि मीडिया या ऐसी हीं कई संस्थाओं का सत्ता विरोध शाश्वत भाव होता है और वह मोदी या मनमोहन में फर्क नहीं करता. लिहाज़ा मोदी को यह सन्देश देना होगा कि उनके अहंकार में  कमी आई है. अभी तक यह भाव देखने में नहीं आया है. मोदी केशूभाई पटेल के यहाँ जीतने का बाद “आशीर्वाद” लेने जाते हैं.आडवाणी के तब तक पैर-छूने नहीं जाते जब तक नाम की घोषणा नहीं की जाती. दरअसल यह विनम्रता नहीं विनम्रता का ड्रामा होता है जिसमें प्रतिद्वंद्वी को चिढाने का भाव ज्यादा होता है.
व्यक्तित्व के यह दोष नेता का सर्वमान्यता में हमेशा बाधक बनते है. यही वजह है कि सुषम स्वराज को भी वही डर सता रहा है जो संघ को. फिर भी संघ ने जुआ खेला है. साझा सरकार के इस युग में यही डर अन्य पार्टियों को अपने साथ जोड़ने में मोदी को झेलना होगा. संघ और भारतीय जनता पार्टी का आडवाणी के घर तीन दिन सजदा करना मात्र इसलिए था कि संघ को भी आडवाणी की ज़रुरत इसलिए है कि जुए का दांव अगर गलत हो गया तो मोदी के बरअक्स खड़ा होने के लिए एक बड़े कद का नेता चाहिए और वह कद सिर्फ आडवाणी का हीं है.
फिर भी आम जन का विश्वास है कि मोदी हीं देश को ऊँचाइयों तक ले जा सकते हैं मोदी को इस विश्वास पर खरा उतरना एक बड़ी चुनौती है.  
rajsthan patrika 

Monday 9 September 2013

कैसे, क्यों और कौन होते है “बाबाओं” के भक्त ?



हम अगर प्लेग, हैजा, चेचक और पोलियो ऐसी बीमारियों से निकल पाए हैं, खाना-बदोश जीवन, गुलाम परंपरा या सती प्रथा से छुटकारा पा सके हैं, क्रूरतम शासकों के शोषक व्यवस्था से निकल पाए है तो यह किसी भभूत बेंचने वाले बाबा की वजह से नहीं बल्कि वैज्ञानिक-तार्किक सोच की वजह से. फिर क्या वजह है कि बाबाओं की दूकान में न केवल अशिक्षित लोगों का बल्कि कुछ तथाकथित पढ़े –लिखे लोगों का भी सर्वस्व न्योछावर करने” के भाव में जमवाड़ा लगा रहता है?

मेरे ऑफिस का ड्राईवर एक दिन छुट्टी चाहता था, बच्चे के ईलाज के लिए. पूछा कि क्या बीमारी है ताकि किसी परिचित अच्छे डॉक्टर से दिखवाया जा सके. उसने अन्यमनस्क भाव से कहा “नहीं डॉक्टर से नहीं होगा, पडोसी ने कुछ कर दिया है एक ओझा के यहाँ ले जाना है”. मुझे मालूम है कि इसके खिलाफ मैंने जो भी तर्क दिए वह उनसे मुतासिर नहीं हुआ होगा. ओझा मेरे तर्कों पर भारी पड़ा होगा. लेकिन इस घटना के कुछ दिन बाद हीं मैंने एक भारतीय प्रशासन सेवा के एक अधिकारी को एक बाबा के यहाँ नतमस्तक होते और अपने बच्चे के ईलाज का उपाय पूछते देखा तब लगा शिक्षा और वैज्ञानिक सोच का कोई अपरिहार्य सम्बन्ध नहीं होता. व्यक्तिगत स्वार्थ-सिद्धि के वशीभूत यहाँ आकर कम पढ़े-लिखे ड्राइवर और अपेक्षाकृत शिक्षित अफसर में एक समभाव दिखाई देते है.

