Thursday, 15 August 2013

पी एम बनाम मोदी: दो भाषणों के आधार पर राय बनाना अनुचित


आपके सामने एक तथ्य दो तरह से रखे जा रहे है. एक व्यक्ति दबी , थकी दीखने वाली आवाज में  कहता है “आज मिड-मील कार्यक्रम में ११ करोड़ स्कूली बच्चों को दोपहर का भोजन दिया जा रहा है”. दूसरा बुलंद आवाज में तन कर कहता है “आज मिड-डे मील का भोजन देश के नैनिहालों की थाली में हीं नहीं जाता बल्कि उनके दिमाग में को भी मजबूत करके उन्हें शिक्षा की ओर ले जाता है”. कहना नहीं है कि कौन जनता में ज्यादा अपील करेगा.

यही है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गुजरात के मुख्मंत्री नरेन्द्र मोदी (भारतीय जनता पार्टी के भावी प्रधानमंत्री?) के भाषणों का मूल अंतर. एक भाव –शून्य है दूसरे में भावना का अतिरेक. मीडिया में आजकल एक जुमला चलता है “जो बिकता है वो दिखता है “ . चुनावी राजनीति में यह जुमला आज दोनों भाषणों के बाद चलेगा --- जो दीखता है वह वोट भी लाता है.

प्रश्न दो हैं. प्रजातंत्र की कुछ मर्यादाएं हैं. स्वतन्त्रता दिवस और गणतंत्र दिवस ऐसे अवसर हैं जिन पर राजनीति कम से कम उसी दिन “उसका सुनो और फिर मेरा सुनो” के भाव में नहीं की जाती. २४ घंटे बहुत ज्यादा नहीं होते. लेकिन मोदी ने एक दिन पहले हीं ताल ठोकना शुरू कर दिया. और एक घंटे बाद हीं अपने भाषण में “उनका और मेरा” का द्वन्द परवान चढ़ गया. देश को मोदी ने अपील किया लेकिन प्रजातंत्र की गरिमा पर आंच आई. भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवानी ने इसे अच्छा नहीं माना क्योंकि ६६ साल की राजनीतिक मर्यादा का उन्हें भान था. लेकिन कहा गया मोदी की सफलता से उखाड़े हुए हैं.

देश की जनता को अपनी तर्क शक्ति और बेहतर करना होगा. लच्छेदार भाषण जिस में तार्किक दोष हों लेकिन जो भावातिरेक पैदा करनेवाले शब्दों के जरिये उबाल लाता हो, से बचना जरूरी है. हम परिपक्व हो रहे हैं. प्रजातंत्र में तथ्यों को अगर हम आज भी उसके फेस वैल्यू पर लेते रहेंगे तो कहीं मंदिर-मस्जिद, “छप्पन इंच छाती” “दूध में दरार नहीं ” “सीमापार वालों सुन लो “ सरीखे जुमले हमें बहा ले जायेंगे. और हम स्थतियों की  सम्यक विवेचना नहीं कर पाएंगे. और तब कोई लालू चरवाहा बताकर कोई मुलायम “परिंदा पर नहीं मार सकता” कह कर और कोई मायावती “तिलक –तराजू “ या “चार जूते” की बात कह कर हमें बरगलाते रहेंगे.

तर्क-शास्त्र में एक और दोष का वर्णन है. संवाद में “अपने मतलब का तर्क –वाक्य लेना और बाकी सब छोड़ देना”. मोदी ने मनमोहन सिंह पर आक्षेप लगते हुए इसका तार्किक दोष का भरपूर उपयोग किया है. उदाहरण के तौर पर उनका कहना “नेहरु से मनमोहन सिंह ने आज तक उन्हीं कमजोरियों का जिक्र किया है . क्या किया कांग्रेस ने इतने सालों तक? ”. तथ्य यह है कि प्रधान मंत्री ने नेहरु के समय आधुनिक भारत, इंदिरागांधी के समय हरित क्रांति , राजीव गाँधी के समय टेक्नोलॉजी , नरसिंह राव के समय आर्थिक उदारीकरण और वर्तमान में मंनरेगा आदि का भी जिक्र किया. वह मोदी के तर्क का भाग नहीं बना. उसी तरह मोदी ने कहा कि अगर प्रधानमंत्री वैश्विक मंदी को आज की भारत की आर्थिक विकास की धीमी गति का कारण मानते हैं तो राज्यों में हो रही दिक्कतों के लिए भी केंद्र जिम्मेदार है”. बिलकुल सही पर अगर प्रधानमंत्री यह भी बता रहे हैं कि देश में २५.९ करोड़ टन खाद्यान का रिकॉर्ड उद्पादन हो रहा है तो श्रेय किसी मोदी या अन्य चीफ मिनिस्टर को हीं क्यों जाना चाहिए? फिर मोदी क्यों गुजरात में होने वाले कृषि विकास के लिए केवल अपनी पीठ ठोक रहे हैं? मनमोहन सिंह ने तो यह भी कहा कि देश में बाल मृत्यु दर और मातृ-मृत्यु दर कम हुआ है क्या मोदी यह भी अपनी चर्चा में लायेंगे कि उनके यहाँ ये दरें राष्ट्रीय औसत से कम क्यों रही हैं?

