भारत का संविधान आज से ६८ साल पहले २६ नवम्बर को अंगीकृत किया गया. इसकी उद्देशिका कहती है “हम भारत के लोग ......... समस्त नागरिकों को ....अवसर की समानता प्राप्त करने के लिए ..... दृढ संकल्प हो कर .... इस संविधान को अंगीकृत .... करते हैं”.
लेकिन ६८ साल बाद हम भारत के लोगों की तस्वीर कुछ अलग दिखाई देती है. कुछ रिपोर्ट एक गरीबी से कराहते भारत को दिखाते है तो दूसरे रिपोर्ट एक चमकते भारत की तस्वीर बयान करते हैं. जनता के लिए मुश्किल हो गया है कि भारत को अपना समझे.
वर्ल्ड इकनोमिक फोरम (जहाँ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बताया कि भारत में समावेशी आर्थिक विकास हो रहा है) ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत इस समावेशी विकास में दुनिया के ७४ देशों में दो स्थान फिर फिसल कर ६२ वें नंबर पर आ गया है. जबकि पाकिस्तान ने अपने अंक में पांच रैंक ऊपर (४७ वें स्थान पर) चला गया है.
ऑक्सफाम की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष (२०१७) जो पूंजी पैदा हुई उसमें ऊपर के एक प्रतिशत लोगों के पास देश की ७३ प्रतिशत पूंजी आयी जबकि ९९ प्रतिशत मात्र २७ प्रतिशत. साथ हीं देश की ६७ करोड गरीबों की पूंजी मात्र एक प्रतिशत बढी. भारत में अब १०१ अरबपति हैं जिनमें ३७ प्रतिशत को (बगैर कोई काम किये) विरासत में यह दौलत मिली है. विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार सन २०१४ में इस एक प्रतिशत बड़े वर्ग के पास मात्र २२ प्रतिशत पूँजी आयी थी.
आई एल ओ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में बेरोजगारी की दर (३.४ से ३.५ ) बढी है और अगले तीन साल तक बढ़ती रहेगी जबकि दुनिया में औसत दर (५.८ से ५.६ ) घटी है और घटती रहेगी.
अब जरा तस्वीर का दूसरा पहलू देखें.
आई एम एफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत अगले दो सालों में दुनिया का सबसे तेज विकास करने वाला देश बन कर अपनी जी डी पी विकास दर सन २०१८ में ७.४ प्रतिशत और सन २०१९ में ७.८ प्रतिशत हासिल कर सकता है.
........ दुनिया के तमाम सी ई ओ को लेकर हुए एक सर्वे में जापान को पछाड़ कर भारत दुनिया का पांचवां सबसे आकर्षक निवेश गंतव्य
......... आई एम एफ की रिपोर्ट के आने के बाद सेंसेक्स में रिकॉर्ड उछाल
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उपरोक्त दो रिपोर्ट समूह भारत की एकदम उल्टी तस्वीर पेश करते हैं. जाहिर है पहले समूह की रिपोर्टें दुनिया के सी ई ओ को खुश करती है और स्टॉक मार्किट भी आह्लादित हो कर सेंसेक्स को आसमान पर पहुंचा देता है. संभ्रांत वर्ग को लगता है कि भारत बदल रहा है. लेकिन दूसरी रिपोर्ट समूह यह साफ़ दिखाती है कि देश की अर्थव्यवस्था शायद सबसे संकट के दौर में है. अगर गरीब-अमीर के बीच की खाई लगातार बढ़ती रहेगी, अगर बेरोजगारी अगले कई साल तक बढ़ती रहेगी और अगर जी डी पी विकास दर समावेश न होकर एक वर्ग विशेष को हीं लाभ पहुंचाएगी तो क्या गरीब सेंसेक्स में उछाल को देखकर अपनी भूख मिटा लेगा ?
