कहीं यह नीतीश की
प्रजातंत्र की नयी परिभाषा तो नहीं ?
जिस दिन बिहार देश का पहला
राज्य बना जहाँ मध्याह्न भोजन से २२ बच्चों की मौत हो गयी उसी दिन दिल्ली में
पुलिस ने एक कार जब्त की जिसमें बिहार के मुंगेर जिले में बनाये गए ९९ बेहतरीन
गैर-कानूनी पिस्तौल की खेप उत्तर भारत के अपराधियों को देने के लिए आ रही थी. यह जिला
पिछले कई सालों से देश में अपराधियों को नकली हथियार सप्लाई का गढ़ माना जाता है.
उसी दिन एक और खबर सरकार के सर्वेक्षण के हवाले से आई कि बिहार बाल विवाह के मामले
में देश में “फर्स्ट” आया है. ताज़ा नेशनल
क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के
अनुसार जायजाद संबधित हत्या के मामले में प्रतिदिन तीन हत्याओं का रिकॉर्ड बना कर
बिहार देश में अव्वल रहा है. ये हत्याएं हजारों की संख्या में हाल में उभरे
भू-माफिया जमीन पर कब्जा करने के लिए कर रहे हैं. ध्यान देने की बात है बिहार
आबादी घनत्व में १००३ प्रति किलोमीटर स्क्वायर के आंकड़े के साथ देश में सबसे आगे
है क्योंकि परिवार नियोजन में असफल राज्यों में भी यह राज्य अपना झंडा सबसे ऊपर
रखे है.
इतनी सारे “फर्स्ट” के बाद
अगर बिहार के मुख्यमंत्री अपने को विकास में अग्रणी बताते हैं तो शायद उनकी विकास
की परिभाषा अलग होगी.
अलास्टैर फर्रुजिया का एक
कथन है : आजादी तब कहते हैं जब जनता अपनी बात कह सके, प्रजातंत्र तब जब सरकार उसे
सुने. बिहार में बच्चों को दिए जाने वाले मध्याह्न भोजन की गुणवत्ता, पकाने का
घटिया स्तर के बारे में हीं नहीं बल्कि उन अफसरों के जिन के जिम्मे इसे बेहतर करने
का काम था, निकम्मेपण के बारे में कई बार अपनी रिपोर्ट केंद्र व बिहार सरकार को
सौंपी थी. एक अन्य गैर-सरकारी संस्था ने तो यह भी बताया कि स्थानीय माफिया धमका कर
इस स्कीम के लिए आये पैसे अपना हिस्सा वसूलते है. मीडिया लगभग हर तीसरे दिन किसी न
किसी जिले में मध्याह्न भोजन से बीमार हुआ बच्चों के बारे में बताती रही है. लेकिन
नीतीश की सरकार इन सभी आवाजों को नज़रंदाज़
करती रही. शायद उसकी प्रजातंत्र की परिभाषा फर्रुजिया की परिभाषा से अलग है.
बच्चों के जीवन से सरकार के
खिलवाड़ का यह आलम रहा कि केंद्र सरकार के द्वारा नियुक्त दो प्रमुख संस्थाओं ----
पटना –स्थित ए एन सिन्हा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज और दिल्ली की जामिया मिलिया
इस्लामिया – ने बिहार में इस एम् डी एम् योजना के क्रियान्वयन को लेकर एक अध्ययन
किया. दोनों ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि क्रियान्वयन में जबरदस्त खामियां है मसलन,
तमाम स्चूलों में यह मिलता हीं नहीं है, अगर मिलता है तो घटिया स्तर का खाद्यान
उपयोग किया जाता है और जिन स्थतियों में भोजन पकाया जाता है वह स्वच्छता के पैमाने
पर बेहद स्तरहीन है. खासकर मुख्यमंत्री नीतीश के अपने गृहजिले में भी इस स्कीम की
बुरी स्थिति थी. रिपोर्ट में इसे बेहतर करने के उपाय भी सुझाये गए थे. यह रिपोर्ट
राज्य सरकार ने भी पढ़ी. इस योजना की निगरानी वाली सर्वोच्च संस्था प्रोग्राम
अप्रूवल बोर्ड (पी ए बी) ने इस रिपोर्ट पर २३ अप्रैल, २०१३ को बिहार सरकार के
शीर्ष अधिकारीयों बातचीत भी की और आगाह भी किया. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि
राज्य स्तर के अधिकारी तो छोडिये , यहाँ तक कि जिले या ब्लाक स्तर के अधिकारी भी
कभी भोजन की गुणवत्ता की जांच के लिए नहीं जाते. जब कि उन्हें हर माह इंस्पेक्शन
करना है और इंस्पेक्शन रजिस्टर में अपनी प्रविष्टि भी लिखनी है. यह रहस्य तब खुला
जब तमाम स्कूलों के रजिस्टर में प्रविष्टि का खाना महीनों से खाली पाया गया.
