Friday 1 April 2016

दल-बदल कानून में जबरदस्त खामी, गैर-कानूनी हरकत का परिणाम अपरिहार्य

मूल्यविहीन राजनीति—एक खतरनाक संकेत



उत्तराखंड के संवैधानिक संकट ने एक बार फिर साबित कर दिया कि सन २००३ में हुए संविधान संशोधन के बावजूद वर्तमान दल-बदल कानून में जबरदस्त खामी है. अगर कांग्रेस के नौ विधान सभा सदस्य पार्टी व्हिप के खिलाफ जाते हुए धन-विधेयक के खिलाफ वोट करते तो उनका कृत्य गैर-कानूनी होता क्योंकि संविधान की १०वी अनुसूची (पैर २) इसकी इज़ाज़त नहीं देता लेकिन इस गैर-कानूनी हरकत पर उनकी सदस्यता तो बाद में जाती पहले सरकार गिर जाती. यह जानते हुए भी कि सदस्य या कुछ सदस्यों का (जब तक कि वे विधायक दल की कुल संख्या के २/३ से कम नहीं है और साथ हीं दूसरी पार्टी में विलय की घोषणा नहीं करते—पैरा ४) यह कृत्य गलत है उन्हें सजा बाद में मिलेगी लेकिन उनके इस गैर-कानूनी हरकत का परिणाम अपरिहार्य होगा, कानून कुछ नहीं कर सकता.

उत्तराखंड में संविधान की धज्जियाँ उडीं. सबने उड़ाईं. जब मुख्यमंत्री और स्पीकर को पता चला कि कुछ बागी (जिनकी संख्या कम होने से कानून इज़ाज़त नहीं देता) ऐसा कुछ करने जा रहे हैं तो उन्होंने भी उसी कानून के उल्लघन का सहारा लिया. याने सदस्य मत-विभाजन की मांग करते रहे, स्पीकर ने बजट ध्वनिमत से पास कर दिया. अगर कानून यह होता कि व्हिप का उल्लंघन होने पर उलंघनकर्ता की सदस्यता तत्काल स्वतः समाप्त और मतदान दोबारा हो तो स्पीकर को सरकार बचाने के लिए इस अनैतिक हरकत का सहारा न लेना पड़ता. पर हम्माम में नहाने की शायद शर्त हीं है अनैतिक बनना। फिर शुरू हुआ खरीद-फरोख्त और सदस्यों को अगवा (?) करके रिसोर्ट में छिपाने का दौर. राज्यपाल ने बहुमत सिद्ध करने के लिए सरकार को ज्यादा समय दे कर जाने अनजाने में इस प्रक्रिया को और हवा दे दी. अगर सदन पर शक्ति परीक्षण होता तो फिर वही ढाक के तीन पात. मात्र नौ सदस्य (जो कांग्रेस विधायक दल का मात्र एक-चौथाई होता है) भारतीय जनता पार्टी से मिल कर सरकार गिरा देते. लिहाज़ा स्पीकर ने उन्हें निकालने का फैसला कर लिया था.

अब बारी थी केंद्र सरकार की याने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार की. उसको संविधान के अनुच्छेद ३५५ की याद आयी जिसके तहत उसकी जिम्मेदारी है कि यह सुनिश्चित करे कि राज्यों में सरकार संविधान के अनुरूप चले. उसने भी अर्ध-सत्य का सहारा लिया याने जहाँ से विधान-सभा के स्पीकर ने “गैर-कानूनी” फैसला लिया था (अर्थात मतदान न करा कर बजट को ध्वनि मत से पास मान लिया था). केंद्र को यह नहीं दिखा कि उसके कुछ क्षण पहले कांग्रेस के असंतुष्ट विधायकों, जिनकी संख्या कम होने से कानून इज़ाज़त नहीं देता कि वे व्हिप के खिलाफ जाये और पार्टी विरोधी गति-विधि के तहत एक अन्य पार्टी से मिलकर सरकार गिराने के कार्य में लगें, ने संविधान का अनुपालन नहीं किया. यहाँ दल-बदल कानून की स्पष्ट कमजोरी है कि वह एक्शन में तब आता है जब गैर-कानूनी हरकत से क्षति या लाभ हो चुका होता है. 

