Sunday 2 July 2017

कभी हम सरकार के ही नहीं अपने गरेबां में झांकें !


गोमांस तलाशने की जगह फर्जी टीचर तलाशें
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उत्तर प्रदेश में इस नए सत्र से प्राइमरी और बेसिक स्कूलों में बच्चों को अपने अध्यापकों का फोटो नोटिस बोर्ड पर चस्पा मिलेगा ताकि हमारे नौनिहाल जान सके कि उन्हें असली टीचर पढ़ा रहा है कि नकली. याने बच्चे प्रार्थना करने के पहले कह सकेंगे “ यही है वो शख्श” ! सार्वजनिक स्थलों, थानों या रेलवे स्टेशनों में शातिर अपराधियों का चित्र लगा रहता है. दरअसल प्रदेश सरकार को यह कदम इस जानकारी के बाद उठाना पड़ा कि बड़े पैमाने पर शिक्षक स्कूल नहीं आते और अपनी जगह सस्ते में किराये पर शिक्षित बेरोजगारों को मात्र ५००० से ६००० रुपये माहवारी पर रख लेते हैं. अटेंडेंस रजिस्टर पर फर्जी दस्तखत होते हैं और मूल तन्खवाह जो आम तौर पर ३०,००० से ४०,००० रुपये प्रति माह होती है असली टीचर के खाते में चली जाती है. यह असली टीचर अन्यत्र रह कर अन्य धंधों में लिप्त रहता है और हेडमास्टर के पास एक पहले से हीं दस्तखत किया गया छुट्टी प्रार्थना पत्र रखा रहता है जिसे किसी अधिकारी के आने पर दिखा दिया जाता है.

ज़रा सोचिये!  क्या यह रात के अँधेरे में चोरी है? क्या यह रात में सड़क पर की गयी राहजनी है? क्या यह किसी अफसर द्वारा किया गया विकास के पैसे का “फर्जी काम दिखाकर” गोलमाल है? यह तो आपके सामने, आपके बच्चे के साथ खुले-आम बौद्धिक और मानसिक लूट है जिसे हम रोज घटित होते देखते हैं. यह बहाना भी गलत है कि “सब मिले हुए हैं”. फर्जी शिक्षक को उसी समय पकड़ा जा सकता है क्योंकि यह प्रारंम्भिक तौर पर आपराधिक कृत्य (इम्पर्सोनेशन) का मामला है.

ऐसा नहीं कि हम व्यक्तिगत रूप से चिर-उनीदेपन से रुग्ण हैं या हमारी सामूहिक चेतना विलुप्त हो गयी है या हमारी सामाजिक सक्रियता नपुंसक हो गयी है. अगर हम वर्तमान राजनीतिक बदलाव के मद्देनज़र  सशक्तिकरण की झूठी चेतना से उत्प्रेरित भावातिरेक में बगैर किसी कानूनी अधिकार के किसी अखलाक के घर में गाय का मांस तलाशने झुण्ड में निकल पढ़ते हैं और खुद के बनाये तस्दीक के तरीके से मुतमईन हो कर अखलाक को पीट-पीट कर मार देते हैं तो हम “चिर-उनीदेपन” के शिकार तो नहीं हैं.हम इसी भाव में राजस्थान के अलवर में किसी व्यापारी पहलू खान के वैध कागजों को नकारते हुए उसे सरे राह पीट-पीट कर मार देते हैं तो हम “निष्क्रिय" तो नहीं हीं हैं और अगर कभी थे भी तो अब तो हम गर्व से कह सकते हैं कि “हम जाग गये हैं" फिर भारत की आबादी की यह बड़ा वर्ग उस समय कहाँ सो जाता है जब उसी के लिए , उसी की चुनी सरकार द्वारा और उसके विकास के लिए बनाई जा रही सड़क पर खराब बजरी और घटिया सीमेंट डाली जाती है. अध्यापक तो उसके बच्चों का भविष्य बनाता –बिगड़ता है. किसी भी अखलाक, पहलू खान या जुनैद के किसी भी तथाकथित अपराध से बड़ा अपराध तो वह शिक्षक कर रहा है है जो ४०,००० रुपये की पगार के बाद भी आपके बच्चों को पढ़ने की जगह ५००० रुपये का शिक्षित बेरोजगार रख कर स्वयं दूसरे धंधे में लग जाता है. हो सकता है इन भ्रष्ट शिक्षकों में कुछ का हाथ पहलू खान के गले तक जाता हो और हम इस बात पर खुश हों कि गौ माता की रक्षा करने वाले हमारे अपने हैं.              
  
