नोबेल पुरस्कार विजेता एवं विख्यात अर्थशास्त्री ने कहा
था कि क्रियाशील प्रजातंत्र में दुर्भिक्ष नहीं होता क्योंकि मीडिया के जरिये बना हुआ
जनमत का दबाव सरकारों को मजबूर करता है कि रसद कहीं से भी लेकर दुर्भिक्ष वाले क्षेत्र
में पहुँचाया जाये. दरअसल बंगाल के १९४२ में हुए दुर्भिक्ष जिसमें करीब २० लाख लोग
मारे गए थे, का ज़िक्र करते हुए सिद्ध किया था कि यह दुर्भिक्ष और मौतें महज ब्रितानी
सरकार की उदासीनता के कारण था अन्यथा सरकार के पास रसद की कमी नहीं थी. अगर प्रजातंत्र
रहता तो मीडिया और जनमत सरकार को इस रसद को बंगाल के गांवों में भजने को बाध्य होता.
आज ६३ साल के प्रजातान्त्रिक शासन के बाद सरकारें इस मीडिया
के माध्यम से उभरे जनमत को नज़रंदाज़ नहीं कर पा रही है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह
की सामूहिक चेतना उभरी है वह रंग ला रही है. राजनीतिक वर्ग, कार्यपालिका, विधायिका
और न्यायपालिका सभी इससे प्रभावित हैं. और भ्रष्टाचारी नेता को सलाखों के पीछे देख
कर इस बदलते भारत को सहज हीं पहचाना जा सकता है. एक और भी स्थिति पनपती है. अगर एक
संस्था पुराने ढर्रे पर बने रहना चाहती है या ऐसी हीं कई अन्य संस्थाएं यथास्थिति को
बनाये रखना चाहती है तो कोई एक औपचारिक या अनौपचारिक संस्था या ताकतवर व्यक्ति अचानक
उठ खड़ा होता है और जन-समर्थन के बूते यथास्थितिवादी
संस्थओं के मंसूबे ढेर कर दिए जाते हैं.
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी का प्रेस कांफ्रेंस में
अपनी हीं सरकार के खिलाफ बोलना उसी जन-भावना के प्रभाव का असर था. सुप्रीम कोर्ट का
भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम की धारा ८(४) को गैर-कानूनी करार देने भी उसी का हिस्सा
था. इसके उलट सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ चुने हुए जन प्रतिनिधियों को जिन्हें
अदालत से से दो साल से अधिक की सजा मिल चुकी हो दोबारा बचाना लोक सभा की यथास्थितिवादी प्रवृति का मुजाहरा करता
है. राज्य सभा बेहतर सोच का था और इस बिल पर पानी फेरते हुए स्थायी समिति को सुपुर्द
करने का फैसला लिया गया. फिर यथास्थितिवादी जिद के तहत कांग्रेस का एक वर्ग, भारत सरकार
का मंत्रिमंडल “खूंटा वहीं गड़ेगा” के भाव में आकर अध्यादेश लाता है तो अचानक देश के
राष्ट्रपति तन कर खड़े हो जाते है क्योंकि ६० साल राजनीति में रहने की वजह उन्हें जन-भावना
की ताकत का अहसास था. राहुल का तेवर भी उसी लाइन पर था.
यह ठीक है कि प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल, कांग्रेस की कोर कमिटी की गरिमा गिरी पर जब जन-भावना
की क़द्र नहीं होगी तो आज नहीं तो कल यथास्थितिवादी संस्थाओं और व्यक्तियों की इज्ज़त
खतरे में तो होगी हीं.
राष्ट्रीय जनता दल के लालू यादव को भी मुख्यमंत्री रहते
हुए यही लगा कि संविधान, कानून और सिस्टम तो मेरी चेरी है. तभी तो भ्रष्टाचार करते
हुए यह भी नहीं सोचा कि फर्जी बिल में भैंस ढोने के लिए कम से कम स्कूटर के नंबर की
जगह ट्रक का नंबर डाल देते.
हाल के दौर में अचानक सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में भ्रष्टाचार निरोधक कानून की
धारा ८(४) रद्द करते हुए कहा कि संसद या
विधायिका का सदस्य अगर दो साल से अधिक सजा वाली धारा में सजा पाता है तो वह सदस्य महज
इस लिए नहीं रहेगा कि “वह चुना गया है और ऊपरी अदालत
ने उसकी अपील मंज़ूर कर ली है”. सभी राजनीतिक दल डर गए और एक
स्वर में इस आदेश के खिलाफ कानून बनाने पर राज़ी हो गए. लेकिन देश में कई बार
शर्म का झीना आवरण बड़े से बड़े बेशर्म हरकत पर भारी पड़ता है. यही हुआ. संसद में यह बिल स्थायी समिति
के पास चला गया. कानून नहीं बन सका. लेकिन लालू का दबाव सरकार पर पड़ता रहा मानो लालू पूछ रहे हों --- इतने दिन सेवा का यह सिला क्यों ?. केंद्र सरकार को भी अगले चुनाव में लालू की ज़रुरत थी. लिहाज़ा शासन के लिए बने
शर्मो-ओ-हया की सभी हदें पार करते हुए
मनमोहन सरकार ने अध्यादेश को राष्ट्रपति के पास भेजा. राष्ट्रपति को भी यह
बेशर्मी खटकी. बिल वापस भेज दिया गया. दबाव इतना था कि सरकार इसे दुबारा भेज देती और राष्ट्रपति को मजबूरन दस्तखत करना
पड़ता. पर इस बीच कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी की नैतिकता जगी, और उन्होंने तीसरी आँख खोल दी.
