आखिर
क्या वजह है कि ताज़ा वैश्विक
भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत
सन २०१६ के मुकाबले सन २०१७
में दो खाने नीचे चला गया याने
७९ से ८१ पर? दरअसल
यह सूचकांक भ्रष्टाचार को
लेकर बनी जन -धारणा
से बनता है. क्या
वाकई भ्रष्टाचार बढ़ा है?
जब भी कोई सरकार
व्यापक स्तर पर जनोपदेय गरीबी
-उन्मूलन
या विकास के प्रोडक्ट लाती
है तो यह भ्रष्ट तंत्र उसकी
काट निकाल लेता है और जब जनता
से पूछा जाता है कि “मोदी राज
में कैसा चल रहा है’ तो उसका
जेहन में सरकार के विकास कार्यों
के प्रति तो उत्साह होता है
(कि कुछ
बदल रहा है) लेकिन
जब भ्रष्टाचार को लेकर सवाल
पूछा जाता है तो उसका जवाब
उदासीन “अरे सब कुछ वैसे हीं
है या..... बढ़ा
है” में होता है. स्थानीय
साहूकार से क़र्ज़ लेकर घूस देने
के बाद उसका जवाब क्या होगा
समझना मुश्किल नहीं है.
वरना जब बहुत
सारे जनहित के कार्यक्रम शुरू
किये गए हैं और सत्ता के शीर्ष
पर बैठे लोगों के खिलाफ आज तक
कोई छोटा आरोप भी नहीं है तो
परसेप्शन क्यों खराब होगा ?
दरअसल जन -धारणा
बनती है जमीन पर रोज़मर्रा के
जीवन में सामान्य नागरिकों
द्वारा झेले गए भ्रष्टाचार
के दंश से. और
वह बदस्तूर कायम है बल्कि
ज्यादा फण्ड आने से ज्यादा
बढ़ा है.
आज
देश में विकास व जनोत्थान के
लगभग २०० योजनायें है लेकिन
भ्रष्ट अफसर-जन
प्रतिनिधि घटजोड़ ने सरकार के
डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर
(प्रत्यक्ष
लाभ हस्तांतरण) जिसे
डी बी टी के नाम से जाना जाता
है की भी काट निकाल ली है.
अब लाभार्थी
से नाम की संस्तुति या चरणबद्ध
पेमेंट के पहले हीं पैसा ले
लिया जाता है. चूंकि
इन गरीबों के पास एडवांस पैसा
देने की कूवत नहीं होती तो ये
बड़े लाभ के लिए स्थानीय महाजन
से कर्जा महंगे व्याज (१००
का २० रुपया प्रतिमाह)
पर लेते हैं
ताकि ब्लाक का भ्रष्ट अफसर-ग्राम
प्रधान (मुखिया)
गठजोड़ उसे
लाभार्थी बना कर उसे शौचालय,
आवास,
रोजगार के लिए
सस्ता ऋण उपलब्ध करा सके.
प्रशासनिक
सिद्धांत है कि राज्य अभिकरणों
और लाभार्थियों के बीच अगर
ज्ञान की खाई बनी रही तो वह
शोषण और तज्जनित भ्रष्टाचार
को जन्म देती है. यही
कारण है जिला पंचायत अध्यक्ष
या ब्लाक प्रमुख तो छोडिये,
मुखिया जी भी
चुने जाने के एक साल के भीतर
एस यू वी पर चलने लगते हैं.
घुरहू -पतवारू
के नाम मिलने वाले उन लाभों
को भी जो सामान या यन्त्र के
रूप में मिलते हैं हड़प जा रहे
हैं.
लोक-प्रशासन
के मान्य सिद्धांतों के अनुसार
भ्रष्टाचार अगर राज्य अभिकरणों
में लगे लोग (अफसरशाही)
और गरीब लाभार्थी
के बीच ज्ञान की खाई (नॉलेज
गैप) कम
हो तो लाभ के उत्पादों को
लाभार्थी तक पहुँचाने में
मानव भूमिका को कम से कम करने
की कोशिश की जानी चाहिए.
मोदी के
प्रधानमंत्री बनने के बाद इस
बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया
गया. दिन-रात
लग कर खाते खुलवाए गए और मोबाइल
-आधार
कार्ड से लिंक करके डी बी टी
योजना लाई गयी. लेकिन
चूंकि खतरा यह था कि गरीब
लाभार्थी एक मुश्त पैसा मिलने
पर शौचालय बनवाने की जगह फिर
कहीं और खर्च कर देगा तो घूस-खोर
अब एडवांस में पैसे लेने लगे.
दिल्ली
से सटे एक जिले में जहाँ से एक
केन्द्रीय मंत्री भी आते हैं
एक लाभार्थी से कहा गया कि तुम
शौचालय के लिए गड्ढा खुदवाओ
और तुम्हारे खाते में २०००
रुपये पहली क़िस्त के रूप में
आ जायेंगे. वह
क़िस्त तो आयी लेकिन आगे की
क़िस्त के लिए पैसे की मांग
होने लगी. उस
गरीब की बकरी एक दिन गड्ढे में
गिरी और उसकी टांग टूट गयी.