“मिड-डे-मील” (एम् डी एम्)
जिस मध्याह्न भोजन के नाम से समूचे भारत में चलाया जाता है शायद विश्व के
प्रजातान्त्रिक लेकिन विकासशील देशों में सबसे उपादेय कार्यक्रमों में से एक माना
जाता है. इस वर्ष सरकार ने इस मद में १३,२१५ करोड़ रुपये दिए हैं. इससे १२ करोड़
बच्चे स्कूल में पका भोजन १६७ दिन प्रति वर्ष दिया जाना चाहिए. याने हर बच्चे पर
लगभग ५.५० रुपये प्रति भोजन का खर्च. इस कार्यक्रम के दो लाभ हैं. एक तो वे
अभिभावक जो गरीबी के कारण बच्चों से काम करवाते थे ताकि कुछ आर्थिक मदद हो सके वे
उन्हें स्कूल भेजने लगे ताकि कम से कम अपना एक वक़्त का भोजन तो सुनिश्चित हो सके
और दूसरा पौष्टिक खाना मिला तो बच्चा एक स्वस्थ नागरिक बनेगा. यह अवधारणा
अर्थशास्त्री फ्रीडमैन की उस सिद्धांत पर आधारित है जिसके अनुसार अगर विकासशील
देशों में सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी ) के आकार में अपेक्षातीत वृद्धि हो तो चुनी
हुई सरकारों को गरीबी उन्मूलन के लिए
डायरेक्ट डिलीवरी मोड़ (सीधे पैसे या वस्तु गरीबों को देना) में आ कर सीधे पैसे या
वस्तु गरीबो को मुहैया करना चाहिए. ब्राजील में यह योजना “बोलसा फेमिलियास” के नाम
से जबरदस्त रूप से सफल रही. भारत में, जो आज १.८
ट्रिलियन डॉलर की जी डी पी के साथ दुनिया के सात देशों में है में भी यह
योजना या मंनरेगा इसी अवधारणा का प्रतिफल हैं. जहाँ देश में साक्षरता के लिए सर्व
शिक्षा अभियान और मध्याह्न भोजन की बड़ी भूमिका रही है वहीं मनरेगा ने गरीबी सीमा
रेखा से लोगों को ऊपर उठाने में भरी भूमिका निभाई है.
समस्या सिर्फ यह है कि ये
योजनायें तो केंद्र सरकार की हैं परन्तु इनका अमलीकरण राज्य सरकारों के हाथ में
हैं. जो राज्य सरकारें सक्षम हैं वे अपने प्रयास से ना केवल जनता को लाभान्वित कर
रहीं है बल्कि उसका श्रेय भी केंद्र की जगह खुद ले रही हैं. छत्तीसगढ़ ऐसे नए राज्य
ने तो अपनी तरफ से भी जन वितरण प्रणाली में पैसे देकर इससे जबरदस्त लोकप्रियता
हासिल की है. जबकि बिहार अपने कोटे का ४५ प्रतिशत अनाज हीं उठा पता है जबकि यह
सबसे गरीब राज्य होने की वजह से सबसे ज्यादा इसे सस्ते अनाज की दरकार थी. दक्षिण
भारत के राज्य अपने कोटे का ९० से ९८ प्रतिशत तक उठाते है और जनता को वितरित करते
हैं.
मध्याह्न भोजन खा कर मरने
वाले २२ बच्चों के इस घटना का तात्कालिक असर यह होगा कि पूरी योजना जिसका देश की
भावी पीढी पर सकारात्मक असर होता दम तोड़ देगी. कोई गरीब अभिभावक भी अपने बच्चे को
इसलिए स्कूल नहीं भेजेगा कि वहां खाना खिलाया जाता है जिससे बच्चे मर जाते हैं.
वैसे भी सम्मानित स्वयंसेवी
संस्था असर की हाल की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में कक्षा ५ के ७० प्रतिशत बच्चे
कक्षा २ का ज्ञान नहीं रखते. सोचने की बात है कि दस साल बाद जब वह प्रयोगी
परीक्षाओं में जायेंगे तो उनकी स्थिति क्या होगी. शायद बिहार के मुख्या मंत्री की
प्रजातंत्र में सरकार के सुनने का मतलब मात्र यह होता है कि दिल्ली में जा कर
बिहार के लिए स्पेशल दर्जे की मांग कर बिहारियों को बताओ को वह उनके लिए चिंतित
हैं.
jagran
People of Bihar has preferred Nitish over Lalu as lesser evil.Author has to attack the system where MDM is prepared under highly contaminated environment for the future of the nation that are children.We expect an analysis in depth from journalist of his seniority and knowledge.He has failed in doing justice on the subject.
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