Sunday 11 November 2018

आस्था बनाम संवैधानिक नैतिकता


ट्रैफिक पुलिस का एक अदना सा सिपाही चौराहे पर हाथ उठाकर बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ रोक देता है. उसे यह शक्ति कानून देता है. देश में प्रति 740 लोगों पर मात्र एक पुलिसवाला है. इसीलिये जुमला है --- सरकार इकबाल से चलती है. सुप्रीम कोर्ट के पास भी अपने आदेशों और फैसलों को मनवाने के लिए कोई एजेंसी नहीं होती. संवैधानिक व्यवस्था के तहत आदेशों का अनुपालन सरकार के हाथ में होता है. कोई सरकार अगर यह कह दे “जाओ, नहीं करेंगे” तो फिर क्या होगा? जो अवमानना का आदेश अदालत द्वारा होगा उसका भी अनुपालन सरकार को हीं करना होता है. अब एक दूसरी स्थिति देखें. अगर अदालत कोई आदेश देती है और जनता उसे नज़रंदाज़ करते हुए अपने मन के हिसाब से करती है और सरकार (या सत्ताधारी दल के नेता) सख्ती तो छोडिये, जनता को इसके लिए समर्थन देती हैं तो फिर इस व्यवस्था को ढहने से कौन रोक नहीं सकता?
हाल की दो घटनाएँ लें. सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण की खतरनाक स्थिति देखते हुए देश की राजधानी, दिल्ली में दीपावली पर पटाखे न जलाने के या मात्र शाम के दो घंटे और  वह भी “हरित पटाखे” जलाने के आदेश दिए. इस पर्व को राम की रावण पर या अच्छाई की बुराई पर जीत के रूप में हर्ष प्रदर्शन के लिए आतिशबाजी की परम्परा के साथ मनाया जाता रहा है. याने आस्था का प्रश्न है. यह आस्था या परम्परा तब बनी होगी जब दिल्ली का आबादी दो करोड से ऊपर नहीं थी, गगनचुम्बी सोसाइटियों में फ्लैट के ऊपर फ्लैट नहीं बने थे और वायु प्रदूषण की कल्पना या माप का विज्ञान नहीं होगा और हर मिनट प्रदूषण के आंकड़े नहीं आते होंगे. आज देश की राजधानी एक गैस चैम्बर बन गयी है. दिवाली के अगले दिन प्रदूषण के आंकडे कुछ जगहों पर १८०० माइक्रोन अर्थात मानदंडों से ३० गुना ज्यादा रहे. यह स्थिति सांस की बीमारी हीं नहीं मौत की दावत साबित हो सकती है. लेकिन पुलिस मूकदर्शक के रूप में खडी रही और आस्था जीतती रही, भले हीं इस जीत में आस्थावानों के मौत का बुलावा भी रहा. बुराई पर बुराई की जीत में बदल गयी दीपावली.
इसके कुछ हीं दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने “संवैधानिक नैतिकता” (कॉनस्टीच्युशनल मोरालिटी) का सिद्धांत प्रतिपादित किया (हालाँकि यह पहले से भी प्रजातंत्र के मूल तत्वों में रहा है), जब उसके सामने सबरीमाला का मामला आया. इस मामले में आस्था और परम्परा कहती है कि रजस्वला की उम्र वाली महिलाओं का मंदिर में जाना (याने १० साल से ५० साल तक की आयु) वर्जित है. क्योंकि उस आयु में महिलाएं मंदिर को अपवित्र कर सकती हैं. उधर संविधान के अनुच्छेद १४ में विधि के समक्ष समानता” को मौलिक अधिकार में रखा गया है. अब अगर मान लें कि हज़ार साल पहले कोई परम्परा बनी और आस्था बनकार संस्था के रूप में विकसित हो गयी ( मसलन दक्षिण भारत के एक समुदाय में सैकड़ों शिशुओं को एक पहाडी पर बने मंदिर से नीचे फेंका जाता है जहाँ कुछ लोग चादर ले कर उन्हें रोकते हैं. अक्सर कई बच्चों की मौत हो जाती है) तो क्या आज हमें उसे जारी रखना चाहिए? इस समस्या को तोड़ा गहराई से समझना होगा. जब ये धर्म-आधरित आस्थाएं बनी थी तो प्रजातंत्र नहीं था , हर व्यक्ति को मौलिक अधिकार नहीं दिए गए थे, राजा और रंक का वोट सामान नहीं था और विज्ञान और तार्किक समझ नहीं थी. लिहाज़ा आस्था ने कई बार शोषण का कारण भी बन जाती थीं, ईश्वर तक पहुँचने या परलोक सुधारने का ठेका राजा की मदद से कुछ संभ्रांत वर्ग के पास हीं सिमट जाता था, और अक्सर जाति, लिंग और क्षेत्रीय विभेद को वैधानिकता प्रदान करता था. यहाँ तक की आज के आधुनिक दौर में भी यह आस्था हीं तो थी जिसके तहत आसाराम, राम-रहीम और बाबा रामपाल अर्ध-ईश्वर (डेमी -गॉड) बन कर भक्तों से बलात्कार करते रहे. सत्ता नतमस्तक होती रही. 
सुप्रीम कोर्ट जब तलाक की प्रथा ख़त्म करने के आदेश देता है तो जो वर्ग स्वागत करता है वही सबरीमाला में आस्था से छेड़खानी न करने की चेतावनी देता है. फिर अगर हाजी अली शाह दरगाह में सबरीमाला की तरह पवित्रता के नाम पर महिलाओं का प्रवेश वर्जित होना सुप्रीम कोर्ट ने गलत माना तो सबरीमाला में आस्था इतनी प्रबल क्यों? तर्क के सारे आधार तो एक हीं हैं.
ऐसे में जब देश की सर्वोच्च न्यायलय के सामने यह प्रश्न आता है कि दलित को मंदिर में जाने का अधिकार है कि नहीं, या महिलाएं शारीरिक कारणों से क्यों मंदिर में दर्शन से अपने जीवन के ४० साल वंचित रखी जाएँ या मेले में जानवरों के साथ ज्यादती (जली-कट्टू) को धर्म का अभिन्न अंग और आस्था का प्रश्न बना कर समाज मूक दर्शक बना रहे तो कैसे वह अदालत हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे? उस पर देश की एक बड़ी राजनीतिक वर्ग की यह चेतावनी कि “सर्वोच्च न्यायलय आस्था के साथ छेड़खानी न करे” यही प्रदर्शित करती है कि हम आदिम सभ्यता की एक बार फिर मुड़ रहे हैं.
यहाँ एक समस्या और भी है. अगर एक वर्ग की आस्था दूसरे वर्ग की आस्था से टकरा रही है तो समाज, संविधान और उसकी संस्थाएं क्या चुपचाप देखती रहें और दोनों वर्ग एक दूसरे के खून के प्यासे बने रहें? हम अक्सर देखते हैं कि पुलिस के लिए एक भारी समस्या बन जाती है जब दो समुदायों के त्योहार एक हीं दिन पड़ते हैं और दोनों एक हीं सड़क से , एक हीं समय जुलूस निकालने की जिद पर अड़े रहते हैं. कुछ हीं माह पहले बिहार में इस मामले में तीन जगह दंगे हो चुके हैं. अगर सुप्रीम कोर्ट को आस्था से “छेड़-छाड़” नहीं करना चाहिए तो फिर पुलिस को भी यह अधिकार नहीं है. तब सोचिये देश में शांति की क्या हालत होगी?
कौन हैं सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी के बावजूद दीवाली में पटाखे फोड़ने वाले आर्थिक रूप से संपन्न दिल्लीवासी या केरल का “शिक्षित” पुरुष वर्ग ? दरअसल भारतीय समाज में इस बात की शिक्षा पाट्यक्रम में दी जानी चाहिए कि पहली आस्था संविधान में होनी चाहिए और कभी भी अगर धार्मिक आस्था और संवैधानिक व्यवस्था के बीच, अर्थात् अनुच्छेद १४ (कानून के समक्ष समानता का अधिकार) और अनुच्छेद २५ (अंतःकरण, धर्म के आचरण, प्रचार और प्रसार की स्वतन्त्रता) में टकराव हो तो सम्मानपूर्वक व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को व्यापक समाज की स्वतन्त्रता के आगे समर्पित कर देना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने यही सिद्धांत सबरीमाला के मामले में प्रतिपादित किया है.

Sunday 4 November 2018

दोष सिर्फ राजनीतिक वर्ग का हीं नहीं है !



दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक “ द आइडिया ऑफ़ जस्टिस” में एक अध्ययन का जिक्र किया है. केरल स्वास्थ्य मानदंडों में भारत के अन्य राज्य तो छोडिये, चीन से भी आगे और लगभग यूरोप के समकक्ष है. इसका कारण स्वास्थ्य औरशिक्षा पर वहां  की सरकारों द्वारा पिछले तमाम वर्षों में किये गए प्रयास और खर्च है. इसके ठीक विपरीत सरकारी भ्रष्टाचार और उदासीनता के कारण बिहार और उत्तर प्रदेश इन स्वास्थ्य मानदंडों पर रसातल में लगातार बने हुए हैं. असामान्यरूप से जीवन प्रत्याशा और खासकर वृद्धावस्था की मृत्यु-दर बढी हुई है. लेकिन जब बीमारी को लेकर व्यक्तिगत-संतुष्टि (सेल्फ- पर्सीव्ड मोर्बिडिटी) का आंकलन किया गया तो केरल में लोग सबसे ज्यादा असंतुष्ट पाए गए और बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग सबसे कम असंतुष्ट. इसके पीछे के कारण को खोजने पर सेन को पता चला कि “अभाव में भी संतुष्टि” का यह भाव बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों में इसलिए है कि  उन्हें कभी भी सरकारों से अपेक्षा नहीं रही क्योंकि वे जानते भी नहीं कि सरकार की भूमिका जन-जीवन को उठाने में क्या और कहाँ तक है. सेन की धारणा का मतलब यह है कि अशिक्षा, अज्ञानता और सत्ता, सरकार और राज्य अभिकरणों के प्रति “जाही विधि रखे राम, ताहि विधि रहिये” का दासत्व भाव आज भी उत्तर भारत के इन दो राज्यों में हीं नहीं बल्कि हिंदी पट्टी में भयंकर रूप से व्याप्त है. इसके ठीक विपरीत केरल में एक ज़माने से शिक्षा अव्वल रही है और सामूहिक चेतना विकास के तमाम पैरामीटर्स को लेकर तार्किक और सत्ता पर दबाव बनाने वाली रही है. एक कुंठित और तार्किकरूप से अवैज्ञानिक समझ वाले समाज सरकारों के लिए “मैनेज” करना ज्यादा आसान होता है क्योंकि भ्रष्टाचार करते हुए भी राजनीतिक दल उन्हें भावनात्मक आधार पर सहज हीं अपने पक्ष में कर लेती हैं. 
अब यहाँ सवाल हम विश्लेषकों से पूछा जाना चाहिये कि अगर समाज की समझ हीं पिछले ७० सालों में गाय, तलाक, मंदिर, मस्जिद से ऊपर नहीं बढ़ पा रही है तो दोष महज राजनीतिक वर्ग का हीं क्यों? अगर केरल ऐसे शिक्षित और तार्किक सामूहिक सोच वाले राज्य में भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को ठेंगा दिखाते हुए पुरुष समाज महिलाओं को प्रवेश नहीं दे रहा है “आस्था” के नाम पर तो राजनीतिक दल क्यों नहीं पक्ष और विपक्ष में खडी होंगी. यहाँ सवाल यह भी है कि अगर यह समझते हुए भी कि हर चुनाव के पहले आरक्षण, धार्मिक प्रतीकों और जातिवाद का मुद्दा “बोतल में बंद जिन” की तरह बाहर निकल आता है तो समाज की आँखों पर पर्दा क्यों पड़ा रहता है और वह चुनाव -दर चुनाव धोखा खाते हुए भी यह सन्देश नहीं दे पाता कि खूंखार अपराधी शहाबुद्दीन की जगह संसद नहीं सलाखों के पीछे है. शहाबुद्दीन कैसे चार बार प्रजातंत्र के सबसे “पवित्र मंदिर” लोक सभा में चुन कर आता है और क्यों किसी लालू यादव को यह सन्देश नहीं जाता कि भ्रष्टाचार और अपराध की प्रजातंत्र में जगह नहीं ?कैसे किसी राजनीतिक दल का नेता जनमंच से चेतावनी दे सकता है कि आस्था के मुद्दे से छेड़खानी करने से सुप्रीम कोर्ट बाज आये ?
दरअसल समाज का एक तबका जिनमें कुछ शिक्षित शहरी लोग हीं राजनीतिक वर्ग भी शामिल है, जन-मंचों पर, जैसे टी वी चैनलों पर चीख-चीख कर विकास की बात करते हैं और इसे सिद्ध करने के लिए “अपने पक्ष के चुनिन्दा आंकड़े” भी पेश करते हैं लेकिन वापस लौट कर  वह दल जाति और संप्रदाय के आधार पर टिकट दे देता है और यह तथाकथित शिक्षित शहरी वर्ग अपनी जाति के नेता के घर अपनी बेटे की नौकरी लगवाने या अपना तबादला रुकवाने या मलाईदार जगह करवाले के लिए पहुँच जाता है. 
अगर आस्था इतनी अक्षुण है तो फिर बलात्कारी बाबा आसाराम को जेल क्यों? वह तो आज भी लाखों लोगों का भगवान है? राम रहीम को आज भी खुला छोड़ दें और देख लें कि किस तरह राजनीतिक वर्ग भक्तों के वोट के लिए नतमस्तक होता है. तो फिर इस संविधान का क्या होगा जिसके अनुच्छेद १४ में समानता को मौलिक अधिकार माना गया और सर्वोच्च न्यायालय को उसे बनाये रखने की अपेक्षा की गयी. सबरीमाला मंदिर में तो सभी आयु की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश का मामला था और भारत में एक बड़ा वर्ग इस फैसले के पूर्व इस मंदिर का नाम भी नहीं जनता था लेकिन राम मंदिर को भारत के १०० लोग अपनी अटूट आस्था के साथ देखते हैं और राम तो आराध्य देव माने जाते हैं. तो क्या राजनीतिक पार्टी के हिसाब से जहाँ भी समाज के किसी वर्ग की आस्था हो, अदालतों को मामले सुनाने का हक नहीं होना चाहिए. तब फिर चौराहे या सडकों पर एक मस्जिद, एक मंदिर हर रोज बनाये जाते रहेंगे और कुछ दिन में भक्त भी आने लगेंगे फिर आस्था मुकम्मल हो जायेगी. और तब सड़कें जाम हो जायेंगी क्यों पूजा और अजान के ऊपर कुछ भी नहीं. 
हम कैसा भारत अपनी आने वाली पीढी के लिए बनाने जा रहे हैं. अमर्त्य सेन ने इसका कारण बताया. उनके अनुसार हमारे तार्किक फैसले और किसी फैसले का चुनाव करते समय असली इच्छा में एक बड़ा अंतर रहता है. इसे “इच्छा की कमजोरी” (वीकनेस ऑफ़ द विल” कहते हैं. ग्रीक दर्शन में इसे “अक्रासिया” कहते हैं. भारत के समाज दर्शन में इसे “अपूर्ण आत्म-नियंत्रण” भी माना गया है. 
कितना साम्य है , केरल के उस शिक्षित व तार्किक समाज में जो सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ महिलाओं को पुरुषसत्ताक जकडन से निकलने नहीं देना चाहता और इसमें उसे दोनों पक्षों की तरफ से या खिलाफ राजनीतिक वर्ग रोटियां सेंकने खड़े हैं और उत्तर प्रदेश और बिहार का बीमार समाज जो शिक्षा और स्वास्थ्य के अभाव में तिल-तिल कर मर रहा है लेकिन “आस्था” और “भावनात्मक” मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालय से भी दो-दो हाथ करने को उद्धत है. तभी उत्तर प्रदेश के गेरुआधारी योगी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ “अन्य” विकल्पों की बात कह रहे हैं तो बिहार के केन्द्रीय मंत्री गिरिराज किशोर इस अदालत से जनवरी में पीठ बनाये जाने के फैसले के अगले दिन कहा कि “मुझे डर है कि कहीं हिन्दुओं के सब्र का बांध न टूट जाये” . जाहिर है आस्था या की बात आस्था वालों को अच्छी लगेगी और अगली बार फिर कोई गिरिराज, कोई लालू या शहाबुद्दीन या कोई ओबैसी संसद की शोभा बनेंगे. और बिहार में ७० साल की आज़ादी के बाद भी (विश्व स्वास्थ्य संगठन के ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार) कुपोषण के कारण हर दूसरा बच्चा ठूंठ (स्टंटेड) या कमजोर (वेस्टेड) पैदा होता रहेगा और बड़ा होकर अशिक्षत और अस्वस्थ होते हुए भी आस्था का झंडा ऊँचा करता रहेगा. उधर बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने लोक सभा चुनाव की तैयारी के साथ अपने दलित प्रेम का मुजाहरा करते हुए ताज़ा ऐलान किया “किसी में ताकत नहीं जो अनुसूचित जाति व जनजाति का आरक्षण ख़त्म कर सके”.