गौर से सोचिये, भ्रष्टाचार के इन बेख़ौफ़ प्रतिमानों को ख़त्म करना, जो हमारी पीढ़ियाँ बर्बाद कर रहे हैं, क्या केवल सरकार का हीं काम है? क्या उस स्कूल के अन्य शिक्षकों को यह बात नहीं मालूम कि मूल शिक्षक सालों से गायाब है? क्या हेडमास्टर इससे गाफिल है? क्या गाँव या मोहल्ले के लोगों को जिनके बच्चे इस पाठशाला में भविष्य बनाने गए हैं यह पता नहीं करना चाहिए कि असली टीचर कौन है? अगर चोर-सिपाही का खेल इतना खुला हो जाये कि सरकार को अपराधियों की तरह टीचर का भी फोटो लगाना पड़े तो हमें सोचना पडेगा कि हम कहाँ तक गिर गए हैं. भ्रष्टाचार को हमने आत्मसात कर लिया है. हम या तो इसके भागीदार हैं या इसके प्रति संवेदन –शून्य. यह हमें झकझोरता नहीं. “कमसे कम, नकली हीं सही, टीचर आता तो हैं, बगल वाले गाँव में तो वह भी नहीं आता” के “कोऊ नृप होहीं , हमें का हानी” के भाव में हम “शाश्वत उन्नीदेपन” की आगोश में चले जाते हैं.      
  
उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ के तमाम प्राइमरी और मिडिल स्कूलों में यह आम बात है. अगर अध्यापक किसी मंत्री का, स्थानीय नेता का या बड़े अपराधी का रिश्तेदार है तो वह वर्षों अंतर्ध्यान रह कर मोटी तन्खवाह लेता रह सकता है और साथ हीं हर साल उसपर मिलने वाली वेतन वृद्धि के लिए आन्दोलन भी कर सकता है. हेडमास्टर इस लिए नहीं बोलता क्योंकि उसे भी शिक्षा के मद में आये तमाम फंडों को उदरस्थ करना होता है. कमजोर शिक्षक इतनी हीं बात पर संतोष कर लेता है कि गाह-ए-बगाहे उसे भी “गायब होने” का अवसर दे दिया जाता है. यही वजह है कि गरीबों का एक बड़ा वर्ग भी खेत बेंच कर अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में महंगे खर्च पर भर्ती करा रहा है. लेकिन सामूहिक रूप से इस सर्वविदित और सर्वव्याप्त भ्रष्टाचार पर कभी भी कोई सामूहिक आवाज नहीं उठी.

शायद किसी सभ्य समाज के लिए यह क्रांति का सबब बन सकता है कि असली टीचर की पहचान के लिए सरकार को अपराधियों की तरह उसकी फोटो लगानी पड़ रही है. हम उस मकाम पर खड़े हैं जहाँ अपराधी तो छोडिये एक सरकारी टीचर भी सरे-आम, एक दिन नहीं, दो दिन नहीं महीनों और सालों तक
पूरे समाज को मुंह चिढाता धोखा देता रहता है और वह भी पैसे का धोखा नहीं हमारी नस्ल बिगाडने का लेकिन हम हैं कि इससे उद्वेलित होने की जगह वन्दे मातरम न कहने वालों को पाकिस्तान भेजने के लिए कमर कसे हुए हैं बगैर यह समझे हुए कि एवजी टीचर पूरा राष्ट्रगीत “वन्दे मातरम” भी हमारे बच्चे को सही नहीं सिखा सकता.

lokmat