Monday, 10 June 2013

“कैश फॉर लॉबिंग”: इंग्लैंड और अमरीका हमसे बेहतर नहीं !




ब्रिटेन के संसद, जिसे हम विश्व के सभी संसदों की जननी मानते हैं, के उच्च सदन (हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स) के तीन सदस्य “कैश फॉर लॉबिंग” (पैसे लेकर एक कंपनी के हित में दबाव बनाना ) के मामले में संलिप्त पाए गए. खुलासा एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिये अखबार सन्डे टाइम्स ने किया. यह स्थिति उस देश में है जिसमें संसदीय प्रजातंत्र का इतिहास लगभग ४०० साल का रहा है और जहाँ यह माना जाता रहा है कि समाज बेहतर आचरण का प्रतिनिधि रहा है.
प्रजातंत्र की संस्थाओं से भारत में हीं नहीं समूचे विश्व में मोह भंग हुआ है. तीन साल पहले २२ जून, २०१० को प्रकाशित एक व्यापक “गाल-अप” पोल में पाया गया कि ८९ प्रतिशत अमरीकियों को अमरीकी कांग्रेस (संसद ) में विश्वास नहीं है. अगर महात्मा गाँधी भारत में सांसदों के पैसा लेकर सवाल पूछने के मामले में स्वर्ग में आजादी के ६५ सालों में आंसू बहाने को मजबूर कर रहा होगा तो सवा दो साल बाद बेंजामिन फ्रेंक्लिन (अमरीकी आजादी व संविधान के जन्मदाता) की आत्मा भी बहुत खुश नहीं होगी इस तथ्य को जान कर. 
अमरीकी नेताओं व संस्थाओं की अनैतिकता के चरम स्थिति के कुछ नमूने देखिये. ७० वें दशक के पूर्वार्ध का किस्सा है. अपने दूसरे कार्यकाल ले लिए हो रहे चुनाव के दौरान रिचर्ड निक्सन ने अपने चुनावी भाषण में ऐलान किया कि कि अबकी चुने जाने का बाद वह दुग्ध –उद्योग को दी जा रही सहायता राशि, जो प्राइस सपोर्ट (कीमत कम रखने के एवज में सरकार द्वारा दुग्ध उद्योग को दी जाती है) खत्म कर देंगें. अगले दो दिन के अन्दर हीं अमेरिका के दुग्ध-उद्योग संघ ने उन्हें चुनाव फण्ड में दो मिलियन डॉलर (दस करोड़ रुपये) दे दिए. निक्सन जीत गए और दुग्ध उद्योग की बात सत्ता में आने के बाद भूल गए.   
एक अन्य उदाहरण लें. शिकागो यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रघुराम राजन और लुईजी जिंगल्स ने अपने अध्ययन में पाया कि १९८० के दशक में व्यापर प्रतिबन्ध (तथाकथित जन हित में) के कारण उपभोक्ताओं को करीब ६.८ अरब बिलियन डॉलर (लगभग ३४,००० करोड़ रुपये) ज्यादा देने पड़े जबकि देश के उद्योगों को सब्सिडी ( फिर वही जन- हित का बहाना) के नाम पर सरकार ने ३० अरब डॉलर यानि (करीब १.४० लाख करोड़ रुपये) दिए. कहना ना होगा कि भारत में क्यों हर साल उद्योगों को प्रोत्साहन के नाम पर बजट में ५.५ लाख करोड़ रुपये दिए जाते हैं जबकि किसानों को ऋण माफ़ी के नाम पर सरकार को पसीने आने लगते है और राजस्व घटे की दुहाई दी जाने लगती है.
अमरीका में भी उस सिस्टम में बैठे तमाम लोगों आज यह मान रहे हैं कि सरकारें अपराधी से ज्यादा खतनाक हो गयी है समाज के लिए. सी आई ए के पूर्व निदेशक एवं सांसद लीओन पनेट्टा ने हाल हीं में कहा अपने संसद के बारे में कहा  “ वैध्यिकृत घूस अमरीकी संसद की कार्यप्रणाली बन गया है”. जज रिचर्ड पोस्नेर ने कहा “ विधायिका के कार्यकलाप घूस पर आधारित है”.
तीसरा उदहारण और भी खरतनाक है. सन १९८५ तक टाइप -२ डायबिटीज मात्र १ से २ प्रतिशत अमरीकी बच्चों में होती थी आज यह संख्य ८५ प्रतिशत हो गयी है. कारण: बाजारू ताकतों ने बच्चों के खान –पान की आदत में जबरदस्त परिवर्तन को मजबूर किया है. आज हर अमरीकी बच्चा अपनी कुल कैलोरी का २० प्रतिशत विश्व के दो मशहूर कोल्ड ड्रिंक ब्रांड के पेय से ले रहा है और औसत अमरीकी ९०० ग्राम सॉफ्ट ड्रिंक रोज पीता है.
