Saturday 15 April 2017

मीडिया की जड़ता: क्या ऐसे बनेगा “नया” भारत?



पिछले सप्ताह एक अजीब घटना हुई. उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में जंगलों से सटे हाईवे पर एक १०-वर्षीय लडकी लगभग नीम-बेहोशी की हालत में पाई गयी. पुलिस गश्ती दल को इस बात की सूचना किसी राहगीर ने दी. और पुलिस ने उसे उठा कर पास के अस्पताल में भर्ती कराया. गैर-ज़िम्मेदार मीडिया ने फ़ौरन “एक्सक्लूसिव” खबर चलायी कि यह लडकी जंगलों में बंदरों द्वारा पाली गयी, इसके शरीर पर कपडे नहीं थी और यह बंदरों की तरह चार अंगों (दो हाथ और दो पैर ) पर चलती है और खाना (तरल) भी दिया जा रहा है तो बंदरों की तरह सीधे मुंह बर्तन में लगा कर पी रही है. मीडिया की इस खबर की बाद अगले २४ घंटों में कल्पना के पर लग जाती हैं और दूसरी खबर आती है कि वह वन देवी है. बस फिर क्या था चढ़ावा और पूजा का  समान ले कर सैकड़ों  श्रद्धालु इस देवी के दर्शन को इकठ्ठे हो जाते हैं. देश में गरीब सबसे से ज्यादा भक्त होता है लिहाज़ा आस-पास के गाँव  के लोग अपने खलिहान में गेंहू की व्यवस्था “बड़े ईश्वर” पर छोड़ कर वन देवी की अर्चना में  व्यस्त हो जाते हैं.
तीन दिन बाद जिस पुलिस गश्ती दल के सिपाही ने इस लडकी को जंगले से सटे हाईवे से उठाकर पास के अस्पताल में भर्ती कराया था उसने इस ख़बर को पढ़ा और पब्लिक में आकर बताया कि इस लडकी को जब उसने देखा तो उसके  शरीर पर कपडे भी थे और वह हाँ और ना में कुछ बोल भी रही थी. वह बेहद कमज़ोर हो गयी थी. इस खुलासे की बाद राज खुला कि वह मानसिक रूप से पूर्ण विकसित नहीं थी और शायद घर वालों ने उसे पालने की जहमत न उठाते हुए सड़क पर भगवान भरोसे छोड़ दिया था.

जरा गैर कीजिये मीडिया का गैर-प्रोफेशनल व्यवहार. किसी एडिटर ने अपने रिपोर्टर से पहली खबर देने से पहले यह नहीं पूछा कि जिसने सबसे पहले उस लडकी को देखा था याने पुलिस कर्मी उससे हकीकत पता करे. एडिटर को मात्र इस बात में दिलचस्पी थी कि हैडिंग में लिखा जाये “मोगली गर्ल जिसे बंदरों ने पाला”.
डेस्क की बुलन्द्परवाजी (कल्पनाशीलता) का यह आलम था कि सभी लोकल अख़बारों और चैनलों ने यह बताना शुरू किया कि बंदरों में कितनी दया होती है और वे कितने “मानवीय” होते हैं कि जंगल में भी उस बच्ची के भरण-पोषण का इन्तेजाम इतने सालों  से करते रहे हैं.  यह है भारतीय मीडिया. 
  
किसी भी समाज में बदलाव की  दो मूल शर्तें होती हैं. एक: वह बेहतरी के लिए हो और दो: वह बुद्धि-सम्मत हो. भारत में हाल के आंकड़े जो संयुक्त राष्ट्र संघ ने या अन्य विश्वसनीय संस्थाओं ने  जारी किये हैं चीख-चीख कर बताते हैं कि भ्रष्टाचार, भूख सूचाकांक, खुशहाली सूचकांक या मानव विकास सूचकांक में भारत पिछले २७ सालों में या तो वहीं का वहीं है या नीचे गिरा है. यहाँ तक कि गरीब-अमीर के बीच खाई लगातार बढ़ती जा रही और आज देश के मात्र एक प्रतिशत अभिजात्य वर्ग के पास देश की  कुल संपत्ति का ५८.६ प्रतिशत सिमट गया है जो कि सन २००० में ३७ प्रतिशत हुआ करता था.  लेकिन क्या कभी आपने इन मुद्दों पर लोगों को  सड़क पर आते देखा है? क्या कभी सत्ता में बैठे लोगों को इन मुद्दों पर किसी भी प्रकार के जन-आन्दोलन का सामना करना पड़ा है? इस देश में पिछले २७ सालों से हर ३७ मिनट पर एक किसान आत्महत्या करता रहा है और प्रतिदिन २०५२ किसान खेती छोड़ कर श्रमिक बन कर बड़े शहरों में रिक्शा चलने को मजबूर हो रहा है. लेकिन क्या कभी टी वी स्टूडियो में ये मुद्दे चर्चा का सबब बन पाए हैं? अशिक्षित, गैर-प्रोफेशनल और गैर-जिम्मेदाराना मीडिया भी भावनात्मक मुद्दों को हवा देने में ज्यादा दिलचस्पी रखता है बजाय जनता को असली मुद्दों पर शिक्षित करने या मुद्दों पर जनमत बनाने के़़। 

