Thursday 3 November 2016

औपचारिक संस्थाएं बनाम अतार्किक जन सोच


एक खबर के अनुसार उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब चुनाव के मद्दे नज़र चुनाव आयोग उन दलों पर शिकंजा कसेगा जो मतदातों से बड़े –बड़े और लुभावने वादे करते हैं. ऐसे दलों को एक शपथ पत्र देने होगा कि वे इन वादों को पूरा करेंगे और अपने घोषणा-पत्रों में भी उन वादों को पूरा करने के लिए अपेक्षित वित्त की व्यवस्था के बारे में विस्तार से देना होगा. अब मान लीजिये किसी दल ने कहा “सब  छात्रों को मुफ्त लैपटॉप” और दावा किया कि इसके लिए वित्त जुटाने के लिए भ्रष्टाचार दूर करके कर वसूली बढाया जाएगा. क्या चुनाव आयोग यह कह सकता है कि उसे भ्रष्टाचार ख़त्म करने के पार्टी के दावे पर विश्वास नहीं और क्या वह इस आधार पर पार्टी का चुनाव चिन्ह रद्द कर सकता है. उधर   सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष एक बार २५ साल जन प्रतिनिधि कानून की धारा १२३ (३) के तहत आने वाला पुराना विवाद उस खडा हुआ है. अदालत ने सरकार सहित सभी पक्षों से पूछा है कि “क्या धर्म, जाति या जन-जाति के नाम पर यह कहते हुए कि अगर वोट मिलेगा तो उस समुदाय की रक्षा और विकास किया जाएगा, वोट माँगा गया तो इसे "भ्रष्ट आचरण  की संज्ञा दी जा सकती है"?, मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली इस संविधान पीठ ने इसी तरह के अन्य कई सवालों का जवाब जानना चाहा है। शायद हम नैतिकता और वैज्ञानिक सोच के प्रति जन-उदासीनता से जन्मे सवालों का समाधान औपचारिक संस्थाओं व प्रक्रियाओं के माध्यम से खोज रहे हैं.  

दरअसल अदालत की मजबूरी यह है कि सामाजिक या विश्वास के मुद्दे जब उसके पास आते हैं तो उन्हें तर्क और कानून की कसौटी पर कसा जाता हैं. अगर वह मुद्दा एक व्यापक समाज में विश्वास का मक़ाम हासिल कर चुका है तो चाहे वह कितना भी गलत क्यों न हो औपचारिक संस्थाओं या व्यवस्थाओं या क़ानूनों द्वारा उस विश्वास को ख़त्म नहीं किया जा सकता. याने कोई भी अदालत यह नहीं कह सकती कि यह मुद्दा कानून से परे है और इसे सुलझाना निरपेक्ष और विश्वसनीय समाज सुधारकों का काम है. वास्तव में आज भारत में इस तरह के समाजसुधारकों की नस्ल लगभग विलुप्त हो गयी है. अब कबीर, दादू या रहीम पैदा नहीं होते. अदालत के प्रश्न काफी गहरे हैं. दलित और आदिवासियों पर आज भी अत्याचार हो रहे हैं जब कि कानून दर कानून बनते गए और हर संशोधन में प्रावधानों को और सख्त किया जाता रहा. संविधान ने तो ७० साल पहले हीं छूआछूत ख़त्म कर दिया था.  

अदालत की चिंता को और अधिक विस्तार दिया जाये तो कई नए प्रश्न खड़े होते हैं. कुछ अन्य उदाहरण लें. अगर मायावती दलितों से वोट मांगे और वह कानून-सम्मत है तो फिर लालू यादव या मुलायम सिंह का यादवों की रक्षा और विकास के लिए वोट मांगना गलत क्यों? भारत में व्यक्ति की जाति या समुदाय के बारे में उसके नाम से और कई बार परिधान से पता चल जाता है. जब कोई ओवैसी ऊँचे पायचे का पाजामा और दुपल्ली टोपी लगाये या खास सलीके से कटी दाढी के साथ बिहार के किसनगंज में जहाँ एक सम्प्रदाय विशेष की आबादी ७० प्रतिशत है जा कर उनके हिफाजत का वायदा करते हुए वोट माँगता है तो क्या इसे समझने के लिए कि यह “धर्म के नाम पर वोट मांगना है” किसी आइन्स्टीन के दिमाग की ज़रुरत है? जन प्रतिनिधि कानून की धारा १२३ (३) के तहत कोई भी प्रत्याशी या उसका एजेंट या उसकी सहमति पाया व्यक्ति अपने धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा अथवा धार्मिक चिन्हों का इस्तेमाल करके उस प्रत्याशी के चुने जाने के अवसर को आगे बढ़ाता है या किसी अन्य प्रत्याशी के अवसर को प्रभावित करता है तो वह भ्रष्ट आचरण माना जाएगा.