भारत के अन्दर दो देश अस्तित्व में हैं. एक जो विरासत में पाए पैतृक संपत्ति से या शेयर में पैसे लगा कर बगैर कुछ किये मालामाल हो रहा है वहीं ६७ प्रतिशत किसान और खेतिहर मजदूर के लिए दो जून की रोटी मुहाल हो रही है. पिछले चार सालों में शुरू के दो साल इंद्र भगवान् के मुंह फेर लेने की कारण किसान सूखे की मार झेलता रहा और तीसरी साल अनाज, दलहन, प्याज, आलू, कपास और अन्य फसल की पैदावार तो इस किसान ने अपनी कर्मठता से रिकॉर्ड स्तर तक पहुंचाई लेकिन उनके दाम जमीन पर आ गए क्योंकि उपज बढ़ने पर राज्य अभिकरणों के पास उनके विपणन और भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं हो सकी. किसानों ने अपने अनाज और सब्जियां सडकों पर फेंकना शुरू किया. नतीजतन चौथे साल याने इस साल हताश किसानों ने कम खेती की. अनाज का ज्यादा उत्पादन हो तो कीमत कम करके व्यापारी मालामाल और अनाज कम पैदा हो तो ऊँची कीमतों से मध्यम वर्ग के उपभोक्ता की कमर पर वार. याने दोनों स्थितियों में व्यापारी खुश, शेयर मार्किट के लोग खुश. याने चाकू खरबूज पर गिरे या खरबूज चाकू पर , कटेगा खरबूज हीं.
दावोस में मोदी ने बताया कि सन २०२५ तक भारत की अर्थव्यवस्था की साइज़ दो गुना बढ़ कर पांच ट्रिलियन डॉलर हो जायेगी. उन्होंने दुनिया भर से आये राष्ट्राध्यक्षों को हीं नहीं उद्योगपतियों को भी बताया भारत की “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया..... मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत (सभी लोग सुखी हो, सभी निरोग हो ... और किसी को भी देख न हो ).
लेकिन ऑक्सफाम के रिपोर्ट के अनुसार गाँव का एक कामगार ५० साल में जितना पैसा कमाता है उतना किसी शीर्ष गारमेंट कंपनी का एक मैनेजर मात्र १७.५ दिन में कमाता है. या यूं कहें कि जितना यह मोती तनख्वाह पाने वाला मैनेजर एक साल में कमाता है उतना कमाने कि लिए उस कामगार को ९४१ वर्ष लगेंगे अर्थात लगभग सौ पीढी.
क्या खता की है इन कामगारों ने? क्या ये कम फावड़ा चलाते हैं या इनके फावड़ा चलने से वह कारु का खजाना नहीं निकलता जो एक सी ई ओ अपने ए सी चैम्बर में बैठ कर एक लोकलुभावने विज्ञापन दे कर या एक शेयर मार्किट का खिलाड़ी मार्किट पहचान कर रातोंरात करोड़ों पैदा कर लेता है.
फिर क्या है कि ७० सालों में भी वह कामगार वहीं रहा और उसका फावड़े में वह दम नहीं आ सका जो एक बड़े बाप का बेटा शेयर मार्किट से हासिल कर लेता है ? और फिर उसी पैसे की एक प्रतिशत में लगातार इकट्ठा होने का जश्न मन कर दुनिया के सी ई ओ कहते हैं कि निवेश के लिए भारत दुनिया का पांचवां आकर्षक गंतव्य है. शायद उन्हें या शेयर मार्किट के खिलाडियों को इससे मतलब नहीं होता कि गरीब -अमीर की खाई बढ़ती जा रही है या बाल मृत्यु दर में अपेक्षित बेहतरी नहीं हो पाई है.
अगर किसान खेती छोड़ रहा है तो इसलिए नहीं कि कल से उसका बेटा शेयर मार्किट में पूंजी लगाकार बैठे बैठे देश की कुल पूँजी का ७३ प्रतिशत हासिल कर लेगा बल्कि इसलिए कि शायद मजदूर बनना अन्नदाता बनने से बेहतर जिन्दगी दे सके. यह अलग बात है कि वहां भी आई एल ओ की रिपोर्ट के अनुसार आगे तीन साल में रोजगार के अवसर कम मिलेंगे.
उदारीकरण के बाद स्थिति और बिगड़ी है. इन बड़े लोगों (ऊपर के एक प्रतिशत ) के पास कुल २०.९० लाख करोड की संपत्ति है जो भारत के बजट के लगभग बराबर है. सन २००० में इनके पास ३७ प्रतिशत पूंजी थी जो सन २००५ में ४२ प्रतिशत हुई, सन २०१० में ४८ प्रतिशत एंड सन २०१२ में ५२ प्रतिशत और आज “सबका साथ , सबका विकास “ के नारे के बाद यह पूंजी ५८ प्रतिशत हो गयी है.