जिस देश में तर्क-शास्त्र की एक परंपरा रही हो , जहाँ अद्वैतवाद से लेकर चार्वाक दर्शन को समान रूप से प्रश्रय देते हुए तर्क की परम्परा को आगे बढाया गया हो उसमें समाज के एक बड़े वर्ग में सामूहिक और व्यक्तिगत सोच इतनी कुंठित होना कहीं बीमारी की जबरदस्त गहराई का संकेत देती है. ठीक है कि ईश्वर पर आस्था विज्ञान की उस कमजोरी की परिणति है जिसके तहत हम एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पाते. याने अगर एलोपैथी कैंसर ठीक नहीं कर पा रहा तो निश्चित हीं लोग बाबा की ओर रुख करेंगे भले हीं उसका वैज्ञानिक आधार हो या नहीं. अगर ईश्वर की सत्ता साइंस आज तक नकार नहीं पाया है और दूसरी ओर उसके अस्तित्व पर दुनिया में व्याप्त शोषण के बरअक्स शेखों की अय्यासी के किस्से, प्राचीन की गुलाम परम्परा, सती प्रथा या बलात्कार की चीत्कार प्रश्न चिन्ह लगाते हैं. ऐसे में कम शिक्षा, तार्किक ज्ञान के अभाव ने भूत ,प्रेत और उनसे झुटकारादिलाने वाले बाबाओं और मौलवियों को जन्म दिया.

नतीजा यह हुआ कि डायन मानकर देश में पिछले १५ सालों  में करीब २५०० महिलाओं की हत्या हुई याने हर दूसरे दिन एक हत्या, जिनमें समूह में लोगों ने यह कुकृत्य किया यह मानते हुए कि यह गाँव या घर को खाने आयी है. केवल झारखण्ड के पांच ब्लोकों में २००१-२००८ के बीच ४५४ महिलाओं को डायन समझ कर मारा गया याने हर पांच दिन में एक.

 परन्तु ईश्वर पर आस्था रखना, व्यक्तिगत जीवन में आध्यात्म की ओर झुकाव रखना एक बात है, बाबा के कहने पर अपनी बेटी को उसके साथ अकेले छोड़ना ताकि यह बाबा उस पर आयी प्रेत बाधा को दूर करे बिलकुल अलग. इस प्रक्रिया में हम अपनी आत्मा को और अपनी तर्क-शक्ति को गिरवी रखते हैं, सोच को कुंठित होने देते हैं और अज्ञानता के उस गर्त में गिरते चले जाते हैं जहाँ से हम तो बाहर निकलते हीं नहीं अपने परिवार को भी नहीं निकलने देते. बड़ा होकर वह बच्चा भी अपने बच्चे को वहीं सोच रखने पर मजबूर करता है.

जिस देश में गीता ऐसा महान तार्किक ग्रन्थ हो जो आत्मोत्थान के हर आयाम को सपष्ट रूप से निर्दिष्ट करता हो उस देश में बाबाओं की भरमार एक ऐसा सामाजिक-सांस्कृतिक व्याधि है जो पूरे समाज को फिर उसी जड़ता की ओर ले जा रहा है जिसकी जकड में हम सारे मानव विकास को खो रहे हैं.

महात्मा गाँधी के करोड़ों अनुयाइयों ने देश की आज़ादी के लिए के लिए क़ुरबानी देने की कसम खाई, हजारों ने दी. महर्षि दयानंद, विवेकानंद, नेहरु, इंदिरा सब के अनुयायी थे. समाज में विभिन्न धरातलों के नेता होते हैं और उनके अनुयायी होते हैं. यह परम्परा सनातन काल से चली आई है. हिटलर के भी अनुयाई थे, मार्क्स और लेनिन के भी. वर्तमान में कुछ लोग सोनिया गाँधी को तो कुछ लोग मोदी को अपना नेता मानते हैं. मंदिर को लेकर १९९२ में एक बड़ा जन सैलाब विश्व हिन्दू परिषद् के नेताओं, भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और गेरुआधारी साध्वियों को नेता मानने लगा था तो २०११ से एक जनसैलाब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के साथ हो लिया. आज भारत में कोई साईं बाबा का भक्त है; कोई बाबा राम देव का और कोई श्री श्री रवि शंकर. एक अन्य वर्ग आसाराम बापू को देख कर भगवत दर्शन मान लेता है तो एक अन्य वर्ग मोरारी बापू जहाँ से जाते हैं उस रास्ते की धूल को माथे लगाता है.  

