भारतीय समाज में आजादी का आन्दोलन छोड़
दें तो बुराइयों को लेकर जानाक्रोश कई शताब्दियों की गुलामी और तज्जनित “कोऊ नृप
हो हीं हमें का हानी (नि)” के शाश्वत भाव की भेंट चढ़ता रहा है. देश में शीर्ष से
लेकर नीचे तक व्यापत भ्रष्टाचार का सांप पूरे समाज को डसता रहा लेकिन सिस्टम ने
कभी किसी ऐसे व्यक्ति को सजा नहीं दी जिससे भ्रष्टाचारी के मन में डर व्यापत हो और
जनता के मन में सिस्टम के प्रति सम्मान. चूंकि दासत्व की जबरदस्त भावना सत्ता के
प्रति आक्रोश की जगह उदासीनता पैदा करती है इसलिए देश में चुनाव के समय भी भ्रष्टाचार
मुख्य मुद्दा नहीं बन पाता. मुद्दा बनता है तो मंदिर-मस्जिद, जाति, रॉबिनहुड इमेज
वाला अपराधी-नेता. अपराधी होना जनता की नज़रों में कोई योग्यता नहीं होती. विख्यात
न्यायविद सॉलमण्ड ने कहा था- “ वह समाज जो कि गलत कार्यों को भोगने के बाद भी अपने अंदर
क्रोध नहीं पैदा कर पाता उसे कानून की एक प्रभावी पद्धति कभी नहीं मिल सकती”। भारत में प्रभावी
कानून जो इस क्रांति को जन्म दे बन हीं नहीं सकता क्योंकि एक बड़ा वर्क जो चुनकर
आता है वह जनप्रतिनिधि कम बाहुबल , धन-बल या जाति व्यवस्था की कुरीति का उत्पाद
होता है.
आज प्रजातंत्र के मंदिर –संसद – के सदन लोक सभा में जनता से चुन के आये कुल ५४३ में से १६२ सांसद पर खुद उन्हीं के हलफनामे के अनुसार आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं. इनमें से १०२ पर गंभीर और उनमें ७६ पर जघन्य अपराध के मामले हैं. यानी हर तीसरा जनता का सदस्य अपराधी है. झारखण्ड में ऐसे आपराधिक छवि वाले लोग बहुमत (५४ प्रतिशत ) हैं. यानी वे जो चाहें कानून पारित करवा सकते हैं
लन्दन –स्थित ग्लोबल करप्शन
बैरोमीटर-२०१३ पूरी दुनिया के १०७ देशों में करीब १,७०००० लोगों से उनके देश में
भ्रष्टाचार के बारे में सर्वेक्षण किया. जहाँ विश्व के अन्य देशों में औसतन २७
प्रतिशत लोगों ने कहा कि पिछले १२ महीनों में उन्हें रिश्वत देनी पड़ी है, भारत के
५४ प्रतिशत लोगों ने इस बात को कबूला. यानि भारत में घूस का बोलबाला दूना.
सर्वेक्षण के अनुसार भारत में अगर प्रमुख संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार की बात
की जाये तो लोगों राजनीतिक दलों को सबसे ज्यादा भ्रष्ट माना और इस स्केल पर
राजनीतिक वर्ग को पांच में से ४.४ अंक मिले.
लेकिन प्रजातंत्र की एक खूबसूरती है. देर
से हीं सही कोई ना कोई संस्था अचानक जन-विश्वास जीतती हुई कड़ी होती है और वह अन्य
भ्रष्ट संस्थाओं पर लगाम कसना शुरू करती है. आज देश में सर्वोच्च न्यायलय यह काम
कर रहा है. जन-आक्रोश तो नहीं बन पाया लेकिन जनता की सामूहिक चेतना भ्रष्टाचार के
खिलाफ या बलात्कार के खिलाफ या यूं कहें कि सिस्टम के खिलाफ इंडिया गेट पर जुटाने
लगी है. सुप्रीम कोर्ट ऐसी संस्थाओं को ऐसे सामूहिक चेतना से बल मिलता है.
