Friday, 22 March 2013

संजू बाबा की सजा और क्षमा दान की वकालत



लगभग ५३ वर्षीय संजू बाबा (कन्फ्यूज ना होइएगा बाबा उपरी वर्ग में बच्चों को कहा जाता है और चूंकि बड़े आदमियों के बेटों को बूढ़े होने तक भी बचपन के नाम से बुलाया जाता है यह बताने के लिए कि संबोधन करने वाला कितना करीबी है लिहाजा फिल्म स्टार संजय दत्त अभी भी संजू बाबा हैं)  को २० साल बाद सजा हुई. देश का एक वर्ग, जिसमे संभ्रांत-व्रगीय चरित्र वाले लोग हैं, जार-जार रोये. फिल्म निर्माता महेश भट्ट और सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश से लेकर संजू बाबा को फिल्म में गांधीगीरी करते हुए प्रभावित होने वाला मध्यम वर्ग, इन सबने कहा कि “संजू बाबा अब बदल गए हैं और कोई तुक नहीं है कि एक बदले हुए व्यक्ति को फिर उसी गर्त में धकेला जाये”. क्षमा-दान की व्यवस्था का हवाला दिया गया.
अल्प-शिक्षा-जनित अतार्किकता वाले समाज में समुन्नत प्रजातंत्र के ढांचे थोपने का यही नतीजा होता है. हमरे अन्दर कब भावनाएं हिलोरे लेने लगे और हम कब “मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के नाम पर” ढांचा गिरा दें और कब राजीव गाँधी को बिन माँ का “बेटा” समझ या सोनिया गाँधी को “अबला” समझ कर दाता भाव से वोट दे दें इसका भरोसा नहीं. राष्ट्र-भक्ति से ओतप्रोत होकर हम “अभी जाओ और पाकिस्तानी सैनिकों का सर काट कर बता दो कि भारत महान है” का भाव ले लेते हैं. देश में हर मिनट पांच साल से कम आयु वाले तीन बच्चे दम तोड़ देते है या हर मिनट देश के उद्योगपतियों को ७० लाख रु की छूट दे देते हैं लेकिन इन बातों से हमें गुस्सा नहीं आता क्योंकि सिस्टम की खराबी समझने या शोषणवादी व्यवस्था को गहराई से जानने की हमारी सामूहिक सोच बनी हीं नहीं है. हमारी राष्ट्रभक्ति उस समय कुंद हो जाती है और हम किसी राजा या राजा भैया को अपने हीं हाथों से वोट दे कर संसद या विधान –सभा पहुंचा देते हैं. और हम खुश हो कर ताली बजाते हैं जब वह मंत्री बनने के पहले “भारतके संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा  की शपथ” लेता है. हमने अपने हाथों से वोट देकर वर्तमान लोक सभा में १६२ ऐसे सांसद भेजे हैं जिन पर गंभीर अपराध के मुकदमे विभिन्न स्तर पर चल रहे हैं.
तो संजू बाबा बदल गए. वह अपनी तीन बच्चों को पाल रहे हें, “वह समाज के प्रति सेवा का भाव रखते हैं और वह गांधीगिरी में विश्वास रखते है लिहाज़ा कोर्ट को उन्हें इस नए रूप को शाश्वत भाव में अंगीकार करने में संजू बाबा की मदद करनी चाहिए” आज प्रचलित तर्क (या कुतर्क) है. कुछ लोग इनसे भी ज्यादा लाल बुझक्कड़ है. “बीस साल तक यह कोर्ट कहाँ था. इतने दिनों में कितनी चीजें बदल गयो हैं और जब अपराधी भी बदल गया है तब कोर्ट जगती है” का सिस्टम पर प्रहार वाला भाव भी चल रहा  है. एक सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ने तो महाराष्ट्र के राज्यपाल से अपील भी कर दी और यही नहीं महामहिम को संविधान का अनुच्छेद १६१ में क्षमा-दान के अधिकार भी बता दिए.
अब जरा तस्वीर के दूसरे पहलू पर गौर करें. “संजू बाबा बदल गए” तो बहुतों को मालूम है, तस्दीक के लिए उन्होंने गांधीगिरी वाली फिल्म भे देखी है, बाबा को ड्रग एडिक्ट से हट कर मुन्ना भाई के रोल में देखा है और यह भी मालूम है कि पारिवारिक जिम्मेदारियां बखूबी निभा रहे हैं. लेकिन उसी दौरान गरीबों की झुग्गी से भी एक युवक इसी दफा में बंद हुआ था और उसने भी अपने जीवन को पूरी तरह बदलने की कोशिश की लेकिन हर बार पुलिस पुराने रिकॉर्ड खंगाल कर किसी ना किसी दफा में अन्दर कर देती थी. अगर मान लीजिये अन्दर नहीं भी किया तो जिंदगी की जद्दो-जहद में वह जूझता हुआ बच्चों को पालता रहा (अमेरिका में त्रिशला के पालन-पोषण की तरह नहीं ---संजू बाबा की तीन पत्नियों में पहली पत्नी से पैदा त्रिशला). लेकिन चूंकि वह सुनील दत्त –नर्गिस का