सहीं
प्रतिमान न बनाने के पीछे अंग्रजों की साजिश, राजनीति और बाज़ार
इतिहासकार बी डी पाण्डेय ने
राज्य सभा के पटल पर २९, जुलाई, १९७७ को कुछ चौंकाने वाले तथ्य रखे. उन्होंने
बताया कि मैसूर के शासक टीपू सुलतान के बारे में उत्तर भारत के सात राज्यों में
बच्चों के पाठ्यक्रमों में एक पाठ है जिसमें गलत तथ्य पढ़ाया जा रहा है. पाठ के
अनुसार मैसूर के ३००० ब्राह्मणों ने आत्म-हत्या कर ली क्योंकि शासक टीपू सुल्तान
की तरफ से दबाव डाला जा रहा था कि वे इस्लाम धर्म अख्तियार करें. पाण्डेय ने बताया
कि जब उन्होंने छान-बीन की तो पाया कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था बल्कि इसके उल्टा
टीपू १५६ मंदिरों के रखरखाव के लिए शाही-खजाने से हर माह रकम देता था, उसके
सम्बन्ध तत्कालीन जगद्गुरु शंकराचार्य से बेहद मधुर थे और उसके राज्य के
प्रधानमंत्री पुन्नैया और सेनापति कृष्णा राव ब्राह्मण थे. इस चौंकाने वाले तथ्य
के बावजूद ना तो तत्कालीन सत्ताधारी जनसंघ ने, ना हीं विपक्षी कांग्रेस ने कोई
मांग की कि इन हकीकत का पता लगाया जाये और बच्चों को सही तस्वीर दी जाये. तबसे
लेकर आज तक ३८ साल बीत चुके हैं. कांग्रेस, वामपंथी दल, तीसरा मोर्चा, भारतीय जनता पार्टी (जनसंघ का नया अवतार) कई
बार शासन में आ चुके हैं लेकिन किसी ने तथ्यों को पता करने की ज़रुरत नहीं समझी.
लेकिन अचानक टीपू को लेकर देश के दोनों राष्ट्रीय दलों में इस शासक के मरने के २१६
साल बाद तलवारें खिंच गयी हैं. शायद राजनीति में हकीकत या वैज्ञानिक सोच से ज्यादा
भावना मदद करती है.
पाण्डेय जो कि
इतिहासकार-प्रोफेसर होने के अलावा सांसद और ओड़िसा के राज्यपाल भी रह चुके थे सदन
में बताया कि जब उन्होंने बच्चों के पाठ्यक्रम में देखा कि टीपू को ३००० ब्राह्मणों
की आत्महत्या का कारण बताया जा रहा है तो उन्होंने उस लेख के लेखक का पता जाना.
लेखक थे कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष, महामहोपाध्याय
हर प्रसाद शास्त्री. प्रोफेसर पाण्डेय ने मैसूर विश्वविद्यालय के इतिहास के
विभागाध्यक्ष और जाने-माने इतिहासकार प्रोफेसर श्रीकान्तिया को पत्र लिख कर तथ्य
जानना चाहा. श्रीकान्तिया का जवाब था “समूचे मैसूर गजेटियर में कहीं भी इस घटना का
उल्लेख नहीं है कि टीपू के दबाव के चलते हजारों ब्राह्मणों ने आत्महत्या की”.
उन्होंने यह भी लिखा कि “इतिहास के विद्यार्थी के रूप में उनकी व्यक्तिगत जानकारी
भी है कि ऐसे कोई घटना नहीं हुई थी”. इसके बाद प्रोफेसर पाण्डेय ने पाठ के लेखक हर
प्रसाद शास्त्री को पत्र लिख कर पूछा कि इस तथ्य का सोर्स क्या है. पत्र का जवाब
नहीं आया. दोबारा एक पत्र भेजा गया लेकिन फिर भी कोई जवाब नहीं. तब प्रो. पाण्डेय
ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर आशुतोष मुख़र्जी को पत्र लिख कर इस
गलती के ओर ध्यान दिलाया. और तब जा कर सात राज्यों –उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य
प्रदेश, ओडिसा, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और असम में पाठ्यक्रम से यह लेख हटाया गया.
प्रोफेसर पाण्डेय ने
राज्य-सभा को यह भी बताया कि कुछ साल बाद उन्हें पता चला कि यह लेख फिर से उत्तर
प्रदेश में कक्षा सात के पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया है.
प्रतिमान बनाने की दूषित
प्रक्रिया
----------------------------------------
प्रतिमान बनाना
(आइकॉन-बिल्डिंग प्रोसेस) हर समाज के लिए अपरिहार्य, बेहद पवित्र और सबसे
औचित्यपूर्ण प्रक्रिया है. प्रतिमान हमें उस समय मदद करता है जब समाज फिसलने लगता
है मानवीय बुराइयों के कारण या बाजारू या अन्य ताकतों के दबाव में. तब ये प्रतिमान
खूंटे की तरह काम करते हैं और समाज इन्हें पकड़ कर उस फिसलन से अपने को बचाता है.
राम, कृष्ण, नानक, शिवाजी, राणाप्रताप, गाँधी, भगत सिंह , अशफाकुल्लाह खान, नेहरू
और कलाम हमारे आइकॉन बने.
