सर्वोच्च न्यायलय के पूर्व जज और प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू के बयान से उपजे विवाद से देश के सड़ते सिस्टम की गहरी जड़ों का पता चलता है. यह पता चलता है कि कैसे देश के तत्कालीन ६७ करोड़ मतदाताओं द्वारा सन २००४ में तथाकथित प्रजातान्त्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार को इस बात का खतरा था कि मद्रास हाई कोर्ट में एक अदने से भ्रष्ट अतिरिक्त जज का प्रभाव इतना हो सकता है कि देश की सरकार गिर सकती है. इटली की सत्ता पर माफिया प्रभाव भी इस प्रभाव के सामने फीका नज़र आता है. यह भी समझ में आता है कि ६५ साल बाद भी हमारा प्रजातंत्र एक ढकोसला मात्र है.
सरकारें संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेती हैं फिर अपने गिरने के डर से किसी डी एम् के से समर्थन लेती हैं , फिर वह डी एम के उस सरकार में शामिल होता है और मजबूर करता है कि उसके द्वारा नामित मंत्री को स्पेक्ट्रम घोटाला कर के देश को १.७६ लाख करोड़ का चूना लगाने दे. यह सहयोगी दल मजबूर करता है केंद्र सरकार को कि वह भ्रष्ट जज को नियमित करे. सरकार का प्रधानमंत्री और कानून मंत्री देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था की कॉलेजियम को निष्क्रिय करता हुआ जज की नियुक्ति करवा लेता है. आखिर वह कौन सी मजबूरी थी तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की या कॉलेजियम के अन्य चार में से दो जजों की जो ऐसा करने को मजबूर होते हैं? उनकी तो कोई सरकार नहीं थी जिसके गिरने का ख़तरा था? उन्हें तो संविधान निर्माताओं ने बेहद मजबूत पाये पर खड़ा किया था और अगर वे सरकार की बात नहीं मानते तो उनको कुछ भी आंच नहीं आती. संवैधानिक व्यवस्था हमारे निर्माताओं ने इतनी पुख्ता कर डी है कि अगर देश की पूरी संसद भी चाहती तो उन्हें नहीं हटा सकती थी. देश के सर्वोच्च या उच्च न्यायलय के जज को मात्र “सिद्ध दुराचार” के आधार पर हीं हटाया जा सकता है वह भी एक जटिल और अलग संसद में विशेष बहुमत की प्रक्रिया के ज़रिये.
इसी सर्वोच्च न्यायलय की नौ –सदस्यीय संविधान पीठ ने एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के १९९४ के फैसले में कॉलेजियम की व्यवस्था करके जजों की नियुक्ति का पूर्ण अधिकार अपने पास लिया था. फैसले का आधार यही था कि सरकारों को इन नियुक्तियों में प्राथमिकता देने से नियुक्तियों का राजनीतिकरण हो रहा है. और था भी ऐसा हीं. कोई मुख्यमंत्री अपने दो आदमी लाता था तो कोई केंद्र में बैठा कानून मंत्री अपने दो और इस बन्दर बाँट में न्यायपालिका भी अपने एक –आध आदमी रख लेता थी. जब यह फैसला आया तो पूरे देश में यह विश्वास बना कि अब देश की न्यायपालिका में अच्छे लोग योग्यता के आधार पर आएंगे. हम सब लोग जो उस समय न्यायपालिका की रिपोर्टिंग करते थे यह विश्वास करने लगे कि फैसले से न्यायपालिका में अमूल-चूल सुधार होगा.
