भा रत में एक चुपचाप सुधारात्मक आंदोलन चल रहा है। कभी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के जरिए, कभी इंडिया गेट पर दीप जला कर तो कभी सोशल साइट्स पर भडास निकाल कर. एक तरफ भ्रष्टाचार के मामले में सरकार की सहभागिता नहीं तो उनींदापन है तो दूसरी तरफ बलात्कार की चीत्कार। निदान माना जा रहा है- संसद और विधान सभाओं को 'अपराधी-शून्य' कर 'चरित्रवान' लोगों को स्थापित करना, प्रजातांत्रिक संस्थाओं को स्वच्छ कर उन्हें भ्रष्टाचार से विमुख कर, भाई-भतीजावाद। कहते हैं अनुभव से प्रजातंत्र समुन्नत होता है. इसका अभ्यास 63 साल से हो रहा है. तीन से ज्यादा पीढियां निकल गई हैं. प्रजातंत्र में गुणात्मक ह्रास हुआ है. सन 1956 में योजना आयोग ने अनुमान लगाया कि देश में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का चार से पांच प्रतिशत काला धन है. सन 1970 में वांगचू समिति ने इसे सात प्रतिशत बताया. 1980-81 तक आते-आते नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस ने अपने आकलन में पाया कि देश में काला धन जीडीपी का 18 से 21 प्रतिशत है. प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार ने अपनी किताब में बताया कि सन 1995-96 में यह प्रतिशत लगभग 40 हो गया. प्रोफेसर का अब मानना है कि 2005-07 तक यह प्रतिशत 50 से अधिक हो गया है. क्या यह सब समय के साथ प्रजातंत्र के मजबूत और समुन्नत होने की निशानी है? अनुभव से प्रजातंत्र समुन्नत होना चाहिए था, आम जीवन बेहतर होना चाहिए था परंतु अनुभव का लाभ किसे मिला यह देखें. संसद और राज्य विधानसभाओं में लगातार ऐसे 'असुरों' की संख्या बढ.ती जा रही है जिन पर आपराधिक ही नहीं संगीन और जघन्य अपराध के मुकदमे विभिन्न स्तर पर चल रहे हैं. क्या यह प्रजातंत्र को बेहतरी की ओर ले जा रहा है? जन प्रतिनिधियों में करोड.पतियों की संख्या बढ.ती जा रही है जबकि देश में गरीबों की संख्या बढ. रही है. क्या यह प्रजातंत्र के लिए शुभ संकेत है? एक और पहलू देखिए. अनुभव के साथ हमारी भ्रष्टाचार को लेकर सहिष्णुता या यूं कहें कि बेशर्मी भी बढ़ी है.
1951 में महज व्यापारियों से पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने पर प्रधानमंत्री नेहरू और पूरा संसद एक मत होकर एच. जी. मुदगल को निकाल देता है. पर हाल के वर्षों में जब साझा दल के एक मंत्री पर लाखों करोड. रुपए के घोटाले की आंच आती है तो देश की सरकार कहती है कि 'साझा सरकार चलाने की कुछ मजबूरियां हैं.' जो राजनीतिक दल आतंकवाद के खिलाफ एक कारगर एजेंसी के रूप में केंद्र सरकार द्वारा लाए जा रहे नेशनल काउंटर-टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी) को इस बात पर खारिज कर देते हैं कि इससे राज्यों की स्वायत्तता पर आंच आएगी, वही दल इस बात पर एक होकर अध्यादेश लाने पर रजामंद हैं कि वे जनता को सूचना के अधिकार के तहत नहीं बताएंगे कि उनको चंदे के रूप में कितना मिलता है. भौंडे तर्कों से एक वर्ग सुप्रीम कोर्ट के प्रयासों की धार को भोथरा बनाना चाहता है. तर्क है कि अगर विधायक या सांसद अपील का अधिकार नहीं रखेगा तो राजनीतिक प्रभाव के जरिए कोई भी सत्ताधारी दल निचली अदालत से उसके खिलाफ फैसला ले लेगा. उसी तरह अगर जेल में बंद होने से उम्मीदवारी खत्म होगी तो सत्तादल अपने विरोधियों खासकर गरीब और पिछड़ों के नेताओं को ऐन मौके पर जेल में डाल देगा. क्या तर्क है? अब जरा गौर करें. इन गरीबों के रहनुमाओं को पुलिस से कह कर जेल में कौन डलवाएगा? सत्ताधारी दल! निचली अदालतों से अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ फैसला कौन करवाएगा? सत्ताधारी दल! यानी समस्या की जड. में कौन है? सत्ताधारी दल! क्या इन सत्तानशीन पार्टियों को जो निचली अदालतों को प्रभावित कर फैसले बदलवाने का अपराध करती हों, एक क्षण भी सत्ता में रहने का अधिकार है? दरअसल जब संभ्रांत वर्गीय चरित्र के लोग या सत्ताधारी लोग सत्य की आंच को नहीं झेल पाते तो कुतर्क का सहारा लेते हैं, शेर के कथन की तरह कि तूने नहीं तो तेरे बाप ने पानी जूठा किया होगा. सर्वोच्च न्यायालय का प्रयास उन सभी लोगों की भावना से जुडा है जो एक अच्छे, समतामूलक समाज में सांस लेना चाहते हैं. यही वजह है कि इंडिया गेट पर भीड. बढ.ती जा रही है. शासक वर्ग को डरना चाहिए कि कहीं यह उग्र न हो जाए लिहाजा हाल के फैसले के खिलाफ अपील नहीं अमल की जरूरत है. ल्ल■ जब संभ्रांत वर्गीय चरित्र के लोग या सत्ताधारी लोग सत्य की आंच को नहीं झेल पाते तो कुतर्कका सहारा लेते हैं, शेर के कथन की तरह कि तूने नहीं तो तेरे बाप ने पानी जूठा किया होगा. सर्वोच्च न्यायालय का प्रयास उन सभी लोगों की भावना से जुडा है जो एक अच्छे, समतामूलक समाज में सांस लेना चाहते हैं.
LOKMAT
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Thursday, 18 July 2013
भौंडे तर्के से असलियत नहीं छिपती
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