देश
कैसे बदल पायेगा ?
उत्तर
प्रदेश के ललितपुर जिले के
खेरागाँव प्राइमरी स्कूल के
एक टीचर-इंचार्ज
ओम प्रकाश पटेरिया ने अपने
रिटायर होने के ठीक एक दिन
पहले याने विगत ३० मार्च को
स्कूल के एक कमरे में मिटटी
का तेल डाल कर आत्महत्या कर
ली. मरने
के पहले कक्षा के ब्लैकबोर्ड
पर मुख्यमंत्री के नाम एक
सन्देश लिखा : “गाँव
का प्रधान, एक
शिक्षक और मध्याह्न भोजन का
सरकारी इंचार्ज उनसे घूस की
मांग कर रहे थे और न देने पर
प्रताड़ना करने की धमकी दे रहे
थे“. प्राइमरी
स्कूलों में मध्याह्न भोजन
की योजना इसलिए शुरू की गयी
थी कि गरीब अपने बच्चों को कम
से कम पढने के लिए भेजें.
बिहार की सन
२०१६ में शुरू की गयी एक योजना
“उत्प्रेरण” का उद्देश्य था
ड्राप-आउट
रेट (पढाई
छोड़ने की दर) कम
करना. इसमें
गरीबों के उन बच्चों को जिनके
अभिभावकों ने पढाई से हटाकर
खेती और अन्य कामकाज में लगा
दिया था, नजदीक
के हीं किसी नामित विद्यालय
के छात्रावास में ११ महीने
रख कर , मुफ्त
भोजन , कपड़ा
चप्पल, कम्बल
-बिस्तर
और हर जरूरत का सामान देते हुए
फिर से पढने के लिए उद्धत करना
ताकि वे फिर से पढाई कर सकें.
जाँच में पाया
गया कि करोड़ों रुपये खर्च के
बाद भी यह योजना इसलिए फेल हो
गयी कि यादव गरीबों को अपनी
लड़कियों का दलित गरीबों की
बेटियों के साथ रहना गवारा
नहीं था, कुछ
अपनी बेटियों को रात में
छात्रावास में छोड़ने को तैयार
नहीं हुए. यह
सब देखकर मुखिया -शिक्षक
भ्रष्ट गठजोड़ ने फर्जी उपस्थिति
और व्यय दिखा कर सारी रकम हड़प
ली. कल्याणकारी
योजनाओं में भ्रष्टाचार,
योजनाओं के
प्रति अज्ञानता व चिर-बदहाली
निकलने की इच्छा की कमी,
जातिवाद के
आधार पर जीते जन-प्रतिनिधि
की दबंगई और अंत में सामूहिक
चेतना के अभाव में इस भ्रष्ट
व्यवस्था को तोड़ने की शक्ति
का न होना देश को आगे बढ़ने नहीं
दे रहा है. नतीजतन
“भारत की डेमोग्राफिक डिविडेंड”
(सांख्यिकी
लाभांश) दरअसल
मात्र एक जुमला भर रह गया है.
मानसिक जड़ता
की वजह से जनता भी चुनावों में
मंदिर -मस्जिद
या जाति से ऊपर उठाकर यह नहीं
सोच पा रही है कि अपने बच्चों
का आगे के ६० से ८० साल का भविष्य
अभाव की किन स्थितियों में
गुजरेगा. राजनीतिक
वर्ग के लिए इससे अच्छी स्थिति
मिल नहीं सकती--- जन-प्रतिनिधि
को विकास में “हिस्सा” और वोट
कुछ किये बगैर.
