Sunday, 10 August 2014

मोदी कहां फंसेंगे ?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गहराई से समझना पडेगा कि क्यों पार्टी में कोई संगीत सोम (उत्तर प्रदेश का विधायक) पैदा होता है. क्यों उसकी हैसियत इतनी बढ़ जाती है कि सहारनपुर दंगों में उसे गाज़ियाबाद –स्थित घर में हीं नज़रबंद रखा जाता है जबकि कानून में प्रिवेंटिव डिटेंशन का प्रावधान है और पार्टी में ऐसे लोगों को बाहर करने का. क्यों अचानक भारतीय जनता पार्टी का उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष एक पुलिस कप्तान को चुनौती देता है कि “तुम नज़रों पर चढ़ गए हो, आने दो प्रदेश में हमारी सरकार”. क्यों अचानक देश के सबसे बड़े राज्य में दंगे बढ़ जाते हैं. हम यह तो समझ सकते हैं कि क्यों सत्ताधारी समाजवादी पार्टी में आज़म खान पैदा होते हैं. क्यों राज ठाकरे, अबू आज़मी या अकबरुद्दीन ओवैसी  बदस्तूर देश की राजनीतिक छाती पर मूंग दलते हुए अपनी शक्ति बढ़ाते हैं और उसका मुज़ाहरा करते हैं. क्यों कोई युवा मुख्यमंत्री नीम-अवचेतना में चला जाता है और क्यों पार्टी के मुखिया और तथाकथित समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव को गलतियाँ सरकार में नहीं मीडिया में दिखाई देती हैं. पर क्या भारतीय जनता पार्टी या मोदी इसी स्तर पर संगीत सोम सरीखे लोगों को लाकर या दंगों में “हम बनाम वो” (अस वर्सेज देम) का भाव रख कर समस्या का निदान तलाशेंगे?
आइंस्टीन ने कहा था “उन महत्वपूर्ण समस्याओं का, जिनका हमें सामना करना पड़ता है, तब तक समाधान नहीं निकल सकता, जब तक हमारी सोच का स्तर वही रहता है जिस सोच के स्तर पर हमने वे समस्याएं पैदा की थी”. इस “अस-वर्सेज-देम” के भाव से ना तो फिलस्तीन समस्या, न इराक या लखनऊ की शिया-सुन्नी समस्या , ना हीं कश्मीर समस्या का हल आज तक हो पाया है. फिर क्या संगीत सोम, आज़म खान, अबू आज़मी और ओबैसी से इतनी बड़ी समस्या दोनों समुदाय या राजनीतिक वर्ग दूर करवाना चाहता है?
जो मोदी को थोडा-बहुत जानते हैं वह यह भी जानते हैं कि यह उन कुछ थोड़े से नेताओं में हैं  जो  बेहतर परफॉर्म करने की बारे में सोचते हैं. वे यह भी मानते हैं कि इनकी सिंगल-पॉइंट दिली कोशिश होगी कि अल्पसंख्यक उनसे भय खाना तो दूर उन पर भरोसा रखे. किसी भी नेता के लिए यह उपलब्धि का सबसे अच्छा मकाम होता है जब आपसी वैमनस्य रखने वाला हर वर्ग उस पर पूरा भरोसा रखे. लेकिन इस तरह के मकाम तक पहुँचने के दो तरीके हैं. पहला : नेता अपने प्रति विश्वास का सहारा लेता हुआ वैमनस्य रखने वाले दोनों वर्गों का ध्यान इस मुद्दे से हटाने के लिए उन्हें अच्छे और समृद्ध जीवन की ओर प्रेरित करे. टमाटर और प्याज का भाव दोनों को अखरता है. रोज़गार दोनों को चाहिए.
खतरा यह है कि अल्पसंख्यक वर्ग में लम्पटतावाद फिर धरातल पर आ जाता है जब  मुलायम या लालू शासन में आते हैं और ठीक उसी तरह कई सोम खड़े हो जाते हैं जब शासन उनके मन माफिक हो जाता है. पर कालांतर में समझ में आता है यह लम्पटतावाद पूरे शासन पध्यती (सिस्टम ऑफ़ गवर्नेंस) के लिए चुनौती बन जाता  है.  
