Friday 29 January 2021

आन्दोलन चले, न चले, दोनों में सरकार की हार




दो माह पुराना किसान आन्दोलन एक अजीब मोड़ पर आ खड़ा है. गणतंत्र दिवस के दिन हुई हिंसक घटनाओं और लाल किले पर झंडा लगाने से किसानों के प्रति जन-समर्थन कम हुआ है. हालांकि आन्दोलनकारी लोगों को बता रहे हैं कि एक दिन पहले हीं दिल्ली पुलिस को उन्होंने आगाह किया था कि कुछ संगठन उनके नियंत्रण में नहीं हैं और उनकी गतिविधियों पर नज़र रखनी चाहिए. लालकिले की घटना के मास्टरमाइंड की प्रधानमंत्री व गृहमंत्री की साथ फोटो भी जन-विमर्श का हिस्सा बन गयी है. लेकिन इन सब से किसान नेताओं की गलती कम नहीं होती, न हीं आम जनता की उनके प्रति-सहानुभूति पहले जैसी फिलहाल रहेगी. इसी बीच तथाकथित स्थानीय जनता सड़क पर आने-जाने के अपने अधिकार को लेकर किसानों का विरोध करने लगी है. सरकार को इससे ताकत मिली है. बड़ी तादात में पुलिस ने घेरा डाल आन्दोलनकारियों को जगह खाली करने की नोटिस दी है. बिजली, पानी, सचल शौचालय सुविधाएँ रोक दी गयी हैं. शायद बल-प्रयोग का मन भी बना है. उधर आक्रोशित किसान बड़ी तादात में फिर से घरना-स्थल की ओर कूच कर रहे हैं. संभव है सुविधाओं की अभाव, सरकारी बल-प्रयोग के अंदेशे और आपसी सामंजस्य की कमी से यह आन्दोलन बगैर किसी नतीजे के ख़त्म हो जाए और किसान वापस चले जाएँ. लेकिन क्या यह उनकी हार होगी? क्या यह सरकार की जीत होगी. सरकार शायद भूल रही है कि आन्दोलन ख़त्म होने से जो सन्देश देश भर के किसानों में जाएगा वह यह कि सरकार के दमन से आन्दोलन ख़त्म हुआ और यह भी कि सरकार किसान-विरोधी है. देश की आबादी में ६८ प्रतिशत किसान हैं और किसी भी राजनीतिक दल के लिए किसान-विरोधी इमेज बड़े घाटे का सौदा है. आन्दोलन के बाद से देश भर का किसान यह मानने लगा है कि एमएसपी पर खरीद एक जायज मांग थी और सरकार उसे नहीं मानना चाहती. इस वर्ग को तीन कानून की पेचीदगियां इतनी प्रभावित नहीं करती जितनी एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी. वह जानता है इस गारंटी में हीं सब कुछ निहित है. क्योंकि इससे कम व्यापारी भी उत्पाद नहीं खरीद पायेगा. और यही किसान की जीत है. क्या सरकार इस नाराजगी को दूर करने के लिए इस बजट में कुछ ऐसी व्यवस्था करेगी?  

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