Thursday 28 February 2013

शाइनिंग इंडिया” की कुछ चमक “बिलखते भारत” पर भी डालें



एडम स्मिथ ने “वेल्थ ऑफ़ नेशन” में कहा है “ हमारा  रात का खाना किसी  गोश्त बेंचने वाले या रोटी बनाने वाले बेकरी के मालिक की उदारता पर नहीं बल्कि उसकी अपने लाभ प्रति ललक की वजह से मिलता है”. कहने का मतलब पूंजीपति या उद्योग चलने वाला जब लाभ कमाता है तो कोई अहसान नहीं करता और उससे वसूल कर उन लोंगों को बांटना जो अपने नहीं बल्कि स्थिति-जन्य कारणों से गरीब है राज्य का नैतिक दायित्व है. सन १९८० में शुरू हुआ उदारीकरण दस साल बाद सन १९९१ में भारतीय अर्थ-व्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ समेकित करने का सबब बना जो आज नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में परिणित हुआ. इन ३१ वर्षों में देश का सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर (जी डी पी ग्रोथ रेट) औसतन ६.५०  प्रतिशत रहा. हमने नयी व्यवस्था को लेकर कसीदे काढ़े. “इंडिया शाइन” करने लगा. लेकिन मानव विकास सूचकांक (एच डी आई) में भारत तब भी १३४वेन नंबर पर था और सन २०११ में भी ठीक १३४ वें नंबर पर (भूटान और बांग्लादेश से भी नीचे ) है. क्या देश के वित्त मंत्री पी चिदंबरम इस बात को कल पेश होने वाले बजट में संज्ञान लेंगे? 
संसद में बुधवार को पेश हुए वर्ष २०१२-१३ के आर्थिक सर्वेक्षण कल पेश होने वाले बजट की आहट बताता है. दो बाते स्पष्ट है. पहला : खाद्य सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाएगी और दूसरा: पेट्रोलियम पदार्थों खासकर डीजल पर सब्सिडी में कटौती की जाएगी. पहला चुनाव की वैतरणी पार कराएगा और दूसरा भारतीय अर्थ-व्यवस्था को वित्तीय घटा कम करके अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों की हीं नहीं विदेशी निवेशकों की नज़र में भी उंचा करेगा.
पर इस सर्वेक्षण का एक तीसरा पहलू भी गौर करने लायक है. यह सिद्ध करता है कि कम टैक्स दर से ज़रूरी नहीं कि कर की चोरी ना हो. भारत में प्रत्यक्ष कर और जी डी पी का अनुपात महज सात फी सदी है जबकि अति गरीब मुल्कों में भी यह दूना या उससे ज्यादा है. अमीर देशों में तो यह ३० फीसदी से अधिक है. आखिर हम क्यों शर्माते है अमीरों से टैक्स लेकर ग़रीबों के विकास में लगाने में.
स्थिति यह है कि अगर किसी व्यक्ति की आमदनी दस लाख रुपये सालाना है तो वह ३० प्रतिशत टैक्स देता है लेकिन अगर एक अन्य व्यक्ति की आमदनी १०,००० करोड़ है तो वह भी ३० प्रतिशत हीं देगा. यह कहा जा रहा है कि कम टैक्स दरें होंगी तो लोग कर चोरी नहीं करेंगे लेकिन यह बात आज पेश हुए सर्वेक्षण ने गलत साबित कर दी. और फिर राज्य अभिकरण चोरी के डर से टैक्स कम करे यह बात हजम नहीं होती.   
अर्थशास्त्र का एक मूल सिद्धांत है कि अगर महंगाई ज्यादा है तो सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी ) और वित्तीय घाटे के अनुपात का कोई मतलब नहीं रहा जाता. लेकिन जो सबसे चौंकाने वाले तथ्य इस सर्वेक्षण से पता चलता है वह ये कि  कर वसूली लक्ष्य से कम हुई है. अगर महंगाई बढ़ी है तो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर दोनों का लक्ष्य क्यों नहीं हासिल हो सका.
