Monday, 4 December 2017

आखिर हम बीमार क्यों रहते हैं ?


देश के जाने माने हॉस्पिटल चेन मैक्स के दिल्ली स्थिति एक नामी अस्पताल इकाई में एक महिल के जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए ---एक बेटा और दूसरी बेटी. डॉक्टरों ने बताया कि एक बच्चा मारा पैदा हुआ और दूसरा कुछ हीं क्षण बाद मर गया. जब दुखी माँ-बाप अपने सगे सम्बन्धियों के साथ इन “शवों” को अंतिम क्रिया के लिए ले जा रहे थे तो आधे रास्ते में पिता ने देखा कि एक “शव” में कुछ हरकत हो रही है. फ़ौरन उसे कफ़न से निकाल कर पास के अस्पताल में ले जाया गया. घंटों पॉलिथीन में ऑक्सीजन के अभाव में बंद बच्चे की स्थिति गंभीर हो गयी थी. बहरहाल उसका इलाज़ चल रहा है. मीडिया में खबर के बाद देश के स्वास्थ्य मंत्री ने मामले का संज्ञान लिया. एक अन्य नामी गिरामी हॉस्पिटल चेन--- फोर्टिस--- के गुडगाँव इकाई ने सात साल की एक बच्ची के १५ दिन चले असफल इलाज़ (बच्ची मर गयी) में पिता को १६ लाख रुपाए का बिल पकड़ा दिया गया. सोशल मीडिया और बाद में औपचारिक मीडिया में उछले इस खबर के बाद फिर मंत्री ने संज्ञान लिया. तीसरे मामले में नॉएडा के हीं एक इसे मशहूर अस्पताल में एक व्यक्ति ने आरोप लगाया कि उसकी पत्नी तीन दिन पहले मर चुकी थी लेकिन अस्पताल प्रबंधन ने वेंटीलेटर पर रख कर तीन दिनों में हजारों रुपये का बिल बनाया. लेकिन चूंकि मीडिया ने इस मामले को उस पुरजोर तरीके से नहीं उठाया लिहाज़ा मंत्री जी ने संज्ञान भी नहीं लिया.
ये तीनों घटनाएँ पिछले १५ दिन के भीतर घटीं हैं. इनसे तीन निष्कर्ष निकलते हैं. आप या आपका बच्चा बीमार पड़े तो प्राइवेट बड़े अस्पताल में जाने के बाद तीन बातों का ध्यान रखें. अस्पताल में जरूरी नहीं कि इलाज हो और अगर हो तो मरीज़ बच हीं जाये. फिर कब मरे और कब मरना बताया जाये यह भी अस्पताल और डॉक्टर के “प्रोफेशनल बुद्धिमत्ता” पर निर्भर करेगा . अगर मरना बता भी दिया गया तो ज़रूरी नहीं कि यह सच हो इसलिए गम करते हुए उसे शमशान ले जाने के पहले एक बार किसी और डॉक्टर से दिखा लें. और आखिर में अगर मरीज़ मर भी गया हो तो आप उस बिल के सदमें से न मरें. इससे दो सीख और भी हैं. अगर आप अस्पताल और उसके बिल से मरने से बच भी गए तो कम से कम सोशल मीडिया में ट्विट जरूर करें. औपचारिक मीडिया तभी मामले का न्यूज महत्त्व समझता है जब वह सोशल मीडिया में वाइरल हो जाता है वरना उसे बाबा राम रहीम और हनी प्रीत और उनके बेडरूम से फुर्सत नहीं होती. जब सोशल मीडिया में वायरल होगा तो शाम को एक कम पढ़ा लिखा लेकिन बुलंद आवाज वाला एंकर -एडिटर चीख-चीख कर बताएगा और उतनी हीं चीख के साथ सत्ताधारी दल का उतने हीं अज्ञानी प्रवक्ता अपने विपक्षी प्रतिद्वन्दी के साथ “तेरा-नेता , मेरा नेता “ करते हुए टी आर पी बढ़ने में चैनल का सहयोग करेगा. आख़िरी बात : मंत्री जी को जगाने के लिए आवाज बुलंद हीं नहीं हो , मीडिया में हो.
क्या हो गया हैं इस देश की नैतिकता , समझ और कर्तव्यबोध को. क्या हत्या का अपराध सिर्फ चौराहे पर गोली मारने को कहा जाना चाहिए. कम से कम दस साल पढ़ाई और हाउसजॉब के बाद किसी डॉक्टर से यह अपेक्षा की जा सकती है वह हमारी - आपकी की टैक्स के रूप में वसूली गयी रकम के लाखों रुपये खर्च करने के बाद इतना ज्ञानी (या जिम्मेदार) तो हो हीं कि जिन्दा और मरे में अंतर कर सके? मोदी सरकार के तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने ओड़िसा एम्स में डॉक्टरों को संबोधित करते हुए सन २०१४ की २० जुलाई को बताया था कि एक डॉक्टर बनाने में सरकार जनता के टैक्स का आठ से दस करोड़ रुपया खर्च करती है. तो फिर इनमें से कुछ डॉक्टर (सभी नहीं क्योंकि नैतिक प्रैक्टिस के