Monday, 10 June 2013

मोदी, आडवाणी और संघ: प्रसव पीड़ा इतनी कष्टकर क्यों?




तो आखिरकार नरेन्द्र मोदी को भाजपा चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बना दिया गया. यह फैसला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है और संघ से ऊपर व्यक्ति नहीं हो सकता. लिहाजा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी माने तो ठीक, ना माने तो ठीक. संघ इस समय “खूंटा वहीं गड़ेगा” के भाव में है. भाजपा और देश की अन्य राजनीतिक दलों में यही अंतर है कि भाजपा के पास संघ है (या सच कहें तो संघ के पास भाजपा है). मोदी को शीर्ष पर लाने के फैसले में कोई गलती नहीं हुई है. अगर भाजपा को पिछले ११ साल में हुए तीन आम चुनावों में अपने गिरते जनाधार को फिर से हासिल करना हीं है बल्कि बढा कर २०० सीटों के आस-पास लाना है तो नया और चमत्कारी चेहरा लाना दूरदर्शिता हीं कही जाएगी.
इस बात में दो राय नहीं हो सकती कि भ्रष्टाचार, महंगाई और कुव्यवस्था के आरोप में आकंठ घिरी वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व वाली यू पी ए -२ से जनता त्रस्त है और विकल्प चाहती है. भाजपा दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी है. मोदी उभरते माध्यमवर्गीय भारतवासियों को कई तरह से संतुष्ट करते है और उनकी २००२ के गुजरात दंगों वाली छवि आज बौद्धिक जुगाली से अधिक कुछ नहीं है. देश इस वक्त राजाओं, कलमाडियों, कोयला घोटाला करने वालों से निजात चाहता है, देश महंगाई के बोझ से दबा जा रहा है चाहे हिन्दू हो या मुसलमान. प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता सम्प्रदाय नहीं देखती. राजा और शाहिद  बलवा मिलकर १.७६ लाख करोड़ रुपये का चूना दे लगा जाएँ, यह ना हिन्दुओं का सुहाता है ना मुसलमानों को, ना हीं पिछड़े या अति-पिछड़े वर्ग के लोगों को.     
लेकिन ८८ साल पुराने संगठन “संघ” से यह अपेक्षा नहीं थी कि एक छोटा सा नेतृत्व-परिवर्तन इतनी तकलीफदेह और बेपर्दा प्रसव –पीड़ा देगा जिसकी वज़ह से भाजपा का मूल दावा “पार्टी विद अ डिफरेंस” रातो-रात “पार्टी विद डिफरेंसेस” में तब्दील हो जायेगा. क्या इस संकट को आसानी से हल नहीं किया जा सकता था? क्या ज़रूरी था कि मोदी को शीर्ष पर लाने के पहले पार्टी के सबसे बड़े नेता आडवाणी को  ना केवल हाशिये पर रखा जाये बल्कि हर फैसले के बाद उनको इसका अहसास भी दिलाया जाये.
यह बात सही है कि संघ-भाजपा रिश्ते की केमिस्ट्री १९९० की आडवाणी रथ यात्रा के बाद की स्थितियों में बदली. वाजपेयी और आडवाणी का कद बढा जिसका पार्टी को लाभ मिला. नागपुर का वर्चस्व कम हुआ. करीब अगले डेढ़ दशक तक या यूं कहें कि तत्कालीन सरसंघचालक रज्जू भैया के सीन से हटने के  बाद से संघ का नेतृत्व अनुभव में भी और उम्र में भी इन नेता-द्वय से छोटा रहा.
केमिस्ट्री इतने बदली कि हाल के कुछ वर्षों पहले जब एक पत्रकार ने संघ के किसी शीर्ष नेता से बात करते हुआ कहा कि “कुछ भी हो आडवाणी का भाजपा को इस उंचाई तक लाने  में बड़ा योगदान है” तो उस संघ नेता का फौरी प्रश्न था “और आडवाणी को यहाँ तक लाने में किसका योगदान है?” यही समस्या है. संघ यह समझ रहा है कि वह आडवाणी पैदा करता है और आडवाणी को यह लग रहा है कि उनके आजीवन योगदान को संघ के लोग ना केवल नज़रंदाज़ कर रहें हैं बल्कि उसकी भरपाई भी नहीं हो रही है.     
लेकिन, आडवाणी जो हकीक़त आज नहीं समझ पा रहे हैं वह यह कि समय बदला, २००४ में या उसके बाद उनका चेहरा वोट नहीं ला सका है. वह स्टेट्समैन चाहे कितने हीं अच्छे हों, उनकी व्यक्तिगत सुचिता आज के भ्रष्ट राजनीतिक रेगिस्तान में चाहे कितनी हीं नखलिस्तान की तरह हो, भाजपा को इस मौके पर राजनीतिक लाभ नहीं दे सकती. चुनावी राजनीति में अच्छा स्टेट्समैन होना और वोट बटोरना दो अलग-अलग बातें हैं. संघ का प्रयोग इसी दिशा में है.