आज देश में लगभग २.८४ करोड़ आय कर दाता है. इनमें से केवल चार लाख करदाता ऐसे हैं जिनकी आमदनी २० लाख से ऊपर है और जिनका कुल टैक्स कोई चार लाख करोड़ रु. है और जो कि इस मद में आने वाले टैक्स का ८९ प्रतिशत है. बाकि २.८० करोड़ आयकर दाताओं से महज ११ प्रतिशत टैक्स आता है. अगर इस रु बीस लाख की आमदनी वाले चार लाख लोगों से ४० प्रतिशत टैक्स लिया जाये और तीस लाख से ऊपर वालों से ५० प्रतिशत या इससे ऊपर वालों से ६० प्रतिशत तो ना केवल आय बढेगा बल्कि वित्तीय घाटे का हौवा भी ख़त्म होगा और गरीबों को और सब्सिडी दी जा सकेगी. माध्यम वर्ग को भी , जिसे आजकल महत्वाकांक्षी भारत (एस्पिरेस्नल इंडिया) कहा जाता है , एक बड़ी रहत मिलेगी .  
याद आता है दो साल पहले का आर्थिक सर्वेक्षण (२०१०-११) जिसमे बताया गया था कि उत्पाद कर और जी डी पी का अनुपात २००५-०६ के मुकाबले तीन प्रतिशत से घट कर १.७ प्रतिशत और कस्टम्स का १.८ से घट कर १.५ प्रतिशत हो गया था. कुल मिलाकर इस अवधि में इस नीति से देश को अप्रत्यक्ष कर में लम्बा चूना लगा.
 एक अन्य उदहारण लें. फ़ोर्ब्स मैगज़ीन में भारत के उन १०० लोगों को शामिल किया गया है जिनका नेट वर्थ (पूंजीगत हैसियत) रु १२ लाख  करोड़ है. लेकिन इन्हें कोई वेल्थ टैक्स नहीं देना पड़ता. इसी तरह डिविडेंड को आयकर से इस आधार पर बाहर रखा गया है कि कंपनी जिसका शेयर धारक ने लिया है पहले हीं टैक्स दे चुका है. लेकिन गौर करने की बात है कि एक नौकरी पेशा व्यक्ति १०० शेयर खरीद कर रु. दस हज़ार कमाता है और दूसरा व्यवसायी १० हज़ार शेयर लेकर दस लाख कमाता है दोनो को आय कर में पूरी छूट मिलाती है.
अगर लगभग साढ़े पांच लाख करोड़ की छूट के बावजूद औद्योगिक विकास दर जमीन नहीं छोड़ रही है तो एक बार सोचना होगा कि समस्या कहीं और है. प्रत्यक्ष कर (आय कर और कॉर्पोरेशन कर) एवं अप्रत्यक्ष कर (कस्टम्स और उत्पाद) के रूप में मिलाने वाली छोट इसलिये दी जाति है कि कीमतें नियंत्रण में रहें और औद्योगिक कंपनियां इस छूट का लाभ कीमतें कम रख कर जनता तक पहुंचाएं. पर जिस तरह कीमतें आसमान पर रहीं उसे देखा कर सरकार को सोचना पडेगा कि मर्ज कहीं और तो नहीं है.
आज ज़र्रोरत इस बात की है कि अप्रत्यक्ष कर में छूट दे कर प्रत्यक्ष कर को कई श्रेणियों में बनता जाये याने १० से लेकर ६० प्रतिशत के छः स्लैब रखे जाएँ. अगर संपन्न देशों में जहाँ गरीब –अमीर का अंतर इतना नहीं है या आभावग्रस्त लोगों का प्रतिशत पूरी आबादी का ७७ प्रतिशत नहीं है वहां भी सर्वोच्च टैक्स स्लैब ८० प्रतिशत से ऊपर है. क्या भारत ऐसा करके बढ़ाते जी डी पी का लाभ कृषि में पूंजी –निर्माण के लिए नहीं लगा सकता? आज देश का ४० प्रतिशत किसान अवसर मिलते हीं खेती छोड़ कर मजदूरी को तैयार है. क्या रु २७ प्रतिदिन (सरकारी आंकड़ा) पाने वाले ४२ प्रतिशत अभावग्रस्त जीवन जीने से बचाए नहीं जा सकते?