यूरोपीय समाज के संविदा-आधारित व्यवस्था से हट कर हम भारतीय सम्बन्ध-आधारित समाज हैं. हम प्यार उंडेलते हैं. निष्ठा परोसते हैं, अपने रहनुमा पर देर से अविश्वास होता है. इसीलिए हमारे विश्लेषण में निरपेक्ष भाव से देखने की क्षमता भी देर से आती है. लिहाजा हमारा समाज अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अगले एक साल तक सकारात्मक नज़रों से देखेगा.  
हमने नेहरु को भारतीय जन-मानस का “चहेता” (डार्लिंग ऑफ़ इंडियन मासेज) दशकों तक माना. इंदिरा गाँधी को आपातकाल के बाद फिर वापस लाये. उनकी हत्या के बाद रिकॉर्ड समर्थन से राजीव को लाये. बोफोर्स घोटाले के बाद राजीव गाँधी  को नज़रों से उतारा लेकिन फिर अगले २५ सालों तक कोई ऐसा नेता या पार्टी नज़र नहीं आयी कि हम तन-मन-धन से वही प्यार उंडेल सकें. मोदी में हमें वही `चहेता’ दिखाई दिया.
इन २५ साल्लों में समाज बदला. सूचना की विस्तार हुआ. सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ज़रिये नागरिकों की जनमत बनाने –बिगाड़ने में भूमिका बड़ी. तर्क-शक्ति बड़ी. सामूहिक सोच में गुणात्मक परिवर्तन आया. लिहाज़ा अब “चहेते” को ज्यादा समय नहीं मिलेगा. मोदी के लिए साल भर से ज्यादा समय नहीं है इस जन समर्थन को रोके रखने का. साल भर में अगर नहीं दिखा कि एक सार्थक प्रयास हो रहा है उन वायदों को वफ़ा करने का जो जनता से मार्च-अप्रैल में किये गए थे तो जनता को विमुख होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी.
मोदी को चुनौती जितनी बाहर से है उससे ज्यादा भीतर से है. एक तरफ मुलायम –लालू और अब नितीश की राजनीति है जो वैमनस्यता पर हीं राजनीतिक जुगाली करती हुई ज़िंदा रहती है. दूसरी ओर पार्टी और संघ का एक निचला वर्ग है जो यह समझ रहा है कि यह शासन हमारा है और अब हम हमेशा के लिए इस समस्या समाधान करके रहेंगे. वे इस यह प्रचंड मत को एक लाइसेंस के रूप में ले रहे हैं.
अगर मोदी को सफल बनाना है तो संघ को भी चुनाव के बाद निचले स्तर पर पैदा हुए “उत्साह” के भाव को रोकना होगा. ज़ाहिर ही कि संघ कभी नहीं चाहेगा कि मोदी असफल हों.फिर मोदी को भी मुख्य लड़ाई भ्रष्टाचार से लडनी है, महंगाई से लड़नी है , रोज़गार की कमी से लडनी है ना कि दो गुटों के वैमनस्य से.
फिर अल्पसंख्यकों में भी दानिश्वर (बुद्धिमान) समाज का विश्वास जीतना होगा कि इस वर्ग की बहबूदी के लिए सरकार कृतसंकल्प है ताकि वे इस समुदाय के लम्पट गुटों पर लगाम लगा सकें. आज अवसर है कि प्रधानमंत्री मोदी भारत की जनता से अपील करें कि कुछ समय के लिए यह वैमनस्य दर-किनार करें. संघ भी इसमें बड़ी भूमिका निभा सकता है. और जब यह दोनों पहल करेंगे तो सभी मुलायम या लालू या नितीश मजबूर हो जायेंगे इसी रस्ते पर चलने पर. यही मज़बूरी देश के लिए एक नया रास्ता बना सकेगी. सत्ता में बैठे लोगों की निष्पक्षता के प्रति हीं नहीं उनकी कार्यशीलता के प्रति भी पूरे भारत में एक नया विश्वास जगाना होगा जो चुनाव की राजनीति से हट कर होगा. जब तक राजनेता चुनाव की राजनीति से ऊपर नहीं उठेंगे या उन्हें मजबूर नहीं किया जायेगा “अस वर्सेज देम” का भाव बना रहेगा और नतीजा होगा मानव विकास सूचकांक (ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स) पर भारत का १३५ वें नंबर पिछले २५ साल से बना रहना.   .

lokmat

No comments:

Post a Comment