हालांकि नव –उदारवादी अर्थ -व्यवस्था में कल्याणकारी राज्य की भूमिका
से सरकार लगभग विमुख हो चुकी थी जिसका उदाहरण स्वास्थ्य और शिक्षा का जबरदस्त
निजीकरण है--- आज गरीब आदमी के लिए क्वालिटी शिक्षा एक सपना है और बीमार पड़ना एक
ऐयाशी ----लेकिन खाद्य सुरक्षा कानून बना कर वर्तमान सत्ता पक्ष ने यह दिखाने की
कोशिश ज़रूर की है कि गरीब उनके राडार पर है भले हीं वोट के लिए. बहरहाल देर आयद, दुरुस्त आयद. विश्व के किसी भी
प्रजातंत्र में गरीबों को भूख जीतने के लिए राज्य की तरफ से शायद यह पहला कानून
है. जिसमें भोजन का अधिकार भारत के ६७ प्रतिशत लोगों को या यू कहें कि विश्व के १३
प्रतिशत आबादी को मिलने जा रहा है. जैसे अनुसूचित जाति के लिए रिजर्वेशन की
संवैधानिक व्यवस्था को चाह कर भी उच्चवर्गीय दल छेड़ नहीं सकते उसी तरह एक बार
कानून बनने की बाद अब कोई भी दल इसे बेहतर हीं करने का उपक्रम करेगा.
जो सबसे बड़ी मूर्खता , जिसे पालिसी पैरालिसिस (नीतिगत पक्षाघात)
के नाम से जाना जाता है इन चार सालों में सरकार के खाते में रही है वह यह कि वह यह
कि अनाज सड़कों पर बारिश में सड़ रहा था , चूहे (या आदमीनुमा चूहे) खा रहे थे (हमारे
पास मात्र ५० मिलियन टन की भण्डारण क्षमता है जबकि सरकार के पास अनाज करीब ८८
मिलियन टन है) लेकिन सर्वोच्च न्यायलय की सलाह के बाद भी सरकार ने इसे “चूहे” के
पेट में जाने दिया , आदमी के पेट में नहीं. याद आता है नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य
सेन का अपनी मशहूर पुस्तक “गरीबी एवं दुर्भिक्ष “ में यह कहना कि क्रियाशील
प्रजातंत्र में दुर्भिक्ष नहीं हो सकता क्योंकि सरकार पर मीडिया या जनमत का इतना
बड़ा दबाव रहता है कि उसे चाहे जैसे भी हो रसद पहुँचाना हीं पड़ता है. दरअसल १९४२ के
बंगाल दुर्भिक्ष में सेन ने पाया कि अनाज प्रचुर मात्र में अंग्रेज़ सरकार के पास
था परन्तु दबाव नहीं था लिहाज़ा २० लाख लोग भूख से मर गए. भारत में तो मीडिया हीं
नहीं सर्वोच्च न्यायलय भी सरकार को अपने गोदाम खोलने के लिए कहता रहा. लेकिन कोई
चिदंबरम या कोई प्लानिंग कमीशन इस बात को लेकर खूंटा गाड़ कर बैठ गया कि इस कानून
से वित्तीय घटा बढ़ेगा. चुनाव घोषणा पत्र में वायदे के बावजूद कांग्रेस की नेतृत्व
वाली सरकार को चार साल लग गए इस कानून को बनाने में. क्या अनाज की जगह प्रजातंत्र
में चूहे का पेट है या आदमी का पेट वह भी जब करोड़ों आदमी भूखे हो?
कांग्रेस की अगुवाई वाली यू पी ए -२—के शासन काल की दो
विशेषताएं रहीं हैं. पहला, भ्रष्टाचार को लेकर जनता की सामूहिक चेतना में व्यापक बदलाव जो
कि आने वाले दिनों में काफी सकारात्मक भूमिका निभाएगा. इस सामूहिक चेतना के विकास
का “श्रेय” भी सरकार अदूरदर्शिता को जाता है. इस काल में भ्रष्टाचार की तीन घटनाओं ---२-जी, कामनवेल्थ
घोटाला और कोलगेट—ने देश की चेतना को झकझोर दिया. ऐसा नहीं कि शासन-प्रायोजित
भ्रष्टाचार पहले नहीं होता था, लेकिन बढ़ती
शिक्षा-जनित तार्किक समझ, राज्य के प्रति जनता का “माई-बाप” भाव का ह्रास और राज्य
से बढ़ती अपेक्षाओं ने जनता के मनस को औपनिवेशिक जड़ता से बाहर निकाला. ट्रेन में
रिजर्वेशन देने के लिए घूस लेने वाले टी टी को, पैसे मांगने वाले पुलिस दरोगा को
सामूहिक रूप से पकड़ कर पीटा और कानून के हवाले किया. अन्ना आन्दोलन में या
बलात्कार की घटनाओं पर क्षण भर में हज़ारों युवा इंडिया गेट पर पहुँच गए. जनता के
इस नए तेवर से सत्ता पक्ष के पसीने छूट गए. भ्रष्टाचार के मामले में अगर कामनवेल्थ
घोटाले को छोड़ दिया जाये तो बाकि दोनों में जनता की नज़रों में शीर्ष नेतृत्व किसी
ना किसी स्तर पर दोषी नज़र आया या तो सीधे तौर पर या स्थितियों को जान –बूझ कर
नज़रंदाज़ करने के कारण.