यूरोप में एक कहावत प्रचलित है “फिश
रोट्स फ्रॉम थे हेड फर्स्ट” (मछली पहले सर
से सड़ती है). शुद्धिकरण की प्रक्रिया घुरहू को पड़ने से नहीं बल्कि घरहू से जाति के
नाम पर वोट लेने वाले को बदलने से होगा. लेकिन राजनीतिक वर्ग का हौसला देखिये.
आजतक के १५ आम चुनावों या दर्जनों राज्य के चुनावों में भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा
नहीं बन पाया. अगर बना भी (जैसे बोफोर्स के मामले में) तो मात्र एक चुनाव के लिए.
कुछ उदाहरण लें. अगले चुनाव का मुदा फिर
मंदिर बनेगा या मोदी. जबकि भ्रष्टाचार के मामले मसलन २-जी घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल
घोटाला , कोयला घोटाला आज मोदी के व्यक्तित्व की आंच में गल गए से लगते हैं. हाल
हीं में उत्तर प्रदेश के चुनाव में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन आर एच
एम्) में प्रदेश में 8800 करोड़ में से 5000 करोड़ सरकारी अमला और मंत्री से लेकर संतरी तक, हजम कर गए
लेकिन यह चुनावी मुद्दा नहीं बन सका। भ्रष्टाचार को लेकर पूरे देश में कुछ महीनों
पहले लगा था कि एक जबर्दस्त जनाक्रोश फूट पड़ा है और अब यह आक्रोश ठंडा नहीं पड़ने
जा रहा है। लेकिन उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड या अन्य तीन राज्यों में हो रहे
विधानसभा चुनावों में शायद ही भ्रष्टाचार एक मुद्दा बन पाया है। ऊपर से तुर्रा यह
कि राजनीतिक दलों ने फिर वही हिमाकत दिखाते हुए आपराधिक छवि के लोगों को टिकट दिया
है। बड़ी पार्टियों द्वारा खड़ा किया गया हर तीसरा उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि का
है।
ऐसा लगता है कि तुलसीदास के “कोउ नृप होहिं हमे का हानि” की अनमनस्कता ने
हमारी विद्रोही रगों को कहीं गहरे तक खत्म कर दिया है। हमें उसकी चिंता नहीं रहती
कि नृप कौन होगा क्योंकि हमने मान लिया है कि “चेरी छोड़ न होउब
रानी” यानि सत्ता सत्ताधारियों की है, लूटना उनका काम है और हमें दासत्व भाव में इस
त्रासदी को जीवनपर्यन्त झेलना है। वरना कोई कारण नहीं था कि राष्ट्रीय ग्रामीण
स्वास्थ्य मिशन में इतने बड़े घपले के बाद भी भ्रष्टाचार मुद्दा न बनता।
नोनन ने अपनी किताब “ब्राइब” में लिखा था- “हमें जनजीवन में
भ्रष्टाचार के बारे में अपना फैसला इस आधार पर नहीं करना चाहिए कि हमने कितने
कानून बनाए और कितने लोगों को सजा दी”। करप्शन की विभीषिका का अंदाज़ा तब मिल पाता है जबकि हम यह
समझ पाएं कि समाज छोटे से छोटे भ्रष्टाचार या अनैतिकता को लेकर किस हद तक
संवेदनशील हैं।
सभी राजनीतिक दलों ने अपना घोषणा-पत्र
जारी करते हैं लेकिन एक भी यह नहीं बताता कि भ्रष्टाचार से लड़ने का उनके पास कौन सा
नुस्खा है ? किसी ने मुस्लिम आरक्षण की बात की तो किसी ने बेरोज़गारों को बैठे-बैठाए भत्ता
देने का वादा किया। दरअसल हमाम में रहने का एक अलिखित कोड है कि कोई किसी को नंगा
नहीं कहेगा।
इटली की समसामयिक राजनीतिक पृष्ठभूमि का
अध्ययन करने से समझ में आता है कि किस तरह माफिया गैंग कानून-व्यवस्था व सरकारों
पर भारी ही नहीं पड़ते बल्कि उनको जिस तरह चाहते हैं तोड़-मरोड़ लेते हैं। भारत
में भी जिस तरह टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में सादिक बाचा जो कि ए.राजा का काफी करीबी