Jagran

Wednesday 3 October 2018

विकास से शाश्वत परहेज करने वाले ये चार राज्य



विश्व बैंक ने एक नया शब्द -समूह बनाया है --- रिफ्युजिंग-टु-डेवेलप-कन्ट्रीज (आर डी सीज) याने हिंदी में कहें तो “विकास से परहेज करने वाले देश” (विपद). इसका प्रयोग बैंक ने दक्षिण एशियाई देशों की विकास के प्रति स्पष्ट संभावनाएं रहते हुए भी उदासीनता को लेकर विगत सोमवारको जारी अपनी एक रिपोर्ट में किया है. अगर भारत के विकास विश्लेषक इसका प्रयोग करना चाहें तो उत्तर भारत के कम से कम चार बड़े राज्यों के लिए जिनमें से कुछ के लिए एक ज़माने में अर्थशास्त्री आशीष बोस ने “बीमारू” राज्य शब्द -संक्षेप गढ़ा गया था, कर सकते हैं. याने “विकास से परहेज करने वाले क्षेत्र” (विपक्ष). इस रिपोर्ट के ७२ घटें पहले संयुक्तराष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू एन डी पी) ने भी एक रिपोर्ट जारी की जो दुनिया के देशों के अलावा भारत के राज्यों में लोगों की गरीबी -जनित अभाव की स्थिति को लेकर है जिसे बहु-आयामी गरीबी सूचकांक (मल्टी -डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स –एम् पी आई) कहते है. दरअसल इस सूचकांक को सन २०१० में मानव विकास सूचकांक के सभी तीन पैरामीटर्स --–जीवन -स्तर, शैक्षणिक और स्वास्थ्य-संबंधी--- और उनसे पैदा हुए अभाव के कुल दस पैरामीटर्स को लेकर बनाया गया है. इसके अनुसार जहाँ केरल हमेशा की तरह अव्वल रहा है वहीँ बिहार हमेशा की तरह सबसे नीचे के पायदान पर. शायद विंस लोम्बार्डी के उस मशहूर कथन को चरितार्थ करते हुए --- विनिंग इज अ हैबिट, अनफोर्चुनेटली सो इज लूजिंग” (जीतना एक आदत होती है , दुर्भाग्य से हारना भी). इस नयी रिपोर्ट में बताया गया था कि जहाँ भारत ने पिछले दस सालों में याने २००५-०६ से २०१५-१६ तक अपनी गरीबी (५५ प्रतिशत से २८ प्रतिशत) आधी ख़त्म कर ली वहीँ कुछ राज्य जैसे बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश , और मध्य प्रदेश अभी भी घिसटते हुए चल रहे हैं और इनमें देश के कुल गरीबों का आधे से ज्यादा (१९.६० करोड़) शाश्वत गरीबी और तज्जनित अभाव की गर्त से निकलने की आस में तिल-तिल कर मर रहे हैं. यू एन डी पी के वे दस पैरामीटर्स हैं : पोषण, बाल मृत्यु , स्कूल जाने का काल, स्कूल में उपस्थिति, खाना बनाने वाले ईंधन की उपलब्धता, स्वच्छता, पेय जल, बिजली के उपलब्धता , घर और संपत्ति.. रिपोर्ट के अनुसार, इन दस पैरामीटर्स में से सात में बिहार, दो में झारखण्ड (और उनमे से एक में मध्य प्रदेश भी साथ में )और एक में उत्तर प्रदेश सबसे नीचे हैं जबकि ठीक इसके उलट केरल दस में से आठ में , एक में दिल्ली और एक में पंजाब सबसे ऊपर हैं.    
आखिर वजह क्या है इस हिंदी पट्टी के कुछ राज्यों के शाश्वत उनीदेपन का या यूं कहें कि विकास न करने की जिद की ? मोब लिंचिंग (भीड़ न्याय) में तो यही राज्य भारत में सबसे अव्वल हैं? अर्थात इन समाजों में सामूहिक चेतना जबरदस्त है जो गाय, बैल , वन्दे मातरम , धार्मिक उन्माद को लेकर अचानक सड़क पर हीं न्याय कर डालती है फिर जो हाथ किसी को मारने के लिए उठते हैं वही बच्चे को पोषक भोजन खिलाने के लिए क्यों नहीं या उस ठेकेदार के खिलाफ आवाज उठाने में क्यों नहीं जो उसके गाँव से निकलने वाली सड़क ऐसी बनाता है जो एक बरसात के बाद तालाब में तब्दील हो जाती है, या उस व्यक्ति या व्यक्ति-समूह के खिलाफ आवाज उठाने में क्यों नहीं जो महीनों और सालों अनाथ आश्रम में मासूम बच्चियों से बलात्कार करते रहे हैं ? कैसे कोई खतरनाक आपराधिक पृष्ठभूमि वाला गुंडा चुनाव-दर -चुनाव इसी जनता के मत हासिल करते हुए देश के प्रजातंत्र के सबसे “पवित्र” मंदिर पहुँच जाता है? क्या तब यह सामूहिक चेतना विलुप्त हो जाती है ? राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (चौथा चक्र) के रिपोर्ट का जिक्र करते हुए बिहार के समाज कल्याण विभाग ने भी माना है कि प्रदेश में पैदा होने वाला हर दूसरा बच्चा (४८.३ प्रतिशत) कुपोषण -जनित ठूंठपन (नाटा) या कम वजन का हो रहा है याने भविष्य में एक बीमार नागरिक के रूप रहेगा—शारीरिक हीं नहीं मानसिकरूप से भी. 
विकास से परहेज का एक और उदाहरण देखें. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना अपनी पूर्ववर्ती तीन योजनाओं के मुकाबले एक बेहद अच्छी योजना है लेकिन बिहार एक एकेला राज्य था जिसने शुरू से हीं इसका विरोध किया किसी न किसी बहाने. राज्य की अपनी स्वयं की योजना अमल के अभाव में दम तोड़ रही है नतीजा यह कि हाल में नाबार्ड द्वारा जारी किसानों की आय संबंधी रिपोर्ट के अनुसार झारखण्ड, उत्तर प्रदेश , बिहार और मध्य प्रदेश सबसे नीचे है वहीँ पंजाब और हरियाणा सबसे ऊपर. यू एन डी पी के रिपोर्ट के अनुसार इन गरीबों में जहाँ अनुसूचित जनजाति का हर दूसरा व्यक्ति है उच्च जाति का हर सातवाँ , ईसाई समाज का हर छठवां और मुसलमान समुदाय का हर तीसरा.  
     आपराधिक उदासीनता का कारण
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   परिवार नियोजन के अमल में पिछले कई दशकों से पूरी तरह असफल या आपराधिकरूप से उदासीन रहने वाला अगर कोई राज्य  रहा है  तो वह है बिहार. आज बिहार का आबादी घनत्व ११०५ व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर राष्ट्रीय औसत से तीन गुना ज्यादा है जबकि उत्तर प्रदेश का लगभग दूना. इस वर्ष के १० मार्च को जनसँख्या नियंत्रण पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अनुपालन में एक कार्यक्रम में बोलते हुए केंद्र सरकार के परिवार नियोजन विभाग के उपायुक्त एस के सिकधर ने बताया कि बिहार की सरकार लगभग हर दूसरे दंपत्ति को परिवार नियोजन के आधुनिक उपादान उपलब्ध करने में असफल रही है. यह शायद उदासीनता की पराकाष्ठा है और वह भी तब जबकि सरकारें यह जानती हैं कि देश में सर्वाधिक जनसँख्या वृद्धि दर में अव्वल बिहार की गरीबी और तज्जनित अभाव का कारण भी यही जनसँख्या है. इस पर तुर्रा यह कि जहाँ जागरूक दम्पत्तियों को आधुनिक गर्भ निरोधक उपादान उपलब्ध नहीं हैं वहीँ इनके प्रति जागरूकता भी नगण्य (मात्र तीन से चार प्रतिशत ) है. दशकों तक सरकारों की तरफ से जागरूकता अभियान के अभाव में बिहार में हर आठवां बच्चा १८ साल से कम की मां द्वारा पैदा किया जाता है यही वजह है कि बाल- एवं जननी- मृत्यु दर भी ज्यादा है. उधर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार झारखण्ड में हर चौथे दिन मानसिकरूप से बीमार महिला की ईंट से मर कर हत्या कर दी जाती है यह मानते हुए कि डायन है और पूरे गाँव को खा जायेगी. साथ दशकों से प्रजातान्त्रिक ढंग से चुनी सरकारें बिहार या झारखण्ड में अपेक्षाकृत अशिक्षित जनता को यह नहीं समझा पायी कि भीड़ किसी महिला को जान से नहीं मार सकती और न हीं “डायन” का डर हटा पाई. 
शायद लोम्बार्डी सही थे --- हार इन हिंदी पट्टी के राज्यों की आदत है . 

