प्रजातंत्र
में राजकीय नीति निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया है जो बहु-स्तरीय सामूहिक
विचार-विमर्श के बाद ली जाती है. इसके लिए शासन तंत्र याने मंत्रिमंडल व शासनेतर
संस्थाएं जैसे पार्टी फोरम और जन-संवाद के धरातल, मीडिया की बड़ी भूमिका होती है.
लेकिन कई बार शीर्ष मान्यता वाले लोग अचानक इस प्रक्रिया को एक झटके से तोड़ कर
तात्कालिक जन-भावना को अपील करने वाली बात के साथ अपने को जोड़ते हुए जनता के चहेते
बन जाते हैं. इसका नुकसान यह होता है कि संस्थाओं का कद घट जाता है और जनता का
विश्वास इस विधि-सम्मत और “लेजिटिमेट” प्रक्रिया से हट कर व्यक्ति पर चला जाता है.
अर्थात उस व्यक्ति का कद तो बढ़ जाता है पर इसकी कीमत प्रजातंत्र को चुकानी पड़ती
है. यह कुछ रॉबिनहुड इमेज जैसा होता है.
यह
बात सही है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने जिस आक्रामक तेवर के जरिये सरकार
के गलत प्रयास को रोका उससे उनकी छवि एक बार फिर जन-मानस में सकारात्मक रूप से घर
कर गयी है. यही तो जनता चाहती है कि उनका लीडर भ्रष्टाचार देख कर क्रुद्ध हो जाये.
वह चाहती है कि उनका लीडर ऐसी सस्थाओं या सोच को जो रंचमात्र भी भ्रष्टाचार को
प्रश्रय देने चाहती है उन्हें तार-तार कर सड़क पर छोड़ दे (चौराहे पर फंसी देने के
भाव में). राहुल ने यह किया. उनकी भ्रष्टाचार को लेकर “जीरो टोलरेंस” (शून्य
सहिष्णुता) का यह आलम था कि पार्टी की एक प्रेस कांफ्रेंस में अचानक पहुंचते हैं
और वह भी तब जब पार्टी का प्रवक्ता राजनीति में अपराधीकरण को बनाये रखने वाले
अध्यादेश के पक्ष में कसीदे काढ रहा था. राहुल इस अध्यादेश को न केवल फाड़ कर
फेंकने की बात कहते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि “मैं फिर से दोहराता हूँ –इस
अध्यादेश बकवास है और इसे फाड़ कर फेंक देने चाहिए”. “फाड़ना” , “बकवास” या “मैं फिर
दोहराता हूँ” यह उसी भाव को प्रतिबिंबित करता है जिसके तहत जनता भ्रष्टाचारी को
“चौराहे पर गोली मारने” की बात कहती है.
प्रजातान्त्रिक
व्यवस्था के स्थापित मूल्यों के खिलाफ एक और भी स्थिति बनी है. राहुल का विद्रोही
भाव उन सभी पार्टी के नेताओं की दयनीय स्थिति बताता है. रीढ़-विहीनता की हद थी जब
कोई प्रवक्ता राहुल के इस आक्रामक रुख पर यूं-टर्न लेने में दो सेकंड की देरी भी
नहीं करता और कहता है कि जो राहुल जी ने कहा वहीं पार्टी की राय है. कोई पूछे कि अभी दो सेकंड पहले आप जो कह रहे थे वह क्या था? इस बात की भी होड़
मंत्रियों में लग गयी कि कौन मंत्रिमंडल
में लिए गए अपने हीं फैसले की कितनी निंदा कर सकता है.
फिर
भी एक बात साफ़ है. जब जब राहुल इस भाव में आते हैं जनता में एक नयी आशा की किरण
जगती है. उसे यह लगता है कि नेहरु-गाँधी परिवार का कोई युवा सार्थक क्रोध में आता
है और इस सड़े सिस्टम को उखड फेंकना चाहता है. दलित के घर खाना खाना और रात बिताना,
हजारों साल के सामंती शोषण की मानसिकता को झटका देता है और लगता है कि नहीं ये
राजा तो गरीबों का हमदर्द है. मेट्रो में चलना , एस पी जी को धता बता कर भीड़ में
घुस कर हाथ मिलाना भी आम जनता को भाता है.
