Wednesday 9 May 2018

नीतीश एक बार फिर पल्टी मारने की फ़िराक में ?




पिछले अप्रैल १५ को पटना में जो “दीन बचाओ देश बचाओ” रैली हुई थी उसमें बिहार के हीं नहीं आस-पास के कई राज्यों के मुसलमान और दलित शामिल हुए थे. इस रैली में मंच से आयोजकों ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जम कर तारीफ की और एक बार भी राज्य में हुए सांप्रदायिक तनाव और झगड़ों का जिक्र नहीं किया. माना जा रहा है कि यह रैली नीतीश के शाह पर हीं हुई थी और सरकारी अमला ने इसके लिए गाडियों तक उपलब्ध कराई थी. अनौपचारिक रूप से जिलों के अफसरों को निर्देश था कि वे रैली के बैनर लगी गाड़ियों को न रोकें. सत्ता में एक बार फिर से सहयोगी बनी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नीतीश के इस रवैये से सतर्क हो गयी है. लोक- सभा चुनाव मात्र के कुछ महीने बाद होने है. नीतीश के इस भाव के पीछे दो कारण है और दो विकल्प हैं. पहला कारण, रामनवमी के दौरान नए रास्तों से जुलूस निकलने की जिद के बाद करीब आधा दर्जन जिलों में हुई हिंसा, और दूसरा जिलों में कैडर के स्तर पर सत्ता में वर्चस्व को लेकर बढ़ता वैमनस्य. भाजपा के एक वर्ग चाहता है कि अगर जिले में कलेक्टर नीतीश की जनता दल (यूनाइटेड) के मन से हो तो एस पी भाजपा की राय से. जाहिर है भाजपा अपना विस्तार करना चाहेगी और इसके लिए शासक वर्ग से अपने लोगों के काम करना चाहेगी ताकि वोटर आधार बढे. नीतीश की पार्टी को ऐसे में कहीं न कहीं सिकुड़ना पडेगा या दोयम दर्जे के दल के रूप में धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को भाजपा के बार-अक्श विलीन करना होगा याने नीतीश भाजपा के रहमो-करम पर अपनी राजनीतिक औचित्य बनाने को मजबूर होंगे. यही वजह है कि इस रैली के संयोजक और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना वली रहमानी के दाहिने हाथ खालिद अनवर को नीतीश ने विधान परिषद् का सदस्य भी बनाया. इस रैली में बिहार हीं नहीं, झारखण्ड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के मुसलमानों ने भाग लिया था. रैली की व्यापकता भविष्य में विपक्षी गठबंधन के संकेत के रूप में देखा जा सकता है और साथ ही उस भविष्य में नीतीश की उसमें सक्रिय भूमिका भी हो सकती है.
नीतीश ने इसके प्रतिकार के दो रास्ते तलाशे हैं. पहला : राज्य के चुनाव एक साल पहले याने लोक-सभा के चुनाव के साथ २०१९ में हीं कराये जाएँ. ऐसी स्थिति में नीतीश भाजपा से यह सौदा कर सकते हैं—“राज्य हमारा और देश तुम्हारा” याने जदयू को ज्यादा सीटें विधान सभा चुनाव में और भाजपा को ज्यादा सीटें लोक सभा के लिए. दूसरा विकल्प है फिर एक बार वापस लालू यादव-तेजस्वी यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के साथ २०१५ चुनाव की पुनरावृति करते हुए समझौता करना. “दीन बचाओ , देश बचाओ “ रैली में मुस्लिम-दलित वर्ग का जमवाड़ा था. एक ऐसे समय में जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद तत्काल प्रतिक्रिया के अभाव में दलित भाजपा से नाराज है, दलित-मुस्लिम गठजोड़ शायद दूसरे विकल्प के लिए आगे का रास्ता खोल सकेगा. उधर मुसलमानों के अलावा पिछड़ी जातियों में यह