एडम स्मिथ ने “वेल्थ ऑफ़
नेशन” में कहा है “ हमारा रात का खाना
किसी गोश्त बेंचने वाले या रोटी बनाने
वाले बेकरी के मालिक की उदारता पर नहीं बल्कि उसकी अपने लाभ प्रति ललक की वजह से
मिलता है”. कहने का मतलब पूंजीपति या उद्योग चलने वाला जब लाभ कमाता है तो कोई
अहसान नहीं करता और उससे वसूल कर उन लोंगों को बांटना जो अपने नहीं बल्कि
स्थिति-जन्य कारणों से गरीब है राज्य का नैतिक दायित्व है. सन १९८० में शुरू हुआ
उदारीकरण दस साल बाद सन १९९१ में भारतीय अर्थ-व्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था के
साथ समेकित करने का सबब बना जो आज नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में परिणित हुआ. इन ३१
वर्षों में देश का सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर (जी डी पी ग्रोथ रेट) औसतन ६.५० प्रतिशत रहा. हमने नयी व्यवस्था को लेकर कसीदे
काढ़े. “इंडिया शाइन” करने लगा. लेकिन मानव विकास सूचकांक (एच डी आई) में भारत तब
भी १३४वेन नंबर पर था और सन २०११ में भी ठीक १३४ वें नंबर पर (भूटान और बांग्लादेश
से भी नीचे ) है. क्या देश के वित्त मंत्री पी चिदंबरम इस बात को कल पेश होने वाले
बजट में संज्ञान लेंगे?
संसद में बुधवार को पेश
हुए वर्ष २०१२-१३ के आर्थिक सर्वेक्षण कल पेश होने वाले बजट की आहट बताता है. दो
बाते स्पष्ट है. पहला : खाद्य सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाएगी और दूसरा:
पेट्रोलियम पदार्थों खासकर डीजल पर सब्सिडी में कटौती की जाएगी. पहला चुनाव की
वैतरणी पार कराएगा और दूसरा भारतीय अर्थ-व्यवस्था को वित्तीय घटा कम करके
अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों की हीं नहीं विदेशी निवेशकों की नज़र में भी उंचा
करेगा.
पर इस सर्वेक्षण का एक
तीसरा पहलू भी गौर करने लायक है. यह सिद्ध करता है कि कम टैक्स दर से ज़रूरी नहीं
कि कर की चोरी ना हो. भारत में प्रत्यक्ष कर और जी डी पी का अनुपात महज सात फी सदी
है जबकि अति गरीब मुल्कों में भी यह दूना या उससे ज्यादा है. अमीर देशों में तो यह
३० फीसदी से अधिक है. आखिर हम क्यों शर्माते है अमीरों से टैक्स लेकर ग़रीबों के
विकास में लगाने में.
स्थिति यह है कि अगर
किसी व्यक्ति की आमदनी दस लाख रुपये सालाना है तो वह ३० प्रतिशत टैक्स देता है लेकिन
अगर एक अन्य व्यक्ति की आमदनी १०,००० करोड़ है तो वह भी ३० प्रतिशत हीं देगा. यह
कहा जा रहा है कि कम टैक्स दरें होंगी तो लोग कर चोरी नहीं करेंगे लेकिन यह बात आज
पेश हुए सर्वेक्षण ने गलत साबित कर दी. और फिर राज्य अभिकरण चोरी के डर से टैक्स
कम करे यह बात हजम नहीं होती.
अर्थशास्त्र का एक मूल
सिद्धांत है कि अगर महंगाई ज्यादा है तो सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी ) और वित्तीय
घाटे के अनुपात का कोई मतलब नहीं रहा जाता. लेकिन जो सबसे चौंकाने वाले तथ्य इस
सर्वेक्षण से पता चलता है वह ये कि कर
वसूली लक्ष्य से कम हुई है. अगर महंगाई बढ़ी है तो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर
दोनों का लक्ष्य क्यों नहीं हासिल हो सका.