राष्ट्रीय
उपलब्धि सर्वेक्षण की पहली
और ताज़ा रिपोर्ट में ये दोनों
राज्य सबसे नीचे के पायदान
पर पाए गए. यही
नहीं “बीमारू” शब्द को चरितार्थ
करते हुए मध्य प्रदेश,
राजस्थान भी
दक्षिण भारत या पश्चिम भारत
के राज्यों के मुकाबले कहीं
दूर-दूर
तक खड़े नहीं दिखे. उधर
शिक्षाविद चीख -चीख
कर कहते हैं कि शिक्षा के मद
में खर्च कम होने से यह सब हो
रहा है और इसे जी डी पी का कम
से कम ६ प्रतिशत करें (वर्तमान
में यह मात्र ०.६
प्रतिशत है). लेकिन
ऊपर के दो उदाहरण साफ़ बताते
हैं कि पिछले ७० साल से सरकारी
खर्च से मुखिया, शिक्षा
विभाग का अमला और शिक्षक अपनी
जेबें और भर लेते हैं.
नौनिहाल गरीबी
की उस शाश्वत-गर्त
से नहीं निकल पाता. जरूरत
है इन योजनाओं की ईमानदार
अनुश्रवण (मोनिटरिंग)
की और ज्यादा
से ज्यादा मनुष्य की जगह
टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की.
विगत
नवम्बर में राष्ट्रीय उपलब्धि
सर्वेक्षण के नाम पर देश में
बुनियादी शिक्षा की स्थिति
पर एक अध्ययन कराया. देश
भर के लगभग सभी ७०१ जिलों के
१,१०,०००
स्कूलों के लाखों बच्चों के
ज्ञान की जाँच में तस्वीर कुछ
और निकली. सरकार
के मानव संसाधन विकास मंत्रालय
के आदेश पर राष्ट्रीय शैक्षिक
अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण
परिषद् (एन
सी ई आर टी ) ने
कक्षा ३, ५
और ८ के छात्रों का तीन स्तर
पर मूल्यांकन किया. कक्षा
३ और ५ के छात्रों का मूल्यांकन
तीन विषयों --- इनविरानमेंटल
स्टडीज (पर्यावरण
सम्बंधित ज्ञान), भाषा
और गणित की समझ को लेकर किया
जबकि कक्षा ८ के छात्रों का
आंकलन भाषा , गणित
, विज्ञान
और सामाजिक विज्ञान की समझ
के आधार पर किया गया.
रिपोर्ट
के अनुसार उत्तर प्रदेश और
बिहार की स्थिति सबसे ज्यादा
खराब निकली जहाँ बच्चों की
लर्निंग (अधिगम
या सीखने की क्षमता) ऊँची
कक्षाओं में घटती गयी.
इस चार बीमारू
राज्यों के बच्चे अन्य राज्यों
के बच्चों के मुकाबले तो छोडिये
राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे
पाए गए. राष्ट्रीय
औसत पर कक्षा तीन के ६३ से ६७
प्रतिशत बच्चे पर्यावरण,
भाषा और गणित
में, कक्षा
पांच के ५३-५८
प्रतिशत बच्चे और कक्षा आठ
के मात्र ४० फीसदी बच्चे हीं
इन विषयों पर सही समझ रखते थे.
याने जैसे जैसे
ऊपर की कक्षा में बच्चे जा रहे
हैं उनकी समझ क्षीण होती जा
रही है. भाषा
की समझ के स्तर पर सबसे अच्छी
उपलब्धि वाले राज्य त्रिपुरा,
दमन और दिव,
पुद्दुचेरी
और मिजोरम थे , जबकि
बिहार , राजस्थान
, हरियाणा
और छत्तीसगढ़ सबसे फिसड्डी
रहे. कुल
पैरामीटर्स पर बीमारू राज्यों
के बच्चों का प्रतिशत राष्ट्रीय
औसत से काफी कम रहा.
शिक्षाविद
इसका कारण बताते हैं उत्तर
भारत के इन राज्यों में आज भी
रटने की आदत. शिक्षक
भी अपने आराम के लिए प्रश्नों
को समझाने के बजाय उत्तर रटवाने
पर बल देता है.
