पिछले
दिनों में दिल्ली में लगातार 48
घंटों में ढाई साल और पांच साल के बच्चियों से बलात्कार और
एक अन्य केस में बलात्कार के बाद पाशविक
रूप से हत्या के मामले आये. इसके ठीक बगल
के हरियाणा राज्य के समृद्ध फरीदाबाद में दलितों के घर हमला कर दो मासूम बच्चों को
जिन्दा जलाया गया सवर्णों द्वारा. दिल्ली या हरियाणा में प्रति-व्यक्ति आय, शिक्षा का स्तर और मानव
विकास विकास के लगभग सभी तीनों पैमाने तमाम अन्य राज्यों से काफी बेहतर हैं.
दिल्ली में पुलिस-आबादी अनुपात भी राष्ट्रीय औसत से ढाई गुना ज्यादा है. दिल्ली
१२७ करोड़ आबादी और ३२ लाख वर्ग किलोमीटर के विस्तार वाले देश की राजधानी भी है
जहाँ सत्ता के केंद्र बिंदु पर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी होते है , संसद
और सर्वोच्च न्यायलय भी. फिर मानवीय संवेदनाओं को
झकझोरती ये घटनाएँ क्यों? अगर विकास का पाशविकता से प्रलोमानुपाती रिश्ता नहीं तो
हम विकास करते हीं क्यों हैं, क्यों बच्चे भारी बस्ता लादे रोज सुबह स्कूल जाते
हैं और उन्हीं में से एक कंडक्टर, ड्राइवर या किसी बहशी शिक्षक की हवस या सनक का
शिकार हो जाता है या जाती है? क्यों मध्य प्रदेश के आई ए एस दंपत्ति भष्टाचार में
जेल बंद होते हैं. उन दोनों ने तो समाजशास्त्र में अपराध की मानसिकता का मूल कारण,
गीता का निष्काम कर्म, आइन्स्टीन का जटिल
सापेक्षतावाद का सिद्धांत और बौध धर्म का क्षणभंगुरवाद भी पढ़ रखा था.
१९ वीं सदी में वर्तमान मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़
के अधिकारी रहे कर्नल स्लीमन अपनी डायरी, जिसे प्रख्यात जर्मन भारतविद मैक्स
म्युलर ने भी शतप्रति शत सही माना, में कई घटनाओं पर आधारित जनजाति जीवन का बयान
करते हुए कहते हैं “ ये आदिवासी अपनी पंचायतों में सत्य के प्रति इतनी अटूट
श्रद्धा रखते है कि अगर किसी मामले में इन्हें मालूम हो कि झूठ बोल कर ये बच सकते
हैं और सच कहने पर इनकी सम्पत्ति छिनी जा सकती है, इन्हें गाँव से निकाला जा सकता
है और यहाँ तक कई बार जान जा सकती है तो भी ये सच बोलते हैं” . तो फिर आई ए एस
जोशी दम्पति, यादव सिंह, ए राजा या सत्ता में बैठे तमाम नामी लोग क्यों सत्य का
साथ छोड़ देते हैं ? क्या उन आदिवासियों से सीखने की ज़रुरत नहीं है और क्या सुप्रीम
कोर्ट को आदिवासियों की पंचायत ऐसी संस्था की न्यायप्रणाली से सीखना नहीं करना
चाहिए ?.
एक अन्य पहलू लें. झारखण्ड में हर तीसरे दिन
मनोविकार से पीड़ित महिला को डायन यह कह कर मार दिया जाता है कि डायन है और पूरे
गाँव को खाने आयी है तो यह समझ में आता है कि उस गाँव के लोग बीमार है, अज्ञानी है
और अभी वैज्ञानिक सोच विकसित नहीं हुई है. पर जब कोई बाबा अपने सॉफ्टवेयर इंजिनियर
भक्त के कष्ट दूर करने के लिए या प्रमोशन के लिए उसे पीले कपडे में काला चना सफ़ेद
कुत्ते को गुरुवार को खिलाने को कहता है और वह ईश्वर आदेश के रूप में इसे ग्रहण कर
यह सब कुछ करने लगता है तब लगता है कि यह बाबा उससे किसी मुद्दे पर किसी के खिलाफ
कुछ भी करवा सकता है. और तबी समझ में आता है कि क्यों इस दुनिया में तीन करोड़ तीस
लाख कानून के रहते हुए भी हत्याएं और बलात्कार बढ़ते जा रहे हैं.
