Saturday 2 November 2013

पिछले पांच संस्तुतियों पर राजनीतिक वर्ग ने मात्र लीपापोती की है

सुप्रीम कोर्ट के फैसले की चुनाव सुधार में अहम् भूमिका संभव
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मेरुदंड –विहीन अफसरशाही की चाहत है राजनीतिक वर्ग को 
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देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर अपने एक अहम् फैसले में उस नासूर पर नश्तर चलाया है जिसका मवाद पूरे शरीर में फ़ैल चुका था और जो शरीर के हर अंग में पिछले ६६ साल से टीस मार रहा था. अदालत ने कहा कि अफसर नेताओं (मंत्रियों) के मौखिक आदेश न माने. और अगर ऐसे आदेश आते है तो उन्हें अमल करते वक़्त यह बात भी लिख दें कि मंत्री ने मौखिक रूप से क्या कहा था. साथ ही केंद्र व राज्य की सरकारों को भी आदेश दिया गया है कि वे जब तक संसद कानून नहीं बना देता, तब तक के लिए सिविल सर्विसेज बोर्ड (सी एस बी) का गठन करें जिसमें वरिष्ठ और बेदाग़ चरित्र वाले अधिकारी हों. यह संस्था अफसरों के ट्रान्सफर और पोस्टिंग का प्रबंधन करेगी ताकि कोई भी अफसर अपने निर्धारित अवधि तक अपना काम करे और ट्रान्सफर के खंजर को हर क्षण सर पर लटकता देख कर मंत्री का गुलाम न बने. “प्रजातंत्र के मंदिर” पार्लियामेंट से भी अपेक्षा की गयी है कि वह जल्द हीं इस सम्बन्ध में कानून बनाये.
दरअसल, यह आदेश फौरी तौर पर देखने देखने में जैसा सहज सुधारात्मक प्रयास लगता है गौर से देखने पर उतना हीं क्रांतिकारी है. इससे न केवल देश की अफसरशाही अपनी स्टीलफ्रेम (फौलादी ढांचे) को  फिर से हासिल कर पायेगी जो ६३ सालों में मोम  का बन गया था, बल्कि पूरे प्रजातंत्र की गुणवत्ता खासकर चुनाव सुधार के प्रयासों में आशातीत सफलता मिलेगी. आने वाले चुनावों में भी इसकी झलक देखने को मिल सकती है क्योंकि अफसरों पर मंत्री का या मुख्यमंत्री का खौफ जाता रहेगा. अगर गौर से देखें तो चुनाव में धांधली के लिए हीं नहीं धमकाने, समझाने और राय बनाने में सत्ता पक्ष हीं नहीं समूचा राजनीतिक वर्ग इस तंत्र का इस्तेमाल करता रहा है. सौदा साफ़ रहा है—“तुम मेरी मदद आज करो मैं तुम्हें अगले पांच साल के लिए अभयदान देता हूँ, मलाईदार पद पर माल काटो और कटवाओ” . इसका प्रतिलोम सन्देश यह होता था—“अगर नहीं, तो सत्ता में आने के बाद ऐसी जगह पटके जाओगे कि एक फॉलोअर (दैनिक वेतन पर काम करने वाला घरेलू पर सरकारी नौकर) के लिए तरस जाओगे”.
सर्वोच्च न्यायलय के इस आदेश का सबसे बड़ा पहलू है राजनीतिक कार्यपालिका अफसरशाही पर नियंत्रण ख़त्म होना. मंत्री की भूमिका मात्र नीति बनाने तक महदूद रहेगी और उसका अमल अफसरों पर. अफसर ना तो तबादले के खौफ से बंगले पर जा कर सजदा करेगा ना हीं मलाईदार पोस्टिंग मंत्री के कहने पर होगी. चूंकि यह अवैध सम्बन्ध विकसित हीं नहीं होंगे नहीं लिहाज़ा अफसर चुनाव पूरी निष्पक्षता से कराएगा. हाँ , अगर कोई अफसर इन सबके बावजूद नेता से गलबहियां डालता है तो सी एस बी या आने वाला कानून उसे भविष्य में भी कोई लाभ हासिल नहीं करने देगा क्योंकि ट्रान्सफर और पोस्टिंग एक संस्था के हाथ में और कुछ नियमों के आधार पर होगी.
