Tuesday 2 May 2017

हम मोदी आलोचकों की समस्या


किसी भी देश या समाज के इतिहास में ऐसा कम हीं होता है कि किसी एक व्यक्ति पर समाज का एक बड़ा वर्ग न केवल विश्वास करने लगे बल्कि उसमें हर कष्ट का निवारक देखने लगे और उसके व्यक्ति के खिलाफ बोलने वाले स्वरों को व्यक्तिगत अपना, समाज का या देश का दुश्मन मानने लगे। प्रधानमंन्त्री नरेन्द्र दामोदर मोदी धीरे-धीरे नेतृत्व का वह मकाम हासिल कर रहे हैं जहाँ हम निरपेक्ष विश्लेषकों के लिए भी एक समस्या खडी हो रही है कि आलोचना के लिए कौन से बिंदु तलाशें या कौन से तर्क-वाक्य लायें. प्रजातंत्र के समुचित सञ्चालन में आलोचना एक बड़ा पहलू है और इसका जन-विमर्श से विलुप्त होना खतरनाक संकेत हैं. तो फिर क्या  हम तथ्य-विहीन , हठधर्मी और अतार्किक आलोचना शुरू करें और वह भी  इसलिए कि हम निरपेक्ष दिखें और प्रोफेशनल रूप से जिंदा रहें? क्या  यह स्वयं प्रजातंत्र के लिए उचित होगा? आज मोदी की जन-स्वीकार्यता उस स्तर पर है जहाँ स्वयं मोदी को शायद एक समान्तर विरोधी स्वर पैदा करने पड़ें.

किस बात  पर  मोदी का विरोध  करे? इस बात पर कि कोई अख़लाक़ मार दिया  जाता  है? या कुछ लम्पट हिन्दुवादी हिन्दू धर्म का नीम  ज्ञान लिये गौ रक्षा के नाम पर किसी पहलू खान को मार देते हैं? पिछले तीन  साल के शासन में ऐसा कब देखने में आया कि कभी मोदी ने इस तरह के भाव को प्रश्रय दिया है? हम विश्लेषक भूल जाते हैं कि  मोदी  तो पहले दिन से हीं “स्वच्छ भारत”, नशे के खिलाफ अभियान, किसानों को मृदा  परिक्षण, यूरिया पर नीम की  परत,  अद्भुत फसल बीमा योजना, टेक्नोलॉजी का गवर्नेंस  में तेज और भ्रष्टाचार मुक्त डिलीवरी के लिए प्रयोग में लगे हुए हैं. लेकिन शायद विश्लेषण के निरपेक्ष चश्में के राडार पर यह नज़र नहीं आता. अगर फसल बीमा योजना को                                                                    पूर्णरूप से अमली जामा पहनने  के लिए  बटाईदार और जमींदार के  बीच शंका की खाई ख़त्म करने के लिए ताकि बटाईदार खेती में निवेश कर सके और जमींदार उससे जमीन एक समय सीमा के भीतर न ले  सके आदि के  लिए मोदी सरकार कानून बना रही है तो क्या यह विश्लेषण का विषय नहीं है? मध्य प्रदेश में पिछले दस साल से नौ प्रतिशत कृषि विकास दर रही है पर यह निरपेक्ष विश्लेषण का बिंदु नहीं  बन पाता. इसी दौरान कृषि क्षेत्र में राष्ट्रीय विकास दर ३.७ प्रतिशत रहा जबकि उत्तर प्रदेश में मात्र ३.२ प्रतिशत. लेकिन अगर हम निरपेक्ष विश्लेषक उसकी  आलोचना करें तो हमें अपना हीं वर्ग “भाजपाई” मानने लगेगा. उज्जवला योजना ने भारतीय ग्रामीण गरीब महिलाओं का जीवन बदल दिया  (वाम और अंग्रेज़ीदां विश्लेषक  शायद उस अभाव-जनित यातना-ग्रस्त जीवन से बावस्ता नहीं रहे हैं) लेकिन क्या वह किसी निरपेक्ष विश्लेषक की बौधिक जुगाली का सबब  बन सका? अगर हम यह समझ लेंगे तो यह भी जान जायेंगे कि क्यों मोदी की जन-स्वीकार्यता  लगातार बढ़ती जा  रही है.                        