jagran





Tuesday 22 May 2018

सत्यमेव जयते याने जो जीता वही सत्य



भारतीय प्रजातंत्र की परिभाषा लिंकन के प्रजातंत्र से अलग है। इसी साल की ३१ जनवरी को ब्रिटेन में एक मंत्री लार्ड माइकेल बैट्स ने सदन में कुछ मिनट लेट पहुँचने पर पद से इस्तीफ़ा यह कहते हुए दिया कि सदन में प्रश्नकर्ता को जवाब देने के लिए वह निश्चित समय पर न पहुँच सके जो कि असभ्यता (डिसकर्टसी) है”. आज से लगभग ९० साल पहले ब्रिटेन की लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री राम्से म्क डोनाल्ड की सरकार को इस बात पर इस्तीफा देना पड़ा कि “कैम्पबेल घटना” में राजनीतिक कारणों से एक व्यक्ति के ऊपर से आपराधिक मुकदमें उठाने का फैसला लिया था”.
गणतंत्र बनने के दिन से हीं मुण्डकोपनिषद का श्लोक ३:: ६ “सत्यम एव जयते न अनृतम” (सत्य की हीं जीत होती है, असत्य की नहीं” भारत का ध्येय वाक्य था, है और रहेगा. याने अगर जब कर्नाटक चुनाव के परिणाम आये और भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज्यादा १०४ सीटें मिलीं तो वह सत्य था लेकिन जब परिणाम आने के कुछ हीं घंटों में कांग्रेस ने ७८ सीटें जीत कर भी जनता दल (एस) के नेता जो मात्र ३८ सीटें हासिल कर पाए, साझा सरकार में मुख्यमंत्री बनाने का फार्मूला बनाया तो सत्य अचानक उधर जाने लगा. उधर संविधान के “अभिरक्षक”, “परिरक्षक” और “संरक्षक” ने रूप में शपथ लेने वाले राज्य के राज्यपाल वजूभाई वाला ने फिर सत्य पलट दिया और भाजपा के येद्दियुरप्पा को शक्ति -परीक्षण का समय दे कर और अगले २४ घंटों में शपथ दिलवा कर सत्य की दिशा फिर मोड़ दी. देश की सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीशों ने शपथ तो संविधान में निष्ठा (न कि अभिरक्षण) की ली थी लेकिन त्रि-सदस्यीय बेंच ने इस काम में आगे बढ़ते हुए इस समय सीमा को घटा कर १५ दिन से २४ घंटे कर दिया. शायद उन्हें भी लगा कि इस देश के विधायक समय और मौका मिलने पर सत्य बदलने की क्षमता रखते हैं. और हुआ भी यही. सत्य ने एक बार फिर पल्टी मारी जब चारों तरफ सी घिरे ए सी बसों में कांग्रेस और जनता दल (एस) के विधायकों को बाज की तरह झपटने वाले भारतीय जनता पार्टी के “सत्य के रक्षक” नहीं छीन पाए. और अंत में मुख्यमंत्री को फिर भी इस नए अयाचित सत्य का दामन थामते हुए बगैर अंतिम सत्य (फ्लोर टेस्ट) का सामना किये पद छोड़ना पड़ा.
सोचने की बात यह है कि अगर सत्य की हीं जीत होती है तो क्या सत्य भी काल -सापेक्ष या स्थिति -सापेक्ष होता है? मई १९, २०१८ के २ बजे तक का सत्य कुछ और था और जब विधायक प्रलोभन में (शायद समयाभाव और स्थिति-विहीनता के कारण ) नहीं आ पाए तो सत्य कुछ हीं घंटों में बदल गया? अगर कांग्रेस सर्वोच्च न्यायालय नहीं जाती तो आज सत्य का स्वरुप कुछ और होता या अगर भाजपा रिसोर्ट/होटलों का किला तोड़ने में सफल होती तो भी सत्य कुछ और होता या फिर अगर कांग्रेस २४ घंटे पहले जिस दल के खिलाफ तमाम आरोप लगाते हुए जनता के वोट हासिल कर ७८ सीटें लाई थी उसी के मुखिया के हाथ प्रदेश की बागडोर देने की हद तक न गयी होती तो भी सत्य कुछ और होता. और अंत में, अगर भारतीय जनता पार्टी वाजपेयी की पार्टी होती और नैतिकता (यह भी सत्य स्थापित करने का एक टूल होता है जिसे हर कोई अपनी अनैतिकता को ढकने के लिए इस्तेमाल करता है) के आधार पर यह कहती कि जनता ने हमें पूर्ण बहुमत नहीं दिया है लिहाज़ा हम सरकार बनाने का दावा नहीं पेश करेंगे, तो सत्य कुछ और होता. इस अंतिम विकल्प का मतलब यह नहीं कि भाजपा का सत्य (यहाँ पर सत्ता पाना) के प्रति की कोई आग्रह नहीं है बल्कि यह शुद्ध रणनीति होती कि इन्हें भी (कुमारस्वामी को ) राज्यपाल संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी के तहत १५ दिन का समय देते और इस दौरान मिले समय को भाजपा के रणनीतिकार “सत्य की खोज” में गुपचुप रूप से पूरी तल्लीनता के साथ लग कर कांग्रेस और जद() के “छुट्टा” उपलब्ध विधायकों को अपने पाले में कर फ्लोर टेस्ट में सरकार गिरा सकते थे. लेकिन शायद इन रणनीतिकारों का सत्य के प्रति आग्रह इतना प्रबल था कि वह अपने सत्याग्रह को रोक नहीं पाए और कई घुमाव के बाद आखिरकार सत्य उनके हाथ आते-आते फिसल गया क्योंकि “अंतरात्मा की आवाज” मात्र २४ घटें में नहीं जगती. कई वादे और उन पर भरोसे के साथ साथ नकदी का आदान -प्रदान भी आत्मा जगाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है.
और फिर हम यह क्यों मान लें कि येद्दियुरप्पा का इस्तीफा हीं मूल सत्य है. अभी तो उन्हीं की तरह कुमारस्वामी की भावी सरकार का भी फ्लोर टेस्ट बाकि है. कार्यकर्त्ता के स्तर पर अभी से हीं कांग्रेस और जद() के बीच रोज झगडे शुरू हो गए हैं. थोडा इन्तेजार करने पर फिर भाजपा को सत्य पलटने का मौका मिल जाएगा और वह सत्य नैतिकता की तराजू पर भी जन-अभिमत में खरा उतरेगा.
मई १५ के चुनाव नतीजों के बाद हमारे पास तीन मूल्य “सत्य” थे. पहला : भाजपा सबसे बड़ी होकर उभरी पर स्पष्ट बहुमत नहीं था. कांग्रेस सत्ता -विरोधी भाव (एंटी-इनकम्बेंसी) के बावजूद मतों में भाजपा से १.८ प्रतिशत ज्यादा रही. लेकिन संविधान का सत्य सदस्यों की संख्या के आधार पर होता है लिहाज़ा भाजपा बजाहिर तौर पर सबसे बड़ी जीत की हकदार थी. लेकिन एक सत्य और भी बचा था फ्लोर परीक्षण में स्पष्ट बहुमत पाना जिसमें सत्य उसे गच्चा दे गया. नतीजा यह कि ३८ सदस्य वाली पार्टी ने ७८ सदस्य वाले राष्ट्रीय दल के साथ मिलकर सत्य को दबोच लिया. और आज सत्यमेव जयते नानृतम (सत्य की हीं जीत होती है झूठ की नहीं “ का मतलब कई बार बदलते हुए फिलहाल इस तर्क वाक्य में समाहित हो गया कि “जो जीता वही सत्य”.
अब्राहिम लिकन का प्रजातंत्र “जनता द्वारा , जनता के लिए और जनता की सरकार” भारत में शायद एक नए दौर से गुजर रहा है जिसमें जनता शब्द वोक्कालिगा, लिंगायत, हिन्दू , मुसलमान , आरक्षण , अल्पसंख्यक का दर्ज़ा दिलाने का वादा आदि की संख्यात्मक गुणवत्ता में, जीतने के बाद पद और पैसे के लालच में आने या न आने में एक नयी परिभाषा गढ़ रहा है. और यह आज से नहीं बल्कि गणतंत्र बनने के बाद जैसे हीं हमने मुण्डकोपनिषद का यह ध्येय वाक्य अंगीकार किया, तब से इस नयी परिभाषा से लिंकन की परिभाषा को परिमार्जित करते रहे हैं. याने जो जीता वही सत्य .
तत्कालीन कुछ भारतीय और अंग्रेज विद्वानों को लिंकन की प्रजातंत्र की परिभाषा बदलने की भारत के समाज की क्षमता का भान था. लगभग सौ साल से अँगरेज़ मना करते रहे कि ब्रितानी संसदीय प्रणाली भारत के लिए अभी उपयुक्त नहीं है लेकिन तत्कालीन नेताओं की जिद के तहत यह व्यवस्था अपनाई गयी. इसका नतीजा यह रहा कि संसदीय फॉर्मेट तो हमने ब्रिटेन का ले लिया पर उसको चलने के लिए जो व्यक्तिगत और सामूहिक नैतिक संबल चाहिए था वह नदारत रहा.


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Monday 14 May 2018

चार साल मोदी सरकार: क्या बताएँगे !




इस माह के २६ तारीख़ को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने शासन का चार साल पूरा करेंगे तो कर्नाटक के चुनाव परिणाम आ चुके होंगे. अगला एक साल काम करने से ज्यादा काम बताकर जनता को प्रभावित करने का होगा और वह भी एक ऐसे समय में जब विपक्षी एकता की रूप-रेखा राजनीतिक क्षितिज में दिखाई देने लगी है. यही वजह हैं कि दो दिन पहले प्रधानमंत्री ने सभी मंत्रालयों से रिपोर्ट माँगी है कि परोक्ष या प्रत्यक्ष तौर पर पिछले चार साल में कितने रोजगार पैदा हुए हैं और सरकारी योजनाओं ने सकल घरेलू उत्पाद में क्या योगदान किया है. दरअसल मोदी जानते हैं कि विपक्ष के हाल में देश की हीं नहीं कई विश्व संस्थाओं—जैसे अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आई एल ओ) -- ने भी भारत में बेरोजगारी की स्थिति पर चिंता व्यक्त की है और आंकड़ें पेश किये हैं. दो माह पहले भी पी एम ओ की एक आतंरिक रिपोर्ट में तमान अच्छे और अपूर्व सरकारी कार्यक्रमों के बावजूद क्रियान्वयन के स्तर पर अफसरशाही की उदासीनता की बात कही गयी थी. प्रधानमंत्री का दुःख उस समय उजागर हुआ जब विगत २१ अप्रैल को लोकसेवा दिवस (सिविल सर्विसेज डे) के अवसर पर अफसरों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा : सिस्टम बदलना होगा क्योंकि एक फाइल ३२ जगह घूमने के बाद भी “मोक्ष” नहीं पा रही है “.