दूसरी विशेषता यह रही कि देश सकल घरलू उत्पाद के नज़रिए से
दुनिया के आठ देशों में आ गया. भारत के पास अनाज की रिकॉर्ड पैदावार ---2५८ मिलियन टन तक पहुँच गयी. जिस सरकार के पास ८८ मिलियन टन का खाद्यान्न
रिज़र्व हो(जो कि समान्य से कई गुना ज्यादा है) और जिस सरकार को अभावग्रस्त
किसानों के आत्महत्या की खबरें लगातार आती रही हो, उस सरकार के कार्यकाल में महंगाई आसमान छू जाए, इसका सीधा मतलब था कि रायसीना शक्तिपीठ पर काबिज़
मनमोहन-चिदंबरम-कपिल सिब्बल की तिकड़ी को बदलते जनमत को समझने की क्षमता नहीं थी।
देश की
अर्थ-व्यवस्था में कुछ मौलिक खामियां नज़र आने लगीं. सन १९८० से इंदिरा गांधी ने उदारवाद
की प्रक्रिया शुरू की जो अगले दशक में राव-मनमोहन जोड़ी ने अर्थ-व्यवस्था को शासकीय
शिकंजों से उबरते हुए वैश्विक अर्थव्यवस्था में समेकित किया. और उसके अगले दशक में
यानि २००१ से नव-उदारवादी अर्थ-व्यवस्था का आगाज़ हुआ. इन ३२ सालों में भारत की औसत
जी डी पी ६.५ प्रतिशत रही जो विश्व- स्तर सराहनीय थी. लेकिन जो सबसे बड़ी चिंता की
बात थी वह यह कि सन १९८० में मानव विकास सूचकांक में भारत १३४वें स्थान पर था. और
२०११ में भी वह ठीक १३४ वें स्थान पर रहा.
खाद्य सुरक्षा बिल 64 वर्ष के शासनकाल का (बल्कि विश्व का ) शायद
सबसे बड़ा जनोपयोगी कानून बना । बल्कि यूं कहें कि समूचे विश्व में सीधी डिलीवरी
का इतना बड़ा कोई प्रयास नहीं हुआ है। लेकिन यू.पी.ए सरकार और इसके “ समझदार मैनेजरों ” में सरकार के अच्छे कार्यों का भी श्रेय लेने की समझ नहीं है। पिछली
बार यह बिल भी संसद में ठीक उसी दिन लाया गया जिस दिन विवादास्पद लोकपाल बिल सदन
के पटल पर रखा गया लिहाज़ा मीडिया में और संपूर्ण देश में लोकपाल बिल पर जम कर
चर्चा हुयी। खाद्य सुरक्षा बिल जिसमें कि एक रुपए से तीन रुपए तक या रियायती दरों
पर लगभग 70 करोड़ लोगों को अनाज देने की सरकारी प्रतिबद्धता थी, चर्चा में नहीं रही। यू.पी.ए-2 के अब तक के शासनकाल में शीर्ष
पर बैठे लोगों में राजनीतिक सूझ-बूझ की बेहद कमी नज़र आती है। विश्वास नहीं होता
कि यह वही कांग्रेस का नेतृत्व है जिसे कई दशकों तक शासन चलाने का अनुभव रहा है.
इस बार भी जब यह उपक्रम शुरू किया गया तो अध्यादेश के जरिये जबकि बेहतर होता कि
इसे जबरदस्त प्रचार दे कर सीधे संसद में विधेयक के रूप में लाते. किसी राजनीतिक दल
की हिम्मत नहीं होती कि इसके खिलाफ जाये. लेजिन शायद यह कांग्रेस के डी एन ए की
समस्या है. अगर गहराई से विश्लेषण करें तब पाएंगे कि मनरेगा अभी तक सीधी डिलीवरी का पहला कार्यक्रम था , जिसमें कि सरकार सीधे रोज़गार का सृजन करके पैसा ग्रामीण बेरोज़गारों को देती है. यह एक बेहद जनोपयोगी योजना रही है। और कांग्रेस को इसका फायदा २००९ के चुनावों में फिर से सरकार बनाने के रूप में मिला. लेकिन भ्रष्ट राज्य सरकारों के हाथ इसका क्रियान्वयन न होने की वजह से अपयश भी केंद्र सरकार के खाते में चला गया।
इस कानून के तहत पहली बार केंद्र सिविल सोसाइटी को
क्रियान्वयन के स्तर पर जोड़ रही है—राज्य और जिला स्तर पर. अगर खाद्य
सुरक्षा कानून पर सही अमल हो जाये तो देश
में बढ़ती अमीरी-गरीबी की खांई को कुछ कम करने का एक बड़ा ज़रिया हो सकता है। भारत
जैसे देश में जहां कि जितनी अमेरिका की पूरी आबादी है उतने लोग रोज़ शाम को भूखे
सोते हैं, सस्ते दाम पर अनाज उपलब्ध कराना किसी भी सरकार की
नेक-नियति को उसकी स्थायी राजनीतिक सुग्राह्यता के रूप में जनता में पेश किया जा
सकता था लेकिन आज संदेश यह जा रहा है कि सोनिया न होतीं तब मनमोहन एण्ड कंपनी इस
बिल को कभी पास ही न होने देती। क्या संभव है कि सोनिया के मैनेजर कम से कम पार्टी
के इस गिरते ग्राफ को रोक सकें ?
sahara hastakshep
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