भाव पनप रहा है कि लालू यादव के साथ अन्याय हुआ है क्योंकि वह पिछड़ी जाति से आते हैं. यहाँ तक कि उच्च जाती के और दबंग भूमिहार वर्ग ने भी जहानाबाद के उप चुनाव में राजद को वोट दिए. जहाँ लालू के पुत्र तेजस्वी यादव इन भूमिहार और ब्राह्मणों को साधने में लगे हैं (मनोज झा को राज्य सभा सदस्त बनाना इसी कड़ी में है) नीतीश का दलित और मुसलमानों को एक मंच पर लाना भाजपा के लिए अलार्म की घंटी बन गयी है. बहरहाल न तो भाजपा इस पर कुछ कहने की स्थिति में है न नीतीश पाने पत्ते पूरी तरह खोल रहे हैं.
उधर जहाँ केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने इसी रामनवमी के दौरान हुए दंगों के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से रिपोर्ट मांगी वहीं बिहार में इसी अवसर पर भागलपुर, मुंगेर, औरंगाबाद, समस्तीपुर, रोहतास में हुए दंगों के लिए नीतीश सरकार से कुछ भी नहीं कहा क्योंकि डर था कि नीतीश के रिपोर्ट में कुछ ऐसे संगठनों के नाम आयेंगे जो भाजपा के नजदीक हैं.
बिहार में सब कुछ ठीक नहीं है. हो भी नहीं सकता. अगर भारत में प्रजातंत्र कहीं एक जगह अपने पूर्ण विकृत स्वरुप में है तो वह बिहार में. भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में लालू यादव का २३ साल बाद जेल जाना भले हीं अदालती प्रक्रिया के तहत हुआ हो, जनता के एक बड़े वर्ग में इस नेता के प्रति सहानुभूति पैदा कर देता है. हाल के उप-चुनाव के नतीजे इसका ताज़ा उदाहरण हैं. जनता यह नहीं पूछती कि न्याय की तराजू इतने सालों तक क्यों नहीं हिली और कैसे यह सिस्टम एक भ्रष्टाचार के आरोपी हीं नहीं चार्ज-शीटेड नेता को चुनाव-दर-चुनाव “संविधान में निष्ठा” की शपथ व्यक्त करवा कर देश के मंत्री पद से नवाजता है? कैसे इस राज्य की जनता किसी खतरनाक और दर्ज़नों हत्याओं में आरोपी शहाबुद्दीन को एक बार नहीं पांच बार प्रजातंत्र के सबसे बड़े मंदिर--- लोक सभा—में चुन कर भेजती हैं ताकि वह कानून बना सके?
लोकोक्ति तो थी “यथा राजा तथा प्रजा” पर प्रजातंत्र में यह उलट गयी और “यथा प्रजा तथा राजा” के रूप में दिखाई देने लगी. राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भले हीं अपना जनाधार नगण्य हो लेकिन यह प्रजातंत्र का विद्रूप चेहरा हीं है कि वह पिछले १३ साल से बिहार का “भाग्य” सुधार रहे हैं. इतने साल बाद भी प्रजा उन्हें नहीं समझ पायी और जब नीतीश ने भारतीय जनता पार्टी का दस साल से ज्यादा का “शासकीय साथ” छोड़ कर अंपने धुर विरोधी लालू यादव का—जिनको डेढ़ दशक से ज्यादा समय से कोसते आये थे , हाथ थाम लिया और उन्हें अल्पसंख्यकों और पिछड़ों का सबसे बड़ा मसीहा बताया और भाजपा को सांप्रदायिक बताने लगे. अभी सुहाग की मेहंदी सूखी भी नहीं थी कि पाला बदला जो दुनिया के प्रजातंत्र में एक अनूठी अनैतिकता कही जा सकती है, फिर भाजपा के साथ सरकार बना ली. राजनीति में नैतिकता के पतन का या जनमत के साथ इतना बड़ा धोखा शायद इससे पहले नहीं हुआ था.
परन्तु शायद भारत की खासकर धुर जातिवाद में बंटे बिहार की राजनीति में नैतिकता पर खड़ा रहना और जनमत के साथ धोखा न करना जंगल कानून में समानता का सिद्धांत शामिल करने जैसा है.


lokmat