अच्छी नीतियों की दो बानगियाँ देखें. आजाद भारत में पहली बार जबरदस्त कर सुधार के लिए जी एस टी लाई गयी, और कालाधन ख़त्म करने के लिए नोटबंदी. यह एक हाई स्कूल का बच्चा भी समझ सकता है कि ये दोनों नीतियां शुरू में जनता को तकलीफ भी देगी और भ्रष्ट लेकिन सिस्टम में ताकतवर लोगों को तकलीफ भी. सरकार को यह भी दर होगा कि वह जनाक्रोश की भागी बनेगी. लेकिन उद्देश्य बेहद सार्थक था लेकिन एक के कारण व्यापार पर असर पडा और दूसरी ने रोजगार की स्थिति और खराब की. इस का कारण अमल सही तरीके से न होना था. प्रधानमंत्री आवास योजना में राज्य और केंद्र-शासित प्रदेशों ने कुल ७४.४८ लाख आवास बनाने का लक्ष्य रखा लेकिन विगत ३१ मार्च तक (चार साल में ) मात्र ३३ लाख हीं बन सके. आरोप है कि इनमें से बड़ा भाग भ्रष्टाचार और गलत आंकड़ों की भेट चढ़ गया जैसा कि शौचालयों को लेकर भी आरोप है. आज शौचालय के नाम पर खोखे खड़े हैं जो आंधी में ढह रहे हैं.
पी एम् ओ ने इस रिपोर्ट में अफसरशाही उदासीनता पर नाराजगी भी व्यक्त की. बजट में इसीलिये दो नयी योजनायें दी ----- दस करोड़ गरीब परिवारों को पांच लाख का स्वास्थ्य बीमा मुफ्त (दुनिया का सबसे बड़ा स्वास्थ्य गारंटी योजना ) और किसानों को उनकी लागत का १५० प्रतिशत समर्थन मूल्य याने ५० प्रतिशत लाभ. अगर ये योजनायें चुनाव के साल में १० प्रतिशत भी अमल में आ सकें तो मोदी सन २०१४ से ज्यादा मजबूत स्थिति में हो सकते हैं लेकिन न तो यह स्पष्ट हुआ किसानों की लागत के लिए कौन सा फार्मूला लागू होगा ---- अलाभकारी ए-२ प्लस ऍफ़ एल या स्वामीनाथन द्वारा अनुमोदित सी -२ जो वाकई किसानों की तकदीर बदल सकता है. रबी खासकर गेहूं की खरीद के डेढ़ माह ख़त्म होने को हैं. साथ ही दस करोड़ परिवार के लिए स्वास्थ्य सेवा केवल पात्रता वाले कागज के टुकडे से नहीं बल्कि अस्पताल और डॉक्टरों की उपलब्धता से होता है. अभी तक इस दिशा चार माह बीतने के बाद भी कुछ भी काम नहीं हुआ है.
ऐसा नहीं है कि योजनाओं में कमी है या उन्हें अमल में लाने में कोई राजनीतिक इच्छा -शक्ति का कमी है. दरअसल जो तथ्य मोदी या पार्टी अध्यक्ष अमित शाह नहीं समझ रहे हैं वह है प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं और जन-प्रतिनिधियों का कट्टर हिन्दुत्त्व के भाव, संकेत और प्रतीकों को इन योजनाओं के मुकाबले तरजीह देना और हर दिन एक नया विवाद खड़ा करना ---कभी जिन्ना के नाम पर तो कभी लव जिहाद बता कर. जन-प्रतिनिधि शायद हीं मोदी के प्रधानमंत्री आवास योजना को लेकर अधिकारियों या जनता से संपर्क करता है. अधिकांश तो इन योजनाओं के बारे में जानते भी नहीं.

आइये , एक निरपेक्ष विश्लेषण के लिए तथ्यों पर गौर करें. एक हीं दिन अख़बारों में तीन ख़बरें थी. भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने देश के एक बड़े हिंदी दैनिक को दिए गए एक साक्षात्कार में कहा :जनता विकास चाहती है और भाजपा विकास करना जानती है. प्रजातंत्र को मजबूत करने में देश की सबसे बड़ी पार्टी के मुखिया का यह सन्देश बेहद गंभीरतापूर्ण, समीचीन और शिक्षाप्रद है. दूसरी खबर में एक वीडिओ वायरल हुआ और ख़बरों में आया जिसमें इसी पार्टी का एक सांसद किसी को आदेश दे रहा है “सभी गाड़ियाँ रोक दो. मुझे १० मिनट में वैशाली एक्सप्रेस यहाँ चाहिए”. इस ट्रेन से पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्रनाथ पाण्डेय सांसद के क्षेत्र में एक कार्यक्रम में भाग लेने उस स्टेशन पर आ रहे थे. वीडियो वायरल होने के कुछ घंटे बाद जब एक मीडियाकर्मी ने पूछा तो उनका जवाब था “मैं अपने एक कार्यकर्त्ता से बात कर रहा था न कि किसी रेल अधिकारी से”. याने अपने बचाव में दिया गया जबाव पहले वाले से भी ज्यादा डरावना ... कार्यकर्ता गाडी रोक सकता है या वैशाली एक्सप्रेस सांसद की इच्छानुसार मिनटों में इच्छित स्टेशन पर ला खडा कर सकता है. तीसरी खबर थी इसी पार्टी के एक विधायक ने अपनी एक जनसभा में बाल विवाह फिर से शुरू करने की वकालत इस आधार पर की कि ऐसा करने से “लव जेहाद रूक जाएगा”. विधायक ने बाल विवाह निरोधक कानून को बीमारी बताई और इस कानून को ख़त्म करना निदान. ८९ वर्ष पहले सन १९२९ में जब ब्रितानी हुकूमत ने यह कानून बनाया था तो सन १९२५ में केन्द्रीय लेजिस्लेटिव असेंबली में उस समय भी कुछ हिन्दू सदस्यों ने जैसे टी रंगैयाचारी आदि ने इसका विरोध यह कह कर किया था अगर लडकी दस साल से अधिक की हो जाती है तो कोई उससे शादी नहीं करता—खासकर जमींदार. आज कई दशकों बाद एक विधायक भी उसी कानून को बीमारी की जड़ बता रहा है. यह कुछ ऐसा हीं समाधान है कि अगर बलात्कार हो रहा है तो लड़कियों को घर से बाहर पढने भेजते हीं क्यों हो.

ये सांसद या विधायक अगर उसी शिद्दत से जिससे ट्रेन रुकवाने का माद्दा रखते हैं , प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों पर सरकारी तंत्र से अमल करवाते तो मोदी का शसन दुनिया में एक एक आदर्श शसन माना जाता. लेकिन ये शायद हीं अपने क्षेत्र में मोदी के कार्यक्रम और नीतियों के बारे में जनता को बताने गए हों या ठीक से जानते भी हों लेकिन सुशासन पर कलक के रूप में अपनी मोहर जरूर लगा दे रहे हैं.

आज अगर मोदी को २०१४ वाली जन-स्वीकार्यता फिर से हासिल करनी है तो पूरे एक साल तक कट्टर हिन्दुवाद के तथाकथित अलंबरदारों पर पाबन्दी लगानी होगी और स्वास्थ्य बीमा योजना और किसानों की आय बढ़ने वाली योजनाओं पर २४ घंटे काम करना होगा भाजपा के विधायक और सांसदों को क्षेत्र में जा कर इन कार्यों का प्रचार और अमल के स्तर पर निगरानी करनी होगी.

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Wednesday 9 May 2018

नीतीश एक बार फिर पल्टी मारने की फ़िराक में ?