लेकिन यहाँ पर एक प्रश्न अभी भी अनुत्तरित रहा है. वह है क्या केंद्र या राज्य की सरकारें इस पर अमल करेंगी? प्रकाश  सिंह की याचिका पर पुलिस सुधार को लेकर इसी अदालत द्वारा सन २००६ में दिए गए एक अहम् फैसले में कुल सात  अनुशंसाएं की थी जिनमें छः का अनुपालन राज्य सरकारों को और एक का केंद्र सरकार को करना था. १५ राज्यों ने कानून तो बना दिए लेकिन वह कानून फैसले की मूल भावना के अनुरूप नहीं है. अन्य राज्यों ने  अपने यहाँ कार्यकारी आदेश बना दिए है. सबने यह कह दिया है कि आदेश का अनुपालन हो गया है परन्तु हकीकत यह है कि उसके प्रावधान ऐसे हैं जो नेता-अफसर अवैध गठ-जोड़ को और पुख्ता करते हैं. बिहार इसका ज्वलंत उदहारण है. ट्रान्सफर , पोस्टिंग का फैसला मुख्यमंत्री, मुख सचिव और पुलिस महानिदेशक की एक समिति करती है. कहना न होगा कि समिति के बाकि दोनों सदस्यों की हिम्मत नहीं कि मुख्य-मंत्री की बात काट सकें.
क्या वजह है कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसे आदेश देने पड़ रहे हैं जो पहले से हीं मौजूद हैं. मसलन अफसर ऐसे किसी भी आदेश को जो मौखिक है या कानून –सम्मत नहीं है मना कर सकता है. कानून की मंशा के अनुरूप कार्य करने की बात उस पुलिस या अन्य अफसर को शपथ पत्र में हीं बताई जाती है. इसी तरह पहले से हीं अफसरों के तबादले को लेकर अवधि सम्बन्धी नियम बने हैं. पर क्या उनका अनुपालन होता है? पिछले चार दशकों में नेशनल पुलिस कमीशन (१९७७), रेबेरिओ समिति (९८) पद्मनाभ कमिटी (२०००) , हाल में सोली सोराबजी समिति, सुप्रीम कोर्ट का २००६ का फैसला और अब यह ताज़ा फैसला . क्या सरकारें  वास्तव में इन्हें अमल में लायेंगी? राजनीतिक वर्ग को सत्ता मद और तज्जनित सुख सबसे ज्यादह तब मिलता है जब अफसर उनके आगे नत-मस्तक होकर भक्ति भाव से गलत सही करते हैं. यह एक दुरभि संधि है जो सिस्टम को भ्रष्ट बनाती है , प्रजातंत्र को खोखला करती  है और समाज में संविधान के प्रति आस्था को डिगाती है.        
संस्थाओं की जन-स्वीकार्यता और तज्जनित सम्मान दिक्-काल सापेक्ष होता है शाश्वत नहीं. इस फॉर्मेट पर देखें तो राजनीतिक वर्ग के प्रति एक अनादर का भाव दूर तक जन मानस में घर कर चुका है. देश में एक सफाई अभियान चल रहा है. लाज़मी है ६५ साल की गर्द साफ़ करने में धूल उडेगी. सफाई करने वालों पर आरोप लगेगा कि झाड़ू हाथ दबाके नहीं चला रहे हैं. कुछ नाक दबा कर बगावती तेवर दिखायेंगे तो कुछ इसे नए रोगों का आगाज़ मानेंगे जिसके बैक्टीरिया धूल के कणों के साथ लोगों की नासिका रंध्र में घुस रहे होंगे.

सामान्य जन के मैन में एक हीं जिज्ञासा है क्या धूल साफ़ हो पायेगी, क्या कई दशकों का कीचड़ जो परत दर परत जमता हुआ स्वयं पत्थर का स्वरुप ले चुका है हट पायेगा. विरोध वे लोग कर रहे हैं जो इन्हीं पत्थर से अपनी इमारतें तामीर कर चुके है.   

rajsthan patrika