bhaskar 

Tuesday 26 February 2013

क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ जनांदोलन ख़त्म हो गया?




हेलीकाप्टर सौदा. फिर एक घोटाला फिर एक इन्क्वारी की मांग , फिर एक सरकारी आश्वासन और फिर एक बार जनता के गठरी में लगा चोर. दरअसल गठरी से चोर कभी अलग हुआ हीं नहीं. हमें बस अहसास होता  है कि सिपाही रात में सीटी बजा कर चोर भगा देता है. वास्तव में वह चोर को अपनी लोकेशन बताता है. हम ठगे जाते रहे हैं.
लेकिन अब कोई अन्ना जन्तर –मंतर पर उस तरह का धरना नहीं देता और अगर देता भी है तो भीड़ नहीं उमड़ती. अब कोई किरण बेदी मंच से झंडा नहीं लहराती और न हीं कोई विश्वास अपनी कविताओं से जन-मानस को उद्वेलित करता है. अब कोई केजरीवाल भी अपने प्रति वही विश्वास दिला पाता  है जो एक साल पहले तक था. सब कुछ मानो ख़त्म हो गया है. क्या भ्रष्टाचार ख़त्म हो गया या हमने इसे २०-२० के क्रिकेट मैच की तरह लिया और यह मान कर की सब कुछ फिक्स है टिकट फाड़ते हुए घर लौट गए वही सब कुछ झेलने के लिए जो ६५ साल तक हमारी अस्थि-मज्जा को खाता रहा?
क्या भारतीय समाज की बुराइयों से लड़ने की कूवत ख़त्म हो गयी है? क्या कोई गाँधी नहीं होगा तो हम घर बैठ जायेंगे और कमी  खोजेंगे किसी अन्ना, किरण या केजरीवाल में? “मैं तो पहले से हीं कह रहा था कि अन्ना संघ के आदमी हैं” या “केजरीवाल में राजनीतिक महत्वाकांक्षा तो मुझे पहले से हीं दिखाई दे रही थी “ कह कर हम फिर ड्राइंग रूम में टीवी पर कोई भोंडी हंसी का प्रोग्राम देखने लगे हैं. जैसे भ्रष्टाचार कोई हमारी नहीं बल्कि केवल अन्ना-किरण-केजरीवाल की समस्या हो.
आन्दोलनों में लीडर होना ज़रूरी होता है लेकिन लीडर होने से आन्दोलन हो यह ज़रूरी नहीं. देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनान्दोलन के सारे अवयव मौजूद हैं , सामूहिक चेतना भी विकसित हो चुकी है. आन्दोलन को स्थायित्व देने के सभी कारक—मसलन शोषक-शोषित अंतर्संबंध की समझ, गरीबी व अभाव से जूझता एक बड़ा समाज और साथ हीं चाँद-सितारे पाने की मरीचिका में सारे मूल्यों को तिलांजलि देने वाला  एक मध्यम वर्ग और कुछ हाथों में लगातार केन्द्रित होती पूँजी और बगैर किसी खूनी –क्रांति के वोट के ज़रिये सत्ता-वर्ग पर लगाम लगने की संवैधानिक प्रक्रिया. फिर भी क्यों नहीं बदलाता भारतीय भ्रष्ट तंत्र.
इसका एक हीं कारण हो सकता है –सत्ता वर्ग का यह विश्वास कि ये जन्तर –मंतर पर जाने वाले मतदान केंद्र पर नहीं जाते या अगर जाते भी हैं तो किसी जादुई शक्ति से जाति, धर्म, क्षेत्र और अन्य संकीर्ण पहचान समूह में बंट जाते हैं.   
हम शायद भूल गए हैं कि अपनी समस्याओं को प्रजातान्त्रिक ढंग से सुलझाने का पहला उपक्रम हीं भारत और एथेंस में लगभग साथ साथ शुरू हुआ था. वैशाली में बौद्ध परिषदों में जनता अपनी समस्याओं पर विचार करके उनका सामूहिक निदान कर लेती थी. गौतम बुद्ध की मृत्यु के तत्काल बाद राजगीर में हुई धर्म संसद का इतिहास सर्व-विदित है. दूसरी बड़ी संसद वैशाली में हुई. तीसरी सबसे बड़ी संसद सम्राट अशोक की सदारत में पटना में हुई. इस विशाल परिषद् में ना केवल राज काज पर चर्चा हुई बल्कि जन-धरातल पर होने वाले संवादों को संहिता-बढ किया गया यानि इन संवादों का स्वरुप, विषय-वस्तु, तर्क-वाक्यों की सीमायें आदि सुनिश्चित की गयी.  अंतिम जन -संसद कश्मीर में दूसरी सदी में हुई.    
