Tuesday 2 February 2021

कांटेदार अवरोध के बीच वार्ता कैसे संभव



आमतौर पर पूरी दुनिया में राज्य का चरित्र दमनकारी होता है याने बल प्रयोग कर विरोध के स्वर को दबाना. लेकिन प्रजातंत्र में सत्ताधारी वर्ग को इस बात का खौफ जरूर रहता है कि विरोधी स्वर कितना व्यापक और तीक्ष्ण है और इसके राजनीतिक फायदे-नुकसान क्या-क्या हो सकते हैं. यही वजह है कि ७० दिन पुराने किसान आन्दोलन के गाहे-ब-गाहे उग्र होने के बावजूद पुलिस ने संयम नहीं खोया. लेकिन हाल में जिस तरह आन्दोलन-स्थल के सभी ओर कांटेदार बहु- स्तरीय बाड़े, सीमेंट से स्थाई रूप से जाम किये बोल्डरों की कतार पुलिस ने खड़ी की है ताकि रसद-पानी तक आन्दोलनकारियों को न मिल सके, यह शायद विरोध दबाने का सत्ता का अनूठा गांधीवादी तरीका है. बापू ने तो सत्ता के खिलाफ अहिंसक जनांदोलन का नायब तरीका विश्व को दिया था लेकिन भारत में वर्तमान सत्ता वर्ग ने भी बगैर हिंसा के आन्दोलन दबाने का नया हथियार चुना है. यह अलग बात है कि किसानों का जत्था हजारों की तादात में सिंघू और यूपी-दिल्ली बॉर्डर पर पहुँच रहा है. ऐसे में प्रधानमंत्री का  आन्दोलनकारियों से “महज एक फ़ोन कॉल दूर” का न्योता देना विरोधाभासी है. वार्ता के टेबल पर आने के लिए दोनों पक्षों के बीच एक-दूसरे की सदाशयता को लेकर पारस्परिक विश्वास पहली शर्त है. यह सच है कि इन दोनों आन्दोलन-स्थलों के राजमार्ग पर होने के कारण जनता को दिक्कत आ रही है लेकिन अगर कोई आन्दोलन राजस्थान के रेगिस्तान में या दुनिया की नज़रों से दूर बियाबाँ में हो तो किसी सरकार के कान पर जूं भी नहीं रेंगेगी, न हीं बाहरी दुनिया इसके बारे में जान भी पायेगी. इस बजट में भी ऐसा कोई उपक्रम नहीं रहा जिससे किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर होने के संकेत मिलते हों. लिहाज़ा किसानों को झुकाने की नीति की जगह उनकी समस्या का समाधान तलाशना बेहतर विकल्प होता. तीन दिन पहले जारी आर्थिक सर्वेक्षण के पहले अध्याय की शुरुआत सरकार ने महाभारत के शांतिपर्व के इस श्लोक से की है—“आपदि प्राणरक्षा हि धर्मस्यप्रथामंकुरः याने आपद्ग्रस्त जीव की प्राणरक्षा हीं धर्म का पहला कर्तव्य है”. क्या किसानों को खाना-पानी, शौच और बिजली की जीवनदायी सुविधा से वंचित करना, जो अन्दर हैं उन्हें निकलने का रास्ता न देना और जो बाहर हैं उन्हें आन्दोलन-स्थल पर जा कर अपने स्वजनों से न मिलने देना वर्तमान सरकार को धर्म के मार्ग से दूर नहीं करेगा? 