भारत कुछ अलग किस्म का देश है जिसमें अनगिनत पहचान समूह है. सिर्फ़ इतना हीं रहता तो कोई बात नहीं थी. ७० साल में “फर्स्ट-पास्ट –द- पोस्ट “ सिस्टम की दोषपूर्ण चुनाव पद्यति के कारण राजनीतिक वर्ग ने इसे और धार दी है और कई बार नए पहचान समूह पैदा किये है जैसे “महादलित”. खास बात यह है कि राजनीतिक वर्ग इन पहचान समूहों को एक दूसरे से लड़ाता रहता है. अब समाजशास्त्र के नियमों को ध्यान दें तो अगर कोई मायावती (स्वर्गीय कांसी राम को न भूलें) होगा तो कोई लालू या मुलायम भी होगा, कोई कम्मा नेता होगा तो कोई कापू भी और कोई वोक्कालिगा होगा तो कोई लिंगायत भी. ऐसे में यह कैसे कह सकते हैं कि ओवैसियों के खिलाफ कोई वेदांती नहीं खड़ा होगा? कोई राम मंदिर नहीं राष्ट्रव्यापी मुद्दा बनेगा और राजनीतिक संवाद इसके इर्द-गिर्द नहीं घूमेगा. एक ऊँचे पायचे का पजामा पहन कर वोट मांगे तो ठीक लेकिन दूसरा तिलक लगा कर या गेरुआ पहन कर प्रत्याशी के पक्ष में खड़ा हो और धर्म विशेष के नाम पर वोट मांगे तो गलत !

एक और प्रश्न लें जो शायद सर्वोच्च अदालत के संज्ञान में होगा. एक व्यक्ति जिसकी स्वीकार्यता उस धर्म, जाति या अन्य पहचान समूह के अनुयाइयों के बीच है चुनाव मंच पर आता है लेकिन वह अपने प्रत्याशी के लिए विकास के नाम पर वोट माँगता है. लक्षित वोटर उसके कट्टर अनुयायी हैं लिहाज़ा वे प्रभावित हो कर वोट करते हैं. क्या इसे कानून सम्मत माना जा सकता है. उदाहरण के तौर पर कोई जैन मुनि या कोई लामा अपने अनुयाइयों को यह कहता है कि उसी पहचान समूह के अमुक व्यक्ति को वोट तो वह तुम्हारा विकास करेगा, तो क्या यह उचित ठहराया जा सकता है. ध्यान रहे कि मतदाता ने वोट इस आधार पर नहीं दिया कि उन्हें विकास को लेकर प्रत्याशी में विश्वास है बल्कि वोट देने की वजह मुनि या लामा के प्रति धार्मिक विश्वास है.

lokmat

इस कानून के उपरोक्त प्रावधान का मूल उद्देश्य यह था कि चुनाव के दौरान मतदाता के स्व –विवेक पर कोई भी अतार्किक भावनात्मक मुद्दे भारी न पड़ें. परन्तु अगर मतदाता जाति, धर्म , भाषा या नस्ल में हीं अपना भविष्य सुनिश्चित पाता है तो कानून उसे कैसे रोक सकता है? कानून तो बलात्कारियों और हत्यारों को भी फांसी की सजा देता है. फिर अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मौलिक अधिकार है और अगर अच्छे प्रजातंत्र के लिए डिबेट और जन-संवाद अपरिहार्य है तो रास्ता एक हीं बचताहै और वह है – मतदाताओं की सोच अर्थात् उन वास्तविक मुद्दों के प्राथमिकता जो वोटरोँ के अपने सम्यक विकास को सुनिश्चित करते हों.