इन सब नेताओं और अनुयाइयों के बीच सम्बन्ध में मूल अंतर क्या है? इनमें नेताओं का व्यापक तौर पर तीन वर्ग है. एक जो देश की आज़ादी या समाज की भलाई का सन्देश देता है. गाँधी, विवेकानंद, दयानंद इस वर्ग में आते हैं. नेहरु और इंदिरा विकास का सन्देश दे कर जन-मानस अपनी ओर करते हैं. हिटलर भी करता कुछ ऐसा हीं हैं पर मूल सोच में व्यापक समाज नहीं एक पक्ष होता है जो अन्य पक्ष को ख़त्म करने तक की बात करता है. कहने का मतलब यह कि जिनता व्यापक उद्देश्य उतनी हीं उसकी नैतिक व कानूनी मान्यता. दूसरा वर्ग होता है उन संतों का जो प्रचलित भक्ति मार्ग पर लोगों को ले जा कर भजन वगैरह करते हैं.

समस्या तब आती है जब हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए “मुक़दमा जीतने, बेटा पाने, धन अर्जित करने के लिए” किसी बाबा के दरबार में जाते हैं यह समझे बिना कि कैसे कोई संत चाहे कितनी भी ईश्वरीय शक्ति रखता हो, यह काम नहीं कर सकता क्योंकि स्वयं ईश्वरीय व्यवस्था ऐसा करने से ध्वस्त हो जायेगी जिसकी इजाज़त भगवान भी नहीं देगा. ना हीं इस बाबा को इसकी इज़ाज़त मिलेगी कि भक्त मुकदमा जीत जाये और गैर-भक्त हार जाये (दोनों उसी भगवान् के बनाये हैं). लिहाज़ा जब वह भक्त “दरबार” में जा कर व्यापार बढ़ने की भीख मांगता है तो यह तथाकथित बाबा समझ जाता है कि इस “भक्त” के पास  औसत तर्क-शक्ति भी नहीं हैं या स्वार्थ ने इसे अँधा कर दिया है. बस फ़ौरन हीं वह भरे दरबार में उसे हरी चटनी के साथ समोसा खाने की सलाह दे देता है. अगले बार यह दरबार कहीं और लगता है. कोई ३२.८० लाख वर्ग किमी के और १२५ करोड़ आबादी वाले इस देश में बेवकूफ बनाना और आसान हो जाता है जब उसके गुर्गे आने के पहले हीं इस स्वार्थ में अंधे भक्त का दरबार के गेट पर हीं ब्रेनवाश कर चुका हो. इसके बाद किसी भक्त की जवान बीबी या जवान बेटी का भूत उतरना और उसके लिए रात में अकेले बुलाना सहज हो जाता है.

आज ज़रुरत है देश में वैज्ञानिक सोच समृद्ध करने की. यह सोच अगर विकसित हो गया तो ना तो भक्त बनेगे ना बाबा रहेगा. बाबा बनने की शर्त होगी समाजोत्थान की बात करना गाँधी, विवेकानंद की तरह ना कि वर्तमान में दूकान लगाये दर्ज़नों बाबाओं कि तरह कोई भूत बाधा दूर करने का ठेका लेगा और फिर कुकर्म करेगा. यही सोच पूरे समाज को भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने को मजबूर करेगी और जाति, धर्म , उपजाति के नाम पर वोट ना देने को प्रेरित करेगी.  

  hindustan