घूस के पैसे
न देने के कारण अगली क़िस्त में
विलम्ब हुआ, गड्ढा
भर गया. बकरी
से होने वाली आय भी जाती रही,
सरकारी कागजों
में गाजियाबाद “ओ डी एफ” (खुले
में शौच से मुक्त” ) घोषित
भी हो गया. जिला
प्रशासन, नगर
निगम और मंत्री ने समारोह में
ताली भी बजवा ली. किस्तों
में (चरणों
में काम होने पर जैसे भवन के
लिए नीव डालने पर एक क़िस्त ,
फिर दीवाल खडी
होने पर दूसरी ) पैसा
सरकार इसलिए देती है क्योंकि
उसे डर रहता है कि पैसे का
इस्तेमाल अन्य मद में लाभार्थी
कर सकता है, यहीं
पर मुखिया, लेखपाल
या निम्न स्तर से ऊपर तक की
अफसरशाही की भूमिका आती है
और भ्रष्टाचार का रेट भी बढ़
जाता है.
समस्या
यह है कि मीडिया भी भ्रष्टाचार
को तब तक वरीयता पर नहीं रखता
जबतक कोई बड़ा नाम उससे न जुड़े.
जन -शिक्षा
जो मीडिया के मूल कार्यों में
से एक है “तेरा नेता ,
मेरा नेता “
हर शाम स्टूडियो के शोर में
खो जाता है. प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी का राष्ट्रीय
किसान उन्नति मेला में १७
मार्च, २०१८
को दिया गया बेहद स्पष्ट बयान
जो भारत के किसानों का भाग्य
बदलने वाला है उसे दिन-रात
दिखाने के बजाय शाम को फिर उसी
“दाढी-टोपी
बनाम तिलक” फार्मूले पर डिस्कशन
कराता रहा. क्योंकि
इसमें एंकर या एडिटर के ज्ञान
की जगह गले में ताकत से काम चल
जाता है. भारतीय
मीडिया अज्ञानी, नासमझ
और तमाशेबाज़ है.
भ्रष्टाचार
एक सामाजिक व्याधि है.
दुनिया भर में
प्रशासनिक इतिहास गवाह है कि
जिन देशों में भ्रष्टाचार की
जड़ें बेहद गहरी थी (सिंगापुर,
मलेशिया से
ब्राज़ील तक) और
कालांतर में उनसे छुटकारा
पाया जा सका उनमें सामाजिक
क्रांति, सामूहिक
सोच में बदलाव और वैज्ञानिक
तर्क-शक्ति
पहली शर्त रही. भारत
में भ्रष्टाचार सन १९७० से
“कोएर्सिव” से हट कर “कोल्युसिव”
(समझौता)
स्टेज पर पहुँच
गया है जिसका खात्मा महज कानून
बना कर या एक या दो संस्थाओं
को अस्तित्व में ला कर नहीं
किया जा सकता. मात्र
योजनायें ला कर या “प्रत्यक्ष
लाभ हस्तांतरण” के जरिये इस
कैंसर पर काबू पाना भी नामुमकिन
है. बल्कि
यह देखने में आ रहा है कि “ज्यादा
योजना , ज्यादा
भ्रष्टाचार” और “ज्यादा लोगों
की शिरकत, बढे
दर से भ्रष्टाचार”. इस
भ्रष्टाचार से लड़ने में सभी
सरकारें पिछले ७० साल से असफल
रही हैं. अफसरशाही
के हाथ से विकास को निकाल कर
त्रि-स्तरीय
पंचायत राज सिस्टम को दिया
गया और साथ हीं एन जी ओ (गैर-सरकारी
संगठन) को
भी शामिल किया गया लेकिन दशकों
बाद भी समस्या बढी हीं है कम
नहीं हुई. आज
मोदी सरकार को शायद कोई नया
समाधान तलाशना होगा.
जहाँ संस्थागत
स्तर पर कड़े कानून ला कर आमूल-चूल
परिवर्तन अपेक्षित है वहीं
ग्राम ब वार्ड के स्तर पर लोगों
में सामूहिक चेतना का स्तर
“जीरो टोलरेंस” तक बढ़ाना पडेगा
. जैसे
हीं समाज या व्यक्ति समूह इसके
खिलाफ जाति, धर्म
या अन्य पहचान समूह के शिकंजे
से निकल कर तथाकथित जन-प्रतिनिधियों
-अफसरशाहों
के खिलाफ तन कर खड़ा होगा यह
कैंसर हारने लगेगा. चूंकि
भ्रष्टाचार एक सामाजिक व्याधि
है इसलिए इसे जब तक सामाजिक
क्रांति के स्तर पर यह भाव
नहीं विकसित किया जाएगा,
परिणाम नकारात्मक
ही रहेंगे.
lokmat