यह अजीब कुतर्क है कि कब्रिस्तान के लिए जमीन दिया जाये तो वह अखिलेश सरकार की धर्म-निरपेक्ष राजनीति होती है लेकिन वहीं अगर चुनाव सभा में मोदी उसका जिक्र  भर भी कर दें तो उससे साम्प्रदायिकता की बू आने लगती है. मोदी को शायद यह चर्चा नहीं करनी पड़ती अगर हम निरपेक्ष विश्लेषक इस बात को  लेकर पिछले ७० साल में किसी दिग्विजय, किसी ओवैसी , किसी अाजम खान या किसी मायावती, मुलायम या  लालू की आलोचना कर रहे  होते. चुनाव के ठीक पहले कोई कांग्रेस मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी जब मुसलमानों को आरक्षण दे देता है (यह पूरी तरह से जानते हुए कि अदालत में यह आदेश  नहीं ठहरेगा) तो क्या हमें उसे धर्म-निरपेक्षता का चोला पहनते हुए निरपेक्षता के नाम  पर  चुप रहना  चाहिए था? तीन तलाक की इस्लामी व्यवस्था सभ्य समाज पर एक बदनुमा दाग है लेकिन क्या किसी वाम चिन्तक को इसके खिलाफ तलवार ताने देखा गया? अगर वर्तमान सरकार इसके खिलाफ  कानून लाये तो उसे साम्प्रदायिकता की राजनीति कह कर हम विश्लेषकों को मोदी की आलोचना करनी चाहिए? तत्कालीन राजीव गाँधी की कांग्रेस सरकार सन १९८६ में मुसलमान पुरुषों को ख़ुश करने के लिये मुस्लिम महिला विरोधी क़ानून बनाती है ताकि सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला निषप्रभ हो सके। सर्वोच्च अदालत ने तलाक शुदा शाहबानो के गुजरा भत्ता के  लिए अपराध प्रक्रिया  संहिता की धारा  १२५  के तहत आदेश किया था जो मौलवियों को नागवार लगा। मुसलमानों के वोट के लिए इस आदेश को निष्प्रभ करते हुए मुस्लिम  पर्सनल लॉ को बहाल रखते हुए तत्कालीन राजीव सरकार एक नया कानून बनाती है जिसका नाम “मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार अभिरक्षण ) कानून लाती  है –जो महिलाओं  के खिलाफ है लेकिन जिसका नाम मुस्लिम  महिला अभिरक्षण रखा गया) तो वह धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक हो जाता है. याने  राजीव गाँधी या अखिलेश यादव कानून बदलें ताकि मुस्लिम पुरुष समाज खुश हो कर वोट दे  तो वह धर्मनिरपेक्षता लेकिन मोदी तीन तलाक के खिलाफ कानून लायें तो वह घोर साम्प्रदायिकता.    
    
मोदी या गाँधी की जन-स्वीकार्यता और धर्म गुरुओं या बाबाओं की स्वीकार्यता में अंतर को भी समझना होगा. निरपेक्ष विश्लेषण की एक मूल शर्त होती है कि विश्लेषणकर्ता जिस व्यक्ति के वर्तमान मकाम से याने उसकी सम्प्रति उपलब्धियों से रंचमात्र भी प्रभावित न  हो. वह यह नहीं कह सकता  कि जब समाज का एक  बड़ा वर्ग उस व्यक्ति को मान्यता दे रहा  है तो वह सही हीं होगा. इस लिहाज़ से न तो गाँधी की आलोचना हो सकती थी न हीं कार्ल मार्क्स की और न हीं धर्म गुरुओं या  “बाबाओं” की क्योंकि समाज तात्कालिक कारकों से, भावनात्मक अतिरेक के कारण और कई बार अर्ध-सत्य के आधार पर हीं अपने विचार  बन लेता है. गाँधी  अपनी व्यापक जन-स्वीकार्यता के दौरान इस खतरे को समझ गये थे. असहयोग आन्दोलन  के दौरान चौरी-चौरा में जब अहिंसक भीड़ अचानक थाने पर हमला करने लगी तो उस उग्रता के  पीछे कहीं लोगों में अपने नेता (गाँधी) में ईश्वरीय तत्व दिखाई देने लगा. गाँधी ने इस  खतरे को  समझते हुए आन्दोलन स्थगित किया. धर्म की दुनिया में यह अक्सर  पाया जाता है. धार्मिक नेताओं में ईश्वरीय रूप देखना भारतीय समाज का एक शगल रहा है. यहाँ तक कि एक समय था कि शीबू सोरेन (गुरु जी) में झारखण्ड के एक आदिवासी समाज का इतना विश्वास रहा कि उनके बारे में किस्से हुआ करते थे कि “गुरु जी तो एक हीं समय में कई जगह  पर मौजूद रहते हैं”. सोरेन आदिवासियों में यह स्पष्ट मत  था कि गुरु जी के दर्शन मात्र से लोग धन्य हो  जाते थे. आसाराम बापू जब किसी परिवार की युवा लडकी को आश्राम में छोड़ जाने की बात कहते थे तो अनुयायी माँ-बाप उसे बाबा का उपकार मानकर उस बालिका को आश्रम में “पढने”  के लिए छोड़ जाते थे. आसाराम आज बलात्कार के आरोप में वर्षों से जेल में है. शिबू सोरेन मुख्यमंत्री और केंद्र में मंत्री बनने के बाद भ्रष्टाचार के आरोप झेलते हुए आज राजनीतिक गुमनामी की भेंट चढ़ चुके हैं.

लेकिन मोदी की जन स्वीकार्यता उस भरोसे की वजह से है जो जनता को काफी अरसे बाद हुआ है. और वह भरोसा  इस बात का नहीं है कि वह राम  मंदिर बनवायेंगे बल्कि  इसका कि इस व्यक्ति में भारत को बदलने की क्षमता है ,  इसका व्यक्तित्व भ्रष्टाचार या सत्ता-जनित दोषों से परे है. यही वजह है कि अरविन्द केजरीवाल को विकास छोड़ कर को मोदी के  खिलाफ अभियान छेड़ना महंगा  पड़ा.      

lokmat