आज देश में लगभग २.८४
करोड़ आय कर दाता है. इनमें से केवल चार लाख करदाता ऐसे हैं जिनकी आमदनी २० लाख से
ऊपर है और जिनका कुल टैक्स कोई चार लाख करोड़ रु. है और जो कि इस मद में आने वाले
टैक्स का ८९ प्रतिशत है. बाकि २.८० करोड़ आयकर दाताओं से महज ११ प्रतिशत टैक्स आता
है. अगर इस रु बीस लाख की आमदनी वाले चार लाख लोगों से ४० प्रतिशत टैक्स लिया जाये
और तीस लाख से ऊपर वालों से ५० प्रतिशत या इससे ऊपर वालों से ६० प्रतिशत तो ना
केवल आय बढेगा बल्कि वित्तीय घाटे का हौवा भी ख़त्म होगा और गरीबों को और सब्सिडी
दी जा सकेगी. माध्यम वर्ग को भी , जिसे आजकल महत्वाकांक्षी भारत (एस्पिरेस्नल
इंडिया) कहा जाता है , एक बड़ी रहत मिलेगी .
याद आता है दो साल पहले
का आर्थिक सर्वेक्षण (२०१०-११) जिसमे बताया गया था कि उत्पाद कर और जी डी पी का
अनुपात २००५-०६ के मुकाबले तीन प्रतिशत से घट कर १.७ प्रतिशत और कस्टम्स का १.८ से
घट कर १.५ प्रतिशत हो गया था. कुल मिलाकर इस अवधि में इस नीति से देश को
अप्रत्यक्ष कर में लम्बा चूना लगा.
एक
अन्य उदहारण लें. फ़ोर्ब्स मैगज़ीन में भारत के उन १०० लोगों को शामिल किया गया है
जिनका नेट वर्थ (पूंजीगत हैसियत) रु १२ लाख करोड़ है. लेकिन इन्हें कोई वेल्थ टैक्स नहीं
देना पड़ता. इसी तरह डिविडेंड को आयकर से इस आधार पर बाहर रखा गया है कि कंपनी
जिसका शेयर धारक ने लिया है पहले हीं टैक्स दे चुका है. लेकिन गौर करने की बात है
कि एक नौकरी पेशा व्यक्ति १०० शेयर खरीद कर रु. दस हज़ार कमाता है और दूसरा
व्यवसायी १० हज़ार शेयर लेकर दस लाख कमाता है दोनो को आय कर में पूरी छूट मिलाती
है.
अगर लगभग साढ़े पांच लाख
करोड़ की छूट के बावजूद औद्योगिक विकास दर जमीन नहीं छोड़ रही है तो एक बार सोचना
होगा कि समस्या कहीं और है. प्रत्यक्ष कर (आय कर और कॉर्पोरेशन कर) एवं अप्रत्यक्ष
कर (कस्टम्स और उत्पाद) के रूप में मिलाने वाली छोट इसलिये दी जाति है कि कीमतें
नियंत्रण में रहें और औद्योगिक कंपनियां इस छूट का लाभ कीमतें कम रख कर जनता तक
पहुंचाएं. पर जिस तरह कीमतें आसमान पर रहीं उसे देखा कर सरकार को सोचना पडेगा कि मर्ज
कहीं और तो नहीं है.
आज ज़र्रोरत इस बात की
है कि अप्रत्यक्ष कर में छूट दे कर प्रत्यक्ष कर को कई श्रेणियों में बनता जाये
याने १० से लेकर ६० प्रतिशत के छः स्लैब रखे जाएँ. अगर संपन्न देशों में जहाँ गरीब
–अमीर का अंतर इतना नहीं है या आभावग्रस्त लोगों का प्रतिशत पूरी आबादी का ७७
प्रतिशत नहीं है वहां भी सर्वोच्च टैक्स स्लैब ८० प्रतिशत से ऊपर है. क्या भारत
ऐसा करके बढ़ाते जी डी पी का लाभ कृषि में पूंजी –निर्माण के लिए नहीं लगा सकता? आज
देश का ४० प्रतिशत किसान अवसर मिलते हीं खेती छोड़ कर मजदूरी को तैयार है. क्या रु
२७ प्रतिदिन (सरकारी आंकड़ा) पाने वाले ४२ प्रतिशत अभावग्रस्त जीवन जीने से बचाए
नहीं जा सकते?
bhaskar