एक और पहलू देखें. कहते हैं सभ्यता और अराजकता
के बीच महज पांच वक़्त के भोजन का फासला है. याने हजारों साल की तथाकथित सभ्यता और
संस्कृति चिन्दियों में बिखर जायेगी और लोग एक दूसरे को मारने लग जाएँगे अगर उन्हे
दो दिन खाना न मिले. लेकिन यह समझ में आता है क्योंकि भूख का जीव के जीवन से सीधा
रिश्ता है. पर धर्म के नाम पर आज २५०० साल के सभ्यता और संस्कृति के बाद भी
हत्याएं होती हैं तो यह समझ में नहीं आता कि समस्या कहाँ है. हमें बताया गया है कि
हर धर्म और हर ईश्वर अच्छी बात सिखाता है, हिंसा वर्जित करता है आदमी को मारना तो
दूर जीव पर भी हिंसा मना करता है और कई तो
मानस हिंसा भी प्रतिषिद्ध करते हैं. फिर अगर किसी की भावना गाय को लेकर है तो कोई
गौ- हत्या क्यों करता है ? और जब वह करता है या उसके द्वारा ऐसा किये जाने का
संदेह होता है तो उसे मार क्यों दिया जाता है ? क्या २५०० साल कम होते हैं इस
हिंसा से बचने के लिए ? अगर इन ढाई हज़ार साल में जंगल से “मंगल” (ग्रह) तक पहुँचा
जा सकता हैं, खानाबदोशी व “झूम” की खेती से वैश्विक अर्थव्यवस्था की जटिलता तक की
समझ विकसित की जा सकती है, महामारी, बाढ़ और बड़ी-बड़ी प्राक्रितिक आपदाओं पर अंकुश
लगाया जा सकता है तो तो फिर “मलाला” को गोली क्यों मारी जाती है, मुंबई में ताज़
होटल पर हमला क्यों होता है, आई एस आई एस क्यों पनपता है और कैसे जन-समर्थन के नाम
पर एक पायलट को जला देता है? अख़लाक़ क्यों मरता है?
शायद समाज बीमार है. और यह बीमारी खत्म नहीं
होती बस इसके प्रकार बदल जाते हैं. अगर छह माह
की उस दलित बच्ची में जो फरीदाबाद में जला कर मार दी गयी, समझने या बोलने
की शक्ति होती या जलाये गए पायलट से जिन्दा करके पूछा जाये तो वे यही कहेंगे कि प्रजातंत्र,
शिक्षा, सामाजिक मान्यता ये सब चोंचले हैं. जब केंट्रीय सिविल सर्विसेज की परीक्षा
का टॉपर आई ए एस बनने की बाद घूस लेते पकड़ा जाता है तो वह भी कहीं बीमार हीं होता
है. शिक्षा या इंटेलिजेंस उसे इस बीमारी से नहीं बचा पाई है. अमरीका ऐसे “सभ्य”
देश में कोई वहशी स्कूली बच्चों को फायरिंग करके मार देता है तो पाकिस्तान में
आतंकवादी धर्म के नाम पर आर्मी स्कूल में.
क्या आज यह ज़रूरी नहीं हो गया है कि हमारा सारा
ध्यान ऐसे प्रयास में लगे कि ना तो व्यक्ति तांत्रिक के रूप में पागल बने ना हीं
समूह आतंकी के रूप में बीमार हो. क्या ऐसी संस्थाएं और सोच विकसित नहीं की जा सकती
हैं जो बचपने से हीं व्यक्ति को बेहतर और शालीन नागरिक बनाये. प्रश्न यह नहीं है
कि विचार वैभिन्य न हो, प्रश्न यह है कि विचार की विभिन्नता बन्दूक की गोलियों में
या सर काटने के बहशीपन में क्यों तब्दील हो ? क्यों इस बात की जिद्द हो कि जो हम
या हमारा भगवान कहता है (ऐसा वह मानता है) वही अंतिम सत्य है और बाकी सब कुछ खिलाफ
है और उसे ख़त्म करना उस ईश्वर का इबादत है.
विश्व के एक प्रमुख समाजशास्त्री रोबर्ट पुटनम
की अपनी रिसर्च और तत्संबंधित बहुचर्चित पुस्तक “बोलिंग अलोन” के अनुसार समाज में
आर्थिक समृद्धि चाहे कितनी हीं बढ़ जाये अगर उस समाज में “सामाजिक पूँजी” घटने लगे तो समाज स्वस्थ नहीं
रहता और उसका कुल “आत्मतोष” कम होने लगता है. अर्थात नॉएडा का एक चीफ इंजिनियर सारे भष्टाचार करते हुए भी हजारों करोड कमा सकता
है और कोई समाजवादी पार्टी की उत्तर प्रदेश सरकार उसे बचाने के लिए (सुप्रीम कोर्ट
में हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील) कर सकती है पर जहाँ तक मूल आत्मतोष का सवाल
है वह न तो यादव सिंह की बढ़ेगी ना हीं अख़लाक़ को मारने वालों की. हाँ कुछ काल के
लिए कोई संगीत सोम या कोई ओवैसी अपनी दुकान चमका सकता है.
आज ज़रूरी यह है कि नैतिक मूल्य, वैज्ञानिक सोच
और सही तर्क शक्ति की शिक्षा और ट्रेनिंग न केवल स्कूलों में शिक्षा का मूल आधार
हो बल्कि माँ की गोद में लोरी वापस आये और उससे हीं यह शिक्षा और ट्रेनिंग शुरू हो
अन्यथा दुनिया में जी डी पी (सकल घरेलू उत्पाद) बढ़ता रहेगा और साथ हीं बलात्कार और
हत्याएं भी. अख़लाक़ मरता रहेगा और आई ए एस जोशी दंपत्ति या ए राजा पैदा होते रहेंगे
और व्यक्ति का सकल संतोष (हम इसे एस एस कह सकते हैं) जी डी पी के प्रतिलोमानुपति
बना रहेगा.
lokmat