पिछले अप्रैल १५ को पटना में जो “दीन बचाओ देश बचाओ” रैली हुई थी उसमें बिहार के हीं नहीं आस-पास के कई राज्यों के मुसलमान और दलित शामिल हुए थे. इस रैली में मंच से आयोजकों ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जम कर तारीफ की और एक बार भी राज्य में हुए सांप्रदायिक तनाव और झगड़ों का जिक्र नहीं किया. माना जा रहा है कि यह रैली नीतीश के शाह पर हीं हुई थी और सरकारी अमला ने इसके लिए गाडियों तक उपलब्ध कराई थी. अनौपचारिक रूप से जिलों के अफसरों को निर्देश था कि वे रैली के बैनर लगी गाड़ियों को न रोकें. सत्ता में एक बार फिर से सहयोगी बनी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नीतीश के इस रवैये से सतर्क हो गयी है. लोक- सभा चुनाव मात्र के कुछ महीने बाद होने है. नीतीश के इस भाव के पीछे दो कारण है और दो विकल्प हैं. पहला कारण, रामनवमी के दौरान नए रास्तों से जुलूस निकलने की जिद के बाद करीब आधा दर्जन जिलों में हुई हिंसा, और दूसरा जिलों में कैडर के स्तर पर सत्ता में वर्चस्व को लेकर बढ़ता वैमनस्य. भाजपा के एक वर्ग चाहता है कि अगर जिले में कलेक्टर नीतीश की जनता दल (यूनाइटेड) के मन से हो तो एस पी भाजपा की राय से. जाहिर है भाजपा अपना विस्तार करना चाहेगी और इसके लिए शासक वर्ग से अपने लोगों के काम करना चाहेगी ताकि वोटर आधार बढे. नीतीश की पार्टी को ऐसे में कहीं न कहीं सिकुड़ना पडेगा या दोयम दर्जे के दल के रूप में धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को भाजपा के बार-अक्श विलीन करना होगा याने नीतीश भाजपा के रहमो-करम पर अपनी राजनीतिक औचित्य बनाने को मजबूर होंगे. यही वजह है कि इस रैली के संयोजक और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना वली रहमानी के दाहिने हाथ खालिद अनवर को नीतीश ने विधान परिषद् का सदस्य भी बनाया. इस रैली में बिहार हीं नहीं, झारखण्ड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के मुसलमानों ने भाग लिया था. रैली की व्यापकता भविष्य में विपक्षी गठबंधन के संकेत के रूप में देखा जा सकता है और साथ ही उस भविष्य में नीतीश की उसमें सक्रिय भूमिका भी हो सकती है.
नीतीश ने इसके प्रतिकार के दो रास्ते तलाशे हैं. पहला : राज्य के चुनाव एक साल पहले याने लोक-सभा के चुनाव के साथ २०१९ में हीं कराये जाएँ. ऐसी स्थिति में नीतीश भाजपा से यह सौदा कर सकते हैं—“राज्य हमारा और देश तुम्हारा” याने जदयू को ज्यादा सीटें विधान सभा चुनाव में और भाजपा को ज्यादा सीटें लोक सभा के लिए. दूसरा विकल्प है फिर एक बार वापस लालू यादव-तेजस्वी यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के साथ २०१५ चुनाव की पुनरावृति करते हुए समझौता करना. “दीन बचाओ , देश बचाओ “ रैली में मुस्लिम-दलित वर्ग का जमवाड़ा था. एक ऐसे समय में जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद तत्काल प्रतिक्रिया के अभाव में दलित भाजपा से नाराज है, दलित-मुस्लिम गठजोड़ शायद दूसरे विकल्प के लिए आगे का रास्ता खोल सकेगा. उधर मुसलमानों के अलावा पिछड़ी जातियों में यह भाव पनप रहा है कि लालू यादव के साथ अन्याय हुआ है क्योंकि वह पिछड़ी जाति से आते हैं. यहाँ तक कि उच्च जाती के और दबंग भूमिहार वर्ग ने भी जहानाबाद के उप चुनाव में राजद को वोट दिए. जहाँ लालू के पुत्र तेजस्वी यादव इन भूमिहार और ब्राह्मणों को साधने में लगे हैं (मनोज झा को राज्य सभा सदस्त बनाना इसी कड़ी में है) नीतीश का दलित और मुसलमानों को एक मंच पर लाना भाजपा के लिए अलार्म की घंटी बन गयी है. बहरहाल न तो भाजपा इस पर कुछ कहने की स्थिति में है न नीतीश पाने पत्ते पूरी तरह खोल रहे हैं.
उधर जहाँ केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने इसी रामनवमी के दौरान हुए दंगों के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से रिपोर्ट मांगी वहीं बिहार में इसी अवसर पर भागलपुर, मुंगेर, औरंगाबाद, समस्तीपुर, रोहतास में हुए दंगों के लिए नीतीश सरकार से कुछ भी नहीं कहा क्योंकि डर था कि नीतीश के रिपोर्ट में कुछ ऐसे संगठनों के नाम आयेंगे जो भाजपा के नजदीक हैं.
बिहार में सब कुछ ठीक नहीं है. हो भी नहीं सकता. अगर भारत में प्रजातंत्र कहीं एक जगह अपने पूर्ण विकृत स्वरुप में है तो वह बिहार में. भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में लालू यादव का २३ साल बाद जेल जाना भले हीं अदालती प्रक्रिया के तहत हुआ हो, जनता के एक बड़े वर्ग में इस नेता के प्रति सहानुभूति पैदा कर देता है. हाल के उप-चुनाव के नतीजे इसका ताज़ा उदाहरण हैं. जनता यह नहीं पूछती कि न्याय की तराजू इतने सालों तक क्यों नहीं हिली और कैसे यह सिस्टम एक भ्रष्टाचार के आरोपी हीं नहीं चार्ज-शीटेड नेता को चुनाव-दर-चुनाव “संविधान में निष्ठा” की शपथ व्यक्त करवा कर देश के मंत्री पद से नवाजता है? कैसे इस राज्य की जनता किसी खतरनाक और दर्ज़नों हत्याओं में आरोपी शहाबुद्दीन को एक बार नहीं पांच बार प्रजातंत्र के सबसे बड़े मंदिर--- लोक सभा—में चुन कर भेजती हैं ताकि वह कानून बना सके?
लोकोक्ति तो थी “यथा राजा तथा प्रजा” पर प्रजातंत्र में यह उलट गयी और “यथा प्रजा तथा राजा” के रूप में दिखाई देने लगी. राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भले हीं अपना जनाधार नगण्य हो लेकिन यह प्रजातंत्र का विद्रूप चेहरा हीं है कि वह पिछले १३ साल से बिहार का “भाग्य” सुधार रहे हैं. इतने साल बाद भी प्रजा उन्हें नहीं समझ पायी और जब नीतीश ने भारतीय जनता पार्टी का दस साल से ज्यादा का “शासकीय साथ” छोड़ कर अंपने धुर विरोधी लालू यादव का—जिनको डेढ़ दशक से ज्यादा समय से कोसते आये थे , हाथ थाम लिया और उन्हें अल्पसंख्यकों और पिछड़ों का सबसे बड़ा मसीहा बताया और भाजपा को सांप्रदायिक बताने लगे. अभी सुहाग की मेहंदी सूखी भी नहीं थी कि पाला बदला जो दुनिया के प्रजातंत्र में एक अनूठी अनैतिकता कही जा सकती है, फिर भाजपा के साथ सरकार बना ली. राजनीति में नैतिकता के पतन का या जनमत के साथ इतना बड़ा धोखा शायद इससे पहले नहीं हुआ था.
परन्तु शायद भारत की खासकर धुर जातिवाद में बंटे बिहार की राजनीति में नैतिकता पर खड़ा रहना और जनमत के साथ धोखा न करना जंगल कानून में समानता का सिद्धांत शामिल करने जैसा है.


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Saturday 28 April 2018

दुनिया में प्रजातन्त्र अंतिम सांसें ले रहा है ?