यूरोपीय दुनिया के दावों के विपरीत ना केवल भारत बल्कि जापान भी प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली का प्रयोग ६०४ ई से कर रहा है. जहाँ ब्रिटेन में मैगना कार्टा सन १२१५ में आया. जापान के बौद्द राजकुमार शोतोको ने १७ अनुच्छेदों का संविधान अपने देश में लागू किया.
दरअसल समझाने में एक गलती हुई है. कोई १२४ करोड़ के देश दशमलव एक प्रतिशत भी अगर किसी जगह इकट्ठा हो जाये तो वह क्रांति लगाती है, जन-भावना बन जाती है और मंच के लोगों को लगता है कि उनके नेत्रित्व में क्रांति आ गयी. उन्हें आभासित सत्य से गलतफहमी हो जाती है. अन्ना को भी हुई और केजरीवाल को भी. इस गलतफहमी का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने बगैर इसे गाँव-गाँव में पहुंचाए , बगैर इसे संकीर्ण पहचान समूह की सीमाओं से पार करते हुए और बगैर इसे गाँव की बुधिया से सहर के साहेब तक की बीच जीने की अकेली शर्त बनाये हुए फॉर्मेट बदलने लगे. अन्ना ने गाँधी की विनम्रता और मानसिक हिंसा का त्याग अंगीकार न करते हुए हिंसक भाव का परिचय दिया और केजरीवाल के साथ दुश्मन जैसा व्यवहार करना लगे जो कि गाँधी ने इतने झटके खाने के बाद भी नेहरु के साथ नहीं किया.
दूसरी ओर केजरीवाल को यह गलतफहमी हो गयी कि जन्तर-मन्तर में भीड़ और मीडिया में खबर के मायने देश में क्रांति. और शायद तब सोच जगी कि जब क्रांति हो हीं गयी हो तो क्यों ना इसे सत्ता परिवर्तन का साधन भी लगे हाथ बना लिया जाये. इसके पीछे मनसा भले हीं सत्ता पाने की लालसा ना रही हो पर सम्पूर्ण क्रांति को शॉर्टकट मार्ग पर ले जाना तो था हीं. केजरीवाल शायद यह भी भूल गए कि मीडिया तभी तक उनके साथ है जब तक लोगों का हुजूम जन्तर मन्तर पर अच्छे विसुअल दे रहा है. मीडिया की दिलचस्पी अन्ना-केजरीवाल में नहीं बल्कि विसुअल देने वाली भीड़ में थी, अन्ना के हेल्थ रिपोर्ट पर थी, रामदेव की पिटाई पर थी और भ्रष्टाचार के खिलाफ ६५ साल में पहली बार मिले “जबरदस्त विसुअल” में थी. जैसे हीं केजरीवाल ने राजनीति में कदम रखा , भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन का फॉर्मेट बदल गया. “राजनीति में रह कर भ्रष्टाचार से बैर हो हीं नहीं सकता” के भाव में लोगों ने केजरीवाल को भी नज़रों से उतार दिया. हालांकि न तो अन्ना की नियत गलत थी ना हीं केजरीवाल का इरादा या मंशा. दोनों निहायत ईमानदार और उद्देश्य के प्रति समर्पित लोग थे परन्तु उनकी समझ जरूर गलत दिशा में उन्हें ले गयी.    
समाजशास्त्री सिडनी वर्बा के एक अध्ययन के अनुसार यह ज़रूरी नहीं कि जिस समाज की आर्थिक स्थिति बेहतर हो उसमे लोगों की प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया में भागीदारी भी ज्यादा हो. वर्बा ने पाया कि जहाँ अमरीका की प्रति-व्यक्ति आर्थिक आय यूरोप के तमाम देशों से बेहतर है जन भागीदारी के मामले में यूरोप के वे देश ज्यादा तत्पर हैं. भारत में भी जन भागीदारी का इतिहास रहा है भले हीं वह एक हज़ार साल के समय खंड में सुस्त रहा और हम विदेशी शासकों का दंश झेलते रहे.
आज प्रश्न यह है कि क्या कोई अन्ना या कोई केजरीवाल नही तो भ्रष्टाचार का दंश हम झलते रहेंगे ? क्या नेता –विहीन जनादोलन की कल्पना नहीं की जा सकती ? क्या १२४ करोड़ की भीड़ में से एक या एक दर्जन अगुवा नहीं निकाले जा सकते? अगर नहीं तो हम अगली पीढी को एक भ्रष्ट, बीमार और कुंठित भारत दे जायेंगे जो हमें हमरे पिछली पीढ़ी ने सौपी थी.    

sahara