लेकिन भारत में हमने पिछले
दो सौ साल से कुछ गलत आइकॉन बनाने का धंधा भी शुरू किया. इसके तीन मुख्य कारण हैं.
पहला अंग्रेजों ने “राज” सुनिश्चित करने के लिए करीब १०० साल से ज्यादा गलत तथ्य
पेश किये या सही तथ्य छुपाये. लिहाज़ा हम अपने प्रतिमानों का सही आंकलन नहीं कर
पाए. दूसरा: आज हम राजनीति की वजह से गलत प्रतिमान खड़े कर रहे हैं. कोई “बापू” के
हत्यारे नाथूराम गोडसे का मंदिर बनवा रहा है तो किसी सत्ताधारी दल को कर्णाटक में
अचानक टीपू सुल्तान के जन्म-दिवस की याद आयी. कई बार यह भी कोशिश हो रही है है कि
दूसरे के प्रतिमानों को अपना बना कर पेश करो याने “प्रतिमानों की चोरी”. तीसरा और
सबसे खतरनाक है बाजारू ताकतों का जन-संचार माध्यमों का इस्तेमाल कर त्रुटिपूर्ण
प्रतिमान बनाना या सही प्रतिमानों को दबाना. टीवी के मनोरंजन कार्यक्रम के किसी
डांस शो का १३ वर्षीय युवा किशोरों के लिए आइकॉन बन जाता है पर एक रिक्शा चालक का
बेटा (या बेटी) जो यो पी बोर्ड में टॉप करता है या आई आई टी की परीक्षा में (बगैर
किसी महंगी कोचिंग के) शीर्ष के १०० बच्चों में होता है वह हमारे नौनिहालों का
प्रतिमान नहीं बन पाता. बाज़ार यह समझता है कि समाज अगर गंभीर चिंतन करेगा तो १०
रुपये किलो का आलू ब्रांडेड चिप्स के नाम पर ५०० रुपये किलो दे कर नहीं खरीदेगा
इसलिए समाज का आइकॉन डांस करने वाले को तो बनाओ पर रिक्शा चालक के बोर्ड टापर
बच्चे को नहीं.
अंग्रेजों की साजिश के कुछ
नमूने. भारत में आधुनिक शिक्षा के जनक लार्ड मैकाले के साथ हीं एक साजिश शुरू होती
है युवाओं में बौद्धिक स्तर पर एक खास किस्म की “परजीवी” मानसिकता लेन की जिसे
१८५७ के ग़दर के बाद हिन्दू-मुसलामन विभेद की रूप में विकसित किया गया. इसके लिए
इतिहास लेखन में तथ्यों को या तो छुपाया गया गलत तथ्य दिए गए.
ब्रिटेन का तत्कालीन विदेश
मंत्री वुड भारत के गवर्नर जनरल एल्गिन को १९६२ में लिखता है, “भारत में हम अपनी
प्रभुता मात्र इसलिए बनाये रहे कि हमने दो सम्प्रदायों को एक-दूसरे के खिलाफ करने
में सफलता हासिल की. आप इसे आगे बढाने के लिए जो भी संभव हो करते रहें ताकि दोनों
इकठ्ठा न हो सकें.”
इसके बाद २६ मई, १८८६ को
विदेशमंत्री हैमिलटन भारत में लार्ड कर्ज़न को लिखता है “पश्चिमी शिक्षा उदारवाद और
स्वतंत्र चिंतन को जन्म देती है. यह खतरनाक है. अगर हिंदुस्तान में हमें अपना शासन
बनाये रखना है तो शिक्षण पाठ्यक्रमों में ऐसे तत्व डाले जाये जो दोनों सम्प्रदायों
के बीच की खाई को बाधा सकें”. एक साल के अन्दर हीं १४ जनवरी, १८८७ को विदेश मंत्री क्रोस का पत्र
डफरिन को आता है और पाठ्यक्रमों में बदलाव से दोनों के बीच खाइयाँ बढ़ी हैं और यह
हमारे हित में है. हमें अच्छे परिणाम की उम्मीद है”.
कर्णाटक की कांग्रेस सरकार
को टीपू सुल्तान को आइकॉन बनाने की याद इस शासक के मरने के २१६ साल बाद आयी. लेकिन
इसी कांग्रेस के शासन काल में दशकों तक उत्तर भारत के आधा दर्ज़न से अधिक राज्यों
में बच्चों के पाठ्यक्रमों में बताया जाता रहा कि मैसूर में इस शासक के हिन्दुओं
के धर्म-परिवर्तन के लिए दबाव के कारण ३००० ब्राह्मणों ने आत्महत्या की. यह तथ्य
आजतक ना तो किसी ने जांच करने की कोशिश की कि हकीकत क्या थी. हिन्दुओं के उग्र भाव
को कुरेदने के लिए विश्व हिन्दू परिषद् इसका विरोध करने के लिए कर्णाटक बंद करा
रहा है और एक अन्य संगठन नाथू राम गोदे का मंदिर तो “धर्म-निर्पेक्ष” वर्ग इसे
स्वतंत्रतता की दुहाई दे रहा है.
lokmat