बिल भष्म होने लगा.
कहने का मतलब लालू भ्रष्टाचार की इस यात्रा में कोई मददगार सी बी आई का डी आई जी
स्तर का अधिकारी मिला तो कोई ईमानदार आई जी
स्टार का अधिकारी यूं एन विश्वास. कोई प्रधान मंत्री मित्र मिला
तो कोई सुप्रीम कोर्ट बेंच इन्साफ की तराजू थामे दिखी. सरकार कोई पूरा का पूरा
मंत्रिमंडल मददगार मिला तो कोई उसी सत्ता पक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का सबसे ताकतवर व्यक्ति
सब बेशर्म हरकतों पर अपने हीं लोगों पर लानत मलानत करता हुए सत्य के पक्ष में इस भाव
में खड़ा कि पार्टी का भविष्य कुछ भी हो चुनाव
में, भ्रष्टाचारी को बचने का यह सरकारी नाटक नहीं होने दूंगा .
यह बात सही है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष
राहुल गाँधी ने जिस आक्रामक तेवर के जरिये सरकार के गलत प्रयास को रोका उससे उनकी छवि
एक बार फिर जन-मानस में सकारात्मक रूप से घर कर गयी है. यही तो जनता चाहती है कि उनका
लीडर भ्रष्टाचार देख कर क्रुद्ध हो जाये. वह चाहती है कि उनका लीडर ऐसी सस्थाओं या
सोच को जो रंचमात्र भी भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने चाहती है उन्हें तार-तार कर सड़क
पर छोड़ दे (चौराहे पर फंसी देने के भाव में). राहुल ने यह किया. उनकी भ्रष्टाचार को
लेकर “जीरो टोलरेंस” (शून्य सहिष्णुता) का यह आलम था कि पार्टी की एक प्रेस कांफ्रेंस
में अचानक पहुंचते हैं और वह भी तब जब पार्टी का प्रवक्ता राजनीति में अपराधीकरण को
बनाये रखने वाले अध्यादेश के पक्ष में कसीदे काढ रहा था. राहुल इस अध्यादेश को न केवल
फाड़ कर फेंकने की बात कहते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि “मैं फिर से दोहराता हूँ –इस
अध्यादेश बकवास है और इसे फाड़ कर फेंक देने चाहिए”. “फाड़ना” , “बकवास” या “मैं फिर
दोहराता हूँ” यह उसी भाव को प्रतिबिंबित करता है जिसके तहत जनता भ्रष्टाचारी को “चौराहे
पर गोली मारने” की बात कहती है.
प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों के खिलाफ
एक और भी स्थिति बनी है. राहुल का विद्रोही भाव उन सभी पार्टी के नेताओं की दयनीय स्थिति
बताता है. रीढ़-विहीनता की हद थी जब कोई प्रवक्ता राहुल के इस आक्रामक रुख पर यूं-टर्न
लेने में दो सेकंड की देरी भी नहीं करता और कहता है कि जो राहुल जी ने कहा वहीं पार्टी
की राय है. कोई पूछे कि अभी दो सेकंड पहले
आप जो कह रहे थे वह क्या था? इस बात की भी
होड़ मंत्रियों में लग गयी कि कौन मंत्रिमंडल
में लिए गए अपने हीं फैसले की कितनी निंदा कर सकता है.
फिर भी एक बात साफ़ है. जब जब राहुल इस भाव में आते हैं
जनता में एक नयी आशा की किरण जगती है. उसे यह लगता है कि नेहरु-गाँधी परिवार का कोई
युवा सार्थक क्रोध में आता है और इस सड़े सिस्टम को उखड फेंकना चाहता है. दलित के घर
खाना खाना और रात बिताना, हजारों साल के सामंती शोषण की मानसिकता को झटका देता है और
लगता है कि नहीं ये राजा तो गरीबों का हमदर्द है. मेट्रो में चलना , एस पी जी को धता
बता कर भीड़ में घुस कर हाथ मिलाना भी आम जनता को भाता है.
राहुल का भ्रष्टाचार या राजनीति के अपराधीकरण को लेकर
यह गुस्से का भाव नरेन्द्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी के लिए बचैनी पैदा करने वाला
हो सकता है. दरअसल मोदी का भी “यूं एस पी” यही है. बढ़ी दाढ़ी (लेकिन राहुल से सफ़ेद),
संस्थाओं और व्यक्तियों की गरिमा को झटके में गिरा देने का हौसला, लीक से हट कर अपनी
बात खडी करना मोदी की भी सुनियोजित रणनीति रही है. और इसका लाभ भी मिला है वरना विकास
के पैमाने पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने कुछ कम नहीं किया है. लेकिन उन्हें पाकिस्तान
को ललकारते हुए अनुप्रास अलंकार में “छप्पन इंच छाती” कहने की कला नहीं आती जो भारतीय
जन-मानस को भाती है.
शायद यही है परिपक्व होते प्रजातंत्र की खूबसूरती.
patrika
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