भूख से मुक्ति भी “स्वच्छ भारत” की तरह अभियान बने
विश्व स्तर पर व्यापारिक, आर्थिक, जीवन संतुष्टि व मानव विकास के १६ सूचकांकों में पिछले तीन सालों में भारत दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले १० सूचकांकों पर नीचे गिरा है जब कि तीन पर लगभग समान स्तर पर रहा और बाकी तीन पर बेहतर हुआ है. इसका मतलब यह है कि दुनिया के अन्य देश खासकर विकसित देशों में सरकारें बेहतर प्रदर्शन कर रहीं हैं. ऐसे में जब प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी के प्रति देश में एक विश्वास बना और तीन साल पहले जनता ने भारतीय जनता पार्टी को सन २००९ के मुकाबले डेढ़ गुना (प्रतिशत के रूप में १८.६ से बढ़ा कर ३१.७) वोट दे कर जिताया तो आज साढ़े तीन साल बाद अब समय आ गया है कि मोदी सरकार अपने विकास की नीति का पुनरावलोकन करे. इसमें दो राय नहीं है कि मोदी की विकास की समझ और इच्छा अभूतपूर्व है और यह भी सच है कि उनकी अप्रतिम ईमानदारी और निष्ठा देश सत्तावर्ग में एक चिर-अपेक्षित दहशत के रूप में विद्यमान हैं फिर समस्या कहाँ है? शायद राज्य सरकारें विकास की नीति को जनता तक नहीं ले जा सकी हैं. ध्यान रहे कि भारत के संविधान के अनुसार अर्ध-संघीय व्यवस्था है जिसमें अधिकतर विकास के कार्य राज्य सरकारों के माध्यम से होते हैं. हालांकि आज देश की ६८ प्रतिशत आबादी पर भारतीय जनता पार्टी राज्य सरकारों के माध्यम से शासन कर रही हैं और मोदी या पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के सन्देश उनके लिए ईश्वरीय आदेश से कम नहीं होते. इससे अब उम्मीद बंधती है कि राज्य सरकारें विकास कार्यों को गति देंगी. मोदी सरकार की अद्भुत फसल बीमा योजना भी इसी राज्य सरकारों के इसी निकम्मेपन की वजह से असफल हो रही है और एक साल के भीतर (ऋण न लेने वाले) मात्र ३.७ प्रतिशत किसानों को हीं बीमित किया जा सका है
विश्व की तमान विश्वसनीय रेटिंग संस्थाओं जिनमें संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुषांगिक संगठन भी है की ताज़ा रिपोर्ट को अगर एक साथ रखा जाये तो पता चलता है इन तीन सालों में तमाम विकासशील देशों ने विकास के मामले में काफी रफ़्तार पकड़ी है. इनमें वो देश भी हैं जिन्हें एक दशक पहले तक सबसे नीचे पायदान पर शाश्वत रूप से पाया गया था जैसे निकारागुआ , घाना और सोमालिया. जिन तीन मानकों पर भारत दुनिया के कुछ देशों से बेहतर कर सका है वे हैं : व्यापार करने में सुगमता, विश्व प्रतिस्पर्धा सूचकांक और विश्व इनोवेशन (नवोंमेषण) सूचकांक. जिन अन्य तीन में भारत लगभग समान स्तर पर रहा या थोडा ऊपर-नीचे के खाने में पहुंचा वे हैं : विश्व मानव सूचकांक, विश्व शांति सूचकांक और करप्शन परसेप्शन (भ्रष्टाचार अनुभूति) सूचकांक.