आज २२ साल जब यह पता लगा कि सत्य पर तन कर खड़े रहने की असली शक्ति ना तो न्यायपालिका में है , ना हीं किसी सत्ता दल या गठजोड़ में बल्कि यह शक्ति किसी भ्रष्ट अस्थाई अतिरिक्त जज की चेरी है. हमारा वो मतदान करना , वो संसद में वाद-विवाद , वो सी ए जी का २-जी स्पेक्ट्रम में हुए घोटाले का खुलासा और मीडिया में महीनों तक इस मुद्दे पर जनता को बताना किसी मतलब का नहीं था. वही पार्टी जिसने २००५ में इस जज की नियुक्ति अवैध तरीके से दबाव बना कर कराई उसी को हमने फिर वोट दे कर २००९ में जीता दिया. घोटालों के पर लग गए, कामनवेल्थ खेल घोटाला. कोयला घोटाला होता रहा. सी बी आई के निदेशक को बुलाकर कानून मंत्री अपने मुताबिक निर्देश देता रहा. देश का प्रजातंत्र चलता रहा. एक साल नहीं, दस साल नहीं, पूरे ६५ साल. और अब देखने से लगता है कि यह बढ़ता जा रहां है. अगर १९५१ में सर्राफा व्यापारियों के हित-साधन के लिए सांसद एच जी मुद्गल द्वारा पैसे लेकर संसद में सवाल पूछना पंडित नेहरु को इतना बड़ा अपराध लगा कि मुद्गल को संसद से अपमान करते हुए (उन्हें इस्तीफा नहीं देने दिया गया) हटाया गया तो इन ६५ सालों में हमने यही सिखा कि एक भ्रष्ट जज की नियुक्ति के लिए एक ऐसे पार्टी जो कई बार तमिलनाडु में सत्तानशीं रहीं है प्रधानमंत्री कार्यालय को ब्लैकमेल करती है और कार्यालय सत्ता न जाने देने के लिए झुक कर दोहरा हो जाता है. डी एम् की मात्र एक उदाहरण है. हमाम में जा कर देखना होगा.
अरुण सौरी ने अपनी एक किताब की शुरुआत में एक वैज्ञानिक प्रयोग का उल्लेख किया है. एक मेढक को गरम पानी वाले बर्तन में डालो. वह तुरंत कूद कर निकलना चाहेगा. परन्तु इसी मेढक को एक सामान्य तापमान वाले पानी के बर्तन में डालो. उस बर्तन को धीरे धीरे गरम करो. वह मेढक चुप-चाप तैरता रहेगा और यहाँ तक जब वह पानी उबलने लगेगा तो भी वह उसी में मर जाएगा पर भागने का कोई उपक्रम नहीं करेगा. इसका कारन यह माना गया कि पानी के धीरे –धीरे गरम होने से उसमें एक जड़ता आ जायेगी और वह उस संज्ञा –शून्य हो कर स्थिति से बचने का कोई प्रयास नहीं करेगा.
भारतीय समाज में भी वह जड़ता आ गयी है. यह मुद्दा भी संसद में कुछ दिन चर्चा का सबब बन कर दम तोड़ देगा जैसे तमाम भ्रष्टाचार के मामलों में हुआ. यही नहीं मेढक तो विवेकहीन होता है लिहाज़ा पानी के उबाल तक चुप-चाप पड़ा मर जाता है हमें ईश्वर ने दिमाग दिया है लिहाज़ा उसका इस्तेमाल कर अपने बच्चे की नौकरी लगवाने के लिए घूस देने लगते हैं, रेलवे में रिजर्वेशन के लिए दलाल तलाशते हैं और ठेका मिला तो १:३ की जगह १:१३ का मसला लगा कर लाभ को इंजिनियर के साथ बाँट लेते हैं , कुछ और बैंक बैलेंस बढा लेते हैं. यह नहीं सोचते को जिस बच्चे की नौकरी के लिए घूस दिया है वह एक सड़ते भारत में ताउम्र रहेगा और फिर अपने बच्चे की नौकरी लिए वह भी घूस हीं देगा. उसे यह अहसास भी नहीं हो पा रहा है कि अगर भ्रष्ट जज न होता , अगर २-जी स्पेक्ट्रम में १.७६ लाख करोड़ का घोटाला ना होता और अगर देश में ये भ्रष्टाचारी काले धन के सामानांतर हीं नहीं बल्कि अर्थ-तंत्र को खोखला करने वाला एक प्रभावी तंत्र विकसित नहीं कर चुके होते तो उसके बच्चे की नौकरी स्वतः हीं लगती और जीवन बेहद सहज होता. १.७६ लाख करोड़ रुपये से पूरे भारत को मुफ्त भोजन एक साल तक कराया जा सकता था.
यह प्रश्न किया जा रहा है कि जस्टिस काटजू को यह इल्हाम आज क्यों आया. यह एक अजीब तर्क है. हम गुनगुनाते पानी के मेढक हो गए हैं और भ्रष्ट जज की नियुक्ति में दिखाई दे रही सिस्टम की सडांध हमें तकलीफ नहीं देती और हम जस्टिस काटजू में खामी खोजने लगते हैं. ताकि भविष्य में भी कोई व्यक्ति हिम्मत ना करे ऐसे मुद्दे उठाने की कि हमें पानी की गर्मी के अहसास से कूदने की मेहनत करनी पड़े. धीरी-धीरे गरम होते पानी में मरना हमारी नियति हो चुकी है.
rajsthan patrika
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