इसी
साल आयी अंतर्राष्ट्रीय
ख्याति- प्राप्त
“असर” की रिपोर्ट के साथ अगर
सरकार द्वारा कराये इस सर्वे
को एक साथ मिलकर देखें तो यह
भी पता चला कि गाँव के बच्चे
शहरों के बच्चों से बेहतर और
पिछड़ी जातियों के बच्चे सवर्ण
बच्चों से अच्छी समझ रखते हैं.
सबसे बुरी
स्थिति दलित बच्चों की समझ
को लेकर पाई गयी. सर्वे
में यह भी देखा गया कि आधारभूत
ज्ञान और संख्यात्मक गणित
जैसे छोटे-छोटे
गुणा-भाग
की समझ न होने की वजह से बड़े
क्लास में बच्चे खराब प्रदर्शन
कर रहे हैं. मंत्रालय
की वेबसाइट पर उपलब्ध सर्वे
में दिए गए नक़्शे से साफ़ पता
चलता है कि भाषा की समझ में,
मणिपुर,
पश्चिम बंगाल,
सिक्किम ,
मिजोरम,
हिमाचल प्रदेश
और नागालैंड को छोड़ कर समूचा
समूचा उत्तर भारत राष्ट्रीय
औसत से काफी नीचे है. गणित
की समझ के स्तर पर भी बीमारू
राज्य राष्ट्रीय औसत से बेहद
नीचे हैं.
चिंता
की बात यह है “सुशासन बाबू”
एक दशक से ऊपर के शासन काल में
भी बिहार शिक्षा के सभी पैमानों
पर सबसे नीचे के पायदान पर
पाया गया. कमोबेश
यही स्थिति उत्तर प्रदेश सहित
अन्य बीमारू राज्यों की रही.
उधर
“असर” के सर्वे में पाया गया
कि १४ से १८ साल के आधे से ज्यादा
बच्चे घड़ी के अनुसार दो समय
के बीच के अंतराल को नहीं बता
पा रहे हैं जैसे अमुक व्यक्ति
इतने बजे सोया और इतने बजे
जागा तो वह कितने घंटे सोता
रहा. असर
की रिपोर्ट दो माह पहले आयी
रिपोर्ट के अनुसार इन बीमारू
राज्यों –खासकर उत्तर प्रदेश
, बिहार,
मध्य प्रदेश
और राजस्थान --में
साक्षरता और अधिगम (लर्निंग)
की स्थिति सबसे
खराब है. उदाहरण
के लिए उत्तर प्रदेश की साक्षरता
मात्र ६९.७२
प्रतिशत है जो कि राष्ट्रीय
औसत से पांच फीसदी कम है.
दावा
तो यह है कि भारत दुनिया का
सबसे युवा देश होगा और इसका
सांख्यिकी लाभांश देश को विकास
की पटरी पर फुल स्पीड दौडायेगा
लेकिन बच्चा जैसे जैसे युवा
बन रहा है ज्ञान और समझ खोता
जा रहा है. अंतरराष्ट्रीय
बाज़ार में तो छोडिये भारत में
हीं उत्तर भारत और खासकर उत्तर
प्रदेश और बिहार के बच्चे शायद
हीं “सेवा -योग्य”
(एम्प्लोयबुल)
माने जाएँ.
बेरोजगार युवा
या तो समाजके लिए बोझ होगा या
भावनात्मक रूप से आसानी से
प्रभावित किया जाने वाला
“बारूद का ढेर” जो भविष्य में
समाज के लिए ख़तरा बन सकता है.
अगर देश इसके
भरोसे सांख्यिकी लाभांश चाहता
है इन योजनाओं को भ्रष्टाचार
मुक्त करना होगा और शिक्षा
को स्वच्छ भारत की तरह अभियान
के रूप में लेना होगा ताकि
सामाजिक चेतना किसी मुखिया
को किसी टीचर -इंचार्ज
से पैसे न उगाहे और लोग भ्रष्ट
तंत्र के खिलाफ तन के खड़े हों.
lokmat
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