भी तमाम उदाहरण हैं) इतना अनैतिक (आपराधिक) क्यों होते हैं कि अस्पताल का और अपना बिल बढाने के लिए मरे व्यक्ति को कई दिन तक वेंटीलेटर पर रख कर “धंधा” करे? क्या यह संगठित अपराध की परिभाषा में नहीं अना चाहिए ? जेब काटने वाले गरीब को तो हर कोई पकडे जाने पर दो हाथ लगा देता है और कानून भी मुश्तैद हो जाता है पर जब हम इन “तथाकथित रूप से पढ़े लिखे लोगों वाले और संस्थागत अस्पताल के नाम पर चल रहे “ क्राइम सिंडिकेट” से खुद शोषण के लिए जाते हैं तो उनका दोष तभी होता है जब मंत्री जी को मीडिया के जरिये बताया जाये. एम आर पी पर दवा भी अस्पताल हीं देगा क्योंकि निर्माता कंपनी से समझौता है कि दूकान से न बेंचों. पेटेंट की जगह जेनेरिक दावा लिखवाने के सारे सरकारी प्रयास विफल रहे और डॉक्टर महंगी दावा लिख कर कंपनियों से मोटी रकम कमीशन के रूप में वसूलते रहे या विदेश परिवार के साथ घूमने या अकेले रंगरेलियां मानते जाते रहे . कभी भी इनकम टैक्स विभाग ने इनके खर्च के स्रोत का पता नहीं किया. मेडिकल सेमिनार के नाम पर पांच तारा होटलों में दारू पार्टियाँ (जिसका बिल ये दवा कंपनियां भरती हैं) कैसे नए चिकित्सा-ज्ञान बढाने का सबब बनती हैं कभी किसी सरकार ने नहीं पूछा .
तस्वीर का दूसरा पहलू
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अगर आप बिहार में पैदा हुए हैं तो वहां की सरकार आपके स्वास्थ्य पर मात्र ३३८ रुपये खर्च करेगी जबकि हिमाचल, उत्तराखंड या केरल में पैदा हुए हैं तो क्रमशः इसके छः गुना, पांच गुना और चार गुना खर्च करेगी. इसका दूसरा मतलब यह कि उपयुक्त सरकारी सुविधा के अभाव में आप बिहार , उत्तर प्रदेश या झारखण्ड में गरीब होते हुए भी आप अपनी जेब से इस खर्च का पांच गुना खर्च करेंगे भले हीं इसके लिए आपको घर या जमीन बेंचना पड़े. गुजरात और महाराष्ट्र में प्रति-व्यक्ति स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च क्रमशः १०४० और ७६३ रुपये है. उधर विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत मलेरिया पर काबू पाने में बुरी तरह असफल रहा और आज ७० साल बाद भी केवल आठ प्रतिशत मलेरिया के मामले हीं सर्विलांस के जरिये संज्ञान में आते हैं . इस मामले में भारत नाइजीरिया के समकक्ष खड़ा है. बाल मृत्यु दर और मात्र मृत्यु दर, जन्म के समय बच्चे के वजन या कुपोषण ऐसे पैरामीटर्स पर भारत आज भी बेहद पीछे है. इसका कारण यह है कि जहाँ हम देश के सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी ) का मात्र एक प्रतिशत से भी कम स्वास्थ्य मद में खर्च करते हैं वहीं चीन और तमाम छोटे -छोटे देश चार प्रतिशत तक खर्च करते हैं. हालांकि मोदी सरकार के वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री जी पी नड्डा ने संसद के सदन में नयी स्वास्थ्य नीति रखते हुए इसे जी डी पी का २.५ प्रतिशत तक लाने का संकल्प बताया था लेकिन जब बजट आया तो वह कहीं भी परिलक्षित नहीं हुआ.

तो गरीब क्या करे? सरकारी अस्पताल में दवा नहीं, डॉक्टर नहीं , इलाज के उपकरण नहीं और मंशा भी नहीं. प्राइवेट में अस्पतालों में संगठित गैंग के रूप में डॉक्टर और नर्सिंग होम के मालिक का गिरोह किसको मरा बता दे , किसकों मरने के बाद भी वेंटीलेटर पर रख कर बिल बढ़ा दे और किसे गलत मर्ज बता कर ज्यादा दिन अस्पताल में रखे यह उसके विवेक (धंधे की जरूरत ) पर है. क्या कानून बनाकर जीवन से अनैतिक व्यापर करने वालों पर अंकुश लगना सरकार की जिम्मेदारी नहीं? ऐसे में गरीब जाये तो जाये कहाँ लिहाज़ा बीमार होने पर घर या जमीन बेंच कर जिन्दा रहने की कोशिश (अगर रह पाया) हीं उसकी नियति हो चली है

lokmat

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