लेकिन क्या इसके लिए आडवाणी को हाशिये पर लाना ज़रूरी था? संघ एक अपेक्षाकृत बौने कद का अध्यक्ष पार्टी को देता है बगैर आडवाणी से कोई सलाह लिए, उसका अध्यक्षीय काल बढाने का उपक्रम करता है भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद, आडवाणी को फिर हाशिये पर रखा जाता है. मोदी को लाने के पहले कोई वैचारिक मंथन नहीं होता और अगर होता है तो आडवाणी को विश्वास में लिए बगैर. फिर मोदी अपने तरीके से कभी किसी संजय जोशी को हटवाते हैं तो कभी दागी अमित शाह को सीधे ना केवल महामंत्री बनाया जाता है बल्कि उसे उत्तर प्रदेश ऐसे बड़े राज्य की कमान दे दी जाती है. आडवाणी फिर दरकिनार कर दिए जाते हैं अगर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाये तो क्या यह सही नहीं होगा कि इतनी बार नज़रंदाज़ होने का बाद कोई भी रियेक्ट करेगा. आडवाणी तो फिर भी शालीन रहे.      
राजनीतिक दल चूंकि व्यक्ति और उनकी महत्वाकांक्षा का सकल योग होता है लिहाज़ा इसमें बदलाव, झंझावात, व्यक्तित्व की टकराहट, संस्था –व्यक्तित्व रसाकसी और तज्जनित चारित्रिक-सैद्धांतिक  परिवर्तन अपरिहार्य है. चिंता तब होनी चाहिए जब यह सब कुछ न हो रहा हो. क्योंकि तब यह डर रहता है कि दल कहीं अधिनायकवादी तो नहीं हो गया है. यह अलग बात है कि कैडर-आधारित दलों में यह पोलित ब्यूरो के माध्यम से बगैर जनता में जाये होता है और खुले दलों में यह थोडा बेलगाम तरीके से होता है और जनता को भी पता चलता रहता है.
अगर कम्युनिस्ट पार्टी श्रीपाद अमृत डाँगे सरीखे संस्थापक नेता को दरकिनार करती है और तथाकथित  वैचारिक आधार १९६४ में दो टुकड़ों में बाँट सकती है और कालांतर में इसके कई टुकड़े बिखरते है तो आजाद भारत में हीं कांग्रेस में नेहरु-टंडन टकराहट, वाम-दक्षिण धडों के नाम पर इंदिरा बनाम पुराने कांग्रेस नेताओं का झगड़ा, राजीव-वी पी सिंह टकराव, सोनिया-राव टकराव किसी से छिपा नहीं है.    
भारतीय जनता पार्टी में मोदी के नाम पर इतना बवेला मचना पार्टी में हो रहे कई किस्म के क्षरण का प्रतिफल है. हम इसे उदारवादी बनाम कट्टरवादी संघर्ष के रूप में देख सकते है, इसका विश्लेषण  व्यक्तिगत मह्त्वाकांछा बनाम संस्था के वर्चस्व के रूप में कर सकते हैं या फिर हम इसका आंकलन  संस्था की “इस्तेमाल करो और फेंको” की संस्था की नीति के रूप में भी कर सकते हैं. या हम इसे इन सबके सकल योग के रूप में देख सकते हैं. जैसे भी देखें एक बात साफ़ है वह यह कि भारतीय जनता पार्टी “पार्टी विद ए डिफरेंस” नहीं है. सत्ता व्यक्ति की शुचिता पर भारी पड़ता है, संस्था का अहंकार और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की टकराहट होती है.      
भावनात्मक मुद्दों पर आधारित राजनीति में तात्कालिक लाभ तो होता है परन्तु दूरगामी परिणति अपेक्षित नहीं होती. यह “न्याय का बदला” (नेमसिस) के सिद्धांत की शिकार होती है. भारतीय जनता पार्टी शायद इस समय इसी स्थिति से गुज़र रही है. पूरा का पूरा ढांचा इस द्वन्द में ---- आक्रामक हिंदुत्व बनाम उदारवादी (लिबरल) हिंदुत्व या यूं कहें कि विकासवादी हिंदुत्व --- घिरा हुआ है. हम कई बार इसे गलती से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भारतीय जनता पार्टी पर वर्चस्व, पार्टी के आधार स्तम्भ लालकृष्ण आडवाणी की पदलोलुपता-जनित छटपटाहट , या संघ –आडवाणी विभेद या आडवाणी कैंप बनाम मोदी-राजनाथ कैंप मान कर विश्लेषण करते हैं. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की गोवा में रविवार को संपन्न त्रि-दिवसीय राष्ट्रीय सम्मलेन का निष्कर्ष पार्टी के इस भ्रम-द्वन्द को परिलक्षित करता है. 
संघ जैसे अनुभवी और अनुशासित संगठन से प्रतिकार और प्रतिक्रिया के रूप में फैसले लेना अनुचित था. बेहतर तो यह होता कि आडवाणी की स्टेट्समैन की और ईमानदार नेता की छवि और मोदी की विकासपुरुष की इमेज को साथ लेकर चुनाव में भाजपा को उतारता. लेकिन लगता है संगठनों में भी हाड़-मांस के हीं लोग होते हैं , उनमें भी मानवोचित दुर्गुण होते हैं.    

bhaskar

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