एकल नेतृत्व से विश्व -शांति खतरे में

समाजशास्त्रीय व राजनीतिक सिद्धांतों के अनुसार समय के साथ समाज अपने को बेहतर ढंग से संगठित करता है, भावनात्मक सोच पर वैज्ञानिक समझ को तरजीह दे कर बेहतर संस्थाएं तैयार करता है. तर्क पर आधारित विकास के सही पैमानों पर जनमत तैयार करता है और व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के साथ समतामूलक समाज बनाते हुए बेहतर जीवन की और बढ़ता है. इसीलिए जंगल राज से जहाँ शक्ति हीं सत्य होता था, हम कबायली संस्कृति से होते हुए, सामंतवादी व्यवस्था और फिर राजशाही और अंत में आज प्रजातंत्र तक पहुंचे, जिसके तहत शासन कौन करे, इसके चुनाव में सैधांतिक रूप से राजा और रंक में भेद मिटा और दोनों की राय से शासन चलने लगा. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में हाल की कुछ घटनाओं से लगने लगा है कि दुनिया में प्रजातंत्र फेल होने लगा है. एकल, गैर-प्रजातान्त्रिक नेतृत्व का वर्चस्व बढ़ रहा है और लगातार प्रजातान्त्रिक अनौपचारिक हीं नहीं औपचारिक संस्थाएं --- जैसे संसद या न्यायपालिका या स्वस्थ और निरपेक्ष जन-विमर्श के धरातल (हैबरमास के शब्दों में स्फिअर्स ऑफ़ पब्लिक डिस्कोर्स) कमजोर पड़ते जा रहे हैं या मात्र ताली बजाने की भूमिका तक महदूद हो गए हैं. हाल के वर्षों में संसद का हफ़्तों न चलना इसकी एक बानगी है. इन संस्थाओं के लगातार सिकुड़ने से आज पृथ्वी पर तीसरे विश्व युद्ध का संकट मंडरा रहा है. जाहिर है कि अगर ऐसा होता है तो यह ७८ साल पहले हुए दूसरे विश्व युद्ध से अलग होगा जिसमें तमाम छोटे बड़े देशों में परोक्ष या प्रत्यक्ष नाभिकीय क्षमता की वजह से दुनिया का बचना मुश्किल होगा.
पिछले १३ अप्रैल को अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बगैर अपने देश की कांग्रेस (संसद) की अनुमति के सेना को सीरिया पर अटैक करने के आदेश दिए. अमरीकी संविधान ने बिना किसी लाग-लपेट के अपने पहले अनुच्छेद () () () में युद्ध घोषित करने की शक्तियां मात्र कांग्रेस (संसद) में निहित की है. राष्ट्रपति सेना के मुख्य कमांडर के रूप में यह आदेश तभी दे सकता है जब संसद उसे पारित कर दे. लेकिन गलती केवल ट्रम्प की हीं नहीं है पिछले ७७ वर्षों में (द्वितीय विश्व युद्ध में राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने जापान पर हमले के पहले अनुमोदन लिया था) किसी भी अमरीकी राष्ट्रपति ने संसद से युद्ध प्रस्ताव पर पूर्व-अनुमोदन नहीं लिया. अगर किसी राष्ट्रपति ने कभी अपनी उदारता दिखाते हुए संसद को सूचित किया भी तो मात्र “सहयोग” के लिए न की “पूर्व-अनुशंसा” के लिए. अमरीकी कांग्रेस पिछले तमाम दशकों में हुए दर्ज़नों हमलों के दौरान एक बार भी अपनी शक्ति (संवैधानिक दायित्व) के लिए तन कर नहीं खडी हुई. निक्सन ने वियतनाम युद्ध में जब इसे नज़रंदाज़ किया तो संसद कुछ हरकत में आयी और एक १९७३ में नियम पारित किया कि अगर आपात जैसे स्थिति हो तो राष्ट्रपति युद्ध शुरू करने के ६० दिन में संसद की अनुशंसा हासिल करे वरना युद्ध ख़त्म करे. उधर अमरीकी राष्ट्रपतियों का कहना है कि संविधान के अनुच्छेद २ ने उन्हें सेना का मुख्य कमांडर बनाते हुए और विदेश नीति और दौत्य सम्बन्ध की जिम्मेदारी देते हुए उन्हें विदेशी जमीन पर अमेरीकी हित की रक्षा में निर्बाध शक्तियां दी हैं. लेकिन हकीकत यह है कि अमरीकी संविधान निर्माताओं ने दोनों के बीच एक संतुलन बनाया था. संविधान जेम्स मेडिसन ने कांग्रेस की शक्तियों की व्याख्या करते हुए थॉमस जेफरसन को एक पत्र में बताया : कार्यपालिका शक्ति का वह संकाय है जो युद्ध में ज्यादा दिलचस्पी रखता है और इसके लिए हमेशा तत्पर रहता है. इसीलिए बहुत अध्ययन के बाद यह शक्ति विधायिका में निहित की गयी है”. संविधान बनने के करीब ६० साल (१८४८ मे) तत्कालीन युवा सांसद अब्राहिम लिंकन ने इस मुद्दे पर अपने विचार देते हुए कहा था : राजाओं ने हमेशा युद्ध में झोंक कर जनता को गरीब किया है और इसे न्यायोचित ठहराने के लिए इसे जनता के हित में बताया है. यही वजह है कि संविधान ने यह शक्ति किसी एक व्यक्ति में निहित नहीं होने दी” . ट्रम्प को जनता का मत इसलिए नहीं मिला था कि उनकी प्रजातान्त्रिक मूल्यों में बेहद आस्था थी बल्कि इसलिए कि वह राष्ट्रवाद की एक नयी परिभाषा गढ़ रहे थे युवाओं को रोजगार दिलाने के और इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ अपने कड़े रुख के कारण.
हाल में रूस में पुतिन की लगातार २० सालों में चौथी जीत पर नज़र डालें. पुतिन ने अपने प्रमुख विरोधी की उम्मेदवारी को ठीक चुनाव के पहले ख़ारिज करवा दिया. चुनाव प्रचार के दौरान उनका एक छोटा भाषण देशवासियों के मन को भाया जब उन्होंने कहा “रूस की नाभिकीय क्षमता दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है पर दुनिया हमें सम्मान नहीं दे रही है. लेकिन अब उन्हें रूस को सम्मान देना पड़ेगा”. जाहिर है यह एक धमकी थी परमाणु युद्ध के दम पर अपनी चौधराहट हासिल करने की. जनता ने इसे भी पसंद किया. आज सीरिया को लेकर पुतिन अमरीका के खिलाफ जंग के लिए कभी भी कदम बढ़ा सकते हैं. और तब विश्व युद्ध को रोकना मुश्किल होगा.
चीन में माओत्से तुंग के बाद पहली बार तमाम अन्य संस्थाओं को ठेंगा दिखाते हुए शी जिनपिंग ने आजीवन पद पर रहने के लिए संविधान बदला. कहीं एक भी प्रदर्शन नहीं हुआ. इसका कारण था विरोध के स्वर को खत्म करना. एक उदाहरण : मानव अधिकार के अलमबरदार और अधिवक्ता यू वेन्शेंग ने राष्ट्रपति जिनपिंग को एक खुला पत्र लिखा जिसमें उन्होंने राष्ट्रपति के अधिनायकवादी शासन की निंदा की और अन्य राजनीतिक सुधार और सही प्रजातंत्र की बहाली की वकालत की. अगले दिन वह अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने के लिए पैदल जा रहे थे कि पुलिस की एक जीप उन्हें उठा कर ले गयी. उनका आज तक पता नहीं चला. एक आवाज भी इसके खिलाफ नहीं उठी और एक आन्दोलन भी एकल नेतृत्व के अधिनायकवाद के खिलाफ आज तक नहीं हुआ. जन-शासन के नाम पर ७८ साल पहले आये साम्यवाद की या यूं कहें कि एक नए तरह के प्रजातंत्र की ऐसी परिणति कि जनता के बीच से “उफ़” की कराह भी न निकले यह सोचने वाली बात है. जनता इस बात से खुश है कि विश्व मानचित्र में चीन का परचम हीं नहीं लहरा रहा है बल्कि उसके समर्थन से उत्तर कोरिया और पाकिस्तान आज दुनिया के लिए ख़तरा बन गए हैं.
टर्की में हिंसा, सरकारी दहशत और विरोधियों पर जुल्म करते हुए अर्दोगन ने फिर चुनाव जीत लिया. इस नेता ने संविधान की ऐसी -तैसी करते हुए न केवल चुनाव जीता बल्कि प्रजातंत्र ख़त्म करते हुए संसद की संस्था और प्रधानमंत्री का पद ख़त्म किया , स्वयं कानून बनाने का अधिकार प्राप्त करते हुए न्यायपालिका पर नियंत्रण का फैसला लिया. यह तानाशाह अब २०३४ तक सत्ता में बना रह सकता है.
चुनाव जीतने के लिए अर्दोगन ने धुर -राष्ट्रवादी पार्टी एम् पी एच तक से हाथ मिलाया. टर्की के इस तानाशाह का कहना था “प्रजातंत्र एक ट्रेन की तरह है जिससे यात्री अपने गंतव्य पर पहुँच कर उतर जाता है और फिर पलट कर देखता भी नहीं “. शायद उसका धुर-राष्ट्रवादियों का साथ लेना ट्रेन से गंतव्य तक पहुँचने की मानिंद था.
समस्या क्या है? शायद जनता अपनी सामूहिक चेतना की गुणवत्ता नहीं बढ़ा पा रही है प्रजातंत्र के बावजूद और धुर -राष्ट्रवाद और राष्ट्र को ताकत के दम पर दुनिया में लोहा मनवाने की भावना के साथ एकल नेतृत्व को स्वीकार कर रही है नतीजतन संसद , न्यायपालिका या अन्य प्रजातान्त्रिक संस्थाएं जो नेता को अधिनायक बनने से रोकती हैं लगभग ख़त्म होती जा रही है. राष्ट्रवाद जरूरी है पर उसके लिए एकल नेतृत्व का विकल्प आज दुनिया को विश्व युद्ध की आग में झोंकने की स्थिति में आता जा रहा है. क्या प्रजातंत्र एकल नेतृत्व के लिए एक ट्रेन बन कर रह जाएगा ?


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Tuesday 17 April 2018

हिंदू : देर हो इससे पहले पुनर्परिभाषित करें


अपनों से हीं लड़ने वाले ये कौन ?