मोदी मंच के जादूगर हैं. शब्दों का चयन, भावातिरेक , विपक्षी के तर्क-वाक्यों से अपने मतलब के वाक्य उठा कर उन पर खेलने में उनका मुकाबला नहीं है.

यहाँ कहने का मतलब यह नहीं है कि देश में सब कुछ अच्छा हो रहा है. लेकिन जनमत अगर एक ८० साल के भाषण कला में अनिपुण मनमोहन के भाषण और दूसरी तरफ एक भाषण कला में पारंगत तथाकथित युवा दिखने वाले मोदी के बरअक्स करके बनने लगेगा तो खतरा दूसरा है. हिटलर भी अपने भाषणों से जन मानस उद्वेलित करता था. नतीजा सबके सामने है.

खाद्य सुरक्षा कानून की बात लें. यह एक एनेबलिंग प्रोविजन  (जनता को खाद्य का अधिकार देने वाला कानून है). जिसका फ़ायदा ८१ करोड़ गरीब जनता को मिलेगा. जनता दावे से कह सकती है कि सस्ता भोजन हमारा कानूनी अधिकार है. इसमें गरीबी की सीमा रेखा के नीचे रहने वालों (बी पी एल) और उसके ऊपर के लोगों (ए पी एल) का अंतर ख़त्म कर दिया गया है.  इसकी खामियों को उजागर करना बिलकुल ठीक है पर इतने बड़े जन-हित के कानून में, जो दुनिया में इतने व्यापक स्तर पर पहला है)  बुराई महज इस आधार पर करना क्या उचित है कि इसमें परिवार को इकाई न मान कर व्यक्ति को माना गया है या इसमें मात्र पांच किलो अनाज से गरीब का पेट नहीं भरेगा? पहले शुरू तो हो और पहले बिना भ्रष्टाचार के यह अमल में तो आये. इस कानून के बारे में यह कहना कि यह “गरीबों की खाली  थाली में नमक और तेज़ाब डाल रहा है” राजनीतिक कुतर्क से अधिक कुछ भी नहीं.      

इसका यह भी मतलब नहीं है कि मोदी में अच्छे शासक के गुण नहीं हैं. मोदी विकास के सभी आयामों से पूरी तरह से वाकिफ हीं नहीं है उन्हें अमल में लाने की क्षमता भी रखते हैं. मोदी की ईमानदार छवि पर अभी तक कोई आंच नहीं आई है और आज की जन-आकान्छाओं में सबसे बलवती है “राजनीतिक व्यक्ति की ईमानदार छवि”. साथ हीं जनता सक्षम नेतृत्व (जिसका मनमोहन सिंह में अभाव रहा है), विकास का संवाहक और “भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य –सहिष्णुता” अपने नेता में देखना चाहती है. वह यह भी चाहती है कि आतंकवाद और पाकिस्तान की हरकतों के खिलाफ जबरदस्त प्रहार की क्षमता नेतृत्व में होना चाहिए. दरअसल इन चारों का नितांत आभाव मनमोहन सिंह के नेतृत्व में उसे दिखा. ये चारों अपेक्षाएं उसे वर्तमान राजनीतिक वर्ग में सिर्फ मोदी में मिलती हैं.

लेकिन एक समुन्नत प्रजातंत्र में फैसला महज दो नेताओं के पक्ष-विपक्ष के भाषण से लेना खतरनाक हो सकता है. जनता को अपनी तर्क-शक्ति का , भाव-शून्य तथ्यों का और नेताओं और पार्टियों का ट्रैक-रिकॉर्ड देख कर किया जाना चाहिए. 

1 comment:

  1. Modi and Hafiz Sayeed are two popular orators only due to fallacious arguments they make from dais.Both have many similarities in common.Their speeches are mostly fanatic and communal. Valid arguments remain absent from speeches.They promote violence.The only difference is one is elected leader of a state and other doesn't take part in elections.

    ReplyDelete