जी हाँ? हम उत्सव धर्मी हैं और मुद्दे तलाशना हमारा शगल है. यही वजह है कि हम गौ-मांस, वन्दे मातरम का अपमान और राष्ट्रभक्ति की नयी परिभाषा और प्रतिमान गढ़ने लगे हैं. दिल्ली से सटे नॉएडा में घर में घुस कर जो हाथ अखलाक को मार देते हैं वे कभी भी इस बात के खिलाफ नारे नहीं लगाते कि कैसे एक अधिकारी इंजिनियर की संपती दो  हज़ार करोड रुपये की हो जाती है. वे हाथ अलवर में गाय का व्यापर करने वाले ५५ वर्षीय पहलू खान को सरे राह पीट-पीट कर मार देते हैं लेकिन कभी यह नहीं देखते कि बगल के किसान का अनाज सरकारी खरीद केन्द्रों पर नहीं लिया जाता जबकि आढ़ती उन्हीं से सस्ते  दाम पर वही अनाज लेकर उसी क्रय केन्द्रों  के भ्रष्ट लोगों  को बेंच देते है और मुनाफे का हिस्सा बाँट लिया जाता है.

मोदी सरकार ने नयी फसल बीमा योजना शुरू की. यह एक बेहद उपादेय योजना है जिसमें पिछली तीन योजनाओं की खामियों को लगभग पूरी तरह दूर  कर दिया गया है. लेकिन आजतक किसी भी न्यूज़ चैनल ने इसे डिस्कशन  का मुद्दा बना  कर जन-विमर्श के धरातल पर नहीं रखा लेकिन अगर ओवैसी ने  राम मंदिर को लेकर  कुछ भी कह दिया तो वह गेरुआ पहने बाबाओं और दाढ़ी रखे मुल्लाओं को हाफ-हांफ कर "तेरा धर्म-मेरा धर्म " की बांग देने का सबब बन जाता है.

भारतीय मीडिया में इतनी गिरावट पहले कभी नहीं देखी गयी थी. विकास के पैरामीटर्स को लेकर रिपोर्टरों की बीट होती थी और कोई भी रिपोर्टर "गौ-हत्या" या "तीन –तलाक" को फुल टाइम  बीट के रूप में नहीं देखता था. इस साल गेंहू की बम्पर फसल हुई है और देश में करीब ८५ मिलियन टन अनाज के भण्डारण की बड़ी समस्या बनी हुई है. आज देश में मात्र ३२ मिलियन टन अनाज के भण्डारण की क्षमता है. सरकार ने अगर तत्काल कुछ व्यवस्था नहीं की  तो किसानों की कड़ी मेहनत से उपजा गेंहू सड़कों पर फैला रहेगा और चूहे या चूहेनुमा अफसर इसे हज़म कर जायेंगे पर क्या आपने कोई चर्चा इस पर देखी है?

अमर्त्य सेन ने  भारत में १९४३ में होने वाले दुर्भिक्ष जिसमें २० लाख लोग मारे गए थे का विश्लेषण करते हुए कहा था कि अगर उस समय प्रजातंत्र होता तो लाखों लोगों की जानें न जाती क्योंकि उस समय भी सरकार के पास वहीं पास के सैनिक बैरकों में काफी अनाज था. उनका मानना था कि मीडिया की ताकत सरकार को मजबूर कर देती है कि वह रसद तत्काल दुर्भिक्ष वाले इलाके में पहुंचाए चाहे उसकी  जो भी  कीमत हो. लेकिन आज भारत में अनाज भी इफरात है , मीडिया भी है लेकिन विश्व भूखमरी सूचकांक पर भारत बेहद पीछे है और करींब २० करोड लोग रोजाना रात को भूखे पेट सोते हैं. क्या भारतीय मीडिया की अब भी अपने को संविधान के अनुच्छेद १९(१) (अ) से परिरक्षित रखने की जिद सही है?  

lokmat

2 comments:

  1. प्रणाम सर, मीडिया में सुधार सम्बन्धी मेरा एक सुझाव है। "समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टलों और टीवी व रेडियो चैनलों की खबरों का काफी महत्व और अधिक प्रभाव होता है इसलिए इनसे जुड़े प्रत्येक पत्रकारों का अच्छी तरह से शिक्षित और प्रशिक्षित होना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए पत्रकारों की योग्यता के सम्बन्ध में 'वर्ष 2013 की जस्टिस काटजू कमिटी' के सुझावों पर तुरंत अमल किया जाना आवश्यक भी है और महत्वपूर्ण भी। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर और छोटे छोटे गाँवों व शहरों में अनेक अप्रशिक्षित इंटरमीडिएट या बीए पास लोग पत्रकार बनकर दलाली और अनैतिक कार्यों में लिप्त हैं। ऐसे लोग पत्रकारीय आचार संहिता से पूर्णतया अपरिचित हैं। इनके पत्रकारिता सम्बन्धी कार्यों पर रोक लगाकर इनके खिलाफ कानूनी और दंडात्मक कार्रवाई भी होनी चाहिए।"

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