उत्तराखंड के संकट ने दो बातें साफ़ कर दी हैं. संविधान की इमारत चाहे कितनी हीं पुख्ता बना लीजिये, रंग-रोगन करा लीजिए लेकिन उसकी देखभाल करने वाले अगर मजबूत नैतिक स्नायु वाले नहीं है तो यह भव्य इमारत ईंट दर ईंट गिरती रहेगी. हमने ३५ साल तक दल-बदल विरोधी कानून नहीं बनाया था तो भी “आया-राम, गया-राम” संस्कृति संविधान को मुंह चिढाती रही और रातों-रात दल-बदल कर कोई सांसद या विधायक संप्रभुता का प्रतीक लाल बत्ती लगाये मंत्री पद की “संविधान में अपनी निष्ठा” की झूठी शपथ लेता रहा. जब सन १९८५ में यह कानून बना तो उसके बाद स्पीकर और दबंग नेता इस कानून की व्याख्या के नाम पर खुलकर तांडव करते रहे. जब सन २००३ में इसे और सख्त बनाने के नाम पर ९१वेन संशोधन के तहत बदला गया तो अब चुने हुए जन-प्रतिनिधि तो ब्लैकमेल तो नहीं करती बल्कि वह काम पार्टी के नेता सामूहिक रूप से करने लगे. याने कानून न रहे तो जन-प्रतिनिधि पैसे या पद ले लिए निष्ठा बदलेगा और कानून बनेगा तो पार्टी का नेता सामूहिक रूप से यही काम करेगा. दूसरा निष्कर्ष यह कि कानून नैतिकता का प्रश्नों का समाधान नहीं हो सकता.

देश भर में करीब ४२०० विधायक और ८०० सांसदों के द्वारा संचालित संसदीय व्यवस्था पिछले ६६ साल के प्रजातंत्र में कोई एक घटना नहीं है जिसमें किसी सांसद या विधायक ने सिद्धांत के आधार पर पार्टी छोड़ हो या दूसरी पार्टी अपनाई हो. शायद प्रजातंत्र की इस स्वदेशी कारखाने में नैतिक माल नहीं बनता. अरुणाचल प्रदेश और उत्तरांचल भले हीं इसके ताज़ा उदाहरण हो लेकिन यह सिलसिला भारत के गणराज्य बनाने के साथ हीं शुरू हो जाता है. सन १९५२ में दल बदल कर टी प्रकाशम् के मुख्यमंत्री पद  हासिल किया. चार साल बाद पट्टम थानू पिल्लई ने राज्यपाल पद पाने के लिए अपना दल बदला. उत्तर प्रदेश में एक समय के विपक्ष के नेता गेंदा सिंह और नारायण दत्त तिवारी ने रातों-रात कांग्रेस बन गए. १७ साल बाद देश में पहली बार कांग्रेस का वर्चस्व टूटा और जो अभी तक आना-जाना कांग्रेस की तरफ होता था उल्टा होने लगा. १० राज्यों में संयुक्त विधायक दल के सरकारें बनी. राजनीति में अनैतिकता का पहला घिनौना नाच शुरू हुआ. देश के ४००० विधायकों में २००० से ज्यादा ने कम से एक बार और सैकड़ों ने कई बार दल-बदल किया और इनमें से कुछ ने तो मात्र ४८ घंटों में तीन बार पार्टियाँ बदली-- कुछ ने सत्ता के लिए तो कुछ ने पैसे लेकर. इसे “आया राम , गया राम” की संस्कृति कहा गया. स्वयं चन्द्रशेखर, और चौधरी चरण सिंह ने अपनी मूल पार्टी छोड़ कर और दल बदल कर प्रधानमंत्री पद सुशोभित किया. राव वीरेंद्र सिंह (हरयाणा), गोविन्द नारायण सिंह (मध्य प्रदेश) और सरदार लक्ष्मण सिंह गिल (पंजाब) मुख्यमंत्री बनाने के लिए कांग्रेस से बाहर आये. इन दल-बदल की घटनाओं के पीछे कोई सिद्धांत नहीं था बल्कि पद- या धन लोलुपता थी.
जबरदस्त मांग उठी दल-बदल के खिलाफ कानून लाने की. लोक सभा ने एक समिति बनाई. १९८४ में राजीव गाँधी ने इंदिरागांधी की हत्या के बाद मिली जबरदस्त बहुमत के बाद इस व्याधि पर रोकने का विचार मुकम्मल किया. संविधान के ५२ वें संशोधन के रूप में सर्वसम्मति से यह विधेयक पारित हुआ. दोबारा सन २००३ में ९१ वें संविधान संशोधन के तहत इसे और “सख्त” बनाया गया याने अब कोई पार्टी एक-तिहाई संख्या के दम पर अलग पार्टी नहीं बना सकता. साथ हीं अगर कोई विधायक दल टूटता है तो उसके सदस्यों की वैधता की दो शर्तें होंगी: (१) विधायक दल की संख्या का दो-तिहाई बहुमत और (२) किसी अन्य किसी अन्य दल में विलय. इस कानून के बाद भी कुछ भी नहीं बदला. हाँ दल-बदलुओं के “भाव” और बढ़ गए. उत्तराखंड और अरुणाचल में हाल की घटनाएँ यही सिद्ध करती हैं कि अनैतिकता के प्रश्न कानून से हल नहीं किये जा सकते. दुनिया में कोई तीन करोड़ कानून हैं लेकिन न तो भ्रष्टाचार रुका, नहीं हत्याएं या बलात्कार कम हुए.
  
lokmat