बेटा नहीं था और ना हीं उसे सबसे बड़ी अदालत से जमानत मिली थी (वहां तक जाने की हैसियत सब में नहीं होती) तो किसी ने भी उसकी गांधीगिरी नहीं देखी –ना तो महेश भट्ट साहेब ने ना हीं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज साहेब ने और ना हीं उस माध्यम वर्ग ने जो रोटी जीत कर संजू बाबा से भावनात्मक नजदीकी दिखा कर यह बताना चाहता है कि सिस्टम ऊपर के वर्ग के लिए नहीं नीचे वालों के लिए है. “संजू तो बदल गए झुग्गी वालों को जेल में डालो वो कमबख्त ख़ाक बदलेंगे, मालूम नहीं बदलने के लिए फिल्म में काम करना पड़ता है , उसमे गांधीगिरी करनी पड़ती है और फिर नर्गिस के कोख से जन्म लेना पड़ता है?” ये भाव स्पष्ट नज़र आते हैं ऐसे भौंडे तर्कों में.
इस कुतर्क को आगे बढाएं. अगर अपराध करने के बाद अपराधी का बदलना या ना बदलना कोई मायने रखता हो तो कसाब को भी छोड़ कर देखा जाता, एक-आध अच्छी फ़िल्मों में लीड रोल दी जाती और अगर वे बॉक्स ऑफिस पर सफल होती तो कसाब आज दुनिया में होता—गांधीगिरी करता हुआ. याकूब मेमन को भी बदलने का मौका नहीं मिला. दाऊद को भी भारत निमंत्रण देकर बुलाया जाये और २० साल देखा जाये संत बना कर. और अगर आशाराम से ज्यादा भीड़ “संत” दाऊद की सभाओं में हो तो उसे दोषमुक्त कर दिया जाये या क्षमादान देने की वकालत की जाये.  
परन्तु ये तो बदल जायेंगे पर उन २५७ परिवारों का क्या होगा जो जिनके सदस्य पहले से बदले हुए थे और अकारण १९९३ के सीरियल ब्लास्ट में मारे गए. उनके पत्नी और बच्चों का क्या होगा जो अनाथ  हो कर न तो पढ़ सके ना हीं अच्छे नागरिक का सर्टिफिकेट देने वाले फ़िल्मी दुनिया में जा सके. अभाव अक्सर अपराध की दुनिया में धकेलता है. क्या इनमे से कुछ उस दुनिया में नहीं चले गए होंगे या गुमनाम जिंदगी की जद्दो-जेहद में लग गए होंगे?  
देश की जेलों में आज लगभग १५ लाख कैदी है जिनमे लगभग तीन लाख सजायाफ्ता हैं और करीब १२ लाख विचाराधीन हैं. इनमें से कितनों के बारे में यह जानने की कोशिश हुई कि अपराध करने के बाद या आरोप लगने के बाद कौन कितना सुधरा. फिर इस सुधार का पैमाना क्या होगा –फिल्म में गाँधीगिरी या कई शादियाँ या बच्चे को अमरीका में पढ़ाना या अमर सिंह के साथ चुनाव सभाओं में भाषण देना. और कितनों को यह मौका मिलेगा?
जरा अंतिम तथ्य पर गौर करें. इस देश की निचली अदालतों में अगर तीन मुकदमें फौजदारी (आपराधिक) के होते हैं तो महज एक दीवानी (धन-संपत्ति का) का. लेकिन जैसे हीं हम उपरी अदालतों की स्थिति देखते है तो यह अनुपात उल्टा हो जाता है. यानी जो अपराध का दोषी है उनमें से तीन में से दो निचली अदालतों से सजा पाने पर सामर्थ्य के अभाव में अपील भी नहीं कर पाते जबकि धनवानों में हर तीन में दो अपनी पूँजी-संपत्ति के लिए बड़े अदालत-दर-अदालत जाता है.
इस का मतलब मुन्ना भाई की तरह वह टाडा कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील में सर्वोच्च न्यायलय नहीं आ पाता और जेल की सलाखों में बाकि जिंदगी काट लेता है बगैर अपने को गांधीगिरी पर हाथ आज़माने का एक भी मौका पाए. उसके लिए ना तो कोई महेश भट्ट टीवी चैनलों में आंसू बहते हैं ना हीं कोई पूर्व जज राज्यपाल को उनके क्षमादान के अधिकार की याद दिलाता है.           

jagran   

1 comment:

  1. What has happened to our rational thinking? We have placed Nirbhaya the victim of rape at par with Rani Laxmi Bai and Modi with Patel.Sanjay Dutt a film actor has emerged as Hero and Court as villain. Rahul Gandhi has been declared natural choice for the post of PM.It hardly matters that gentleman wants it or not. The author has nicely placed all the hidden fire in his heart for being from lower middle class. He has given voice to mango man.

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