माना जाता था, की लाश फांसी में लटकी हुयी उसके घर में पायी गयी, इस बात के संकेत
हैं। इसी तरह चारा घोटाल के मामले में पशुपालन मंत्री भोलाराम तूफानी ने “खुद को चाकू घोपकर” आत्महत्या कर ली।
वह भी घोटाले में आरोपी थे। इसी तरह
70 लाख करोड़ की ब्लैकमनी की कोख से उपजा
भ्रष्टतंत्र भीमकाय होता रहा और अब वह इतना ताकतवर हो गया है कि समूचे समाज को
मुंह चिढ़ाकर राजफाश करने वालों की हत्याएं कर रहा है।
इसी बीच जो कुछ दासत्व भाव वाले गलती से
शीर्ष पर पहुंच गए उन्होंने भी नृप का चोला पहन लिया और मौसेरे भाई बन गए। इनमें
से अगर कभी किसी ने अन्नाभाव में आने की कोशिश की तब या तो वह अलग-थलग पड़ गया या
तो चांदी के जूते खाकर चुप हो गया। आज खतरा यह है कि इस भ्रष्टतंत्र में लगे
माफिया अब न तो उन्हे अलग-थलग करेंगे ना तो चांदी का जूता दिखाएंगे बल्कि सिर्फ यह
संदेश देंगे कि मौत कब, कहां आ जाए कोई भरोसा नहीं।
आज से कुछ साल पहले तक अपराधी को यह डर
रहता था कि भरी बाजार से लड़की उठाने पर लोगों का प्रतिरोध झेलना पड़ सकता है।
लेकिन नए परिदृश्य में यह डर हो रहा है कि कहीं अपहर्ता गलती यह न समझ ले कि अमुक
ने इस घटना को देखा भी है। हम नजरें मोड़ लेने के भाव में आ गए हैं। पुलिस वाला भी
उस जगह से खिसक लेता है जहां अपराधी की हलचल दिखायी देती है। अमेरिका में इन्हीं
स्थितियों से निपटने के लिए विटनेस प्रोटेक्शन लॉ(गवाह सुरक्षा अधिनियम) लाया गया
ताकि हम अपराधी का प्रतिरोध न कर सकें तो कम से कम गवाही तो दे सकें। एफ.बी.आई को
यहां तक शक्ति दी गयी है कि वह न सिर्फ अपने गवाहों की पहचान बदल देते हैं बल्कि
अपने गवाहों को नए नाम से नए शहर में नए सिरे से जीने के लिए सारी सुविधाएं और धन
मुहैया कराते हैं। इसके ठीक विपरीत आज भारत में इस बात का खतरा है कि पुलिस
अपराधियों से अपनी जान बचा रही है।
आज प्रजातंत्र के मंदिर –संसद – के सदन लोक सभा में जनता से चुन के आये कुल ५४३ में से १६२ सांसद पर खुद उन्हीं के हलफनामे के अनुसार आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं. इनमें से १०२ पर गंभीर और उनमें ७६ पर जघन्य अपराध के मामले हैं. यानी हर तीसरा जनता का सदस्य अपराधी है. झारखण्ड में ऐसे आपराधिक छवि वाले लोग बहुमत (५४ प्रतिशत ) हैं. यानी वे जो चाहें कानून पारित करवा सकते हैं
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rashtriya sahara
rashtriya sahara
Corruption is natural outcome of scarcity hit society.We have preferred corruption as remedy of our problems as short cut.Those leaders who don't toe in the line with corruption are called excreta of animal without any use. The only solution of this problem lies in increasing opportunities and making India a surplus country in all respects.We need FDI for that. Congress is taking the steps in the form of economic reforms to attract FDI and make India a surplus nation.Otherwise corruption shall be respected in our society like deity.Only hypocrites oppose corruption on public platform to gain popularity, otherwise they are plunged in the same tank up to neck.
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