Friday 29 January 2021

आन्दोलन चले, न चले, दोनों में सरकार की हार




दो माह पुराना किसान आन्दोलन एक अजीब मोड़ पर आ खड़ा है. गणतंत्र दिवस के दिन हुई हिंसक घटनाओं और लाल किले पर झंडा लगाने से किसानों के प्रति जन-समर्थन कम हुआ है. हालांकि आन्दोलनकारी लोगों को बता रहे हैं कि एक दिन पहले हीं दिल्ली पुलिस को उन्होंने आगाह किया था कि कुछ संगठन उनके नियंत्रण में नहीं हैं और उनकी गतिविधियों पर नज़र रखनी चाहिए. लालकिले की घटना के मास्टरमाइंड की प्रधानमंत्री व गृहमंत्री की साथ फोटो भी जन-विमर्श का हिस्सा बन गयी है. लेकिन इन सब से किसान नेताओं की गलती कम नहीं होती, न हीं आम जनता की उनके प्रति-सहानुभूति पहले जैसी फिलहाल रहेगी. इसी बीच तथाकथित स्थानीय जनता सड़क पर आने-जाने के अपने अधिकार को लेकर किसानों का विरोध करने लगी है. सरकार को इससे ताकत मिली है. बड़ी तादात में पुलिस ने घेरा डाल आन्दोलनकारियों को जगह खाली करने की नोटिस दी है. बिजली, पानी, सचल शौचालय सुविधाएँ रोक दी गयी हैं. शायद बल-प्रयोग का मन भी बना है. उधर आक्रोशित किसान बड़ी तादात में फिर से घरना-स्थल की ओर कूच कर रहे हैं. संभव है सुविधाओं की अभाव, सरकारी बल-प्रयोग के अंदेशे और आपसी सामंजस्य की कमी से यह आन्दोलन बगैर किसी नतीजे के ख़त्म हो जाए और किसान वापस चले जाएँ. लेकिन क्या यह उनकी हार होगी? क्या यह सरकार की जीत होगी. सरकार शायद भूल रही है कि आन्दोलन ख़त्म होने से जो सन्देश देश भर के किसानों में जाएगा वह यह कि सरकार के दमन से आन्दोलन ख़त्म हुआ और यह भी कि सरकार किसान-विरोधी है. देश की आबादी में ६८ प्रतिशत किसान हैं और किसी भी राजनीतिक दल के लिए किसान-विरोधी इमेज बड़े घाटे का सौदा है. आन्दोलन के बाद से देश भर का किसान यह मानने लगा है कि एमएसपी पर खरीद एक जायज मांग थी और सरकार उसे नहीं मानना चाहती. इस वर्ग को तीन कानून की पेचीदगियां इतनी प्रभावित नहीं करती जितनी एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी. वह जानता है इस गारंटी में हीं सब कुछ निहित है. क्योंकि इससे कम व्यापारी भी उत्पाद नहीं खरीद पायेगा. और यही किसान की जीत है. क्या सरकार इस नाराजगी को दूर करने के लिए इस बजट में कुछ ऐसी व्यवस्था करेगी?  

Monday 18 January 2021

टीकाकरण में दोष या विपक्षी दिवालियापन


सरकार की नीतियों में दोष तलाशना किसी भी प्रतिस्पर्धात्मक प्रजातंत्र में विपक्ष का कर्तव्य होता है. जनता सरकार को अच्छा करने के लिए हीं चुनती है लिहाज़ा अच्छा करना कोई अहसान नहीं है.  लेकिन जब सरकार के अच्छे कार्यों में भी गलतियाँ तलाशीं जाती हैं तो आम जनता में विपक्ष के प्रति अविश्वास पैदा होता है. बगैर किसी अन्य देश का मोहताज हुए देश में हीं, रिकॉर्ड समय में तैयार की गयी वैक्सीन एक उपलब्धि है. यह कहना कि वैज्ञानिक तो अच्छे हैं पर सरकार गलत, कुछ ऐसा हीं है जैसे सेना जीती तो सेना को तो बधाई पर सरकार की इस बात के लिए बुराई कि लड़ाई में कुछ सैनिक घायल क्यों हुए. अगर अन्य देशों में टीका लगता और भारत पीछे रहता तो क्या यही विपक्ष सरकार की लानत-मलानत न करता? पूरे देश में मुफ्त टीके की विपक्षी मांग भी कुछ इसी तरह का सरकार-विरोध है. आर्थिक स्थिति खराब है. कोरोना काल के लॉकडाउन के कारण राजस्व में भारी कमी आयी है. ऐसे में सरकार पर दबाव यह है कि लोगों के हाथ में किसी न किसी बहाने पैसा पहुंचाया जाये ताकि वे खरीद करें और अर्थ-चक्र घूमना शुरू हो. उधर इस साल किसान आन्दोलन के कारण जरूरत से ज्यादा अनाज एमएसपी पर सरकारी एजेंसियों ने खरीदा है और अन्य राहत देने की तैयारी चल रही है. टीकाकरण की प्रक्रिया भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में स्वयं में एक दुरूह कार्य है. विपक्ष का लोगों को डरवाना कि अमुक वैक्सीन क्लिनिकल ट्रायल के स्तर पर हीं लोक-प्रयोग के लिए लाना खतरनाक है, गैरजिम्मेदाराना रवैया है. जरूरत है जनता में वैक्सीन के प्रयोग को लेकर सकारात्मक माहौल बनाने की. सरकार का आभार इस हौसले के लिए भी व्यक्त करना चाहिए कि कोरोना के खिलाफ अंतिम युद्ध जीतने के लिए सरकार ने वे सभी सावधानियां बरतीं जो ब्रिटेन या अमेरिका की सरकारों ले लीं. हाँ, एक साल में टीका का ईजाद और लोक-प्रयोग की इज़ाज़त स्वयं हीं एक रिस्क है जो भारत सहित पूरी दुनिया ने लिया. वैसे भी केवल ०.२ प्रतिशत लोगों में टीके के मामूली साइड इफ़ेक्ट मिलना सकारात्मक सोच को बल देता है.