एक हीं दिन अख़बारों में तीन घटनाएँ छपीहाथरस में संजय जाटव और शीतल जाटव अपनी प्रस्तावित शादी का जुलूस कस्बे के ठाकुर बहुल क्षेत्र से ले जाना चाहते हैंठाकुरों की न्यूज़ चैनलों के कैमरे पर धमकी थी कि अगर जुलूस इधर से निकला तो भविष्य में दलितों पर हमले को नहीं रोका जा सकतासकते में आये प्रशासन का कहना है पहले कभी इस इलाके से कोई दलित शादी की बरात ले कर नहीं गया है लिहाज़ा अनुमति नहीं दी जा सकतीसंविधान में अनुच्छेद १९() (में प्रदत्त “भारत में कहीं भी स्वतत्र रूप से घूमने का अधिकार” हर नागरिक को मौलिक अधिकार के रूप में दिया गया है इस अधिकार को राज्य जनहित में केवल “युक्तियुक्त निर्बंध” (रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शनसे हीं बाधित कर सकता हैलिहाज़ा जाटव परिवार ने हाईकोर्ट में गुहार लगाईं हैदूसरी घटना बिहार के नालंदा जिले में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गाँव सिलाव की हैबजरंग दल पहली बार रामनवमी का जूलूस इस गाँव के मुस्लिम आबादी वाले इलाके से ले जाना चाहता थाजुलूस के मुहाने पर पहुँचने पर प्रशासन से झड़प और फिर जबरदस्त हिंसा हुईसंविधान में उन्हें भी वही अधिकार है जो दलितों को ठाकुर मोहल्ले में हैतीसरी खबर थी राजस्थान के करौली जिले के हिन्दुआन कस्बे से जहाँ दलितों ने कहा है कि वे इस्लाम धर्म अपनाएंगे क्योंकि हिंदू धर्म में उनके लिए कोई स्थान नहीं हैइस क्षेत्र में दलित संगठनों द्वारा आहूत भारत बंद के अगले दिन हजारों गैर -दलितों ने वहां के स्थानीय दलित विधायक भाजपा की राजकुमारी जाटव के घर पर हमला कर आगजनी कीउत्तर प्रदेश या बिहार के इस क्षेत्र में हीं नहीं भारत के तमाम भाग में ये बजरंग दल की नयी पैदायश और विस्तार है और इनमें बेरोजगार युवक से लेकर कोचिंग इंस्टिट्यूट के मालिकस्थानीय ट्रेडर्स और राजनीति में जगह तलाशते माध्यम आयु के लोग शामिल हैं.
अगर हाथरस में दलित युवा संजय जाटव और उसकी भावी पत्नी बारात ठाकुर इलाके से निकालने में सफल होते हैं या इस प्रक्रिया में तनाव हिंसा में बदल जाता है तो इन दोनों को किसी मायावती अखिलेश या राहुल गाँधी की पार्टी से टिकेट मिल सकता है और जीत भी हासिल हो सकती हैयाने रातों रात विधायक या सांसदअन्य दलितों के लिए बड़ा लुभान राजनीतिक चारागाहउधर बिहार में रातोंरात बनी बजरंग दल की इकाई के लोग भी जानते हैं कि सत्ता “अपनी” है और “शांति भंग” और “बलवा” की धाराएँ वे डिग्रियाँ हैं जो उन्हें भाजपा का टिकेट दिलाएंगी और सत्ता सुख में हिस्सासत्ता के साथ होने या भविष्य में होने का केवल आभास मात्र हीं इन भावों को बुलंद परवाज बना देता हैराजनीति में बहुमत का शासन होता हैलेकिन बहुमत का मतलब आधे से ज्यादा नहीं बल्कि अन्य से ज्यादा होता हैलिहाज़ा एक नेता या दल अचानक किसी जाति विशेष को आरक्षण दिलाने का वादा करता हैअगर जाति में भी कोई उप जाति है तो उसे अलग से लाभ का विश्वास दिलाता हैअगर नहीं है तो जाति में हीं एक नयी उप-जाति पैदा कर देता है मसलन महादलितअगर पहचान समूह है तो उसे धार्मिक अल्पसंख्यक बनाने का उपक्रम करता है जैसे लिंगायतों को हिन्दुओं से अलग एक नया धर्म समूहयह सब कुछ संविधान के अनुच्छेद १५(और १६ () – पिछड़ों के लिए – या अनुच्छेद २६ से ३० तक धार्मिक अल्पसंख्यकों या उनके समूह को प्रदत्त अधिकारों के नाम परकोई ताज्जुब नहीं कि कल साईं बाबा के अनुयाइयों को अलग धर्म बताना राजनीतिक वर्ग का नया चारागाह बन जायेयह सब क्यों हो रहा हैराजशाही में दंड का भय दिखा कर शोषण हीं नहीं धर्म परिवर्तन किया जाता रहा था तो अब बहुमत बैलट के जरियेचूंकि बहुमत माने आधे से ज्यादा न होकर अन्यों से ज्यादा है इसलिए समाज बांटता जा रहा हैयहाँ तक कि न्याय भी बहुमत से होता है याने तीन बनाम दो से सर्वोच्च न्यायलय भी सत्य का फैसला करता है.
अब ज़रा निष्पक्ष विश्लेषण करेंजब प्रजातंत्र में सत्ता के साथ होने या भविष्य में होने का अहसास देश में इतनी अशांति पैदा कर सकता है तो देश में मुसलमान मात्र कुछ सौ साल तक शासन में थे.इस्लाम का विस्तार किन कारणों से हुआ इसे समझने के लिए आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिएफिर अंग्रेजों ने किस तरह मुसलमानों का भारत को गुलाम बनाये रखने के लिए किस तरह इस्तेमाल किया यह भी समझना मुश्किल नहीं हैबाद में जब आजादी के बाद प्रजातंत्र आया तो धर्म-निरपेक्षता का कैसा स्वरुप बना यह सबने देखाहैदराबाद की गोकुल बेकरी आतंकियों ने बम विस्फोट किया तो शहर का पुलिस आयुक्त इसी “सेक्युलर” मुख्यमंत्री के पास गया और साक्ष्य देते हुए एक मुस्लिम इलाके में छापा मारने की इजाजत चाहीजाहिर था आतंकवादियों को पनाह देने वाले विरोध करते और पुलिस बल प्रयोग भी कर सकती थीलिहाज़ा मुख्यमंत्री ने उसे डांट कर भगा दिया यह कहते हुए कि चुनाव सर पर हैं और इस पुलिस अधिकारी को “धर्म निरपेक्षता “ की समझ नहीं हैगजनी से गोरी तकऔरंगजेब से आदिल शाह तक और लार्ड क्लाइव से लेकर लार्ड माउंटबेटन तक का इतिहास हिन्दुओं के दिमाग में कौंधता रहता हैतर्क-शास्त्र में एक दोष का जिक्र है ---- अपनी बात सिद्ध करने के लिए इतिहास के चुनिन्दा तर्क वाक्यों को हीं लेना और उसे वर्तमान पर चस्पा कर देनायाने अकबर को महान बताते हुए दीन-इलाही से उसकी धर्मनिरपेक्षता साबित करना और यह बताना कि वर्तमान में भी हिन्दुओं को मुसलमान को उसी नज़र से देखा जाना चाहिएयह नहीं बताया जाता कि औरंगजेब ने क्या किया और मुस्लिम शासन में नीचे तक के मुसलमान ओहदेदार हिन्दुओं पर क्या-क्या जुल्म ढाहते रहे और उन्हें जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन करा कर “इस्लाम की सेवा” करते रहेइतिहास की याद सिर्फ भारत के संविधान के “धर्म-निरपेक्ष” तक हीं महदूद नहीं रहती महमूद गजनवी तक भी जाते हैफिर वर्तमान में जब यही हिंदू वाराणसी के संकटमोचन मंदिरधनतेरस के दिन दिल्ली के पहाड़गंज या मुंबई के ताज होटल में जाता है यह समझ कर कि भारत में घूमने या मंदिर में पूजा करने की स्वतंत्रता है तो उसे किसी इस्लामिक आतंकवादी के बम विस्फोट का शिकार होना पड़ता है.
लिहाज़ा वर्तमान में हिन्दुओं का मुसलमानों के खिलाफ आक्रामक होना समझ में आता हैइतिहास गवाह है धर्म के आधार पर बनी समाज की परस्पर विरोधी इकाइयाँ एडजस्टमेंट करती हैं शक्ति दिखाकरलेकिन यह मात्र शक्ति दिखाने तक हीं सीमित होना चाहिएसमाज के तटस्थ लेकिन तार्किक बुद्धिजीवियों को आक्रामकता की सीमा सुनिश्चित करनी चाहिए ताकि सभ्य समाज बनाने की ३००० साल की मेहनत व्यर्थ न जाये और फिर हम आदिम सभ्यता की ओर न चले जाएँमुसलमानों में भी ऐसे वर्ग को धार्मिक कट्टरपंथ को सुधारात्मक आन्दोलन तक जा बदलना होगा.
लेकिन अब जरा तस्वीर का दूसरा पहलू देखियेइन ३००० सालों में दलितों पर अत्याचार हुए इसमें किसी को भी विवाद नहीं हैतो जब कुछ सौ साल के मुसलमान शासन में हिन्दुओं को इतने अत्याचार झेलने पड़े जिसका आज संगठित रूप से प्रतिकार न्यायोचित है तो अगर दलित हजारों साल की प्रताड़ना के प्रतिकार के रूप में एक “भारत बंद “ कर रहा है तो ठाकुर साहेब या पंडित जी की धमकी क्योंआज भी अगर उसे घोड़े पर चढ़ कर ठाकुरों के मुहल्लें से बारात निकालने पर धमकियाँ मिले तो इसे हाथरस जिले में ठाकुर-बनाम -दलित की संज्ञा देना वैसा हीं कुतर्क होगा जैसा अकबर को धर्मनिरपेक्ष मान कर आज के मुसलमानों में भी धार्मिक कट्टरता न होने की बात कहनाक्या वैसा हीं उग्र प्रतिकार दलितों को नहीं करना चाहिए जैसे हिंदू किसी अख़लाक़ या किसी पहलू खान या किसी जुनैद को मार कर कर रहा हैक्यों न दलित समूह आज किसी ठाकुर ब्राह्मण को “बाबा साहेब की जय “ न बोलने पर गैर -हिंदू करार देदरअसल उच्च वर्ग का दलितों के प्रति आज भी बरकरार दुराग्रह हिंदू धर्म का कोढ़ है जिसे तार्किक बुद्धिजीवियों को आन्दोलन के रूप में खड़ा करना होगाअगर किसी दलित आई ए एस के बेटे को किसी गरीब ब्राह्मण के बेटे से कम नंबर मिलने पर भी आरक्षण के कारण आई ए एस बनाया जाता है तो समाज की वही तर्क चलेगा जो मुसलमानों के खिलाफ आज हिन्दुओं का है ---- जाति के आधार पर खडी समाज की इकाइयाँ एडजस्टमेंट कर रही हैऔर जहाँ तक उच्च जाति का यह दावा कि आरक्षण का लाभ किसी दलित आई ए एस के बेटे को न दे कर किसी गरीब दलित बेटे को मिले यह मांग दलित वर्ग से आनी चाहिएउच्च जाति के लोग केवल दलितों की इस मांग के साथ खड़े हो सकते हैं और वह भी तब जब दलितों की बारात अपने मोहल्ले से ख़ुशी से निकलने देंहिंदू धर्म में (या जीवन पद्धति में सोच के स्तर पर उसी सुधार की ज़रुरत है जो मुसलमानों को सही इस्लाम को समझने के लिए सुधारात्मक आन्दोलन की है.