Monday, 16 April 2018

फेक न्यूज: सरकार तो पीछे हट गयी पर क्या मीडिया संजीदा है?



कहा जाता है कि संसाधनों पर उच्च वर्ग का हीं अधिकार होता है. लेकिन पिछले २ अप्रैल को दलित संगठनों द्वारा आहूत भारत बंद के दौरान झूठ प्रचारित कर दलितों को सड़क पर लाने के किये सोशल मीडिया का जबरदस्त इस्तेमाल किया. पहला मेसेज वायरल हुआ कि दलितों के आरक्षण के अधिकार ख़त्म किये जा रहे हैं और यह कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला उसी दिशा में एक पहल है. जबकि हकीकत यह है कि इस आदेश का आरक्षण से कोई लेना देना नहीं है. दूसरा: एक विडिओ वायरल हुआ जिसमें विलाप करती एक मां की गोद में एक घायल बच्ची है. बताया गया कि यह बच्ची पथराव में घायल हुई है और चूंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित संख्य काफी है और वे ताकतवर भी है लिहाज़ा यह विडिओ इस इलाके में ज्यदा दिखा लेकिन हकीकत यह थी वह एक पुराना विडिओ था और बिहार के मुजफ्फरपुर में माडीपुर गाँव की एक घटना का था. तीसरा : इधर इस आन्दोलन के खिलाफ खड़े उच्च जाति के एक वर्ग ने एक विडिओ वायरल किया जिसमें हनुमान जी की खंडित मूर्ति दिखाई गयी थी यह बताते हुए कि दलितों ने इसे तोडा है. हकीकत यह थी कि यह विडिओ दक्षिण भारत के एक राज्य में हुआ २७ मई , २०१७ में हुए एक प्रदर्शन के समय का है. और इसका दलित -आहूत भारत बंद से कोई लेना देना नहीं था .
भारत के संविधान में अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के मौलिक अधिकार –अनुच्छेद १९() () के खिलाफ “युक्तियुक्त निर्बंध” (रिज़नेबल रेस्ट्रिक्शन) लगाने के कुल आठ आधार---अनुच्छेद १९() में वर्णित हैं और पिछले ७० साल में सरकारों ने इन निर्बंधों को तहत करीब तीन दर्जन कानून बनाये हैं जो मीडिया को अंकुश में रख सकते हैं. आज से एक दशक पहले तक देश में मोटेतौर पर केवल औपचारिक मीडिया ---- अखबार या न्यूज़ चैनल --- हुआ करते थे. इनका मूर्तरूप होता था, स्थायी पता होता था जिसकी सरकार को हीं नहीं पूरे समाज को जानकारी होती थी, मकबूल एडिटर और जाने माने मालिक हुआ करते थे. किसी भी खबर के कानून सम्मत न होने की स्थिति में इन पर कार्रवाई हो सकती थी. तकनीकी के विकास और शिक्षा एवं प्रति -व्यक्ति आय की वृद्धि के साथ हर नागरिक में हर विषय अपने को अभिव्यक्त करने की इच्छा परवान चढी और ट्विटर, फेसबुक और सोशल मीडिया के ज़माने में यह व्यक्ति अपने -अपने ज्ञान और तर्क शक्ति के मुताबिक अद्वैतवाद से अवमूल्यन तक हर विषय पर बोलने लगा. पूर जन-विमर्श अधकचरे ज्ञान पर आधारित हो गया. जो कमी थी वह टी वी स्टूडियो में “तेरे नेता , मेरा नेता “ के टीआरपी बटोरू एक्सरसाइज ने पूरी कर दी.
इधर चूंकि अधिकांश सोशल मीडिया या एकाउंट्स रातों रात अस्तित्व में आये जिनके असली कर्ताधर्ता का पता अक्सर गलत होता है और तथ्य के नाम पर फेक न्यूज परोस कर “हिट्स” बटोरते हैं और आर्थिक लाभ हासिल करते हैं, आज पूरे विश्व में एक नया संकट पैदा हो गया है. फेक न्यूज इसी प्रक्रिया की उत्पत्ति है. यह शब्द-युगल मात्र २० माह पहले व्यापक प्रचालन में आया. खासकर अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव में ट्रम्प को लेकर. आज यह दुनिया के प्रजातंत्र को लेकर एक बड़ा खतरा बन गया है. और देशों के बीच परस्परिक तनाव का सबब बन गया है. पेड न्यूज़ से तो भारत जूझ हीं रहा था लेकिन अब फेक न्यूज़ एक नयी समस्या के रूप में सामाजिक तनाव पैदा करने लगा है. फेक न्यूज़ की परिभाषा जानबूझ कर गलत जानकारी देना और भ्रामक प्रचार /वितंडावाद पैदा करके किसी व्यक्ति, संस्था या समूह के खिलाफ वैमनस्य पैदा करने के प्रयास के रूप में किया जा सकता है. इस प्रयास के खिलाफ भारत में अनेक कानून पहले से हीं अस्तित्व में हैं और औपचारिक मीडिया आमतौर पर इस कुप्रयास में नहीं पाया गया है लेकिन सोशल मीडिया में यह बीमारी तेजी से बढ़ रही है. औपचारिक मीडिया भ्रामक हेडलाइंस तो देता है जैसे एक अंग्रेज़ी अखबार का शीर्षक था “और फिर उन्होंने याकूब के गले में फांसी पर लटका दिया”. औपचारिक मीडिया का दृष्टिकोण और उस पर आधारित तथ्य तो चुनिन्दा हो सकते हैं “सेलेक्टिव अप्प्रोप्रिएशन ऑफ़ फैक्ट्स” के तर्क दोष के तहत लेकिन वे जानबूझ कर झूट को सच कह कर नहीं दिखा सकते.