लेकिन जिन १० पैरामीटर्स पर देश तीन सालों में बुरी तरह पिछड़ा है वे हैं : विश्व भूख सूचकांक जिसमें इन तीन वर्षों में भारत अन्य देशों की अपेक्षा काफी नीचे चला गया. सन २०१४ में हम दुनिया के १२० देशों में ५५ नंबर पर थे लेकिन २०१७ में यह देश ११९ देशों में १०० नंबर पर है. यह एक बड़ी गिरावट है जो उस पैरामीटर पर हैं जो भारत को दुनिया की नज़रों में वास्तविकरूप से “समृद्ध” बताने की पहली शर्त है. देश जी डी पी (सकल घरेलू उत्पाद ) वृद्धि दर से नहीं बल्कि उस उत्पाद वृद्धि से गरीब के आंसू पोंछने में सफलता से आंका जाता है. यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि सन २०१४ में हीं भारत ने खाद्य सुरक्षा कानून बनाया याने हर गरीब को भूख से निजात का कानूनी वादा. पर हकीकत यह थी कि देशव्यापी भ्रष्टाचार का दंश राज्य सरकारों की अकर्मण्यता से मिल कर भूखे के पेट तक अनाज पहुँचाने में बड़ा रोड़ा बना रहा. मोदी सरकार को इस पर शायद सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. अगर बुलेट ट्रेन विकास के इंजन का एक पहिया है तो दूसरा शाश्वत भूख से निजात दिलाना दूसरा. साथ हीं अगर “व्यापार करने में सुगमता” के पैरामीटर पर भारत सन २०१४ में १८९ देशों में १४२ वें नंबर से कूद कर सन २०१७ में १९० देशों में १०० नंबर पर आ गया और देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पूरी उत्साह से प्रेस कांफ्रेंस कर बताया कि भारत कैसे तरक्की कर रहा है तो उन्हें उस दिन भी प्रेस कांफ्रेंस करना चाहिए था जिस दिन भूख सूचकांक में हमारा देश घाना, वियतनाम, मलावी, बांग्लादेश और नेपाल तो छोडिये, रवांडा, माली और नाइजीरिया और कमरून से भी पीछे चला गया. हमारा सत्ताधारी वर्ग पिछले २५ सालों में जी डी पी बढ़ने पर कसीदे तो काढ़ता रहा “भारत महान “ बताता हुआ, पर भूख से मरते -बिलबिलाते नवनिहालों पर केवल “खाद्य सुरक्षा कानून” बना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लिया.
अन्य नौ पैरामीटर्स जिनपर देश फिसला है वे हैं : मानव संसाधन (सन २०१३ में दुनिया के १२२ देशों में ७८ लेकिन २०१७ में १३० देशों में १०३), कनेक्टिविटी में २०१४ में २५ देशों में १५ पर आज ५० देशों में ४३, एफ डी आई भरोसा में २५ देशों में ७ से आज ८, खुशी के पैमाने पर १५८ देशों में ११७ से आज १५५ देशों में १२२, बौद्धिक संपदा में ३० देशों में २९ से ४५ देशों में ४३, आर्थिक स्वतन्त्रता में १८६ में १२० से आज १४३, समृधि में १४२ देशों में १० से १४९ देशों में १०४, टिकाऊ विकास में १४९ देशों में ११० से १५७ देशों में ११६ और मेधा प्रतिस्पर्धा में ९३ देशों में ३९ से ११८ देशों में ९२.
आज सरकार को पूरे विकास के प्रति दृष्टि बदलनी होगी. सबसे चौकाने वाली स्थिति दो पैरामीटर्स को लेकर है – भूख कम करने और मेधा प्रतिस्पर्धा में भारत का विश्व स्तर पर बेहद नीचे जाना. अगर देश के व्यापार सुगमता में ३० अंकों की बढ़ोत्तरी पर वित्त मंत्री प्रेस कोनेफेरेंस कर सकते हैं तो मेधा प्रतिस्पर्धा में ५३ अंकों की गिरावट पर भी उन्हें चिंता दिखानी होगी. भारत की मेधा जो हमारे करोड़ों युवा में पैदा होनी चाहिए थी वह अन्य देशों को मुकाबले अगर कम रही तो “ युवा शक्ति” का क्या मतलब होगा जिसके बारे में प्रधानमंत्री अपने भाषणों में जिक्र करते हैं. समस्या न तो मोदी या वित्त मंत्री के प्रयासों में है न हीं सरकार की नियत या नैतिकता में. केवल प्रयासों की दिशा मोड़नी होगी और प्रथम चरण में भूख पर काबू पाने की कोशिश उसी तरह अभियान के रूप में करनी होगी जिस तरह “स्वच्छ भारत” आज हर अधिकारी-मंत्री की जुबान पर है और हर अधिकारी -मंत्री के हाथ में झाडू.
कुपोषण-जनित व्याधियों में चिकित्सा सिद्धांत के अनुसार बच्चों का शारीरिक हीं नहीं मानसिक और शारीरिक विकास बाधित होता है. अगर भूख को नहीं जीतेंगे तो भारत की युवा शक्ति बीमार नागरिक के रूप में खडी होगी. सरकार को समझना होगा कि अगर भूख और कुपोषण से बच्चे कम वजन के, ठूंठ (स्टंटेड) याने छोटे कद के और मानसिकरूप से कुंद होंगे तो जाहिर हैं मेधा की कमी होगी और विश्व स्तर पर वे कहीं भी नहीं टिक पाएंगे. सरकार को डिलीवरी का माडल बदलना होगा ताकि राज्य सरकारों का शाश्वत उनीदापन और भ्रष्ट तंत्र इन नौनिहालों के रुदन को ख़त्म करने में सक्रिय हो सके या फिर संविधान संशोधन के जरिये इन्हें डिलीवरी में कोताही या भ्रष्टाचार करने पर प्रशासनिक कार्रवाई का अधिकार केंद्र के हाथों में हो.
lokmat
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