राहुल
का भ्रष्टाचार या राजनीति के अपराधीकरण को लेकर यह गुस्से का भाव नरेन्द्र मोदी या
भारतीय जनता पार्टी के लिए बचैनी पैदा करने वाला हो सकता है. दरअसल मोदी का भी
“यूं एस पी” यही है. बढ़ी दाढ़ी (लेकिन राहुल से सफ़ेद), संस्थाओं और व्यक्तियों की
गरिमा को झटके में गिरा देने का हौसला, लीक से हट कर अपनी बात खडी करना मोदी की भी
सुनियोजित रणनीति रही है. और इसका लाभ भी मिला है वरना विकास के पैमाने पर
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने कुछ कम नहीं किया है. लेकिन उन्हें पाकिस्तान को
ललकारते हुए अनुप्रास अलंकार में “छप्पन इंच छाती” कहने की कला नहीं आती जो भारतीय
जन-मानस को भाती है.
लेकिन
एक बात साफ़ है कि अगर राहुल आज भी अपनी इस “एंग्री यंगमैन” की इमेज को स्थायी भाव
बना लें तो मोदी को गिरती हुई साख वाले कांग्रेस के बीच से हीं ना केवल एक दमदार विपक्षी मिलेगा बल्कि मोदी से
ज्यादा अपील और सर्वस्वीकार्य चेहरा भी जनता को विकल्प के रूप में मिलेगा. मुश्किल
यह है कि राहुल एक बार यह कहने की बाद नेपथ्य में चले जाती हैं. जयपुर में जब
राहुल ने अपनी हीं पार्टी के चरित्र पर जबरदस्त प्रहार किया तो जन-मानस में इस
युवराज के लिए विश्वास पनपा. लेकिन अगले कुछ महीनों तक राहुल का यह भाव नहीं देखने
को नहीं मिला. इधर मोदी चुनाव के अखाड़े में हर दूसरे दिन ताल ठोकते रहे तो भी जनता
ने सोचा कि पीढ़ी के अंतर वाले दो प्रतिद्वंद्वियों के बीच मुकाबला होगा जन धरातल
पर. पर कुछ समय में लगने लगा कि एक पहलवान ने वॉकओवर दे कर मैदान हीं छोड़ दिया है
. प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से मुकाबले की अपेक्षा न तो पहले थी ना अब है.
आज
भी कांग्रेस के लिए एक हीं रास्ता बच रहा है. भ्रष्टाचार, कुशासन, महंगाई और
राजनीति के अपराधीकरण से त्रस्त लोगों को कांग्रेस रंच मात्र भी नहीं भा रही है
लेकिन अगर राहुल का अपने हीं लोगों के खिलाफ विद्रोही भाव में आकर जनता में
विश्वास दिलाते हैं तो मोदी के लिए महंगा
पड़ सकता है.
यही
वजह है कि भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर राहुल पर चौतरफा हमला करने को अपनी
रणनीति का सबसे बड़ा हिस्सा मानने लगी है.
ध्यान
देने की बात यह है कि पिछले तीन चुनावों में (याने सन १९९८ से २००९ के बीच )
भारतीय जनता पार्टी ने हर तीसरे मतदाता को खोया है जबकि कांग्रेस पिछले २० सालों
में कमोबेश २८ प्रतिशत का वोट पाती रही है. लिहाज़ा यह सोचना कि कांग्रेस पूरी तरह
से ख़ारिज की जायेगी गलत होगा. आखिर वो कौन १२ करोड़ मतदाता हैं जिन्होंने कांग्रेस
को २००९ में वोट दिया जबकि भारतीय जनता पार्टी मात्र आठ करोड़ पर सिमट गयी. क्या
मोदी यह खाई भर पाएंगे ?
जहाँ तक राहुल के अपने
हीं प्रधान मंत्री के खिलाफ सिद्धे जनता में जाने या अपनी हीं सरकार व
मंत्रिमंडल को नीचा दिखने का भाव है यह
बौद्धिक जुगाली का विषय तो हो सकता है पर जनता में इसका सन्देश अच्छा गया है. lokmat
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