फेक न्यूज पर भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय को प्रधानमंत्री की पहल पर और मीडिया के दबाव में अपने कदम वापस लेने पड़े. प्रधानमंत्री जमीन से जुड़े होने के कारण सूक्षम और स्थूल प्रजातान्त्रिक मूल्यों की पहचान हीं नहीं हैं बल्कि उन्हें अक्षुण रखने समझ भी है. मीडिया संगठनों ने तत्काल हीं इस पहल के लिए नरेन्द्र मोदी को साधुवाद दिया. दरअसल फेक न्यूज की समस्या मूलरूप से औपचारिक मीडिया ---अखबार और न्यूज चैनलों --- की नहीं है. कारण यह है कि औपचारिक मीडिया मूर्तरूप में और कानूनी तौर स्थापित और सर्व-विदित रूप से विद्यमान रहता है और इसका मालिक या एडिटर समाज का जाना माना व्यक्ति होता है. मंत्रालय ने गलती यह की कि जिस औपचारिक संस्था के नाम यह आरोप मढ़ दिया वह वास्तव में सोशल मीडिया की समस्या है.
दरअसल फेक न्यूज की समस्या से भारत हीं नहीं पूरा विश्व खासकर सैकड़ों वर्ष पुराने ब्रिटेन, अमेरिका, फ़्रांस , जर्मनी भी काफी प्रभावी हो रहा है. त्रासदी यह है कि तथाकथित पढ़ेलिखे पश्चिमी समाज में भी लोग इससे काफी प्रभावित दीख रहे हैं. बज्जफीड के एक सर्वे के अनुसार सन २०१६ में अमरीकी चुनाव में जो सबसे ज्यादा प्रभावशाली २० सही ख़बरें जो १९ औपचारिक मीडिया संस्थाओं द्वारा रिलीज़ की गयी थी उनके मुकाबले २० फेक न्यूज़ जो फेसबुक के जरिये सामने आये थे उनको लोगों ने ज्यादा देखा और प्रभावित हुए.
पर क्या इसके बाद किसी भी मीडिया संगठन ने इस मुद्दे –फेक न्यूज – पर कोई संजीदा चर्चा की? इन संगठनों की प्रतिक्रिया क्या थी ---सरकार मात्र इस आधार पर कि “किसी खबर के फेक होने की शिकायत आयी है” किसी रिपोर्टर की मान्यता निलंबित नहीं कर सकती. लेकिन इससे क्या फेक न्यूज के भेड़िया का आना भी हमेशा के लिए टल गया. क्या यह सच नहीं है कि खबर के नाम पर अर्ध-सत्य परोसना, उतने हीं तथ्यों पर जोर देना जिससे एक पक्ष या दूसरे पक्ष की विचारधारा को बल मिले यह भी फेक न्यूज की श्रेणी में आता है.
तकनीकि के विकास का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि ज्ञान जो संपन्न वर्ग के परकोटे में विश्राम करता था और रईशजादों की चेरी हुआ करता था आज गरीब के मोबाइल में कैद किया जा सकता है-- याने ज्ञान का समाजवाद. भारत सरकार द्वारा चुनाव या बजट में किये गए वादे, बाबरनामा, ऋग्वेद काल में गाय की स्थिति, ट्रेन में नशे में पुलिस का हुडदंग मंत्री के व्हाट्स अप पर डालना – ये सभी किसी राजा या किसी रंक को सामान भाव से और लगभग शून्य- कीमत पर उपलब्ध हैं. कपास की खेती की या ड्रिप सिचाई की नयी तकनीक, बीमारियों के बारे में मौलिक जानकारी ताकि कोई डॉक्टर-नर्सिंगहोम शोषण न कर सके, कानून की ताज़ा स्थिति और नागरिक अधिकार यह सब कुछ व्यक्ति चंद मिनटों में जान व समझ सकता है. जानने के अधिकार के तहत हासिल तथ्यों से सोशल मीडिया के जरिये मुद्दों पर सामूहिक चेतना विकसित की जा सकती है.
भारत जैसे देश में जहाँ सामाजिक-धार्मिक पहचान समूह हजारों की तादात में हीं नहीं हैं बल्कि पारस्परिक शाश्वत द्वन्द के भाव में रहते हैं, ऐसे में भले हीं सरकार ने फेकन्यूज पर अपना कदम वापस ले लिया हो क्या औपचारिक मीडिया या संस्थाओं ने अपने को बेहतर करने के लिए एक भी बैठक कर चर्चा की.? क्या सोशल मीडिया के प्लेटफार्म आत्म-नियमन ले लिए कटिबद्ध हो सकेंगे. अगर नहीं तो यह भेडिया फिर आ सकता है.


jagran

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