जो सबसे बड़ा खतरा है वह यह कि इन सॉफ्ट ड्रिंक के नाम पर मिलने वाले पेय पदार्थों में चीनी की जगह हाई –फ्रक्टोज कॉर्न सिरप (एच ऍफ़ सी एस) इस्तेमाल किया जा रहा है जो सस्ता पड़ता है और जो एक बड़ी कम्पनी द्वारा बनाया जा रहा है. इस कम्पनी ने अमरीकी कांग्रेस में सांसदों की जबरदस्त लॉबी तैयार कर राखी है जिसकी वजह से इसके इस्तेमाल के खिलाफ कानून नहीं बन पा रहा है हालाँकि स्वास्थ्य सम्बन्धी रिसर्च संगठनों का कहना है कि बच्चों में मोटापा और टाइप-२ डायबिटीज का मूल कारण एच ऍफ़ सी एस का पेय पदार्थों में प्रयोग है.         
हम औपनिवेशिक मानसिकता के तहत यह मान बैठे हैं कि यूरोप या अमरीकी समाज हमसे नैतिकता के धरातल पर बेहतर है. इस तरह की अवधारणा तब बनती है जब हम सत्य को उसकी फेस वैल्यू पर ना देख कर इस आधार पर देखते हैं कि जो राष्ट्र इतना समृद्ध है, जिस राष्ट्र में इतने नोबेल पुरष्कार विजेता पैदा होते हैं और जो इतना ताकतवर है वह ज़रूर हर मामले में अच्छा होगा.   
कानून के जरिये नैतिकता का क्षरण रोकने की वकालत करने वालों के लिए यह एक बड़ा सबक है. भारत में लगातार इस तरह की घटनाओं को लेकर एक वर्ग है जो यह मानता है कि संस्थाओं में बैठे लोग अगर अनैतिक हों तो सख्त कानून के जरिये उन पर अंकुश लगाया जा सकता है. ब्रिटेन में हीं सन १९९५ में ऐसे हीं घटनाओं के मद्दे नज़र जस्टिस नोलन समिति बनाई गयी जिसकी अनुशंसा पर संसद के लिए आचार समितियां बनी. पर १७ साल बाद वही ढाक के तीन पात.
संसद हो या न्यायपालिका, मीडिया हो या अफसरशाही, अगर कानून बनाना भ्रष्टाचार का समाधान बन सकता तो आज दुनिया में तीन करोड़ तीस लाख कानून है, हत्या, बलात्कार, हिंसा कब के खत्म हो चुके होते. हम एक स्वस्थ समाज में कानून के साये में जी रहे होते. नैतिकता से अनैतिकता की तरफ जाने का प्रश्न तो और भी टेढ़ा है. एक सांसद कब किसी कंपनी के हित में क्या काम कर रहा है और किस रूप में उसका प्रतिफल कब ले रहा है ये बातें कानून की जद आम तौर पर नहीं आ पाती हैं. क्योंकि इन सब का आधार बताया जाता है ---–जन-हित. एक मुख्यमंत्री कब किसानों की जमीन का अधिग्रहण इस आधार पर कर लेता है कि औद्योगिक विकास के लिए जमीन की दरकार है और कब वह जमीन किसी बड़े कोलोनाइज़र को यह कह कर दे दी जाती है कि औद्योगिक विकास तब तक नहीं होगा जबतक रिहाइशी मकान नहीं बनते, हमें पता नहीं चलता अगर मीडिया यह बातें सामने ना लाये. या कोई सी ए जी अपनी रिपोर्ट में ये बातें न कहे. ये सारे परिवर्तन जन हित के नाम पर किये जाते है.
नैतिकता का क्षरण केवल भारत में हो रहा है यह कहना गलत होगा. यह सोचना भी उतना हीं गलत होगा कि कानून बनाने से हम शासन में बैठे व्यक्ति में नैतिकता ला सकेंगे. ऐसा होता तो अमरीका या ब्रिटेन इस स्तर का भ्रष्टाचार न कर रहे होते. ज़रुरत है पूरे विश्व में नैतिक मान डंडों को फिर से प्रतिष्ठापित करने के लिए समाज-दर्शन बदलने की, अच्छे मानदंड स्थापित करने की. तभी जो संसद जाएगा या भेजा जाएगा उसकी नैतिकता फैलाद की तरज होगी जो कंपनियों के दलाल नहीं तोड़ पाएंगे. 

hindustan

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